Wednesday, December 29, 2010

हो गई है पीर पर्वत-सी

नवनीत गुर्जर

मौजूदा स्थिति भयावह है। सरकारी बयान। घोषणाएं। फैसले। इन सब को एक साथ देखें तो गुर्जरों का आरक्षण हिमालय से कम नहीं। ऊपर। बहुत ऊपर। चारों तरफ बर्फ है। ...और सबसे ऊंची चोटी पर पड़ी हैं नौकरियां। सरकार उनकी तरफ एक कल्पनातीत (नोशनल नहीं लिखने के लिए क्षमा सहित) इशारा तो कर रही है। ...लेकिन उस ऊंची चोटी, जहां आरक्षण चमचमा रहा है। हिमालय का वह शिखर जहां काल्पनिक नौकरियां पड़ी बर्फ फांक रही हैं, उसका रास्ता कोई सरकारी गोमती नहीं बताती।

हिमालय की अपनी मर्यादा है। वह झुक नहीं सकता। सरकार और उसके तंत्र की अपनी आदत है। वह राजनीति से बाज नहीं आ सकता। ऐसे में गुर्जरों के पास आरक्षण हासिल करने या नौकरियां पाने के लिए हिमालय पर चढऩे के अलावा चारा क्या है? यहां तमाम आंदोलनकारियों और इस आंदोलन से परेशानी उठा रहे लोगों के पास समाधान का एक ही रास्ता है। उस ऊंची चोटी से कोई गंगा निकले और आरक्षण या नौकरियां पिघलकर नीचे आ जाएं। गुर्जर तो पटरी से हटने को तैयार बैठे हैं। ...तो देर किस बात की। याद कीजिए-महान कवि दुष्यंत, और उनकी यह कविता...

‘हो गई है पीर पर्वत-सी

पिघलनी चाहिए,

इस हिमालय से कोई गंगा

निकलनी चाहिए।’

लेखक दैनिक भास्कर राजस्थान के स्टेट एडिटर हैं

Tuesday, December 28, 2010

सरकारें होती ही इसलिए हैं, कि बैसला आंदोलन कर सकें

नवनीत गुर्जर

शरद जोशी ने लिखा था- देश में नदियां होती हैं। नदियों पर पुल बने होते हैं। पुल इसलिए होते हैं, कि नदियां उनके नीचे से निकल सकें। कहा जा सकता है कि राजस्थान में लोग होते हैं। लोगों की एक सरकार होती है। सरकार इसलिए होती है कि कुछ लोग आंदोलन कर सकें और वे आंदोलनकारी बाकी लोगों के जीवन की तमाम पटरियां उखाड़ सकें।

दरअसल, आंदोलन तेज होने पर जो सरकार शांति की अपील और वार्ताओं के दौर चलाने में जितनी मुस्तैदी दिखाती है, वही सरकार आंदोलन खत्म होने पर उतनी ही सुस्त हो जाती है। कहते हैं- बैर क्रोध का अचार या मुरब्बा होता है। सरकारें ही आंदोलनकारियों के क्रोध को बैर में तब्दील करती हैं। बैर भी इस हद तक, कि एक गुर्जर मंत्री अपना इस्तीफा सौंपकर उन्हें मनाता है, वे तब भी नहीं मानते।

गुर्जरों का कहना है कि उनके साथ अन्याय, घोर अन्याय हुआ है। अगर गुर्जरों की ही मानें, तो क्या पूरे भारत या पूरे राजस्थान की, समूची व्यवस्था ही अन्यायपूर्ण है? गुर्जरों के संदर्भ में यह तर्क हो सकता है। ...लेकिन पूरे राजस्थान के संदर्भ में यह कुतर्क है।

राज्य सरकार का कहना है कि वह गुर्जरों की पीड़ा से सहमत है और जल्द ही इसका हल करने को तत्पर। हकीकत यह है कि एक सरकार गई। दूसरी आ गई। लेकिन दोनों की तत्परता पांच साल से बेपरवाही की किसी सूखी बावड़ी से पानी भरती रही।

...तो क्या राजस्थान के गुर्जरों की समस्या भारत-पाकिस्तान के बीच कश्मीर की तरह है?...और क्या बैसला, बैसला नहीं, अमानुल्ला खां हैं, जो आधे कश्मीर पर राज करने को स्वतंत्र हैं? और हम सब किंकर्तव्यविमूढ़?

नहीं। ऐसा नहीं है। कतई नहीं। सरकारें वादे करती रहीं। पूरे किसी ने नहीं किए। न उस सरकार ने। न इस सरकार ने। पूरे राज्य की सांस अटकाने के लिए दोषी बैसला हैं, तो सरकार भी है। हम राजस्थानियों का न्यू ईयर बिगाडऩे के दोषी बैसला हैं तो उतनी ही जिम्मेदार सरकार भी है। ये सरकार भी। वो सरकार भी। बैसला को शायद इसलिए ज्यादा जिम्मेदार कहा जा सकता है कि आंदोलन से पाई प्रसिद्धि को उन्होंने एक राजनीतिक दल के टिकट के रूप में भुनाना चाहा। हैरत इस बात की है कि ऐसे आंदोलनों में भी सत्ता में बैठे दल आम आदमी के बारे में सोचने के बजाय आंदोलन से उभरते नेताओं में अपनी पार्टी की एक लोकसभा सीट ढूंढ़ते नजर आते हैं।

बड़ी हैरत इस बात की है कि छोटे से लेकर शीर्ष पदों तक जातीय गणित देखने वाली सरकार के पास किसी जातीय आंदोलन से दो-चार होने की इच्छाशक्ति ही नहीं है। दरअसल, ऐसी स्थितियां तब होती हैं जब सरकार खुद कोई निर्णय लेने के बजाय हर स्थिति में व्यवस्था के किसी और तंत्र के आदेश के लिए उतावली लगती है। निश्चित तौर पर वह तंत्र सर्वमान्य है। लेकिन सरकार भी तो कुछ करे! अगर नहीं करना चाहती, तो उसकी जरूरत ही क्या? वह है ही क्यों?

लेखक दैनिक भास्कर राजस्थान के स्टेट एडिटर हैं

Saturday, December 25, 2010

बदलते मतदाताओं की पहली दस्तक

बड़े नेताओं के विरोध के बावजूद जीते कांग्रेसी, क्या मतदाताओं ने भाजपा से दूरी बनाया
मृगेंद्र पांडेय

छत्तीसगढ़ में नगर पालिका के चुनाव ने कुछ नए संकेत दिए हैं। रमन सिंह की सरकार बनने के बाद से ही किनारे होते जा रही कांग्रेस को नई ऊर्जा मिली है। मुख्यमंत्री आवास से १५ किलोमीटर दूर भाजपा की सत्ता उड़ गई। बिरगांव नगर पालिका में भाजपा न तो अध्यक्ष पद पर कब्जा कर पाई, न ही पार्षद पद को ही अपनी पाले में लाई। यह संकेत मतदाताओं के बदलते मिजजा की पहली दस्तक है। भाजपा जिस विकास की बात करती है, दरअसल मतदाताओं को वह होता नजर नहीं आ रहा है। अगर विकास की बात ही होती तो यहां छह महीने तक भाजपा का अध्यक्ष था। उसे भी पार्टी ने उम्मीदवार भी बनाया था। फिर भाजपा की हार कैसे हो गई।

भाजपा लगातार छत्तीसगढ़ को विश्वसनीय बताने में लगी है। मुख्यमंत्री रमन सिंह से लेकर अधिकरी-मंत्री सब विश्वसनीय होने का पाठ पढ़ रहे हैं। लेकिन जनता की अदालत उनकी विश्वसनीयता की पोल खोल रही है। बिरगांव में कांग्रेस उम्मीदवार पर करोड़ों रुपए के गबन का आरोप था। उसके जेल जाने को भाजपा ने बड़े जोर-शोर के साथ प्रचारित किया। यही नहीं, कांग्रेस के बड़े नेताओं जैसे विद्या भैया का समर्थन भी उसे नहीं था। बावजूद इसके ओमप्रकाश देवांगन ने जीत दर्ज की। विधानसभा चुनाव में बिरगांव में कांग्रेस को वोट नहीं मिलने के कारण कांग्रेस के कद्दावर मंत्री सत्यनारायण शर्मा को हार का सामना करना पड़ा था।

अब बात भिलाई नगर निगम की। यहां भी कांग्रेस उम्मीदवार निर्मला यादव ने भाजपा की हेमलता वर्मा को पांच हजार से ज्यादा वोट से हराया। हेमलता पर भिलाई की दिग्गज भाजपा नेता सरोज पांडे का हाथ था। प्रचार अभियान के दौरान सरोज ने हेमलता के पक्ष में पूरा जोर लगाया। जबकि निर्मला यादव को मोतीलाल वोरा के समर्थन के कारण टिकट दिया गया। जिस समय निर्मला को टिकट दिया गया, रायपुर में कांग्रेस भवन के बाहर पूर्व महापौर नीता लोधी डेरा डाले हुए थी। निर्मला के नाम पर पहली नाराजगी बदरुद्दीन कुरैशी ने जताई, जब बैठक में उनका नाम आया। नीता ने निर्दलीय पर्चा भी भर दिया। बावजूद इसके जीत निर्मला की ही हुई।

बिरगांव और भिलाई के चुनाव बताते हैं कि कांग्रेस उम्मीदवार का पार्टी में ही भारी विरोध था। दोनों बड़े नेताओं के गले नहीं उतर रहे थे। नेताओं ने प्रचार में भी पूरी तरह से साथ नहीं दिया। तो क्या यह माना जाए कि दोनों कांग्रेसी व्यक्तिगत छवि के आधार पर जीते हैं। यह सच नहीं हो सकता है, क्योंकि ओमप्रकाश पर गबन का आरोप था और निर्मला की कोई अलग पहचान नहीं थी। मतलब साफ है कि मतदाताओं ने अपना काम करना शुरू कर दिया है। अब बारी भाजपा की है। अगर वह मतदाताओं की नब्ज को भांप जाती है, तो तीसरी पारी आसान होगी, वर्ना जनता के लिए कांग्रेस एक आसान विकल्प है ही।

Thursday, December 9, 2010

बनारस: बना रहे रस

मृगेंद्र पांडेय
पिछले २७ साल में जब से यह जानने लगा हूं कि क्या सही है और क्या गलत तब से बनारस के बारे में सोच रहा हूं। पिछले कुछ साल से भले ही बनारस में नहीं रहा, लेकिन उसके पल-पल की खबर लेते रहा हूं। संकट मोचन वाले हनुमान जी पर जब संकट के बम फटे थे, तब मैं दिल्ली में था। रेलवे स्टेशन से लेकर पूरे शहर में खून ही खून नजर आ रहा था। समाचार चैनल हर पल की रिपोर्ट दे रहे थे। लोगों को लगा कि अयोध्या मामले के बाद एक बार फिर बनारस में विवाद की स्थिति पैदा हो जाएगी, लेकिन बनारस की समझ ने लोगों की आशंकाओं को सिरे से खारिज कर दिया। उस समय भी बनारस ने बताया था कि उसकी आत्म उन आतंकियों से कई गुना ज्यादा मजबूत है, जो सिर्फ हैवानियत की भाषा जानते हैं।

मंगलवार को भी ऐसा ही करने की कोशिश की गई। बनारस में गंगा आरती का अपना ही महत्व रहता है। दूर-दूर से लोग सिर्फ गंगा आरती को देखने के लिए आते हैं। लोगों की आस्था से जुड़ी है गंगा आरती। उस आस्था को तोडऩे की कोशिश की गई। पहली बार बाबा विश्वनाथ, फिर संकट मोचन और अब गंगा मईया। हर बार उनको मुंह की खानी पड़ी। बीबीसी के दिल्ली ब्यूरो चीफ मार्क टूली ने अपनी एक किताब में अयोध्या हादसे के बाद लिखा था कि बनारस में कोई भी दंगा नहीं चाहता। न तो हिंदू अयोध्या में मंदिर बनाने के लिए पहल कर रहे हैं, न ही मुस्लिम मस्जिद के लिए जेहाद छेडऩे की तैयारी में है। मतलब साफ था कि हमारा बनारस किसी के बहकावे में आने वाला नहीं है।

लंबे समय बाद हुए धमाकों ने सरकार और खूफिया विभाग को भी सोचने पर मजबूर कर दिया कि आखिर वे सुस्त हैं। उत्तर प्रदेश में चुनावी बयार शुरू होने वाली है। इस धमाके को उस चुनावी बयार की दस्तक के रूप में भी देखा जा रहा है। बनारस के लोगों को लगने लगा है कि यह राजनीतिक लड़ाई है। ऐसे में साफ है कि राजनीतिक दल इसका लाभ लेने की पूरी कोशिश करेंगे। लेकिन हमें उम्मीद है कि हमारे बनारस का रस बना रहेगा, चाहे वह आतंकी लड़ाई हो या फिर राजनीतिक।

Friday, November 12, 2010

मां की गोद में २४ साल का बच्चा

राजभवन का पत्र कलेक्टोरेट की फाइलों में गुमा

मृगेंद्र पांडेय

आर्थिक तंगी के चलते अपने 24 साल के बेटे का इलाज न करा पाने के कारण एक मां आज उसे गोद में उठाकर दर-दर भटकने को मजबूर है। राज्यपाल, मुख्यमंत्री, मंत्री व विधायक, सभी के दरवाजों पर उसने अपना दुखड़ा सुनाया, पर कहीं से उम्मीद की किरण नहीं दिखाई दी। कुछ दिनों पहले राजभवन से कलेक्टोरेट एक पत्र आया था, जिसमें उसकी मदद की बात कही गई है, लेकिन वह पत्र भी फाइलों में दबकर कहीं गुम हो गया है। वह मां अब बेटे का इलाज छोड़कर उस पत्र की खोज में जुट गई है।

राजिम के पास कोपरा गांव की रहने वाली सकुन बाई अपने बेटे गोविंद साहू को लेकर कलेक्टोरेट में आफिस दर आफिस भटक रही है। गुरुवार को वह कलेक्टर से मिलने आई थी, लेकिन मुलाकात नहीं हो पाई। गोविंद को हड्डी संबंधी कोई बीमारी है। इससे उसकी लंबाई डेढ़ फीट से ज्यादा नहीं बढ़ी। वजन भी सिर्फ दस किलो ही है। वह न तो खुद खाना खा सकता है, न ही अपना कोई काम कर सकता है। हालांकि उसका दिमाग पूरी तरह ठीक है और उसने कक्षा पांचवीं तक की पढ़ाई भी की है।

पिता की मौत के बाद टूट गया परिवार

गोविंद के पिता की मौत के बाद यह परिवार पूरी तरह टूट गया है। छह भाई-बहन के इस परिवार में गोविंद और उसकी एक बहन इस रोग से पीडि़त हैं। पिता सेवाराम ही घर का खर्च चलाते थे। उनकी मौत के बाद सकुन बाई रोजी-मजदूरी करके किसी तरह बच्चों को पाल रही है।

इनके दरों पर कर चुकी फरियाद

बेटे के इलाज को लेकर सकुन बाई अब तक कई बड़े नेताओं से मिल चुकी है। उसने बताया कि छह माह पहले वह राज्यपाल से मिली थी। मुख्यमंत्री रमन सिंह को दो बार ज्ञापन सौंप चुकी है। पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी, सांसद चंदूलाल साहू, कांग्रेस अध्यक्ष धनेंद्र साहू और मोतीलाल साहू ने भी मुलाकात के दौरान सिर्फ आश्वासन दिया।

कोई तो मेरी मदद करो

गोविंद ने कहा कि मैं किसी नेता-मंत्री के काम का नहीं हूं, इसलिए कोई मेरी मदद नहीं करता। मेरा नाम वोटर लिस्ट और राशनकार्ड में नहीं है। नेताओं के चक्कर काटने पर भी कुछ नहीं हुआ। सरकार से सिर्फ एक ही गुजारिश है कि मेरी मदद करे। मेरा इलाज करा दे, पालन-पोषण के लिए सहयोग करे।

Saturday, November 6, 2010

काली दिवाली कब तक




आखिर कब सॊचेंगे हम






मृगेंद्र पांडेय

सरकार आखिर मजदूरॊं के बारे में क्यॊं नहीं सॊचती। सभी सरकार चाहे वॊ किसी भी प्रदेश की ही क्यॊं न हॊ आम आदमी का सिर्फ वॊट लेती है। उनके बारे में सॊचने का समय नहीं है। ऐसी सरकार कॊ हम कब तब झेलेंगे। अगर आज हम चुप रहेंगे तॊ कल हमारी बारी है। अपनी बारी आने से पहले कुछ ऐसा करने की जरूरत है कि सरकार सॊचे। नहीं तॊ लॊकतंत्र में हमें अपने बारे में सॊचना पडेगा।

राजस्थान से आई कुछ तस्वीर आप लॊग जरूर देखें।

Wednesday, November 3, 2010

इस देश की सुरक्षा को खतरा किससे है?

आनंद प्रधान

कल अरुंधती के घर पर हमले की निंदा करती टिप्पणी के लिंक को फेसबुक पर डालते हुए मुझे यह आशंका तो थी कि मेरे कई दोस्तों को इसपर आपत्ति होगी. यह अंदाज़ा भी था कि कई मित्र जो अरुंधती के विचारों से सहमत नहीं हैं, वे इस हमले से ज्यादा अरुंधती के विचारों को मुद्दा बनाएंगे लेकिन मुझे इसका अंदाज़ा नहीं था कि कश्मीर के सवाल पर देशभक्ति इतनी जल्दी अंध देशभक्ति में बदल जाती है कि तथ्यों को भी तोड़-मरोडकर पेश किया जायेगा.

फेसबुक पर चली बहस में समय की कमी कारण मैंने कुछ खास हस्तक्षेप नहीं किया लेकिन उनमें से कुछ मुद्दों का जवाब जरूर देना चाहता हूँ लेकिन आज नहीं. कोशिश करूँगा कि समय मिल सके तो कल कुछ लिखूं. लेकिन आज पाश की एक कविता जरूर यहां रखने चाहता हूँ जो उन्होंने ८० के दशक के मध्य में लिखी थी जब देश में पंजाब के आतंकवाद को लेकर जबरदस्त युद्धोन्माद का माहौल था.

हमें देश की सुरक्षा से खतरा है
• अवतार सिंह पाश

यदि देश की सुरक्षा यही होती है

कि बिना जमीर होना जिंदगी के लिए शर्त बन जाये
आंख की पुतली में हां के सिवाय कोई भी शब्द
अश्लील हो
और मन बदकार पलों के सामने दंडवत झुका रहे
तो हमें देश की सुरक्षा से खतरा है.


हम तो देश को समझे थे घर-जैसी पवित्र चीज
जिसमें उमस नहीं होती
आदमी बरसते मेंह की गूंज की तरह गलियों में बहता है
गेहूं की बालियों की तरह खेतों में झूमता है
और आसमान की विशालता को अर्थ देता है
हम तो देश को समझे थे आलिंगन-जैसे एक एहसास का नाम
हम तो देश को समझते थे काम-जैसा कोई नशा
हम तो देश को समझते थे कुरबानी-सी वफा


लेकिन गर देश
आत्मा की बेगार का कोई कारखाना है
गर देश उल्लू बनने की प्रयोगशाला है
तो हमें उससे खतरा है


गर देश का अमन ऐसा होता है
कि कर्ज के पहाड़ों से फिसलते पत्थरों की तरह
टूटता रहे अस्तित्व हमारा



और तनख्वाहों के मुंह पर थूकती रहे
कीमतों की बेशर्म हंसी
कि अपने रक्त में नहाना ही तीर्थ का पुण्य हो
तो हमें अमन से खतरा है


गर देश की सुरक्षा को कुचल कर अमन को रंग चढ़ेगा
कि वीरता बस सरहदों पर मर कर परवान चढ़ेगी
कला का फूल बस राजा की खिड़की में ही खिलेगा
अक्ल, हुक्म के कुएं पर रहट की तरह ही धरती सींचेगी
तो हमें देश की सुरक्षा से खतरा है.

Monday, November 1, 2010

अरुंधती पर हमला: अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर नाज करनेवाले कहां हैं?

“देशभक्ति, लम्पट-बदमाशों की आखिरी शरणस्थली है.”
- सैमुअल जॉन्सन

आनंद प्रधान

लेखिका अरुंधती राय के घर पर भाजपा के महिला मोर्चे के कार्यकर्ताओं द्वारा हमले और तोड़फोड़ पर किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए. उन्होंने अरुंधती को पहले से ही ‘राष्ट्रद्रोही’ घोषित करते हुए सबक सिखाने की धमकी दे रखी थी. बजरंग दल के एक नेता के मुताबिक उन्हें पता है कि अरुंधती जैसों को कैसे ठीक किया जाता है. उसने संकेतों में ही अपनी एक रणनीति का खुलासा भी किया था कि देश भर में अरुंधती के खिलाफ देशद्रोह के मुकदमे दायर किए जा सकते हैं.

जाहिर है कि इस बजरंगी का संकेत एम.एफ हुसैन को सबक सिखाने से था. यह किसी से छुपा नहीं है कि किस तरह से परेशान करने के लिए हुसैन के खिलाफ पूरे देश में कई जगहों पर अदालतों में मुक़दमे दायर किए गए थे. उनपर और उनकी पेंटिंग प्रदर्शनियों पर हमले किए गए. हालत यह हो गई कि ९० साल की उम्र में हुसैन को देश छोड़कर लन्दन और दुबई में रहना पड़ रहा है. अब अरुंधती निशाने पर हैं.


सांप्रदायिक फासीवादी संगठनों से और उम्मीद भी क्या की जा सकती है? उनका इतिहास यही है. उनके लिए देशभक्ति वह गंगा है जिसमें वे अपने सभी पाप धोते हैं. देशभक्ति की आड़ में ही उनका गुजरात जैसे सैकड़ों जनसंहारों, रक्षा सौदों में दलाली-घूसखोरी, कर्नाटक-झारखण्ड जैसे राज्यों में खान माफियाओं की सरपरस्ती का काला कारोबार चलता है. बजरंग दल जैसे संगठन तो पहले से ही गांव और मोहल्ले के लफंगों-बदमाशों और शोहदों के गिरोह हैं.

लेकिन आज जब इन सभी के पितृ संगठन आर.एस.एस के एक बड़े नेता इन्द्रेश कुमार का नाम अजमेरशरीफ के बम धमाकों में आ रहा है तो इनकी देशभक्ति कुछ ज्यादा ही जाग पड़ी है. आश्चर्य नहीं होगा अगर आनेवाले दिनों में आर.एस.एस के नेतृत्व में इस देशभक्ति ब्रिगेड के हमले और बढ़ें. जाहिर है कि अरुंधती के कश्मीर पर दिए बयान सिर्फ एक बहाना हैं.


लेकिन इस मामले में सबसे अधिक हैरानी और निराशा पुलिस, अदालतों और सरकार के रवैये से होती है. सवाल है कि ऐसे हर हमले के समय चाहे वह अरुंधती के घर पर हो या हुसैन पर या पार्कों-पबों-कालेजों में प्रेमी युगलों पर या सिनेमा घरों पर या समाचार पत्रों-चैनलों के दफ्तरों पर- पुलिस या तो जानकारी के बावजूद वहां देर से पहुंचती है या खामोश तमाशा देखती रहती है.

इसी तरह से अदालतें यह जानते हुए भी कि ये मुकदमे अगंभीर, सतही और सिर्फ तंग करने के लिए दायर किए गए हैं, उन्हें खुशी-खुशी एंटरटेन करती हैं, सम्मन और कई बार गिरफ़्तारी के वारंट जारी कर देती हैं और सांप्रदायिक संगठनों का हौसला बढ़ाने में मददगार बन जाती हैं. लेकिन यही अदालतें लेखकों, कलाकारों और बुद्धिजीवियों पर खुले और परोक्ष हमलों को अनदेखा करती रहती हैं जबकि उनसे अभिव्यक्ति की आज़ादी की रक्षा करने की उम्मीद की जाती है.

विडम्बना देखिये कि यह सब राष्ट्रभक्ति और उस संविधान की रक्षा के नाम पर हो रहा है जिसमें हर नागरिक को अभिव्यक्ति की आज़ादी का मौलिक अधिकार मिला हुआ है. लेकिन सचमुच, इस देश की पुलिस, अदालतों, सरकार और मीडिया पर तरस आता है कि उन्होंने सांप्रदायिक फासीवादी संगठनों को इस आज़ादी की सीमाएं तय करने का ठेका दे दिया है. अब ये संगठन तय कर रहे हैं कि किसका बयान और आचरण राष्ट्रभक्ति, नैतिकता और धार्मिक आस्थाओं के दायरे से बाहर है और उसे क्या सबक सिखाया जाना चाहिए?


लेकिन यू.पी.ए सरकार के बारे में क्या कहा जाए? खुद को धर्मनिरपेक्ष बतानेवाली इस कांग्रेसी सरकार ने जिस तरह से सांप्रदायिक शक्तियों के आगे घुटने टेक दिए हैं और उन्हें देशभक्ति का ठेका दे दिया है, वह निराश और परेशान करनेवाला जरूर है लेकिन उसमें नया कुछ नहीं है. कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता जिस नरम हिंदुत्व पर खड़ी है, वह हमेशा आर.एस.एस के गरम हिंदुत्व के आगे समर्पण कर देती है.

इसी तरह, एक कथित ‘विदेशी’ सोनिया गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस के लिए देशभक्ति भी एक दुखती रग बन चुकी है. उसे हमेशा यह डर सताता रहता है कि कहीं आर.एस.एस-भाजपा कश्मीर के मामले में उसके जरा भी नरम रवैये के कारण उसकी ‘देशभक्ति’ पर सवाल न खड़ा कर दें. इस कारण यू.पी.ए सरकार ने अपनी कश्मीर नीति पूरी तरह से आर.एस.एस-भाजपा के हवाले कर दी है. हैरानी की बात नहीं है कि कश्मीर मुद्दे पर यू.पी.ए सरकार का राजनीतिक एजेंडा भाजपा-आर.एस.एस तय कर रहे हैं.


ऐसे में, इस कश्मीर नीति पर गंभीर और बुनियादी सवाल उठानेवाली अरुंधती राय को अगर कांग्रेस और यू.पी.ए भी देशद्रोही मानते हैं तो आश्चर्य कैसा? लेकिन अगर इस मुद्दे पर उदार, धर्मनिरपेक्ष, न्यायप्रिय, और जनतांत्रिक शक्तियां चुप रहीं तो तय जानिए कि अगली बारी आपमें, हममें से ही किसी की हैं.




जर्मन कवि पास्टर निमोलर की चंद पंक्तियां याद आ रही हैं:

“ पहले वे यहूदियों के लिए आये
मैं कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं यहूदी नहीं था


फिर वे कम्युनिस्टों के लिए आये
मैं कुछ नहीं बोला क्योंकि मैं कम्युनिस्ट नहीं था


फिर वे ट्रेडयूनियन वालों के लिए आये
मैं कुछ नहीं बोला क्योंकि मैं ट्रेड यूनियनवाला नहीं था


फिर वे मेरे लिए आये
और मेरे लिए बोलनेवाला कोई नहीं था...”

(कल इस मामले में मीडिया की भूमिका पर कुछ बातें)
teesraraasta.blogspot.com

Saturday, October 30, 2010

क्या लेकर आ रहे हैं ओबामा?

भारत पर परमाणु उत्तरदायित्व कानून में बदलाव से लेकर अमेरिकी कंपनियों के लिए अर्थव्यवस्था के दरवाजे खोलने का दबाव बढ़ रहा है

आनंद प्रधान

दिल्ली एक बार फिर सज रही है. खासकर संसद भवन को झाडा-पोछा और सजाया जा रहा है. संसद के कर्मचारियों की वर्दी को बदलने और उसे नया रंग देने पर विचार चल रहा है. पांच सितारा होटल आई.टी.सी मौर्या शेरेटन को तीन दिन के लिए बुक कर दिया गया है. पकवानों की सूची बन रही है. सुरक्षा बंदोबस्त को चुस्त-दुरुस्त किया जा रहा है. दिल्ली की ही तरह मुंबई में भी सडकों को ठीक किया जा रहा है. लब्बोलुआब यह कि सरकार मेहमानवाजी में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती है.

जाहिर है कि अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा कोई सामान्य मेहमान नहीं हैं. भारतीय शासक वर्गों ने जब से अमेरिका को अपना ‘स्वाभाविक मित्र’ मानते हुए उसके साथ अपना वर्तमान और भविष्य जोड़ लिया है, तब से उनके लिए हर अमेरिकी राष्ट्रपति का दौरा ईश्वरीय आगमन से कम नहीं होता है. नतीजा, यू.पी.ए सरकार ओबामा के स्वागत में बिछी जा रही है. ओबामा को खुश करने के लिए हर जतन किया जा रहा है. हालांकि वे नवंबर के पहले सप्ताह में भारत पहुंच रहे हैं. लेकिन इस यात्रा के लिए राजनीतिक और कूटनीतिक सरगर्मियां पिछले कई महीनों से जारी हैं. यात्रा की तैयारी में दोनों देशों के दर्जनों छोटे-बड़े अधिकारियों से लेकर मंत्रियों तक की आवाजाही लगी है.

हमेशा की तरह कारपोरेट मीडिया इस यात्रा को लेकर माहौल बनाने में जुट गया है. इस यात्रा से भारत-अमेरिका सामरिक और रणनीतिक मैत्री के और गहरे होने से लेकर ओबामा से भारत को और क्या मिल सकता है, इस बाबत कयास लगाये जा रहे हैं. कई देशी-विदेशी थिंक टैंक भारत-अमेरिका मैत्री का रोड मैप पेश करते हुए यह बताने में लग गए हैं कि इस दोस्ती को और मजबूत करने के लिए दोनों सरकारों को क्या करना चाहिए?


बुश प्रशासन के दो बड़े अधिकारियों से सजे थिंक टैंक- सेंटर फार ए न्यू अमेरिकन सेक्यूरिटी (सी.एन.ए.एस) ने बाकायदा एक परचा जारी करके इस बात की वकालत की है कि एशिया में चीन की बढ़ती ताकत से गड़बडाते शक्ति संतुलन को दुरुस्त करने के लिए भारत का मजबूत होना जरूरी है.

थिंक टैंक के मुताबिक इसके लिए अमरीका को न सिर्फ संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता के लिए भारतीय दावे का खुलकर समर्थन करना चाहिए बल्कि भारत को उच्च तकनीक के निर्यात पर लगे प्रतिबंधों को भी हटाना चाहिए. लेकिन अमेरिकी थिंक टैंक के अनुसार बदले में भारत को भी कुछ वायदे और नीतियों में परिवर्तन करना चाहिए. सी.एन.ए.एस के अनुसार भारत को तेजी से सिविल परमाणु समझौते को लागू करना चाहिए जो कि परमाणु उत्तरदायित्व सम्बन्धी विवादों के कारण लटक गया है.

दरअसल, अमेरिका चाहता है कि भारत हाल ही में संसद में पारित परमाणु उत्तरदायित्व कानून में संशोधन करके दुर्घटना की स्थिति में परमाणु रिएक्टर सप्लाई करनेवाली अमेरिकी कंपनियों के उत्तरदायित्व को कम करे. हालांकि परमाणु उत्तरदायित्व कानून उतना कठोर नहीं है, जितना उसे होना चाहिए था लेकिन इसके बावजूद परमाणु रिएक्टर और अन्य साजो-सामान सप्लाई करने को आतुर अमेरिकी कंपनियां- जेनरल इलेक्ट्रिक और वेस्टिंगहाउस आदि इस कानून के कई प्रावधानों को लेकर परेशान और नाराज हैं.

वे किसी भी तरह की जवाबदेही नहीं उठाना चाहती हैं. उन्हें सबसे अधिक आपत्ति परमाणु उत्तरदायित्व कानून की धारा १७(बी) को लेकर है. उनकी मांग है कि भारत सरकार को इस प्रावधान को हल्का करना चाहिए जो त्रुटिपूर्ण उपकरणों की आपूर्ति के कारण परमाणु दुर्घटना की स्थिति में भारतीय आपरेटर को सप्लायर के खिलाफ राइट टू रिकोर्स का अधिकार देता है.


अमेरिकी कंपनियां चाहती हैं कि उत्तरदायित्व कानून से यह प्रावधान हटाया जाए और अगर ऐसा करना संभव न हो तो भारत सरकार परमाणु बिजली संयंत्र के आपरेटर यानी न्यूक्लियर पावर कार्पोरेशन आफ इंडिया(एन.पी.सी.आई.एल) को द्विपक्षीय समझौते में यह अधिकार छोड़ते हुए अमेरिकी कंपनियों के खिलाफ इसका इस्तेमाल न करने का स्वैछिक ‘वचन’(अंडरटेकिंग) देने के लिए तैयार करे. हैरानी की बात यह है कि अमेरिकी कंपनियों की इस मुहिम में कुछ भारतीय कंपनियां भी शामिल हैं जो भारतीय परमाणु बिजली कारोबार के बाज़ार में अपना हिस्सा तो चाहती हैं लेकिन दुर्घटना की स्थिति में सीमित और न्यूनतम उत्तरदायित्व के लिए भी तैयार नहीं हैं.

यही नहीं, अमेरिकी कंपनियां यू.पी.ए सरकार पर यह भी दबाव बनाये हुए हैं कि परमाणु उत्तरदायित्व कानून को प्रचलित करने के लिए बनाये जानेवाले नियमों, विनियमों और प्रक्रियाओं को हल्का और ढीला रखा जाए. साफ है कि ये बड़ी और प्रभावशाली अमेरिकी कंपनियां भारतीय संसद द्वारा पास कानून और उसकी भावना के विपरीत उसे बेमानी बनाने पर तुली हुई हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि राष्ट्रपति ओबामा और उनका प्रशासन अमेरिकी कंपनियों की इस मुहिम के साथ खुलकर खड़ा है.

वह हर तरह से भारत को घेरने की कोशिश कर रहा है. इसी रणनीति के तहत ओबामा प्रशासन भारत पर दबाव डाल रहा है कि वह परमाणु संधि को लागू करने के लिए पहले अंतर्राष्ट्रीय कन्वेंशन आन सप्लीमेंट्री कंपनसेशन फार न्यूक्लियर डेमेज (सी.एस.सी) पर हस्ताक्षर करे. भारत इसके लिए तैयार है लेकिन अमेरिका का कहना है कि इसपर हस्ताक्षर करने से पहले भारत को अपने परमाणु उत्तरदायित्व कानून को इसके प्रावधानों के अनुकूल बनाना होगा.

ओबामा की यात्रा की तैयारी के सिलसिले में हाल ही में भारत आये राजनीतिक मामलों के विदेश उपमंत्री विलियम बर्न्स ने साफ संकेत दिया कि भारतीय परमाणु उत्तरदायित्व कानून सी.एस.सी के प्रावधानों के मुताबिक नहीं है. इसका अर्थ साफ है कि अगर भारत को सी.एस.सी पर हस्ताक्षर करना है तो उसे अपने संसद द्वारा पारित घरेलू कानून को बदलना पड़ेगा. जबकि भारतीय अधिकारियों का कहना है कि उत्तरदायित्व कानून सी.एस.सी के अनुकूल है और सी.एस.सी में कहीं नहीं कहा गया है कि यह घरेलू राष्ट्रीय कानूनों के ऊपर है.

इसके बावजूद अमेरिका दबाव बनाये हुए है. ओबामा ने अपनी यात्रा से ठीक एक पखवाड़े पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को इस बाबत चिट्ठी लिखकर दबाव और बढ़ा दिया है. इस चिट्ठी में ओबामा ने भारत से अमेरिकी अपेक्षाओं का उल्लेख किया है. जाहिर है कि ओबामा की विश लिस्ट बहुत भारी-भरकम है. ओबामा चाहते हैं कि दौरे के दौरान भारत न सिर्फ कई लंबित रक्षा समझौतों पर हस्ताक्षर करने के लिए तैयार हो जाए बल्कि कई बड़े रक्षा सौदों जैसे लगभग ५.८ अरब डालर (२६ हजार करोड़ रूपये) के युद्धक मालवाही विमान सी-१७ ग्लोबमास्टर आदि की खरीद को भी हरी झंडी दिखाए.

ओबामा चीन के खिलाफ भारत को ‘मजबूत बनाने’ के लिए यह भी चाहते हैं कि भारत अपने खुदरा व्यापार क्षेत्र को विदेशी खासकर वालमार्ट जैसी अमेरिकी कंपनियों के लिए खोले. इसके अलावा वे अमेरिकी कंपनियों के लिए वित्तीय क्षेत्र खासकर पेंशन-बीमा आदि को भी और उदार बनाने की मांग कर रहे हैं. वह यह भी चाहते हैं कि भारत अपना घरेलू बाजार अमेरिकी कृषि और दुग्ध उत्पादों के लिए खोले. लेकिन दूसरी ओर, खुद ओबामा घरेलू राजनीति के दबावों के कारण भारतीय कंपनियों के लिए आउटसोर्सिंग के दरवाजे बंद करने की हर जुगत कर रहे हैं. यही नहीं, वे सुरक्षा परिषद में भारत की स्थाई सदस्यता के दावे पर भी कोई प्रतिबद्धता नहीं देना चाहते हैं.


इस मामले में अमेरिकी रणनीति बिल्कुल साफ है. किसी भी दोस्ती में उसकी दिलचस्पी तभी तक है जब तक वह उसके आर्थिक, राजनीतिक, कूटनीतिक और सामरिक हितों को पूरा करती है. असल में, उसे अपने फायदे के अलावा कुछ नहीं दिखता है. भारत में भी अमेरिकी दिलचस्पी की वजहें स्पष्ट हैं. अमेरिका भारत को अपने अपने उद्योगों और सेवाओं के लिए आकर्षक बाजार के रूप में देखता है. उसे मालूम है कि मरते अमेरिकी परमाणु रिएक्टर उद्योग और अन्य साजो-सामानों के साथ-साथ रक्षा उपकरणों के लिए भारत बहुत बड़ा बाजार है. दूसरी ओर, वह रणनीतिक तौर पर चीन के खिलाफ भारत के कंधे पर रखकर बंदूक चलाना चाहता है.

कहने की जरूरत नहीं है कि इन उद्देश्यों को हासिल करने के लिए ही अमेरिका उच्च तकनीकी निर्यात सम्बन्धी प्रतिबंधों को हटाने, परमाणु रिएक्टरों की आपूर्ति आदि भारत अनुकूल दिखनेवाले फैसले कर रहा है या करने को तैयार है. साफ है कि अमेरिका के लिए यह ‘दोस्ती’ किसी भावना या आदर्श के आधार पर नहीं बल्कि ठोस राजनीतिक, वैचारिक, आर्थिक और रणनीतिक हितों पर आधारित है. इस मामले में वह किसी मुगालते में नहीं है. ऐसे में, भारत को सोचना है कि उसके हित इस ‘दोस्ती’ में कहां तक सध रहे हैं? देखने होगा कि ओबामा भारत से जो मांग रहे हैं, उसके बदले दे क्या रहे हैं?


इस सवाल पर विचार करना इसलिए जरूरी है कि अमेरिका भारत को दोस्त की तरह कम और अपने एक ‘क्लाइंट स्टेट’ की तरह अधिक देखता है. यही कारण है कि अमेरिकी कंपनियां न सिर्फ परमाणु उत्तरदायित्व कानून की जवाबदेही स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं बल्कि अमेरिका अपनी ‘दोस्ती’ की कीमत भारत को अपनी स्वतंत्र विदेश नीति छोड़कर अमेरिकी विदेश नीति के साथ नत्थी करने के रूप में मांग रहा है. सवाल है कि वह ‘दोस्ती’ की जो ‘कीमत’ मांग रहा है, क्या भारत वह कीमत चुकाने को तैयार है?

('राष्ट्रीय सहारा' में २७ अक्तूबर को प्रकाशित आलेख का विस्तारित रूप)

पुराना है पर बेहतर है


बहुत दिनॊं बाद समय मिला तॊ मंसूर भाई का ब्लाग देखने लगा। एक पुराना कार्टून पसंद आया। सॊचा आप लॊगॊं कॊ भी दिखा दूं। हालांकि अब यह पुराना हॊ चुका है।

बूढ़े युवक कांग्रेसियों के लिए अच्छी खबर

मृगेंद्र पांडेय

राहुल गांधी सबके बारे में सोचते हैं। युवक कांग्रेस से ३५ पार करने के बाद बेरोजगार घूम रहे नेताओं के दिन फिरने वाले हैं। अब राहुल बाबा ने उनको पार्टी में शामिल करने की योजना बनाई है। वे सभी बूढ़े शेर कांग्रेस की ब्लाक, जिला, प्रदेश और केंद्रीय कमेटी में शामिल किए जाएंगे। जब से यह खबर आई है, बूढ़े युवक कांग्रेसी फिर से तैयारी में जुट गए हैं।

छत्तीसगढ़ में इस समय जो युवक कांग्रेस नजर आ रही है, इसमें से अधिकांश या तो पुराने नेताओं के समर्थक हैं। या फिर नए-नए राजनीति में प्रवेश किए हुए। हाल ही में राहुल ने छात्रसंघ चुनाव के लिए भी पहल की है। केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल से मुलाकात कर बीएचयू, इलाहाबाद विवि और एएमयू में छात्रसंघ चुनाव कराने की बात कही।

सबकुछ ठीक रहा तो उत्तर प्रदेश में विधानसभा से पहले छात्रसंघ चुनाव कराए जा सकते हैं। इसी बहाने कांग्रेस अपने जनाधार को भी टटोल लेगी। क्योंकि लोकसभा चुनाव में तो अचानक २१ सीट जीत लिया गया। अब विधानसभा से पहले कुछ ऐसा करने की योजना है, जो बताए की जनता का रुख किस तरफ है। हाल ही में हुए पंचायत चुनाव में तो बसपा का पलड़ा भारी है। ऐसे में युवाओं पर कांग्रेस की नजर टिकी हुई है।

Thursday, October 28, 2010

क्या ओबामा का विरोध करेंगे लाल सलाम!

मृगेंद्र पांडेय

वामपंथियों को एक बार फिर कांग्रेसी सरकार ने चुनौती दी है। इस बार अमेरिका के विरोधी वाम दलों के बीच अमेरिका के राष्ट्रपति को लाने की तैयारी है। वह उन सभी कामरेड को संबोधित करेंगे, जो अमेरिकी नीतियों के खिलाफ लाल सलाम करते आए हैं। लोकसभा और राज्यसभा में अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा सांसदों को ज्ञान बांटेंगे। इस ज्ञान के लिए वामपंथी बराक का लाल सलाम करेंगे या गोबैक। देखना दिलचस्प होगा।

राष्ट्रपति बनने के बाद ओबामा की यह पहली भारत यात्रा है। इससे पहले वर्ष २००६ में अमेरिका के राष्ट्रपति जार्ज बुश भारत आए थे। इस दौरान जहां भी वे गए वामपंथियों ने उनका विरोध किया था। विरोध इतना तेज था कि पूरे देश के वामपंथी सड़क पर उतर आए थे। दिल्ली में प्रकाश करात, एबी वर्धन से लेकर सारे बड़े वामपंथी विरोध का लाल झंडा लेकर मैदान में थे। वामपंथ की पाठशाला जेएनयू में तो काले झंडे तक दिखा दिए गए। अब समय फिर घूम कर आ गया है।

इस बार तो और भी करीब से अमेरिकी साम्राज्यवाद वामपंथ के पास नजर आएगा। संसद में बगल में बैठकर ज्ञान देता हुआ। पिछली बार तो बुश संसद में गए ही नहीं थे। परमाणु करार को लेकर आई खटास के कारण बुश का विरोध किया गया था। इन करार को हुए तीन साल से ज्यादा का वक्त हो चुका है। अब देखना होगा कि वक्त गुजरने के साथ लाल विरोध कम हुआ है या उतनी ही तेजी बरकरार है।

Tuesday, October 19, 2010

दॊस्तॊं अब रायपुर में

मृगेंद्र पांडेय

दॊस्तॊं अब रायपुर में आ गया हूं। लंबे समय तक अपने शहर से दूर रहने के बाद लगा कि रायपुर में भी कुछ दिन पत्रकारिता की जाए। यहां के लॊग बडे सीधे हैं। लेकिन सरकार के खिलाफ कॊई बॊलता नहीं। हमारी पत्रकारी बिरादरी के भाई भी नहीं। ऐसा लगता है कि सब ठीक चल रहा है।


आप ही सॊचॊं की किसी नए प्रदेश में सब कुछ ठीक कैसे चल सकता है। क्या दस साल में हमने विकास कॊ पूरा कर लिया है। क्या यहां कॊई गरीब नहीं बचा। क्या भाजपा सरकार सब सही कर रही है। ऐसा मैं इसिलए नहीं कह रहा हूं कि मैं सरकार विरॊधी हूं। सरकार के साथ और विरॊध का सवाल नहीं है। सवाल उन डेढ करॊड आदिवासियॊं का है जॊ सरकार के कारण मर रही है। सवाल उस संस्कृति का है जिसकी लडाई के लिए मध्यप्रदेश से हमने छत्तीसगढ कॊ बांटा था।

अगर हम नहीं लडेंगे तॊ फिर कौन लडेगा। सवाल यही है। क्यॊंकि सवाल खडा करना ही तॊ हमारा उद्देश्य है।

जय हिंद जय छत्तीसगढ।

Wednesday, July 28, 2010

पूरे गणतंत्र की मौत है जेठवा की मौत

जब भी देश में एक इमानदार,सत्य,न्याय तथा देशभक्ति के साथ पारदर्शिता के लिए काम कर रहे किसी व्यक्ति को मारा जाता है तो वह उस व्यक्ति कि नहीं बल्कि पूरे गणतंत्र,देश के राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री कि मौत होती है |
अहमदाबाद हाईकोर्ट के सामने शाम 8:30 से 8:45 के बीच दो मोटरसाइकिल सवारों के द्वारा गोली मारकर एकबार फिर एक सच्चे हिन्दुस्तानी तथा RTI कार्यकर्ता अमित जेठवा को मार दिया गया | इस बार भी इस देशभक्त कि हत्या का आरोप देश के भ्रष्ट जनप्रतिनिधियों पर है जो इसबार BJP से जुड़ा हुआ है और जिसके अवैध खनन के करतूतों को अमित जेठवा उजागर करने पे तुले हुए थे |

निश्चय ही अमित जेठवा जैसे लोगो कि मौत इस देश के गणतंत्र ,राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री कि मौत है | क्योंकि अमित जेठवा जैसे लोग इस देश के राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री से भी महत्वपूर्ण काम कर रहे होते हैं और ऐसे लोगो कि मौत पूरे देश के लिए शर्मनाक है | अमित जेठवा कि मौत पर देश के कर्ताधर्ता को दोषियों को पकरने के लिए वैसे ही हरकत में आना होगा जैसे किसी देश के प्रधानमंत्री व राष्ट्रपति कि मौत पर हरकत में आते हैं ,तब जाकर ऐसे मौतों का सिलसिला रुकेगा |

अमित जेठवा कि मौत से देश में पारदर्शिता व सूचना के अधिकार के कानून कि मौत एकबार फिर हुयी है | हमारा आग्रह इस देश के राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री से है कि अमित जेठवा के हत्यारे को तिन दिनों में पकड़कर सजा दी जाय या अहमदाबाद के पुलिस आयुक्त को नौकरी से हटाया जाय क्योंकि इस तरह कि हत्या पुलिस अधिकारियों कि गंभीर लापरवाही से ही होते हैं और गणतंत्र रोता है |

जनॊक्ती से साभार

Monday, June 14, 2010

सारा देश भोपाल के साथ, हम किसका मुंह तक रहे हैं?

कल्पेश याग्निक

मुट्ठी भर मठाधीश, पांच लाख निर्दोषों को छल रहे हैं। पूरे 26 बरस से। तब ये बेगुनाह निर्ममता से बर्बाद कर दिए गए। अब निर्लज्जता से प्रताड़ित किए जा रहे हैं। कानून के नाम पर। किंतु अन्याय की सीमा होती है। न्याय करने वाले हर व्यवस्था में होते ही हैं। दुखद यह है कि उन्हें झकझोरना पड़ता है। भोपाल गैस त्रासदी मामले में अदालती आदेश के बाद ऐसा करने का समय आ गया है।

दो ही विकल्प हैं। या तो सुप्रीम कोर्ट अपने ही स्तर पर 1996 में जस्टिस ए.एम.अहमदी की कलम से बदलीं, कमजोर कर दी गईं धाराओं की समीक्षा करे। या फिर केंद्र सरकार इस केस को फिर से खुलवाए। दोनों ही बातें संभव हैं। देश हित में हैं। हमें किंतु इसके लिए आक्रामक मुद्रा अपनानी होगी। तंत्र से लड़ाई आसान नहीं होती। किंतु जहरीली गैस की भयावह यादों को सीने में दबाए, इतने बरसों से हर पल, हारी-बीमारी-बेकारी-बेबसी से लड़ ही तो रहे हैं हम। एक और लड़ाई।

अब कुछ पथरीले, खुरदुरे व्यावहारिक सच। जब चारों ओर मौत फैली थी तब लोकतंत्र के तीनों स्तंभों में कहीं गर्जना नहीं उठी कि यूनियन कार्बाइड के दोषी वॉरेन एंडरसन को ऐसे रहस्यमय ढंग से छोड़ क्यों दिया? एक मामूली वाहन चालान बनने पर भी पुलिस डपटती है कि थाने चलो- यहां 25 हजार मौतों के जिम्मेदार की जैसे राजकीय अतिथि सी सेवा की गई। वो भी मुख्यमंत्री के स्तर पर। वो भी प्रधानमंत्री को विश्वास में लेकर। उस दिन की वीडियो क्लिप में यदि आप गौर से देखें तो लग ही नहीं रहा कि अर्जुन सिंह किसी सादे से हादसे का भी मुकाबला करके आए हों। बड़े ही आत्मविश्वास और प्रभावी शैली में वे पत्रकारों से त्रासदी को लेकर बात कर रहे थे। साथ बैठे राजीव गांधी गंभीर तो दिख रहे हैं लेकिन पूरी तरह अजरुनसिंह से प्रभावित।


जाहिर है उन्होंने ही प्रधानमंत्री को मना लिया होगा। और यदि नहीं- तो वे राष्ट्र के सामने क्यों नहीं लाते कि भोपाल के गुनहगार को क्यों जाने दिया? क्यों? किसी को पता नहीं। क्योंकि किसी ने इन्हें झंझोड़ा नहीं। पक्ष तो होता ही है रीढ़ की हड्डी के बिना। विपक्ष को क्यों सांप सूंघ गया था? और बाद में भी किसने कुछ किया? देखें एक नजर : नरसिंह राव सरकार ने उसे अमेरिका से बुलाने के प्रयास कमजोर कर दिए। अटल सरकार ने तो एक कदम आगे बढ़कर कार्बाइड के भारतीय प्रमुख केशुब महिंद्रा को पद्म पुरस्कार के लिए चुना।


दूसरी कड़ी हैं नौकरशाह। आज वे टीवी चैनलों पर एक-दूजे को दोषी सिद्ध करने की होड़ में लगे हैं। तब अपने पुंसत्व को ताक में रख गुपचुप उन्हीं आदेशों का पालन करने में लगे थे, जो उनकी आत्मा पर बोझ बन गए होंगे। पीसी अलेक्जेंडर, ब्रह्मस्वरूप, मोतीसिंह और क्या स्वराज पुरी? हर छोटी-बड़ी बात पर नोटशीट पर टीप लिखने के आदी। ‘पुनर्विचार करें, समीक्षा करें’ लिखकर हर फैसले में अंड़गा बनने के जन्मजात अधिकारी ये नौकरशाह आज किस मुंह से आरोप-प्रत्यारोप लगा रहे हैं?


तीसरी कड़ी है कानून के रखवालों की। चाहे केस तैयार करने वाली पुलिस-सीबीआई हो या फिर लड़ने वाला प्रॉसिक्यूशन हो या कि तत्कालीन न्यायमूर्ति हों। सभी पर प्रश्नचिह्न है। आखिर न्याय के सर्वोच्च ओहदे पर बैठे अहमदी ऐसा कैसे कर सकते हैं? सीबीआई, केंद्र या राज्य सरकार- कोई तो १९९६ के उस फैसले को चुनौती देता? इन सबसे हटकर बड़ा प्रश्न। सरकार चाहें तो क्या नहीं कर सकतीं। सुप्रीम कोर्ट ने तो अफजल गुरु को फांसी सुना दी है। चार साल हो गए। क्या हुआ?


सुप्रीम कोर्ट ने तो शाहबानो को गुजारा भत्ता दिए जाने का फैसला दिया था। सरकार ने एक कानून बनाकर उसे खत्म कर दिया। केरल के मल्लापेरियार बांध से तमिलनाडु पानी लेता था। सुप्रीम कोर्ट ने बांध की ऊंचाई बढ़ाने का फैसला दिया तो केरल ने विधानसभा में कानून बदलकर उस फैसले को निर्थक कर दिया। इंदिरा गांधी ने किस ताकत के साथ इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को अनदेखा किया था- वह देश को भलीभांति याद है। सब सरकार के हाथ में है। किंतु भोपाल के लाखों पीड़ितों के लिए कोई नेता, अफसर, कानून का रखवाला आगे न आया।
(कल्पेश याग्निक दैनिक भास्कर के नेशनल एडिटर हैं)

दैनिक भास्कर अतीत के अंधेरे को अपने करोड़ों पाठकों के माध्यम से मिटाना चाहता है। भोपाल त्रासदी में पहले दिन से भास्कर की कलम सिर्फ पीड़ितों के पक्ष और सत्ताधीशों की गलत बातों के विपरीत चली है। आज इस अभियान में सांसदों को, सरकार को, सुप्रीम कोर्ट को यदि हम एक पोस्टकार्ड लिखकर, याचिका लगाकर केस पुन: खुलवाने की आवाज उठाएंगे तो मानवता के बड़े अभियान में सहभागी होंगे। पीड़ितों को सफलता निश्चित मिलेगी। क्योंकि सारा देश उनके साथ है।

Wednesday, June 9, 2010

शून्य से शिखर तक तय हुआ सफर

उत्कर्ष शिविर की ऊंची उडान

बांसवाडा। देश में अपनी तरह के कदाचित अनूठे उपक्रम के तहत बांसवाड्ा के पुलिस विभाग द्वारा शिक्षा विभाग के सहयोग से 2007 में जनजाति क्षेत्र की दसवीं कक्षा में शून्य प्रतिशत परिणाम वाली छात्राओं के उन्नयन के लिए प्रारम्भ किया गया शिविर इस अभियान के तीसरे साल शिखर तक का सफर तय करने में कामयाब रहा। सत्र 2007-08 में तत्कालीन पुलिस अधीक्षक के.एल.बैरवा के व्यक्तिगत प्रयासों और विशिष्ट पहल पर सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों से बांसवाडा शहर में लाकर पढ्ाई जा रही बालिकाओं ने ऐसा परिणाम दिया है जिससे पुलिस और शिक्षा विभाग की बांछे खिली हुई है। इस सत्र में 12 वीं कक्षा में 15 छात्राएं सम्मिलित हुई थी और सभी उत्तीर्ण होकर शत प्रतिशत परिणाम दिया है। यही नही इन्ही छात्राओं में से एक 63 प्रतिशत अंकों के साथ प्रथम श्रेणी में भी उत्तीर्ण हुई है। शेष 14 द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण रही।

कभी ये सिफर के दायरे में थी

सत्र 2007-8 में तत्कालीन पुलिस अधीक्षक बैरवा जब इन बालिकाओं को लेकर बांसवाडा आए तब ये सभी बालिकाएं 10 व क क्षा में शून्य प्रतिशत परीक्षा परिणाम के साथ अनुत्तीर्ण रही थी। उसी सत्र में यहां लाकर इन छात्राओं के उन्नयन की दिशा में किए गए पहले प्रयास में 48 में से 21 छात्राएं उत्तीर्ण हुई थी। दूसरे वर्ष 16 छात्राओं ने 10 वीं उत्तीर्ण की। जो छात्राएं पहले ही प्रयास में दसवीं उत्तीर्ण हुई वे इस सत्र में 12 वीं की बोर्ड परीक्षा में शामिल हुई थी। हिन्दी, संस्कृत और गृह विज्ञान विषयों के साथ छात्राओं ने यहां के उत्कर्ष शिविर में पूरी मेहनत से पढाई कर पुलिस और शिक्षा विभाग के प्रयासों और अरमानों को पंख लगा दिए।

अब न रूकी है अब न रूकेंगी

दसवीं फेल होने के बाद आगे पढने का इरादा लगभग छोड चुकी इन छात्राओं के साथ उनके अभिभावकों ने भी इन्हें आगे पढाने के बारे में भी सपने में नहीं सोचा था। लेकिन भारतीय पुलिस सेवा के संवेदनशील अधिकारी के रूप में इन छात्राओं की जिन्दगी में एक ऐसी शख्सियत का सान्निध्य मिला जिनके अभिनव प्रयासों ने इनकी तकदीर बदलने का सिलसिला शुरू कर दिया। के.एल.बैरवा ने इन छात्राओं की अंधेरी जिन्दगी में आशा की रोशनी भर दी। बारहवी कक्षा पास हुई अब ये छात्राएं जोश और उत्साह से लबरेज होकर कहती है कि अब मंजिल पा जाने तक रूकने का नाम नहीं लेंगी। यह उपलब्धि हांसिल करने वाली छात्राओं में कैलाश, सन्तु, मना, सुगना, दुर्गा डामोर, दुर्गा खिहुरी, इन्दिरा, गीता, उषा, ललिता, हीरा, लक्ष्मी तथा रेखा शामिल है।

मिसाल पेश की सास-ससुर ने

इन छात्राओं में दो छात्राएं ऐसी है जिन्हे उत्तकर्ष शिविर में रहते हुए ही वयस्क आयु में परिणय सूत्र में बंधना पडा इसके बावजूद ससुराल वालो ने अपनी बहुओं की पढाई बंद नहीं कराई। यही नही इस सत्र में तीन बार आयोजित अभिभावका सम्मेलन में इन शादी शुदा छात्राओं के सास ससुर भी शामिल हुए। जनजाति विकास एवं तकनीकी शिक्षा मंत्री महेन्द्रजीत सिंह मालवीया तथा विधायक अर्जुन बामनिया ने बालिका शिक्षा को प्रोत्साहन दिए जाने हेतु इन सास ससुर का सम्मान भी किया। संगति का असर जीवन में कितना प्रभाव डालता है इसका नमूना भी कीर्तिमान बनाने वाले इस बार के परिणाम में सामने आया। इन छात्राओं की देखरेख के लिए पुलिस विभाग बांसवाडा द्वारा तैनात एक महिला कांस्टेबल ने भी 12 वी कक्षा की यही रहते हुए परीक्षा दी और वह द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हुई।

खुशी मिली इतनी कि. ..

इस अनूठे अनुष्ठान के प्रणेता और संस्थापक तत्कालीन पुलिस अधीक्षक के एल बैरवा, वर्तमान पुलिस अधीक्षक गजानन्द वर्मा, जिला शिक्षा अधिकारी माध्यमिक गणेशराम निनामा तथा इस अभियान के समन्वयक प्रकाश पण्डया ने इस उपलब्धि पर अपार हर्ष जताया है और कहा है कि यह सब बालिकाओं की मेहनत का परिणाम है तथा यह उपलब्धि साबित करती है कि जनजाति बहुल बांसवाडा जिले में सेवा भाव से कार्य करने वाले शिक्षकों की कमी नहीं है।

Friday, May 28, 2010

गॊरे हैं गुरुजी



यह कार्टून मेरे मित्र मंसूर नकवी ने बनाया है।

Wednesday, May 26, 2010

आधा हूं अधूरा हूं मनमॊहन हूं

मृगेंद्र पांडेय
कम बॊलना मनमोहन सिंह की आदत है। वह हमेशा इस बात से बचते हैं कि कहीं उनके मुंह से कॊई ऐसी बात न निकल जाए जिससे मैडम नाराज हॊ जाए। यही कारण है कि विवादित बयानों से दूरी बनाने के चक्कर में उन्हॊंने प्रेस से भी खुलकर बात नहीं की। बस इतना कह पाए कि अभी काम अधूरा है उसे पूरा करना है। आखिर वह कौन सा काम है जॊ अधूरा है। कहीं राहुल गांधी के हाथ में सत्ता सौंपना तॊ नहीं है। लगता है मैडम का दबाव था नहीं तॊ मनमॊहन अधूरे काम का जिक्र जरूर करते।

अपने काम का जिक्र करते हुए पीएम ने न तॊ राजा जैसे भ्रष्ट मंत्री के खिलाफ कुछ बॊला न ही तेजी से अपना राजनीतिक कद बढा रहे चिदंबरम की ही चर्चा की। उन्हें लग रहा था कि चिदंबरम की चर्चा करुंगा तॊ कहीं उनका असली एजेंडा सामने न आ जाए। पिछले एक महीने में चिदंबरम के खिलाफ कांग्रेस के कई दिग्गज बॊले। यह उनका कद छॊटा करने की शुरुआत है। क्यॊंकि मैडम कॊ राहुल बाबा से ज्यादा ताकतवर छवि इस देश के किसी भी मंत्री की नहीं चाहिए।

अगर कॊई तकतवर हॊ गया तॊ बाबा की ताजपॊशी कैसे हॊगी। इसलिए तॊ पीएम ने चिदंबरम और राजा के मामले पर संसद में बहस करने की बात कहकर पल्ला झाड लिया। राहुल बाबा के राजतिलक के सवाल पर पीएम ने बिना बॊले ये साफ किया कि इस कुर्सी पर वे सिर्फ़ उस वक़्त तक बैठे हैं जब तक राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनने के लिए तैयार नहीं हो जाते. "मुझे कभी कभी लगता है कि नौजवानों को ये ज़िम्मेदारी संभालनी चाहिए. जब भी पार्टी ये फ़ैसला करेगी मैं ख़ुशी से कुर्सी छोड़ दूँगा."

इससे साफ है कि पीएम कॊ वही कहने में मजा आता है जॊ सोनिया और राहुल को पसंद हों. उनमें भारत और भारतवासियों के लिए कोई सहानुभूति नहीं है। उनकॊ कोई लोकसभा का चुनाव थॊडे ही लड़ना है जो वे जनता के प्रति जवाबदेह होंगे. जिनकी शक्ति से वे शक्तिवान बन कर पीएम की कुर्सी से चिपके हुए हैं मरते दम तक उनसे बिगाड़ नहीं करेंगे। भारत की जनता महंगाई से रो रही है, आतंक और नक्सल से परेशान है, लेकिन पीएम के माथे पर कॊई चिंता ही नहीं झलक रही है।

Thursday, May 20, 2010

‘बुलेट’ वाले ‘बैलेट’ से क्यों लड़ेंगे दिग्गी राजा?

Anil Pusadkar

हरा - भरा बस्तर निर्दोष लोगों के खून से लाल हो रहा है और नेताओं में वाक्युद्ध चल रहा है। और इसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे हैं दिग्विजय सिंह उर्फ दिग्गी राजा! वही दिग्विजय सिंह, जो सालों बस्तर समेत पूरे छत्तीसगढ़ के भी मुख्यमंत्री थे। क्या तब हमले नहीं किया करते थे नक्सली? भूल गए क्या दिग्गी राजा? याद दिलाएं? आपके तो एक मंत्री तक को मार डाला था नक्सलियों ने! आपने अपने कार्यकाल में नक्सली समस्या को हल करने के लिए क्या उपाय किए थे? वही बता दीजिए सबको! आप क्या बताएंगे राजा साब? सब जानते हैं। उस समय यही नक्सली, जो आज छत्तीसगढ़ में तांडव कर रहे हैं, तब पड़ोस के राज्य आंध्र प्रदेश में कहर बरपाते थे।

कारण तो पता है न? उन दिनों वहां कांग्रेस की नहीं, तेलुगु देशम् की सरकार थी। वैसे आपको तो पता ही होगा नक्सली छत्तीसगढ़ में कब आए और किस पार्टी के कार्यकाल में पनपे? अगर पता नहीं हो तो फिर से अपने 10 सालों के कार्यकाल की समीक्षा कर लीजिएगा! दिग्गी राजा यह वही बस्तर है, यह वही छत्तीसगढ़ है जिसकी बदौलत कांग्रेस कभी पूरे मध्यप्रदेश पर राज किया करती थी। छत्तीसगढ़ कांग्रेस का गढ़ कहलाता था और आपने अपने 10 साल के कार्यकाल में कांग्रेस को कहां ला पटका, यह दुनिया जानती है। दुनिया क्या आप खुद भी अच्छी तरह से जानते थे कि एक नहीं, कई चुनावों तक अब मध्यप्रदेश में कांग्रेस की वापसी संभव नहीं है। तभी तो आपने 10 साल के राजनैतिक संन्यास की घोषणा कर डाली थी।
अच्छा! अच्छा! याद आया, 10 साल तो पूरे होने जा रहे हैं और उसके बाद भी मध्यप्रदेश में कांग्रेस का फिर से राज आता नजर नहीं आ रहा है!

अच्छा तो यह बात है! फिर तो ठीक ही है दिग्गी राजा! बिना राज-पाट के राजा कहलाना काफी तकलीफ देता होगा, है न? ऐसे में आपके पास केंद्र की कुर्सी के अलावा और विकल्प भी नहीं है। मध्यप्रदेश में आपने जो कांग्रेस की दुर्गति की है, वह दो चुनावों में दिख चुकी है। और आने वाले चुनावों में भी उसकी वापसी आपकी गुटबाजी के कारण संभव नहीं दिखती। ऐसे में अगर केंद्र की कुर्सी की खातिर दिल्ली दरबार को खुश रखने के लिए डॉ. रमन सिंह के खिलाफ प्रचार युद्ध कर रहे हैं तो ठीक ही कर रहे हैं। वैसे भी दिल्ली दरबार में भोंपुओं को भरपूर तरजीह देने की परंपरा रही है। दिल्ली में मध्यप्रदेश से आपके पहले के कुंवर अर्जुन सिंह रिटायर हो चुके हैं और दूसरे चहेते सुरेश पचौरी बैक टू दि पेवेलियन यानी मध्यप्रदेश पहुंच चुके हैं। ऐसे में आपका दिल्ली दरबार को खुश करने के लिए राजनैतिक कलाबाजियां खाना कहीं से गलत नहीं लगता।
मगर सोचिए तो सही, राजा साब! इस बार तो आम जनता भी मारी गई है नक्सली हमले में। पुलिस वालों को निशाना बनाने वाले नक्सली अब जनप्रतिनिधियों और जनता को मार रहे हैं और आप उनसे कह रहे हैं चुनाव लड़ो। छत्तीसगढ़ सरकार को बता रहे हैं कि गोली नक्सलियों का जवाब नहीं है। यानी सरकार गोली चलाना भी बंद करे और नक्सली गोलियां चलाते रहे। मरते रहें बस्तरवासी। बेमतलब और बेवजह। क्या आपको दर्द नहीं होता अपनी पुरानी जनता के मारे जाने का? क्या जमीन के बंटवारे से रिश्तों का भी बंटवारा हो जाता है? अगर बंटवारा नहीं हुआ होता और आप ही यहां के मुख्यमंत्री रहते तब भी क्या आप वही कहते, जो आज कह रहे हैं?

राजा साब, माफ कीजिएगा; यह समय फिजूल की बयानबाजी का नहीं है। यह समय है इस बात पर गंभीरता से विचार करने का कि क्या अब बस्तर में आम आदमी सुरक्षित रह गया है? राजा बाबू! बस्तर में बारुदी सुरंगों का जाल बिछा हुआ है। वैसे ही जैसे आप राजा- महाराजा लोग जंगलों में जानवरों का शिकार करने के लिए जाल बिछाया करते थे। तब जैसे जानवर मरते थे न राजा साब, वैसे अब इंसान मर रहे हैं! आपको क्या लगता है कि आपके कहने से चुनाव लड़ लेंगे, नक्सली? उनका उद्देश्य सत्ता पाना नहीं है,सिर्फ हिंसा है, लूट-पाट है। और फिर, सिर्फ बस्तर संभाग और सरगुजा के कुछ इलाकों के भरोसे सरकार तो नहीं बना सकते न नक्सली; इसलिए जंगलों में अघोषित सरकार चलाना चाहते हैं वे! इसलिए कि तेंदूपत्ता के कारोबार के जरिए हजारों-करोड़ रुपए बटोर सकें। लकड़ी और वनोपज की अफरा-तफरी कर सकें। बहुमूल्य और सामजिक महत्व के खनिजों की तस्करी कर सकें। उन्हें विकास से लेना-देना होता तो वे वहां सालों बाद बनी पक्की सड़कें नहीं खोदते। वे वहां दशकों बाद (इसमें आपके कार्यकाल के साढेÞ सात साल भी शामिल है) बने स्कूल और अस्पताल नहीं उड़ाते। वे पंचायत भवन और विश्राम गृह नहीं तोड़ते। वे बिजली के टॉवर नहीं गिराते। वे रेल की पटरियां नहीं उखाड़ते। वे पंचों-सरपंचों को अपना निशाना नहीं बनाते। दरअसल वे तो चाहते ही नहीं है कि बस्तर का विकास हो, और इसी बहाने वे बस्तर में अपना खूनी खेल चला सकें।

दिग्गी राजा अभी भी समय है। संभल जाइए और इस बात पर विचार कीजिए कि बोतल से बाहर आने वाला जिन्न किसी का नहीं होता। आज हमारी, तो फिर तुम्हारी बारी है। नक्सलवाद बोतल से निकला हुआ वह जिन्न है जो धीरे-धीरे सबको निगल रहा है। आज जनता का खुद को हितैषी बताने वाला यह जिन्न अब आम जनता को भी निगलने लगा है। अब भी संभल जाइए और सिर्फ जुबानी जमा-खर्च करने के बजाय केंद्र में बैठी अपनी सरकार को समझाइए कि यह समय राजनीति करने का नहीं है। वैसे भी लाशों पर राजनीति स्थायी नहीं होती। आज नक्सली छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखंड और बिहार में ज्यादा सक्रिय हैं तो क्या कल वे महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश और दिल्ली को छोड़ देंगे? तब क्या करेंगे आप दिग्गी राजा, जब ये नासूर फैलकर पूरे देश को अपनी गिरफ्त में ले लेगा? क्या तब तक इंतजार करवाओगे? अगर अपने कार्यकाल की थोड़ी बहुत याद बाकी है और भोले-भाले बस्तर के आदिवासियों से मिला प्यार याद है तो खुलकर कहो कि नक्सलवाद जड़ से खत्म होना चाहिए। मगर अफसोस, आप तो ऐसा भी नहीं कर सकते क्योंकि अभी दिल्ली दरबार और वहां के राजकुमार इस मामले में खामोश हैं। अगर वे कह दें तो शायद सबसे जोर से आप ही चिल्लाएंगे, ‘नक्सलियों को खत्म कर दो! जड़ से मिटा दो नक्सलवाद को!’


अमीर धरती गरीब लोग

Monday, May 17, 2010

अपराध रिपोर्टिंग का “अपराध”

आनंद प्रधान
समाचार चैनलों में अपराध की खबरों को लेकर एक अतिरिक्त उत्साह दिखाई पड़ता है. आश्चर्य नहीं कि चैनलों पर अपराध की खबरों को काफी जगह मिलती है. हिंदी के अधिकांश समाचार चैनलों पर अपराध के विशेष कार्यक्रम भी दिखाए जाते हैं. लेकिन अगर अपराध की वह खबर शहरी-मध्यमवर्गीय पृष्ठभूमि से हो और उसमें सामाजिक रिश्तों और भावनाओं का एक एंगल भी हो तो चैनलों की दिलचस्पी देखते ही बनती है. चैनलों के मौजूदा ढांचे में यह काफी हद तक स्वाभाविक भी है. अपराध की खबरों के प्रति चैनलों के अतिरिक्त आकर्षण को देखते हुए ऐसी खबरों में अतिरिक्त दिलचस्पी में कोई बुराई नहीं है बशर्ते चैनल उसे रिपोर्ट करते हुए पत्रकारिता और रिपोर्टिंग के बुनियादी उसूलों और नियमों का ईमानदारी से पालन करें.


लेकिन दिक्कत तब शुरू होती है जब चैनल ऐसी खबरों को ना सिर्फ अतिरिक्त रूप से मसालेदार और सनसनीखेज बनाकर बल्कि खूब बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने लगते हैं. यही नहीं, एक-दूसरे से आगे रहने की होड़ में वे रिपोर्टिंग के बहुत बुनियादी नियमों और उसूलों की भी परवाह नहीं करते हैं. इस प्रक्रिया में उनके अपराध संवाददाता पुलिस के प्रवक्ता बन जाते हैं. वे पुलिस की आफ द रिकार्ड ब्रीफिंग के आधार पर ऐसी-ऐसी बे-सिरपैर की कहानियां गढ़ने लगते हैं कि तथ्य और गल्प के बीच का भेद मिट जाता है. क्राईम स्टोरीज खबर कम और ‘स्टोरी’ अधिक लगने लगती हैं. चैनलों और उनके रिपोर्टरों का सारा जोर तथ्यों से अधिक कहानी गढ़ने पर लगने लगता है.


सचमुच, इस मायने में चैनलों का कोई जवाब नहीं है. सबसे ताजा मामला दिल्ली की युवा पत्रकार निरुपमा पाठक की मौत का है. निरुपमा अपने एक सहपाठी और युवा पत्रकार प्रियभांशु रंजन से प्रेम करती थीं और दोनों शादी करना चाहते थे. लेकिन निरुपमा के घरवालों को यह मंजूर नहीं था. निरुपमा की २९ अप्रैल को अपने गृहनगर तिलैया (झारखण्ड) में रहस्यमय परिस्थितियों में मौत हो गई थी जो बाद में पोस्टमार्टम रिपोर्ट में ‘हत्या’ निकली. इसे स्वाभाविक तौर पर “आनर किलिंग” का मामला माना गया जिसने निरुपमा के सहपाठियों, सहकर्मियों, शिक्षकों के अलावा बड़ी संख्या में बुद्धिजीवियों, पत्रकारों और महिला-छात्र संगठनों को आंदोलित कर दिया.


हालांकि उसके बाद पूरे मामले में कोडरमा पुलिस की लापरवाही और राजनीतिक दबावों में काम करने के कारण पुलिस जांच ना सिर्फ सुस्त गति से चल रही है बल्कि पूरी जांच को भटकाने/बिगाडने की कोशिश की जा रही है. ऊपर से हत्या के आरोप में जेल में बंद निरुपमा की माँ के परिवाद पर स्थानीय कोर्ट के इस निर्देश के कारण मामला और पेचीदा हो गया है कि पुलिस निरुपमा के दोस्त प्रियभांशु पर रेप, धोखा, आत्महत्या के लिए उकसाने जैसे संगीन आरोपों में मामला दर्ज करके जांच करे.


स्वाभाविक तौर पर अधिकांश चैनलों ने निरुपमा मामले को जोरशोर से उठाया. हालांकि अधिकांश चैनलों की नींद निरुपमा की मौत के चार दिन बाद तब खुली जब पोस्टमार्टम रिपोर्ट में हत्या की बात सामने आने के बाद एन.डी.टी.वी और इंडियन एक्सप्रेस ने इसे प्रमुखता से उठाया. ऐसा नहीं है कि चैनलों के रिपोर्टरों को घटना की जानकारी नहीं थी. निरुपमा देश के सबसे प्रतिष्ठित मीडिया संस्थान की छात्रा रही थी. इस संस्थान के छात्र सभी चैनलों और अखबारों में हैं. निरुपमा और प्रियाभांशु के दोस्तों ने बहुतेरे चैनलों/अखबारों को निरुपमा की संदेहास्पद परिस्थितियों में मौत के बारे में बताया था लेकिन किसी ने कोई खास दिलचस्पी नहीं ली.


असल में, चैनलों के साथ एक अजीब बात यह भी है कि जब तक किसी खबर को उसके पूरे पर्सपेक्टिव के साथ दिल्ली का कोई बड़ा अंग्रेजी अखबार जैसे इंडियन एक्सप्रेस, टाइम्स आफ इंडिया, एच.टी या हिंदू अपने पहले पन्ने की स्टोरी नहीं बनाते हैं, चैनल आमतौर पर उस खबर को छूते नहीं हैं या आम रूटीन की खबर की तरह ट्रीट करते हैं. लेकिन जैसे ही वह खबर इन अंग्रेजी अख़बारों के पहले पन्ने पर आ जाती है, चैनल बिलकुल हाइपर हो जाते हैं. चैनलों में एक और प्रवृत्ति यह है कि अधिकांश समाचार चैनल किसी खबर को पूरा महत्व तब देते हैं, जब कोई बड़ा और टी.आर.पी की दौड़ में आगे चैनल उसे उछालने लग जाता है. कहने की जरूरत नहीं है कि चैनलों की यह भेड़चाल अब किसी से छुपी नहीं राह गई है.



निरुपमा के मामले भी यह भेड़चाल साफ दिखाई दी. पहले तो चैनलों ने पोस्टमार्टम रिपोर्ट, निरुपमा के पिता की चिट्ठी, निरुपमा के एस.एम.एस और प्रियाभांशु के बयानों के आधार पर इसे ‘आनर किलिंग’ के मामले के बतौर ही उठाया लेकिन जल्दी ही कई चैनलों के संपादकों/रिपोर्टरों की नैतिकता और कई तरह की भावनाएं जोर मारने लगीं. खासकर प्रियाभांशु के खिलाफ स्थानीय कोर्ट के निर्देश और पुलिस की आफ द रिकार्ड और सेलेक्टिव ब्रीफिंग ने इन्हें खुलकर खेलने और कहानियां गढ़ने का मौका दे दिया. अपराध संवाददाताओं को और क्या चाहिए? पूरी एकनिष्ठता के साथ वे प्रियाभांशु के खिलाफ पुलिस द्वारा प्रचारित आधे-अधूरे तथ्यों और गढ़ी हुई कहानियों को बिना किसी और स्वतन्त्र स्रोत या कई स्रोतों से पुष्टि किए या क्रास चेक किए तथ्य की तरह पेश करने लगे.


दरअसल, अपराध संवाददाताओं का यह ‘अपराध’ नया नहीं है. इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़कर चैनलों और अखबारों में क्राईम रिपोर्टिंग पूरी तरह से पुलिस के हाथों का खिलौना बन गई है. क्राईम रिपोर्टर पुलिस के अलावा और कुछ नहीं देखता है, पुलिस के कहे के अलावा और कुछ नहीं बोलता है और पुलिस के अलावा और किसी की नहीं सुनता है. सबसे अधिक आपत्तिजनक बात यह है कि अधिकांश क्राईम रिपोर्टर पुलिस से मिली जानकारियों को बिना पुलिस का हवाला दिए अपनी एक्सक्लूसिव खबर की तरह पेश करते हैं.


इसी का नतीजा है कि आज से नहीं बल्कि वर्षों से पुलिस की ओर से प्रायोजित “मुठभेड़ हत्याओं” की रिपोटिंग में बिना किसी अपवाद के खबर एक जैसी भाषा में छपती रही है. यही नहीं, अपराध संवाददाताओं की मदद से पुलिस हर फर्जी मुठभेड़ को वास्तविक मुठभेड़ साबित करने की कोशिश करती रही है. सबसे हैरानी की बात यह है कि पुलिस की ओर से हर मुठभेड़ की एक ही तरह की कहानी बताई जाती है और अपराध संवाददाता बिना कोई सवाल उठाये उसे पूरी स्वामीभक्ति से छापते रहे हैं. कई मामलों में यह स्वामीभक्ति पुलिस से भी एक कदम आगे बढ़ जाती रही है.


यह ठीक है कि क्राईम रिपोर्टिंग में पुलिस एक महत्वपूर्ण स्रोत है लेकिन उसी पर पूरी तरह से निर्भर हो जाने का मतलब है कि रिपोर्टर ने अपनी स्वतंत्रता पुलिस के पास गिरवी रख दी है. दूसरे, यह पत्रकारिता के बुनियादी सिद्धांत यानी हर खबर की कई स्रोतों से पुष्टि या क्रास चेकिंग का भी उल्लंघन है. आश्चर्य नहीं कि इस तरह की गल्प रिपोर्टिंग के कारण पुलिस और मीडिया द्वारा ‘अपराधी’ और ‘आतंकवादी’ घोषित किए गए कई निर्दोष लोग अंततः कोर्ट से बाइज्जत बरी हो गए. लेकिन अपराध रिपोर्टिंग आज भी अपने ‘अपराधों’ से सबक सीखने के लिए तैयार नहीं है.

Friday, May 7, 2010

निर्दोष नहीं है निरुपमा का प्रेमी


विष्णु गुप्त

शायद सिर्फ प्रियभांषु को मालूम था कि निरूपमा ऑनर किलिंग का ग्रास बनने जा रही है। अगर उसे आभास था तो क्या उसने निरूपमा की जान बचाने के लिए पुलिस और हाईकोर्ट में गुहार लगायी? वह चुपचाप निरूपमा को ऑनर किलिंग के ग्रास बनते हुए देखता रहा। प्रियभांषु कब चिल्लाया? उसने महिला आयोग और पत्रकार संगठनों का दरवाजा कब खट-खटकाया? मीडिया में अपनी प्रेम कहानी कब खोली? जब निरूपमा की हत्या हो चुकी थी।

निरूपमा अब इस दुनिया में नहीं है। इसलिए उसके प्रति प्रियभांषु कितना समर्पित था और ईमानादार था, इसे भी शक की निगाह से देखी जानी चाहिए। कही प्रियभांषु निरूपमा के साथ दोहरा खेल तो नहीं खेल रहा था। मोहरे से मोहरे लडाने में तो वह नहीं लगा था। निरूपमा के गर् को वह उसके घर वालों के माध्यम से ही निपटाना चाहता था क्या? क्योंकि गर्भ का प्रश्न हल हो जाने के बाद प्रियभांषु शादी के झमेले में पडने से भी बच सकता था। अगर ऐसी धारणा सही हो सकती है तो निरूपमा अपने परिजनों के साथ ही साथ अपने प्रेमी प्रियभांषु की भी साजिश का शिकार हुई है.

प्रेमी प्रियभांषु रंजन पर एक और गंभीर लापरवाही सामने आती है। प्रियभांषु के शब्दों में निरूपमा पाठक के परिजन किसी भी परिस्थिति में शादी नहीं होने देने के लिए कटिबद्ध थे। इसके लिए निरूपमा के परिजन प्यार, लोकलाज से लेकर इज्जत का भी हवाला देकर निरूपमा को प्रियभांषु से अलग करने की कोशिश कर चुके थे। निरूपमा पर उसके परिजनों ने कठोरता भी बरती थी। प्रियभांषु रंजन की ये सभी बातें सही हैं। ऐसी प्रक्रिया चली होगी। ऑनर किलिंग से पहले निरूपमा के परिजन ये सभी हथकंडे जरूर अपनाये होंगे। जो परिवार और जो घराना ऑनर किलिंग कर सकता है वह परिवार और घराना उसके पहले अपनी इज्जत का हवाला देकर कुछ भी कर सकता है। पिता द्वारा निरूपमा पाठक को लिखी गयी चिट्ठी भी इसकी गवाही देती है। यह सब यहां यह जताने के लिए तथ्य और ऑनर किलिंग की स्थितियां बतायी जा रही है ताकि यह स्पष्ट हो सके कि निरूपमा खतरे से घिरी हुई थी। खतरा उसके परिजनों से ही था। यह भी ज्ञात हुआ है कि वह कई महीनों से घर नहीं गयी थी। इस खतरे को देखते हुए भी निरूपमा अपने मां-पिता से मिलने झारखंड की कोडरमा शहर अपने घर गयी और जाने दिया गया। यह तो पहले से ही स्पष्ट था कि उसके परिजन किसी भी खतरनाक और लोमहर्षक प्रक्रिया को अपना सकते हैं। ऐसी स्थिति में प्रियभांषु रंजन को निरूपमा को कोडरमा जाने से रोकना चाहिए था। यह भी स्पष्ट हुआ है कि निरूपमा के प्रियभांषु के साथ प्यार और शादी के लिए जिद करने की जानकारी परिजनों को थी पर वह चार महीने की गर्भवती थी यह जानकारी निरूपमा के घर आने पर ही उसके परिजनो को हुई होगी। गांवों और कस्बायी महिलाओं को एक-दो दिन के गर्भ के लकक्षण भी पता चल जाते है, वह तो चार माह की गर्भवती थी।

प्रियभांषु कब चिल्लाया? वह महिला आयोग और पत्रकार संगठनों का दरवाजा कब खट-खटकाया? मीडिया कब अपनी खतरनाक प्रेम कहानी कब खोली? जब निरूपमा की हत्या हो चुकी थी। जब निरूपमा इस दुनिया में रही नहीं। ऐसी मुहिम का अब निरूपमा के लिए क्या मतलब? निरूपमा के परिजनों को सजा हो ही जायेगी पर निरूपमा की जान वापस आयेगी क्या? यह लापरवाही प्रिय ांषु जान कर की है या अनजाने में। इस तथ्य का पता लगाना मुश्किल है। पर उसने खतरनाक ढग से लापरवाही बरती ही है।

निरूपमा ऑनर किलिंग की ग्रास बनने की ओर अग्रसर हो रही है। ऐसी जानकारियां निरूपमा अपने प्रेमी प्रियभांषु रंजन को देती रही थी। एसएमएस और मोबाइल कॉल के द्वारा। टेलीविजनों और प्रिंट मीडिया में भी निरूपमा द्वारा प्रियभांषु रंजन को भेजे गये एसएमएस दिखाया गया। एसएमएस में निरूपमा लिखती है कि कोई एक्सटीम एक्शन मत लेना। यानी निरूपमा को अपनी हत्या की आशंका ही नहीं बल्कि पूरा विश्वास हो गया था। वह जान रही थी कि अब उसका बचना मुश्किल है। उसके भाई और भाई के दोस्त उस पर नजर रखे हुए थे। मां और पिता वापस दिल्ली आने देने के लिए किसी भी परिस्थिति में तैयार नहीं थे, जबकि निरूपमा दिल्ली आना चाहती थी और अपना कैरियर जारी रखना चाहती थी। ऐसी सूचना मिलने पर तत्काल उसे सहायता की जरूरत थी। पर निरूपमा को सहायता मिली नहीं। निरूपमा की जान खतरे में है यह जानकारी सिर्फ और सिर्फ प्रियभांषु रंजन को थी। प्रियभांषु रंजन ने निरूपमा को सुरक्षा दिलाने और उसकी जान बचाने की कोई कार्रवाई नहीं की। प्रियभांषु रंजन झारखंड ओर कोडरमा पुलिस से निरूपमा की जान बचाने की गुहार लगा सकता था। प्रत्रकार संगठनों को एक महिला पत्रकार की जान बचाने के लिए तत्काल मुहिम शुरू करने के लिए कह सकता था। इसके अलावा वह हाईकोर्ट जैसे जगह पर प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर कर निरूपमा को उसके परिजनों के चंगुल से मुक्त कराने का सफलतम प्रयास कर सकता था। क्या प्रियभांषु ने निरूपमा की जान बचाने के लिए पुलिस और हाईकोर्ट में गुहार लगायी? वह चुपचाप निरूपमा को ऑनर किलिंग के ग्रास में जाते देखता रहा। ऐसा मानो उसका निरूपमा से कोई वास्ता ही नहीं था।

जब घर वाले शादी के लिए राजी नहीं थे तब दोनों के पास कोर्ट मैरेज का विकल्प खुला था। हमारे जैसे अनेक लोगों का इस प्रकरण में राय यही बनी है कि अगर प्रियभांषु ने निरूपमा के साथ कोर्ट मैरेज कर लिया होता तो शायद यह हत्या नहीं होती। दिल्ली में आकर हत्या करने के लिए निरूपमा के परिजन सौ बार सोचते। ज्यादा से ज्यादा परिजन निरूपमा से नाता तोत्रड लेते। कई ऐसे उदाहरण सामने हैं जिसमें परिजनों के खिलाफ जाकर कोर्ट मैरिज हुई है और परिजनों से सुरक्षा के लिए कोर्ट भी खड़ा हुआ है। अंतरजातीय ही नहीं बल्कि अंतधार्मिक शादियां धत्रडडले के साथ हो रही हैं और न्यायालय-प्रशासन सुरक्षा कवज के रूप में खत्रडा है। यह एक संवैधानिक जिम्मेदारी भी है। निरूपमा और प्रियभांषु दोनो वर्किग पत्रकार थे। दोनों अपने पैरों पर खड़े थे। इसके बाद भी यह विकल्प नहीं चुना जाना हैरतअंग्रेज बात है। जबकि दोनों के बीच 2007 से ही प्रेम संबंध थे।

ऑनर किलिंग जैसी घटनाओ के लिए भारतीय समाज की विंसगतियां जिम्मेवार रही है। जातीय आधारित ारतीय समाज आज भी अपने को बदलने के लिए तैयार नहीं है। निरुपमा प्रकरण अकेली घटना नहीं है। अभी हाल ही में न्यायालय ने हरियाणा में ऑनर किलिंग पर कड़ी सजा सुनायी है। निरूपमा के हत्यारे परिजनों को कड़ी सजा मिलनी चाहिए। इसके लिए पत्रकार संगठनों की सक्रियता जरूरी है। पत्रकार संगठनों और मीडिया ने निरुपमा को न्याय दिलाने के लिए सुर्खियां पर सुर्खियां बना रही है। इसी का परिणाम हुआ कि निरूपमा की मां जेल के अंदर हुई और उसके अन्य परिजन भी जेल जाने की प्रक्रिया में खड़े हैं। निरूपमा प्रकरण से ऑनर किलिंग मानसिकता को सबक मिलना चाहिए। पर हमें लापरवाह, गैर जिम्मेदार, असुरक्षित-खतरनाक यौन संबंध पर भी गौर करना चाहिए। लापरवाह, गैर जिम्मेदार, असुरक्षित-खतरनाक यौन संबंधों की प्रेम कहानी ने निरूपमा को मौत के मुंह में धकेला है और इसके लिए उसके प्रेमी प्रियभांषु रंजन भी जिम्मेदार है। इसके लिए कानून भले ही उसे कोई सजा न दे लेकिन सामाजिक रूप से उसे इसकी सजा मिलनी ही चाहिए.

विस्फॊट डाट काम से साभार

Wednesday, April 21, 2010

बापू की पोती मिलना चाहती है नक्सलियों से!

नक्सल के लिए सरकार के साथ समाज है बराबर का जिम्मेदारः तारा देवी भट्टाचार्य

अनिल पुसॊदकर

बापू की पोती तारा देवी भट्टाचार्य छत्तीसगढ आई। वे यहां बापू के जीवन पर कस्तुरबा आश्रम मे लगी प्रदर्शनी का उद्घाटन करने आई थी। वे प्रेस क्लब भी आई और उन्होने समाज मे हो रहे बदलाव पर बेबाक राय व्यक्त की।उन्होने नक्सली हिंसा पर दुःख जताया और कहा कि वे उनसे मिलना चाहती है।नक्सली हिंसा के लिये उन्होने सरकार के साथ-साथ व्यवस्था और समाज को बराबर का ज़िम्मेदार ठहराया। उन्होने साफ़ कहा कि इस समस्या के लिये समाज मे व्याप्त विसंगतियां भी उतनी ही ज़िम्मेदार है जितनी सरकार।

बापू की पोती ने नक्स्ली हिंसा मे बेघर-बार हो रहे बच्चों को भी सहारा देने के लिये बा का घर,कस्तुरबा ट्रस्ट की ओर से पहल करने की बात कही।बापू पर भी खुल कर बोली तारा देवी।बापू की प्रासंगिकता पर पूछे गये सवाल पर उन्होने कहा कि बापू प्रासंगिक थे,हैं और रहेंगे।बापू के नाम पर राजनीति और कांग्रेस के उसपर एकाधिकार जताने पर उनका कहना था बापू सबके हैं और उनके नाम पर जितनी राजनिती हुई उसका अंशमात्र भी अगर समाज उनके विचारों पर अमल करता तो आज तस्वीर दूसरी होती।आज की युवा पीढी के सामने आदर्श का अभाव होने के सवाल पर उन्होने उलट सवाल किया कि तब बापू के सामने कौन आदर्श था।ये सब भटकाव को सही ठहराने के बहाने है।
उन्होने कहा कि हमने बापू को समझा लेकि जीवन मे उतारा ही नही।उन्होने कहा कि शिक्षा के क्षेत्र मे हमसे चूक हुई विनोबा और जयप्रकाश के विचारों से हम अपने बच्चों को अवगत नही करा पाये।

बापू को किताबो से बाहर लाकर विचारों मे शामिल करने की उन्होने ज़रूरत बताई।लगे रहो मुन्नाभाई फ़िल्म पर उन्होने कहा कि अच्छी फ़िल्म है और जिस भी माध्यम से लोग बापू को जाने-पहचाने,समझे तो बुरा क्या है।उन्होने फ़िल्मों को अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम बताया।उन्होने कहा कि हम अपने-अपने डर से सुरक्षा के लिये बंदूकधारी गार्ड रख रहें है जबकि आज ज़रूरत बंदूक की नही बंधु की है।

अमीर धरती गरीब लोग ब्लाग से साभार

Monday, April 19, 2010

मीडिया में आदिवासी कहां हैं?

आनंद प्रधान
दंतेवाड़ा की घटना के बाद माओवाद को लेकर मुख्यधारा के समाचार मीडिया में जारी पूरी बहस में लगभग एक सुर से उसे कुचल देने की वकालत की जा रही है. अखबारों और चैनलों में बिना किसी लाग-लपेट के कहा जा रहा है कि ‘बहुत हुआ, अब और बर्दाश्त नहीं किया जा सकता’(एनफ इस एनफ). सरकार को सलाह दी जा रही है कि माओवादियों को कुचलने के लिए खुला युद्ध छेड दिया जाना चाहिए जिसमें सेना और खासकर वायु सेना के इस्तेमाल से भी परहेज करने की जरूरत नहीं
है. हल्लाबोल वाले अंदाज़ में कहा जा रहा है कि माओवादियों/नक्सलियों के प्रभाव वाले इलाके भारत के हिस्से हैं और उनपर फिर से अपना ‘दबदबा बनाने’ के लिए सरकार को सैन्य ताकत का इस्तेमाल करने से हिचकिचाना नहीं चाहिए.

हालांकि मीडिया दबे स्वर में इन इलाकों में आदिवासियों और गरीबों की दशकों से जारी शोषण और उपेक्षा के तथ्य को स्वीकार कर रहा है लेकिन तर्क यह दिया जा रहा है कि माओवादी आदिवासियों का इस्तेमाल कर रहे हैं और शोषण और उपेक्षा का जवाब हिंसा नहीं हो सकती है. इस बहस में सबसे अधिक गौर करनेवाली बात यह है कि मुख्यधारा के मीडिया का बड़ा हिस्सा अत्यंत आक्रामक शैली में ‘वे’ यानि माओवादी/नक्सली और ‘हम’ यानि बाकी देश की भाषा में बात कर रहा है. साफ है कि माओवाद को लेकर मीडिया के रवैये में कोई बदलाव नहीं आया है बल्कि सिलदा, कोरापुट और अब दंतेवाड़ा की घटनाओं के बाद यह रूख और सख्त और आक्रामक हो गया है.

लेकिन सवाल है कि नक्सल प्रभावित इलाकों में वायुसेना के इस्तेमाल की वकालत करनेवाले मीडिया में अगर आदिवासी पत्रकार/संपादक भी काम कर रहे होते तो क्या उनकी भाषा इतनी ही आक्रामक और एकतरफा होती? क्या तब भी मीडिया ‘वे’ और ‘हम’ के अंदाज में बात करता? क्या तब मीडिया में यह तर्क दिया जाता कि आदिवासी इलाकों में विकास के नाम पर अंतहीन विस्थापन, भ्रष्टाचार, शोषण और लूट के बावजूद ‘हिंसा’ कोई विकल्प नहीं है? ये सवाल कुछ लोगों अटपटे और बेमानी लग सकते हैं लेकिन कई कारणों से बहुत महत्वपूर्ण हैं.

असल में, देश में आदिवासी समुदाय की बदतर सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिति और उन्हें हाशिए से भी बाहर धकेल दिए जाने का अंदाजा इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि मुख्यधारा के समाचार मीडिया में आदिवासियों की मौजूदगी न के बराबर है. जितनी मुझे जानकारी है, उसके मुताबिक देश के किसी भी अखबार/चैनल में संपादक या उससे निचले निर्णायक संपादकीय पदों पर आदिवासी खासकर पूर्वी और मध्य भारत के आदिवासी पत्रकार नहीं हैं. क्या यह हैरान करनेवाली बात नहीं है कि देश की आबादी में लगभग आठ फीसदी होने के बावजूद समाचार माध्यमों में आदिवासी समुदाय के पत्रकार एक फीसदी भी नहीं हैं? उससे भी अधिक हैरान करनेवाली बात यह है कि आदिवासी बहुल इलाकों और नक्सल प्रभावित क्षेत्रों जैसे रायपुर, रांची, भुवनेश्वर, जमशेदपुर और कोलकाता से प्रकाशित हिंदी-अंग्रेजी-उड़िया-बांग्ला अख़बारों में भी आदिवासी पत्रकारों की संख्या उँगलियों पर गिनी जाने लायक भी नहीं है और वरिष्ठ पदों पर तो बिलकुल शून्य ही है.

साफ है कि मुख्यधारा के मीडिया के समाचार कक्षों में आदिवासियों का प्रतिनिधित्व बिलकुल नहीं है. इससे मुख्यधारा के मीडिया के वर्गीय चरित्र का अंदाजा लगाया जा सकता है. निश्चय ही, यह मीडिया में मौजूद ‘लोकतान्त्रिक घाटे’ को प्रतिबिंबित करता है. यह उसकी बहुत बड़ी कमजोरी है. स्वाभाविक तौर पर इसका असर उनके कंटेंट और रूख पर दिखाई पडता है. आश्चर्य नहीं कि मीडिया में आदिवासी समुदाय की तकलीफों और भावनाओं की सच्ची स्टोरीज भी नहीं दिखती हैं. यही कारण है कि समाचार मीडिया का एक बड़ा हिस्सा युद्ध और हवाई हमलों में होनेवाले जान-माल के गंभीर नुकसान (कोलेटरल डैमेज) के बारे में बिना एक पल भी सोचे-विचारे खुला युद्ध छेड़ने की वकालत कर रहा है.

लेकिन क्या मुख्यधारा का मीडिया इस सवाल पर विचार करेगा कि वे कौन से कारण हैं जिनकी वजह से समाचार कक्षों में आदिवासी समुदाय का प्रतिनिधित्व नहीं है? क्या यह भी एक कारण नहीं है कि मीडिया की आवाज ‘उन’ आदिवासियों/इलाकों तक नहीं पहुंच पा रही है? सच पूछिए तो यह मीडिया के लिए खुद के अंदर झांकने का अवसर है. क्या मीडिया इसके लिए तैयार है?

Friday, April 9, 2010

माओवाद, मीडिया और सत्य की शक्ति

आनंद प्रधान
देश के पूर्वी राज्यों- छत्तीसगढ़, झारखण्ड और पश्चिम बंगाल में केंद्र और राज्य सरकारों ने माओवाद/नक्सलवाद के सफाए के लिए आपरेशन ग्रीन हंट शुरू कर रखा है. यू.पी.ए सरकार मानती है कि माओवाद देश की आतंरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा है. लेकिन कई मानवाधिकारवादी संगठन और जाने-माने बुद्धिजीवी आपरेशन ग्रीन हंट से सहमत नहीं हैं और उनका मानना है कि सुरक्षा बलों और माओवादियों के बीच युद्ध जैसी स्थिति में सबसे अधिक नुकसान आम आदिवासियों का हो रहा है. उनकी मांग है कि सरकार और माओवादियों को बातचीत करनी चाहिए और इसके लिए जरूरी है कि खून-खराबा तत्काल रोका जाए.

लेकिन अफसोस की बात यह है कि दोनों पक्षों में से कोई भी तर्क और विवेक की बात सुनने के लिए तैयार नहीं है. सवाल है कि ऐसी आंतरिक कनफ्लिक्ट की स्थिति में समाचार मीडिया की क्या भूमिका होनी चाहिए? क्या मीडिया को किसी एक पक्ष के साथ खड़ा हो जाना चाहिए या मध्यस्थता की कोशिश करनी चाहिए? या फिर इससे अलग पूरी निष्पक्षता के साथ सच्चाई और तथ्यों पर आधारित रिपोर्टिंग और इस मुद्दे पर विभिन्न विचारों को जगह देकर देश और समाज को इस प्रश्न पर एक आम राय बनाने में मदद करनी चाहिए. दुनिया भर के अनुभवों से यह स्पष्ट है कि समाचार मीडिया की भूमिका ऐसे मामलों में निष्पक्ष और तथ्यपूर्ण रिपोर्टिंग और दोनों पक्षों पर लोकतान्त्रिक तरीके से विवादों को सुलझाने के लिए उपयुक्त माहौल और दबाव बनाने की ही होनी चाहिए.

लेकिन अफसोस और चिंता की बात यह है कि समाचार मीडिया का एक बड़ा हिस्सा संघर्ष में पार्टी बन गया है. वह न सिर्फ खुलकर आपरेशन ग्रीन हंट का समर्थन कर रहा है बल्कि उसका वश चले तो माओवाद के सफाए के लिए वह उन इलाकों में सेना, टैंक और लड़ाकू विमान उतार दे. जाहिर है कि वह इस पूरे मसले के सैन्य समाधान का पक्षधर है. लोकतंत्र में सभी को अपनी राय रखने की आज़ादी है. अगर मीडिया का एक हिस्सा ऐसी राय रखता है तो यह उसकी आज़ादी है. जैसे ग्रीन हंट की आलोचना और उसे तुरंत रोकने की मांग करनेवालों को भी अपनी बात रखने की पूरी आज़ादी है. लेकिन समस्या तब हो जाती है जब इस पूरे मामले के सैन्य समाधान की राय रखनेवाले अखबार/चैनल खबरों को भी तोड़-मरोड़ कर पेश करने लगते हैं.

यही नहीं, इस आपरेशन के बारे में पुलिस और सुरक्षा बलों की ओर से उपलब्ध कराई गई सूचनाओं पर आधारित एकतरफा खबरें लिखी जाने लगती हैं. उससे भी अधिक चिंता की बात यह है कि आपरेशन ग्रीन हंट के इलाकों में वास्तव में क्या हो रहा है, इसकी कोई तथ्यपूर्ण और वस्तुनिष्ठ जमीनी रिपोर्ट नहीं आ रही है. इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़कर अधिकांश अखबारों/चैनलों ने इसकी रिपोर्टिंग के लिए वरिष्ठ और अनुभवी संवाददाताओं को ग्राउंड जीरो पर भेजने जहमत नहीं उठाई है. जबकि इस समय इस तरह की जमीनी रिपोर्टिंग की बहुत जरूरत है. इस तरह की जमीनी रिपोर्टिंग से वह सच्चाई सामने आ सकती है जो सरकार और माओवादियों दोनों को अपने-अपने स्टैंड पर दुबारा सोचने के लिए मजबूर कर सकती है.

ऐसा न होने का नुकसान यह होता है कि देश और समाज दोनों वास्तविकता से अनजान होते हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि यह किसी भी देश और समाज के लिए बहुत घातक हो सकता है. असल में, कई बार तात्कालिक कारणों और जरूरतों को ध्यान में रखकर जब सूचनाओं का मुक्त और खुला प्रवाह रोका जाता है तो दीर्घकाल में उसके नतीजे सबके लिए नुकसानदेह साबित होते हैं. कहते हैं कि अगर इराक पर हमले के पहले अमेरिकी मीडिया ने देशवासियों को सच्चाई बताई होती तो शायद इराक युद्ध नहीं होता और उसके कारण खुद अमेरिका को इतना नुकसान नहीं उठाना पडता. यही नहीं, वियतनाम युद्ध के शुरूआती दिनों में अगर अमेरिकी मीडिया ने जमीनी हालात का सही जानकारी दी होती तो युद्ध में अमेरिका को इतना नुकसान नहीं उठाना पडता और युद्ध बहुत पहले खतम हो जाता.

यह सवाल इसलिए अहम है क्योंकि समाज और देश की राय बदलती रहती है. संभव है कि कल कोई सरकार माओवादियों से बात करने को तैयार हो जाए और माओवादी भी अपना स्टैंड बदलकर बातचीत के लिए आगे आ जाएं. नेपाल में यह हो चुका है. भारत में यह क्यों नहीं हो सकता है? जरूरत सिर्फ इस बात की है कि मीडिया इसके लिए उपयुक्त वातावरण तैयार करे और इसकी शुरुआत निश्चय ही, तथ्यपूर्ण, वस्तुनिष्ठ और निष्पक्ष जमीनी रिपोर्टिंग से हो सकती है. आखिर सत्य में बहुत शक्ति होती है.

(दैनिक हिंदुस्तान, २८ मार्च)

Thursday, April 8, 2010

अरूंधति आओ,देखो 76 जवानों को मौत के घाट उतार दिया गया है?अच्छा लग रहा है ना सुनकर?पड़ गई ना कलेजे में ठंडक?हो गया ना तुम्हारा बस्तर आना सफ़ल?

अरूंधति आओ,देखो 76 जवानों को मौत के घाट उतार दिया गया है?अच्छा लग रहा है ना सुनकर?पड़ गई ना कलेजे में ठंडक?हो गया ना तुम्हारा बस्तर आना सफ़ल?तुम तो सात दिन रहीं थी नक्सलियों के साथ,है ना?उनकी दलाली मे एक बड़ा सा लेख भी लिख मारा था,है ना?बड़ी तारीफ़ हुई होगी,है ना?खैर रोकड़ा तो मिला ही होगा,इस बार नही पूछुंगा,है ना,क्योंकि इसका तो सवाल ही नही उठता।

क्या अब दोबारा बस्तर आओगी अरूंधति?क्या उन 76 जवानों की शहादत पर बिना रोकड़ा लिये कुछ लिख पाओगी?नही ना?हां तुम क्यों लिखोगी?तुम्हे तो यंहा की सरकार,यंहा की पुलिस शोषक नज़र आती है?तुम्हे अच्छे नज़र आते हैं खून की नदियां बहाने वाले नक्सली।तुम्हे अच्छे लगे हैं उनके शिविर मे दिखाये गये वीडियो।तुम्हे अच्छा लगा,उन वीडियो को देखकर वंहा बैठे नक्सलियों का उबाल मारता खून।तुम्हे अच्छा लगा तत्काल विस्फ़ोटक बना कर पुलिस पार्टी को उड़ाने को तत्पर भटके हुये युवाओं का जोश,है ना।भई ये मैं नही कह रहा हूं,मुझे किसी ने बताया कि तुमने बहुत दमदारी और दिल से नक्सलियों की अपने लेख मे वक़ालत की है।

खैर ये तो धंदे की बात है।मगर क्या तुम कल्पना कर सकती हो एक साथ 76 जवानो की बलि।इतने तो आजकल दो देशों की सीमाओं पर हुई मुठभेड़ मे नही मरते अरुंधति जी।दम है तो आओ एक बार फ़िर से बस्तर और उसका खून से सना चेहरा भी दिखाओ दुनिया को,खासकर अपनी उस दुनिया को जो गुज़रात,महाराष्ट्र मे जाकर मोमबत्तियां जलाता है।हिंदू धर्म की वकालत और विदेशी त्योहारों का विरोध करने वालों को पिंक चड़डियां भेजता है।क्या आओगी बस्तर मोमबत्तियां जलाने के लिये?कितनी जलाओगी और कंहा-कंहा जलाओगी?साढे छः सौ जवान शहीद हो चुके हैं हाल के सालों में।इतने शायद युद्ध मे भी नही मरते।आपके फ़ेवरेट स्टेट गुज़रात मे भी नही!

क्यों आओगी यंहा?है ना।सरकार से रोकड़ा तो मिलने वाला नही फ़िर इनसे संबंध का अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कोई लाभ भी नही?है ना।मगर सोचो,अरूंधति जवानों को अगर तुम क्रूरता करने वाले राज्य का अंग भी मान लो,तो भी इस घटना से एक और घटना भी तो पैदा हुई है।क्या 76 जवानों के मारे जाने से 76 बहने विधवा नही हुई हैं?क्या 76 बहने रक्षा-बंधन पर उन भाईयों का इंतज़ार नही करती रहेंगी?क्या 76 बूढी हो चली माताओं की कमज़ोर हो चली आंखों से आंसूओं की गंगा नही बह रह होगी?क्या उन्हे अब अपने लाड़ले दोबारा दिख पायेंगे?क्या उनके मुंह से ये नही निकल रहा होगा हे ईश्वर यही दिन दिखाने के लिये ज़िंदा रखा था?

किसने दिखाया ये दिन उन 76 परिवारों को?आपके उन चहेते कथित क्रांतिकारियों ने?जिनके आतिथ्य का सात दिनों तक़ लुत्फ़ उठाती रही आप?क्या आप जायेंगी उन 76 परिवारों मे से एक के भी घर?कैसी औरत हो?क्या औरत होकर भी औरतों का दर्द नही समझ पा रही हो?क्या असमय विधवा होने के दुःख पर नही लिख सकती कुछ तुम?क्या बुढी आंखो के आंसूओं का दर्द बयां नही कर सकती तुम्हारी कलम्।क्या औरतों पर सेक्स और पेज थ्री टाईप का ही लिखने मे मज़ा आता है?

आओ अरुंधति फ़िर से सात दिनों तक़ बस्तर आओ।और लिखो बस्तर का सच्।तब लगेगा कि तुम सच मे लिखने वाली हो वर्ना ऐसा लगेगा कि तुम नक्सलियों के प्रायोजित प्रोग्राम के तहत बस्तर आई थी और उनका पेमेंट लेकर पब्लिसिटी के लिये अपनी साख दांव पर लगा कर एक लेख लिख मारा है तुमने।दम है तो आओ बस्तर और कर दो सच को उज़ागर।बताओ दुनिया को कि यंहा असली शोषण कौन कर रहा है?बताओ,नक्सलियों के पास कैसे-कैसे घातक और आधुनिक हथियार हैं?बताओ उनको कैसे मिल रहे हैं हथियार?बताओ उनको और कौन-कौन कर रहा है मदद?

पर्दे के पीछे छीपे आप जैसे कितने और हमदर्द हैं उनके?उनकी मदद के आरोप मे पकड़ाये डा विनायक सेन को छुडाने के लिये पूरी ताक़त लगाने वाले कथित बुद्धिजीवी और मानवाधिकारवादियों के गिरोह कितना बड़ा है और उसकी जड़े कंहा-कंहा,किस-किस देश मे फ़ैली हुई है?है दम?तो आओ बस्तर एक बार फ़िर।वरना हम तो यही सवाल करेंगे,76 जवानों की मौत से खुश हैं ना आप?कलेजे मे ठंडक पड़ गई है ना?आपका बस्तर आना सफ़ल हो गया ना?

अमीर धरती गरीब लॊग ब्लाग से साभार

Monday, January 4, 2010

झारखंड का अविश्वास प्रस्ताव है यह जनादेश

आनंद प्रधान

झारखण्ड के मतदाताओं ने अपना फैसला सुना दिया है. जिसे खंडित जनादेश बताया जा रहा है, वह वास्तव में मुख्यधारा की सभी राजनीतिक पार्टियों के खिलाफ झारखंड की जनता का खुला अविश्वास प्रस्ताव है. उन्होंने साफ तौर पर किसी भी पार्टी या गठबंधन को जनादेश नहीं दिया है. इसके उलट उन्होंने त्रिशंकु विधानसभा बनाकर सभी पार्टियों को एक तरह की सजा दी है. याद कीजिये वाल्मीकि रामायण में त्रिशंकु की कहानी जो ईश्वरीय नियमों के विरुद्ध सशरीर स्वर्ग जाने की जिद के कारण सजा के तौर पर बीच में लटका दिए गए. झारखंड के मतदाताओं ने भी बिना सदकर्मों के सत्ता के स्वर्ग की मलाई चाटने को बेताब पार्टियों और उनके नेताओं को बीच में ही लटका दिया है.

असल में, झारखंड के मतदाताओं के पास इसके अलावा कोई वास्तविक विकल्प नहीं था. उनके पास जो विकल्प उपलब्ध थे, उनमें से सभी को वे आजमा चुके हैं और उनकी असलियत से परिचित हैं. यह तो नतीजों से साफ है कि वे इनमें से किसी को झारखंड की सत्ता सौंपने के लिए तैयार नहीं थे. इसमें जनता का कोई दोष नहीं है. आखिर वह और क्या कर सकती थी? वह मौजूदा दलों और गठबन्धनों में किसे और किस आधार पर बहुमत देती? झारखंड में सार्वजनिक सम्पदा और धन की लूट की राजनीति में मुख्यधारा के किस दल और गठबंधन का दामन साफ है? सच तो यह है कि झारखंड के इस हम्माम में सभी नंगे हैं. इसलिए जब नंगों के बीच ही चुनाव का विकल्प हो तो आम मतदाताओं की कठिनाई को आसानी से समझा जा सकता है.

सच यह है कि मुख्यधारा की बड़ी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों ने झारखंड के मतदाताओं को नए नारों और वायदों से छलने की कोशिश की जिसे लोगों ने नकार दिया. आज जो त्रिशंकु विधानसभा बनी है, उसके लिए मतदाता नहीं बल्कि झारखंड के नेता और पार्टियां जिम्मेदार हैं. क्या यह सोचने की बात नहीं है कि झारखंड में सत्ता की दावेदारी कर रही दोनों प्रमुख राष्ट्रीय पार्टियों- कांग्रेस और बी.जे.पी को लोगों ने राज्य की आधी सीटों के लायक भी नहीं समझा है? दोनों ही पार्टियों को राज्य की कुल विधानसभा सीटों में से लगभग एक तिहाई सीटें ही मिल पाई हैं. साफ है कि झारखंड के मतदाताओं ने इन दोनों राष्ट्रीय पार्टियों को नकार दिया है. उन्हें शासन का जनादेश तो कतई नहीं मिला है. यह उनके लिए सबक है.

ऐसे ही क्षेत्रीय दलों जैसे शिबू सोरेन के नेतृत्ववाली झामुमो, बाबूलाल मरांडी की झाविमो, लालू प्रसाद की आर.जे.डी को भी मतदाताओं ने अपने विश्वास के लायक नहीं पाया. यही कारण है कि ये तीनो भी मिलकर एक तिहाई के आसपास ही सीटें जीत पाए हैं. यह क्षेत्रीय पार्टियों के लिए भी सबक है. यही नहीं, जहां तक संभव हो सका मतदाताओं ने अपने मौजूदा विधायकों को भी सबक सिखाने कि कोशिश की है. पिछली विधानसभा के 81 में से सिर्फ 20 "माननीय" विधायक ही दोबारा चुनाव जीत कर वापस लौट पाए हैं. साफ है कि मौजूदा स्थितियों में झारखंड के मतदाता जो कर सकते थे, उन्होंने वह किया है. उन्होंने सबको सबक सिखाने की कोशिश की है.

असल में, यह सबक से ज्यादा पूरे राजनीतिक वर्ग को एक गंभीर चेतावनी है. उन्हें इस जनादेश में छिपे उस अविश्वास को जरूर पढ़ना चाहिए जो झारखंड की जनता ने उनके प्रति व्यक्त किया है. यह जनादेश बताता है कि झारखंड में मुख्यधारा के राजनीतिक दल और नेता जनता की उम्मीदों की कसौटी पर विफल हो गए हैं. उनके कारण ही वह राज्य जो जनता के लम्बे संघर्षों और कुर्बानियों के बाद बना, अब एक "विफल राज्य" बनता जा रहा है. विकास और गवर्नेंस के किसी भी सूचकांक पर देख लीजिये, अलग राज्य बनने के बाद झारखंड आगे बढ़ना तो दूर पीछे ही गया है. आज झारखंड को छोटे राज्यों के खिलाफ एक तर्क और उदाहरण की तरह पेश किया जा रहा है. अब तो लोगों की उम्मीदें भी टूटने लगी हैं. वे निराश हो रहे हैं. इन्हीं टूटती हुई उम्मीदों की किरचें आप इस जनादेश में देख सकते हैं.

लेकिन लगता नहीं है कि झारखंड के इस सबक और चेतावनी को राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों ने गंभीरता से लिया है. वे अपने अन्दर झांकने और गंभीर आत्मालोचना के बजाय झारखंड की जनता को ही दोषी ठहराने पर तुल गई हैं. कहा जा रहा है कि झारखंड की जनता ने खुद त्रिशंकु विधानसभा बनाकर राजनीतिक अस्थिरता और जोड़तोड़ और खरीदफरोख्त की राजनीति को प्रोत्साहित किया है. यह कहने के पीछे एक छिपी हुई धमकी भी है कि अब जनता को ही इस त्रिशंकु विधानसभा के कारण पैदा होनेवाली राजनीतिक अस्थिरता और जोड़तोड़ - खरीदफरोख्त की राजनीति की कीमत चुकानी पड़ेगी. भाजपा के चतुर-सुजान और महापंडित तो अंगूर खट्टे होने के अंदाज़ में यहां तक कह रहे हैं कि पार्टी ने बहुत कोशिश की लेकिन झारखंड की जनता ने भ्रष्टाचार, कुशासन और महंगाई को मुद्दा नहीं माना, इसीलिए पार्टी को बहुमत नहीं दिया. गोया भाजपा ईमानदारी और सुशासन की प्रतीक हो और उसे सत्ता मिल जाने पर महंगाई तुरंत छू-मंतर हो जाती.

साफ है कि झारखंड के नतीजों से इन पार्टियों ने कोई सबक नहीं सीखा है. यही कारण है कि एक बार फिर से राज्य में सत्ता की बंदरबांट शुरू हो गई है. सत्ता की मलाई के लिए नीलामी लगनी शुरू हो गई है. मोलतोल हो रहा है. लेनदेन के आधार पर सौदे पटाए जा रहे हैं. इसमें कोई पीछे नहीं है. सब कह रहे हैं कि उनके सभी "विकल्प" खुले हैं. किसी में इतना नैतिक साहस नहीं है कि वह कहे कि उसे जनादेश नहीं है और वह विपक्ष में बैठने के लिए तैयार है. साफ है कि झारखंड में सत्ता पर दांव बहुत ऊंचे हैं. कोई भी सत्ता की उस मलाई को छोड़ने के लिए तैयार नहीं है जिसकी "संभावनाएं" पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा और उनके साथियों के कार्यकाल में जगजाहिर हो चुकी हैं. सभी इन "संभावनाओं" का दोहन करने के लिए बेकरार हैं.

इसलिए आश्चर्य नहीं होगा, अगर झारखंड में " साफ सुथरी, ईमानदार और आम आदमी के हित में काम करनेवाली सरकार" के नारे के साथ एक निहायत ही अवसरवादी गठबंधन सरकार बना ले जिसमें एक बार फिर से वही पार्टियां और चेहरे हों जिनपर झारखण्ड की जनता के साथ दगा करने के आरोप हैं. एक बार फिर बाई डिफाल्ट वे सरकार में होंगें, जिन्हें झारखण्ड की जनता ने शासन चलाने लायक नहीं समझा. कहने की जरूरत नहीं है कि केवल सत्ता की गोंद से चिपका ऐसा कोई भी अवसरवादी गठबंधन और उसकी सरकार उन पिछली सरकारों से किसी भी तरह से अलग नहीं होगी जिनपर झारखंड को लूटने और कुशासन के गंभीर आरोप रहे हैं. वास्तव में, जोड़तोड़ और खरीदफरोख्त के आधार पर बननेवाली कोई भी सरकार जनता की नहीं बल्कि झारखण्ड की कीमती खनिज संसाधनों के दोहन में लगी देशी-विदेशी कंपनियों, पट्टेदारों, ठेकेदारों, माफियाओं और नेताओं-नौकरशाहों की सेवा ही करेगी.

यही सच है और यही झारखण्ड जैसे खनिज संसाधन संपन्न राज्यों की त्रासदी की सबसे बड़ी वजह भी है. झारखंड की राजनीतिक अस्थिरता की जड़ें वास्तव में राज्य में सार्वजनिक धन और खनिज और प्राकृतिक सम्पदा की खुली लूट में धंसी हुई हैं और उसे वहीँ से खाद-पानी मिल रहा है. राजनीतिक प्रक्रिया को भ्रष्ट देशी-विदेशी कंपनियों, खदान मालिकों, ठेकेदारों, राजनेताओं, माफियाओं और नौकरशाहों के मजबूत गठजोड़ ने बंधक बना लिया है. इस हद तक कि सरकार चाहे जिस रंग और झंडे की हो, राज इसी गठजोड़ का चलता है. सच यह है कि राज्य की सभी पार्टियां, उनके नेता और तथाकथित निर्दलीय इस गठजोड़ के मोहरे भर हैं. मोहरे और चेहरे बदलने से राज नहीं बदलता. यही कारण है कि झारखंड में राजनीतिक प्रक्रिया बेमानी होकर रह गई है. इस बेमानी प्रक्रिया से किसी मानी जनादेश की उम्मीद कैसे की जा सकती है?

दोहराने की जरूरत नहीं है कि इस गठजोड़ की ताकत राज्य के कीमती खनिज और प्राकृतिक संसाधनों और सार्वजनिक धन के लूट पर टिकी हुई है. इस लूट का कुछ अनुमान मधु कोड़ा और उनके साथियों के खिलाफ लगे आरोपों से लगाया जा सकता है. हालांकि झारखंड बनाने की लड़ाई के केंद्र में सबसे बड़ा मुद्दा इसी लूट को रोकना था लेकिन अफसोस की बात यह है कि राज्य बनने के बाद से यह लूट और तेज हुई है. इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि 2000 - 01 में राज्य से दोहन किये गए खनिजों का कुल मूल्य 459 करोड़ रूपये था जो सिर्फ छह वर्षों में 22 गुना उछलकर 10201 करोड़ हो गया. यह कानूनी खनन के आंकड़े हैं जबकि नेताओं-नौकरशाहों की शह पर फलफूल रहे गैरकानूनी खनन के बारे में ठीक-ठीक अनुमान लगाना थोडा मुश्किल है लेकिन मोटे अनुमानों के अनुसार राज्य में कुल कानूनी खनन का लगभग 25 से 30 प्रतिशत गैरकानूनी खनन हो रहा है. कुछ लोगों का तो मानना है कि गैरकानूनी खनन, कानूनी खनन के बराबर पहुंच चुका है.

आश्चर्य नहीं कि इस बीच राज्य के माननीय विधायकों की संपत्ति में भी इसी अनुपात में वृद्धि दर्ज की गई है. इलेक्शन वाच के मुताबिक झारखंड में दोबारा चुनाव लड़ रहे 37 विधायकों की संपत्ति में पिछले 5 साल में 3454 प्रतिशत की रिकार्ड बढ़ोत्तरी हुई है. पांच साल में कानूनी संपत्ति में साढ़े चौंतीस गुना की बढ़ोत्तरी कोई मामूली "उपलब्धि" नहीं है. इसने खनिज संसाधनों के दोहन में 22 गुना वृद्धि के रिकार्ड को भी पीछे छोड़ दिया है. लेकिन इसी बीच झारखंड के गांवों में गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर करनेवालों की तादाद बढ़कर लगभग 52 तक पहुंच गई है. यही नहीं, मानवीय, सामाजिक और आर्थिक विकास के हर सूचकांक पर झारखंड के गरीब आदिवासी सबसे निचले पायदान पर पहुंच गए हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि खनिज संसाधनों के दोहन और माननीय विधायकों की संपत्ति में रिकार्डतोड़ वृद्धि और राज्य में 50 फीसदी से अधिक गरीबों की तादाद के बीच सीधा सम्बन्ध है.

शायद यही कारण है कि झारखंड "धनी राज्य के गरीब निवासी" का एक त्रासद और दुखद उदाहरण बन गया है. जाहिर है कि राज्य को इस दुष्चक्र से निकालने की उम्मीद उस राजनीतिक वर्ग से नहीं की जा सकती है जिसके निहित स्वार्थ इस दुष्चक्र के साथ बहुत गहरे जुड़े हुए हैं. क्या इसका अर्थ यह है कि झारखंड में इस दुष्चक्र से बाहर निकालने के सारे रास्ते बंद हो चुके हैं? ऐसा बिलकुल नहीं है लेकिन मुख्यधारा के मौजूदा राजनीतिक दलों से बहुत उम्मीद नहीं की जा सकती है. झारखंड की मुक्ति राज्य के प्राकृतिक और खनिज संसाधनों और सार्वजनिक धन की लूट के खिलाफ और गरीबों और आदिवासियों को रोजगार, सम्मान और "जल, जंगल और जमीन" पर अधिकार देने के अजेंडे के साथ शुरू होनेवाले एक बड़े जनांदोलन के गर्भ से ही हो सकती है. पिछले दो चुनावों के नतीजों से यह साफ हो चुका है कि मौजूदा बाँझ चुनावी राजनीति से कुछ नहीं निकलनेवाला है. जनांदोलन की आग ही झारखंड की राजनीति के कूड़े-करकट को खत्म कर सकती है. सवाल है कि इस चुनौती को कौन स्वीकार करेगा?

(जनसत्ता, 26 दिसम्बर'09 )

Sunday, January 3, 2010

एक कम्बल के लिए हत्या - अपराधी कौन?

आनंद प्रधान
इस समय जब पूरा देश नए साल और हमारा मीडिया नए दशक के स्वागत में बावला हुआ जा रहा है, मुझसे इस स्वागतगान के बेतुके और कुछ हद तक अश्लील कोरस में शामिल नहीं हुआ जा पा रहा है। मैं आपका नया साल ख़राब नहीं करना चाहता लेकिन क्या करूँ, मानसिक रूप से कल से ही बहुत परेशान हूँ।

सवाल यह है कि क्या कोई इस कड़ाके की ठण्ड में सिर्फ एक कम्बल के लिए किसी की जान ले सकता है? बात बहुत छोटी सी लगती है या कम से कम ऊपर से ऐसी दिखती है। हालांकि बात इतनी छोटी भी नहीं है। पर दिल्ली के अधिकांश अख़बारों ने उसे इसी तरह देखा। उनके लिए यह एक कालम की अपराध डायरी जैसी छोटी सी खबर थी, जो अन्दर के पन्नों पर रूटीन खबर की तरह डाल दी गई थी।

पता नहीं आपने दिल्ली के लगभग सभी अख़बारों में अन्दर के पन्नों पर छपी उस खबर को पढ़ा या नहीं लेकिन मैंने जब से पढ़ी है, नए साल का जश्न अश्लील सा लगने लगा है। खबर कुछ इस तरह से है- 27 और २८ दिसंबर की रात जब दिल्ली ठण्ड से कांप रही थी और पारा ५ डिग्री तक लुढ़क गया था, देशबंधु गुप्ता रोड इलाके में सोनू नामके एक १५ वर्षीय लडके की हत्या कर दी गई थी। वह दिल्ली में सड़क पर बीडी-सिगरेट आदि का एक छोटा खोका लगाकर गुजर-बसर करता था। वह सड़क पर ही सोता भी था। ठण्ड से बचने के लिए उसने एक नया कम्बल ख़रीदा था। लेकिन हत्या के बाद कम्बल गायब था।

पुलिस जाँच में यह बात सामने आई है कि उस इलाके में एक और बेघर श्रवण के पास कल से नया कम्बल दिख रहा है। पुलिस ने उसे पकड़कर पूछताछ की तो पता चला कि उस रात कड़ाके की ठण्ड से बचने के लिए उसे कोई ठौर नहीं मिल रहा था। उसके पास कम्बल भी नहीं था। ठण्ड बर्दाश्त से बाहर थी। श्रवण ने रात में सोनू का कम्बल उठाने की कोशिश की. लेकिन सोनू जग गया। इसके बाद श्रवण ने उस कम्बल के लिए पत्थर मारकर सोनू की हत्या कर दी। श्रवण को सोनू की हत्या के जुर्म में गिरफ्तार कर लिया गया है और वह जेल में है।

कहानी सिर्फ इतनी सी है। लेकिन मेरे लिए यह तय करना मुश्किल हो गया है कि मैं किसे अपराधी मानूं? क्या नया कम्बल खरीदना सोनू का गुनाह था? या हाड़ कंपानेवाली ठण्ड से बचने के लिए कम्बल हथियाने की कोशिश में हत्या तक कर देनेवाले श्रवण को अपराधी मानूं?

उम्मीद है कि उसे जेल में एक ठीक-ठाक कम्बल जरूर मिल गया होगा। यह भी कि अब उसे दोनों जून खाना भी मिल जाता होगा। हमारी-आपकी तरह न सही लेकिन श्रवण को कड़ाके की ठण्ड से कुछ राहत जरूर मिल गई होगी।

क्या आप बता सकते हैं कि अपराधी कौन है? मुझे तो लगता है कि अपराधी हम सब हैं जिन्होंने खुद की ठण्ड से आगे देखना और सोचना बंद कर दिया है ।