Wednesday, December 29, 2010

हो गई है पीर पर्वत-सी

नवनीत गुर्जर

मौजूदा स्थिति भयावह है। सरकारी बयान। घोषणाएं। फैसले। इन सब को एक साथ देखें तो गुर्जरों का आरक्षण हिमालय से कम नहीं। ऊपर। बहुत ऊपर। चारों तरफ बर्फ है। ...और सबसे ऊंची चोटी पर पड़ी हैं नौकरियां। सरकार उनकी तरफ एक कल्पनातीत (नोशनल नहीं लिखने के लिए क्षमा सहित) इशारा तो कर रही है। ...लेकिन उस ऊंची चोटी, जहां आरक्षण चमचमा रहा है। हिमालय का वह शिखर जहां काल्पनिक नौकरियां पड़ी बर्फ फांक रही हैं, उसका रास्ता कोई सरकारी गोमती नहीं बताती।

हिमालय की अपनी मर्यादा है। वह झुक नहीं सकता। सरकार और उसके तंत्र की अपनी आदत है। वह राजनीति से बाज नहीं आ सकता। ऐसे में गुर्जरों के पास आरक्षण हासिल करने या नौकरियां पाने के लिए हिमालय पर चढऩे के अलावा चारा क्या है? यहां तमाम आंदोलनकारियों और इस आंदोलन से परेशानी उठा रहे लोगों के पास समाधान का एक ही रास्ता है। उस ऊंची चोटी से कोई गंगा निकले और आरक्षण या नौकरियां पिघलकर नीचे आ जाएं। गुर्जर तो पटरी से हटने को तैयार बैठे हैं। ...तो देर किस बात की। याद कीजिए-महान कवि दुष्यंत, और उनकी यह कविता...

‘हो गई है पीर पर्वत-सी

पिघलनी चाहिए,

इस हिमालय से कोई गंगा

निकलनी चाहिए।’

लेखक दैनिक भास्कर राजस्थान के स्टेट एडिटर हैं

Tuesday, December 28, 2010

सरकारें होती ही इसलिए हैं, कि बैसला आंदोलन कर सकें

नवनीत गुर्जर

शरद जोशी ने लिखा था- देश में नदियां होती हैं। नदियों पर पुल बने होते हैं। पुल इसलिए होते हैं, कि नदियां उनके नीचे से निकल सकें। कहा जा सकता है कि राजस्थान में लोग होते हैं। लोगों की एक सरकार होती है। सरकार इसलिए होती है कि कुछ लोग आंदोलन कर सकें और वे आंदोलनकारी बाकी लोगों के जीवन की तमाम पटरियां उखाड़ सकें।

दरअसल, आंदोलन तेज होने पर जो सरकार शांति की अपील और वार्ताओं के दौर चलाने में जितनी मुस्तैदी दिखाती है, वही सरकार आंदोलन खत्म होने पर उतनी ही सुस्त हो जाती है। कहते हैं- बैर क्रोध का अचार या मुरब्बा होता है। सरकारें ही आंदोलनकारियों के क्रोध को बैर में तब्दील करती हैं। बैर भी इस हद तक, कि एक गुर्जर मंत्री अपना इस्तीफा सौंपकर उन्हें मनाता है, वे तब भी नहीं मानते।

गुर्जरों का कहना है कि उनके साथ अन्याय, घोर अन्याय हुआ है। अगर गुर्जरों की ही मानें, तो क्या पूरे भारत या पूरे राजस्थान की, समूची व्यवस्था ही अन्यायपूर्ण है? गुर्जरों के संदर्भ में यह तर्क हो सकता है। ...लेकिन पूरे राजस्थान के संदर्भ में यह कुतर्क है।

राज्य सरकार का कहना है कि वह गुर्जरों की पीड़ा से सहमत है और जल्द ही इसका हल करने को तत्पर। हकीकत यह है कि एक सरकार गई। दूसरी आ गई। लेकिन दोनों की तत्परता पांच साल से बेपरवाही की किसी सूखी बावड़ी से पानी भरती रही।

...तो क्या राजस्थान के गुर्जरों की समस्या भारत-पाकिस्तान के बीच कश्मीर की तरह है?...और क्या बैसला, बैसला नहीं, अमानुल्ला खां हैं, जो आधे कश्मीर पर राज करने को स्वतंत्र हैं? और हम सब किंकर्तव्यविमूढ़?

नहीं। ऐसा नहीं है। कतई नहीं। सरकारें वादे करती रहीं। पूरे किसी ने नहीं किए। न उस सरकार ने। न इस सरकार ने। पूरे राज्य की सांस अटकाने के लिए दोषी बैसला हैं, तो सरकार भी है। हम राजस्थानियों का न्यू ईयर बिगाडऩे के दोषी बैसला हैं तो उतनी ही जिम्मेदार सरकार भी है। ये सरकार भी। वो सरकार भी। बैसला को शायद इसलिए ज्यादा जिम्मेदार कहा जा सकता है कि आंदोलन से पाई प्रसिद्धि को उन्होंने एक राजनीतिक दल के टिकट के रूप में भुनाना चाहा। हैरत इस बात की है कि ऐसे आंदोलनों में भी सत्ता में बैठे दल आम आदमी के बारे में सोचने के बजाय आंदोलन से उभरते नेताओं में अपनी पार्टी की एक लोकसभा सीट ढूंढ़ते नजर आते हैं।

बड़ी हैरत इस बात की है कि छोटे से लेकर शीर्ष पदों तक जातीय गणित देखने वाली सरकार के पास किसी जातीय आंदोलन से दो-चार होने की इच्छाशक्ति ही नहीं है। दरअसल, ऐसी स्थितियां तब होती हैं जब सरकार खुद कोई निर्णय लेने के बजाय हर स्थिति में व्यवस्था के किसी और तंत्र के आदेश के लिए उतावली लगती है। निश्चित तौर पर वह तंत्र सर्वमान्य है। लेकिन सरकार भी तो कुछ करे! अगर नहीं करना चाहती, तो उसकी जरूरत ही क्या? वह है ही क्यों?

लेखक दैनिक भास्कर राजस्थान के स्टेट एडिटर हैं

Saturday, December 25, 2010

बदलते मतदाताओं की पहली दस्तक

बड़े नेताओं के विरोध के बावजूद जीते कांग्रेसी, क्या मतदाताओं ने भाजपा से दूरी बनाया
मृगेंद्र पांडेय

छत्तीसगढ़ में नगर पालिका के चुनाव ने कुछ नए संकेत दिए हैं। रमन सिंह की सरकार बनने के बाद से ही किनारे होते जा रही कांग्रेस को नई ऊर्जा मिली है। मुख्यमंत्री आवास से १५ किलोमीटर दूर भाजपा की सत्ता उड़ गई। बिरगांव नगर पालिका में भाजपा न तो अध्यक्ष पद पर कब्जा कर पाई, न ही पार्षद पद को ही अपनी पाले में लाई। यह संकेत मतदाताओं के बदलते मिजजा की पहली दस्तक है। भाजपा जिस विकास की बात करती है, दरअसल मतदाताओं को वह होता नजर नहीं आ रहा है। अगर विकास की बात ही होती तो यहां छह महीने तक भाजपा का अध्यक्ष था। उसे भी पार्टी ने उम्मीदवार भी बनाया था। फिर भाजपा की हार कैसे हो गई।

भाजपा लगातार छत्तीसगढ़ को विश्वसनीय बताने में लगी है। मुख्यमंत्री रमन सिंह से लेकर अधिकरी-मंत्री सब विश्वसनीय होने का पाठ पढ़ रहे हैं। लेकिन जनता की अदालत उनकी विश्वसनीयता की पोल खोल रही है। बिरगांव में कांग्रेस उम्मीदवार पर करोड़ों रुपए के गबन का आरोप था। उसके जेल जाने को भाजपा ने बड़े जोर-शोर के साथ प्रचारित किया। यही नहीं, कांग्रेस के बड़े नेताओं जैसे विद्या भैया का समर्थन भी उसे नहीं था। बावजूद इसके ओमप्रकाश देवांगन ने जीत दर्ज की। विधानसभा चुनाव में बिरगांव में कांग्रेस को वोट नहीं मिलने के कारण कांग्रेस के कद्दावर मंत्री सत्यनारायण शर्मा को हार का सामना करना पड़ा था।

अब बात भिलाई नगर निगम की। यहां भी कांग्रेस उम्मीदवार निर्मला यादव ने भाजपा की हेमलता वर्मा को पांच हजार से ज्यादा वोट से हराया। हेमलता पर भिलाई की दिग्गज भाजपा नेता सरोज पांडे का हाथ था। प्रचार अभियान के दौरान सरोज ने हेमलता के पक्ष में पूरा जोर लगाया। जबकि निर्मला यादव को मोतीलाल वोरा के समर्थन के कारण टिकट दिया गया। जिस समय निर्मला को टिकट दिया गया, रायपुर में कांग्रेस भवन के बाहर पूर्व महापौर नीता लोधी डेरा डाले हुए थी। निर्मला के नाम पर पहली नाराजगी बदरुद्दीन कुरैशी ने जताई, जब बैठक में उनका नाम आया। नीता ने निर्दलीय पर्चा भी भर दिया। बावजूद इसके जीत निर्मला की ही हुई।

बिरगांव और भिलाई के चुनाव बताते हैं कि कांग्रेस उम्मीदवार का पार्टी में ही भारी विरोध था। दोनों बड़े नेताओं के गले नहीं उतर रहे थे। नेताओं ने प्रचार में भी पूरी तरह से साथ नहीं दिया। तो क्या यह माना जाए कि दोनों कांग्रेसी व्यक्तिगत छवि के आधार पर जीते हैं। यह सच नहीं हो सकता है, क्योंकि ओमप्रकाश पर गबन का आरोप था और निर्मला की कोई अलग पहचान नहीं थी। मतलब साफ है कि मतदाताओं ने अपना काम करना शुरू कर दिया है। अब बारी भाजपा की है। अगर वह मतदाताओं की नब्ज को भांप जाती है, तो तीसरी पारी आसान होगी, वर्ना जनता के लिए कांग्रेस एक आसान विकल्प है ही।

Thursday, December 9, 2010

बनारस: बना रहे रस

मृगेंद्र पांडेय
पिछले २७ साल में जब से यह जानने लगा हूं कि क्या सही है और क्या गलत तब से बनारस के बारे में सोच रहा हूं। पिछले कुछ साल से भले ही बनारस में नहीं रहा, लेकिन उसके पल-पल की खबर लेते रहा हूं। संकट मोचन वाले हनुमान जी पर जब संकट के बम फटे थे, तब मैं दिल्ली में था। रेलवे स्टेशन से लेकर पूरे शहर में खून ही खून नजर आ रहा था। समाचार चैनल हर पल की रिपोर्ट दे रहे थे। लोगों को लगा कि अयोध्या मामले के बाद एक बार फिर बनारस में विवाद की स्थिति पैदा हो जाएगी, लेकिन बनारस की समझ ने लोगों की आशंकाओं को सिरे से खारिज कर दिया। उस समय भी बनारस ने बताया था कि उसकी आत्म उन आतंकियों से कई गुना ज्यादा मजबूत है, जो सिर्फ हैवानियत की भाषा जानते हैं।

मंगलवार को भी ऐसा ही करने की कोशिश की गई। बनारस में गंगा आरती का अपना ही महत्व रहता है। दूर-दूर से लोग सिर्फ गंगा आरती को देखने के लिए आते हैं। लोगों की आस्था से जुड़ी है गंगा आरती। उस आस्था को तोडऩे की कोशिश की गई। पहली बार बाबा विश्वनाथ, फिर संकट मोचन और अब गंगा मईया। हर बार उनको मुंह की खानी पड़ी। बीबीसी के दिल्ली ब्यूरो चीफ मार्क टूली ने अपनी एक किताब में अयोध्या हादसे के बाद लिखा था कि बनारस में कोई भी दंगा नहीं चाहता। न तो हिंदू अयोध्या में मंदिर बनाने के लिए पहल कर रहे हैं, न ही मुस्लिम मस्जिद के लिए जेहाद छेडऩे की तैयारी में है। मतलब साफ था कि हमारा बनारस किसी के बहकावे में आने वाला नहीं है।

लंबे समय बाद हुए धमाकों ने सरकार और खूफिया विभाग को भी सोचने पर मजबूर कर दिया कि आखिर वे सुस्त हैं। उत्तर प्रदेश में चुनावी बयार शुरू होने वाली है। इस धमाके को उस चुनावी बयार की दस्तक के रूप में भी देखा जा रहा है। बनारस के लोगों को लगने लगा है कि यह राजनीतिक लड़ाई है। ऐसे में साफ है कि राजनीतिक दल इसका लाभ लेने की पूरी कोशिश करेंगे। लेकिन हमें उम्मीद है कि हमारे बनारस का रस बना रहेगा, चाहे वह आतंकी लड़ाई हो या फिर राजनीतिक।