Saturday, December 27, 2008

चुप्पी पर खड़े हुए कई सवाल

देश के दो बड़े दलों की चुप्पी दरअसल फायदे की तलाश में है। दोनों दलों को इस बात का एहसास है कि लोकसभा चुनाव के बाद बसपा इस बार सपा को पिछाड़कर उत्तर प्रदेश में सबसे बड़े दल के रूप में उभरेगी। ऐसे में दोनों ही दल मायावती की नाराजगी मोल लेने के मुड में नजर नहीं आ रही है।

मृगेंद्र पांडेय

उत्तर प्रदेश में एक इंजीनियर की हत्या कर दी जाती है। आरोप प्रदेश की बसपा सरकार के विधायक पर लगता है। हत्या का कारण बहन मायावती के जन्मदिन पर पैसे की उगाही बताया जा रहा है। लेकिन देश के दो बड़े राजनीतिक दल खुलकर विरोध नहीं कर रहे हैं। आखिर इसका कारण क्या है। क्यों कांग्रेस और भाजपा इस मुद्दे पर खुलकर बोलने को तैयार नहीं है। क्यों इन दलों के बड़े नेता मामले को राजनीतिक रंग देने का विरोध कर रहे हैं। इंजीनियर की मौत और मायावती के जन्मदिन के लिए विधायकों और सांसदों को दिए गए टार्गेट पर दोनों दलों की चुप्पी कई सवाल खड़े कर रही है।
प्रदेश में मायावती के खिलाफ मोर्चा खोलने का सपा कोई मौका नहीं छोड़ना चाहती, लेकिन प्रदेश में उसकी सहयोगी कांग्रेस ऐसा न करके सपा को बैकफुट पर करने की कोशिश कर रही है।

दरअसल मामला केंद्र की आगामी सरकार बनाने का है। चुनाव के बाद जब किसी दल को पूर्ण बहुमत नहीं मिलेगा, उस समय बसपा ऐसी स्थिति में होगी की वह प्रभावी भूमिका निभा सके। ऐसे में कांग्रेस और भाजपा दोनों ही इसके साथ गठजोड़ करने की कोशिश में लगेंगे। यही कारण है कि कांग्रेस के राजकुमार राहुल गांधी ने मामले को राजनीतिक रंग देने से कांग्रेसजनों को हिदायत दी।


वहीं हाल भगवा पार्टी का भी है। लालकृष्ण आडवाणी को देश का प्रधानमंत्री बनाने की जुगत में लगी भाजपा भी इस प्रकार को कोई खतरा मोल लेना नहीं चाहती है। यही कारण है कि पार्टी ने प्रदेश स्तर पर तो बसपा के खिलाफ प्रचार करने का फैसला किया, लेकिन आला नेताओं की एक बड़ी फौज इसके खिलाफ नजर आई। भाजपा का मानना है कि इस मामले पर जोर-शोर से विरोध करने पर भी बसपा के कमजोर होने का फायदा उसे मिलने वाला नहीं है। बसपा की कमजोरी का फायदा सपा को मिलेगा जो उसके लिए घातक है। यहीं हाल कांग्रेस का है। कांग्रेस भी जानती है कि फायदा उसे नहीं होगा और सपा तो मोर्चा खोले हुए ही है। ऐसे में चुप्पी साधना ही फायदेमंद होगा।


नफा नुकसान के गणित को जनता बखुबी जानती है। वह यह भी जानती है कि जिन्हें सिर-आंखों पर चढ़ाया है, उन्हें उतारा कैसे जाता है। दरअसल यही लोकतंत्र है। ऐसे में मायावती अगर समझदारी से आगे की चाल नहीं चलती हैं तो यह जंग उनके लिए खतरनाक साबित हो सकती है। यह बात मायावती भी जानती हैं, लेकिन जनता इन दो दलों से तो सवाल कर रही है। क्या कांग्रेस और भाजपा को इस मामले पर चुप्पी साधनी चाहिए। क्या राजनीतिक हित के लिए प्रदेश में हो रही अराजकता और निर्दोष लोगों की हत्या के खिलाफ आवाज नहीं उठाना चाहिए। क्या यही लोकतंत्र है। इन सब सवालों का जवाब जनता देगी।

Friday, December 26, 2008

बयानों में बीते एक महीने

आखिर इस देश में इन नेताओं को कब तक बर्दाश्त किया जाएगा। ऐसी सरकार जो देश में 60 घंटे तक लगातार आतंक मचाने वाले लोगों के खिलाफ कोई भी कार्रवाई करने में सक्षम न हो। ऐसी सरकार जो सिर्फ बयान ही बयान दे। अब समय जनता के जागने का आ गया है। आने वाले समय में जनता अगर नहीं जागती है तो ये निक्कमे राजनेता सिर्फ बयान देंगे और सैकड़ों लोग अपनी जान।

मृगेंद्र पांडेय

एक महीने बीत गए। मुंबई को आतंकियों ने लहुलूहान किया था। मुंबई के लोगों ने 60 घंटे लगातार गोलियों की दहशत में बिताए। कई आला और जांबाज अधिकारियों ने अपनी जान गंवाई। गोलियों की गूंज में कई बड़े राजनीतिक उलटफेर हुए। प्रदेश सरकार के मुखिया से लेकर सुरक्षा की जिम्मेदारी रखने वाले तमाम लोगों को आनन-फानन में बदला गया। सरकार ने यह दिखाने की कोशिश की कि वह बहुत कुछ कर रही है। संसद में आतंक रोकने के लिए नए कानून भी बनाए गए। वैसा कानून जिसका यूपीए सरकार लगातार विरोध कर रही थी। बावजूद इसके अगर कुछ नहीं हुआ तो यह कि हमले में कौन शामिल था। हमले को आतंकियों ने कैसे अंजाम दिया। 60 घंटे तक लोगों को दहशत में रखने के लिए आखिर इतनी बड़ी मात्रा में हथियार और गोला-बारुद कहां से आए। क्या पाकिस्तान दोषी है। ऐसे एक महीने में कम से कम तीस सवाल तो सरकार के सामने होंगे ही जिनका जवाब सरकार को देना होगा।

तीस दिन में सरकार ने आखिर क्या किया। इसका रिपोर्ट कार्ड अगर जनता के सामने रखने को कहा जाए तो इन दिनों में सिर्फ यह हुआ कि पाकिस्तान ने भारत को धमकाया और भारत ने पाकिस्तान को कमजोर न समझने की नसीहत दी। दोनों ओर से बयानों का दौर चलता रहा और जनता यह सोचती रही कि सरकार कुछ कर रही है। जब-जब एयरपोर्ट और समुद्री मार्गों की चौकसी बढ़ाने की खबर आई, लोगों के दिलों ने एक डर बढ़ा। ऐसा लगा कि कही युद्ध न हो जाए। लेकिन दोनों देशों की ओर से जारी बयानों ने यह लगातार कहा जाता रहा कि हम लोग जिम्मेदार देश हैं और हमारे यहां लोकतांत्रिक सरकार है। युद्ध कोई विकल्प नहीं है।

दरअसल मामला देश की जनता को गुमराह करने का है। भारत में निकम्मे मंत्री और ब्यूरोक्रेटों का जमावड़ा हो गया है। पाकिस्तान की मीडिया ने यह प्रमाण दिया कि पकड़ा गया एकमात्र आतंकी कस्साब पाकिस्तान का है। लेकिन वहां की सरकार ने मानने से साफ इनकार कर दिया। इस पर देश के प्रधानमंत्री ने कहा कि पाकिस्तान को पर्याप्त सबूत पेश कर दिए गए हैं। विदेश मंत्री ने कहा कि सारे रास्ते खुले हैं। रक्षा मंत्री ने कहा सेना तैयार है। नवनियुक्त गृहमंत्री ने बड़े सधे हुए अंदाज में कहा कि सरकार आतंक से लड़ने को कृतसंकल्प है।

यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी भी बयान देने में नहीं चूकीं। लेकिन एक महीने के बाद जनता को इन नेताओं के बयान के अलावा कुछ नहीं मिला। उन दो सौ परिवारों ने भी इनके सिर्फ और सिर्फ बयान ही सूने, जिनमें अधिकांश बेकारण ही आतंकियों की गोली के शिकार हुए। सेना के जवान जो शहीद हुए उनकी बेइज्जती करने में भी इन नेताओं ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी।

Wednesday, December 24, 2008

सपनों की खरीदार नहीं है जनता

मृगेंद्र पांडेय

भारत में सपने ही सब कुछ होते हैं। विकास के सपने। अच्छे भविष्य के सपने। राजनीति में अच्छे बनने के सपने। गरीब की गरीबी के सपने। दरअसल यहां सपने ही बिकते हैं। इसे भारत की महानता कहें या फिर जनता की उदारता कि वह सपनों में ही सब कुछ पा लेती है। यहां सपने पहली बार नहीं बेचे जा रहे हैं। इससे पहले भी लोगों ने बेचे होंगे। लेकिन इस बार बारी राहुल गांधी की थी। अपनी मां सोनिया गांधी के साथ अमेठी दौरे पर राहुल ने एक बार फिर सपने बेचे।

इस बार कहानी में मायावती के नाम से जुड़ते कलाकार को तरजीह नहीं दी गई। उनके सलाहकारों ने उन्हें सुनिता के दुख में अपने सपनों कीोलक दिखाने की सलाह दी। सुनिता अमेठी लोकसभा की एक महिला है जो खुद तो कपड़े पहनती है, लेकिन उसका बच्चा बिना कपड़ा पहने था। इसके पीछे उसने राहुल गांधी को तर्क दिया कि अगर उसका बच्चा बीमार हो जाएगा तो भी वह उसे दूध पिला सकती है, लेकिन अगर वह बीमार हो जाएगी तो बच्चे को कौन दूध पिलाएगा।

राहुल और उनके रणनीतिकरों के सामने समस्य यह है कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस कुछ खास नहीं कर पा रही है। उनके सामने एक बड़ा सवाल यह है कि वह कौन से माध्यम हो सकते हैं, जिससे जनता को अपनी ओर, आपनी पार्टी की ओर और कांग्रेस की नीतियों की ओर आकृषित किया जाए। इसी दुविधा में राहुल लगातार बुंदेलखंड, पूर्वाचल और अमेठी का दौरा कर रहे हैं। बुंदेलखंड के दौरे पर राहुल दलितों के घरों में गए। यह उनकी उस वोट बैंक की रणनीति का हिस्सा है, जिस पर अब मायावती का कब्जा है। इस बार भी अमेठी में उन्होंने अपने उसी पुराने वोटर पर निशाना साधा है। उन्हें अपने सपनों के बारे में बताया। और उम्मीद जताई की उनके सपने साकार करने में वह वोटबैंक उनका साथ देगा।

ऐसा नहीं है कि राहुल पहले कांग्रेसी हैं जो सपने बेच रहे हों। उन्होंने अपने भाषण के दौरान ही कह दिया कि उनसे लोगों ने पूछा की आपकी दादी का सपना था, अपके पिता का सपना था, आपका क्या सपना है। राहुल ने अपने सपने लोगों को बताए भी, लेकिन उसमें वहीं बातें थी जो सभी राजनीतिक दल जनता का वोट अपनीोोली में करने के लिए करते हैं। दरअसल राहुल आज भी यह मानकर चल रहे हैं कि जनता केवल कोरे वायदों पर ही कांग्रेस को वोट देगी। लेकिन उन्हें यह समाना होगा कि उत्तर प्रदेश में उनका मुकाबला एक ऐसे दल से है, जो लंबे समय से दलितों और गरीबों की बात करती रही है और अकेले अपने दम पर प्रदेश की सत्ता पर काबिज भी है। ऐसे में उनके सपनों का मुकाबला ऐसे यर्थाथ से है, जिसका सामना सिर्फ कोरे वादों से नहीं किया जा सकता। इसके लिए चाहिए एक सोच, एक दृष्टि, एक विजन और ऐसी नीतियां जिनका असर जमीन स्तर पर तो कम से कम दिखाई देता ही हो।

Thursday, December 18, 2008

दलाई युग का अर्द्ध अवकाश

मृगेंद्र पांडेय

तिब्बत की स्वायत्तता के संघर्ष को एक मुकाम तक पहुंचाने वाले दलाई लामा ने अर्द्ध अवकाश पर जाने का फैसला किया है। दलाई, जिनके प्रयासों ने विश्व का ध्यान तिब्बत की ओर आकर्षित किया, उन्होंने यह फैसला ढलती उम्र के कारण लिया। ऐसा नहीं है कि अवकाश पर जाने के बाद दलाई तिब्बत की स्वयत्तता के लिए चलने वाले आंदोलन में अपना सहयोग देना बंद कर देंगे, लेकिन यह सवाल सभी के मन में उठने लगा है कि आखिर दलाई के बाद इस आंदोलन की अगुवाई कौन करेगा। इसके पीछे एक बड़ा कारण यह है कि अब तक किसी भी तिब्बती नेता ने दलाई जसी तो अंर्तराष्ट्रीय स्तर लोकप्रियता प्राप्त की है और ही स्थानीय लोगों का सर्वमान्य समर्थन मिला है।

 

 

तिब्बत की निर्वासित सरकार जो धर्मशाला में रह रही है, उसके प्रधानमंत्री सैमदोंग रिंगपोंछे काफी सक्रिय हैं। वे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी बात रखने में सक्षम हैं, लेकिन उनकी लोकप्रियता दलाई की लोकप्रियता के आगे नहीं टिक पाती है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उनकी बातों को उतनी तव्वजो नहीं दिये जाने का डर लोगों के मन में है, जितनी दलाई की बातों को मिलती थी। दलाई के साथ अपने संबंधों को भारत ने जितनी बखुबी से निभाया, वह आने वाले समय में जारी रहेगी, यह कह पाना मुश्किल नजर रहा है।

ओलंपिक खेलों के दौरान जब तिब्बतियों का आंदोलन पूरे विश्व में जोरों पर था, भारत में आंदोलन को हिंसक नहीं होने दिया गया। जबकि विश्व के कई देशों में तिब्बत के समर्थन में हिंसक प्रदर्शन हुए और कई लोगों ने अपनी जान भी गंवाई। भारत में हिंसक प्रदर्शन नहीं होने के कारण चीन ने बधाई भी दी थी। यह एक बदलते अंतर्राष्ट्रीय संबंधों का सूचक है।

 

 

तिब्बत के लिए दलाई का आंदोलन अहिंसा पर आधारित था। वह नहीं चाहते थे कि स्वयत्तता प्राप्त करने के लिए किसी प्रकार की हिंसा की जरूरत है। यही कारण है कि यूरोपीय संघ दलाई की बातों को खासा महत्व देता था। दलाई की फ्रांस यात्रा के दौरान राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी से जो बातचीत हुई वह काफी सकारात्मक थी और उन्होंने आश्वासन भी दिया था कि वह तिब्बतियों की भावनाओं को यूरोपीय संघ में पहुंचाएंगे। 

 

लेकिन हाल के कुछ वर्षो में तिब्बत में एक ऐसा वर्ग तेजी से उभरा है, जो स्वायत्तता नहीं पूर्ण आजादी का पक्षधर है। ऐसे में लोगों के मन में यह डर घर करने लगा है कि अंहिसा को मूल में लेकर तिब्बत की स्वयत्तता के लिए शुरू किया गया दलाई का यह आंदोलन कहीं भटक जाए और हिंसक रूप अख्तियार कर ले। आंदोलन के हिंसक रूप लेने के बाद इस बात से नकारा नहीं जा सकता कि अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी में तिब्बत को लेकर जो सहानुभूति है, उसे बदलते देर लगे। इसका खामियाजा तिब्बत और वहां के लोगों को ही उठाना पड़ेगा। वह समय ऐसा होगा जब तिब्बत के पास तो कोई सर्वमान्य नेता होगा और ही दलाई लामा। क्योंकि दलाई लामा तो सदियों में एक बार ही पैदा होते हैं।