Friday, May 28, 2010

गॊरे हैं गुरुजी



यह कार्टून मेरे मित्र मंसूर नकवी ने बनाया है।

Wednesday, May 26, 2010

आधा हूं अधूरा हूं मनमॊहन हूं

मृगेंद्र पांडेय
कम बॊलना मनमोहन सिंह की आदत है। वह हमेशा इस बात से बचते हैं कि कहीं उनके मुंह से कॊई ऐसी बात न निकल जाए जिससे मैडम नाराज हॊ जाए। यही कारण है कि विवादित बयानों से दूरी बनाने के चक्कर में उन्हॊंने प्रेस से भी खुलकर बात नहीं की। बस इतना कह पाए कि अभी काम अधूरा है उसे पूरा करना है। आखिर वह कौन सा काम है जॊ अधूरा है। कहीं राहुल गांधी के हाथ में सत्ता सौंपना तॊ नहीं है। लगता है मैडम का दबाव था नहीं तॊ मनमॊहन अधूरे काम का जिक्र जरूर करते।

अपने काम का जिक्र करते हुए पीएम ने न तॊ राजा जैसे भ्रष्ट मंत्री के खिलाफ कुछ बॊला न ही तेजी से अपना राजनीतिक कद बढा रहे चिदंबरम की ही चर्चा की। उन्हें लग रहा था कि चिदंबरम की चर्चा करुंगा तॊ कहीं उनका असली एजेंडा सामने न आ जाए। पिछले एक महीने में चिदंबरम के खिलाफ कांग्रेस के कई दिग्गज बॊले। यह उनका कद छॊटा करने की शुरुआत है। क्यॊंकि मैडम कॊ राहुल बाबा से ज्यादा ताकतवर छवि इस देश के किसी भी मंत्री की नहीं चाहिए।

अगर कॊई तकतवर हॊ गया तॊ बाबा की ताजपॊशी कैसे हॊगी। इसलिए तॊ पीएम ने चिदंबरम और राजा के मामले पर संसद में बहस करने की बात कहकर पल्ला झाड लिया। राहुल बाबा के राजतिलक के सवाल पर पीएम ने बिना बॊले ये साफ किया कि इस कुर्सी पर वे सिर्फ़ उस वक़्त तक बैठे हैं जब तक राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनने के लिए तैयार नहीं हो जाते. "मुझे कभी कभी लगता है कि नौजवानों को ये ज़िम्मेदारी संभालनी चाहिए. जब भी पार्टी ये फ़ैसला करेगी मैं ख़ुशी से कुर्सी छोड़ दूँगा."

इससे साफ है कि पीएम कॊ वही कहने में मजा आता है जॊ सोनिया और राहुल को पसंद हों. उनमें भारत और भारतवासियों के लिए कोई सहानुभूति नहीं है। उनकॊ कोई लोकसभा का चुनाव थॊडे ही लड़ना है जो वे जनता के प्रति जवाबदेह होंगे. जिनकी शक्ति से वे शक्तिवान बन कर पीएम की कुर्सी से चिपके हुए हैं मरते दम तक उनसे बिगाड़ नहीं करेंगे। भारत की जनता महंगाई से रो रही है, आतंक और नक्सल से परेशान है, लेकिन पीएम के माथे पर कॊई चिंता ही नहीं झलक रही है।

Thursday, May 20, 2010

‘बुलेट’ वाले ‘बैलेट’ से क्यों लड़ेंगे दिग्गी राजा?

Anil Pusadkar

हरा - भरा बस्तर निर्दोष लोगों के खून से लाल हो रहा है और नेताओं में वाक्युद्ध चल रहा है। और इसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे हैं दिग्विजय सिंह उर्फ दिग्गी राजा! वही दिग्विजय सिंह, जो सालों बस्तर समेत पूरे छत्तीसगढ़ के भी मुख्यमंत्री थे। क्या तब हमले नहीं किया करते थे नक्सली? भूल गए क्या दिग्गी राजा? याद दिलाएं? आपके तो एक मंत्री तक को मार डाला था नक्सलियों ने! आपने अपने कार्यकाल में नक्सली समस्या को हल करने के लिए क्या उपाय किए थे? वही बता दीजिए सबको! आप क्या बताएंगे राजा साब? सब जानते हैं। उस समय यही नक्सली, जो आज छत्तीसगढ़ में तांडव कर रहे हैं, तब पड़ोस के राज्य आंध्र प्रदेश में कहर बरपाते थे।

कारण तो पता है न? उन दिनों वहां कांग्रेस की नहीं, तेलुगु देशम् की सरकार थी। वैसे आपको तो पता ही होगा नक्सली छत्तीसगढ़ में कब आए और किस पार्टी के कार्यकाल में पनपे? अगर पता नहीं हो तो फिर से अपने 10 सालों के कार्यकाल की समीक्षा कर लीजिएगा! दिग्गी राजा यह वही बस्तर है, यह वही छत्तीसगढ़ है जिसकी बदौलत कांग्रेस कभी पूरे मध्यप्रदेश पर राज किया करती थी। छत्तीसगढ़ कांग्रेस का गढ़ कहलाता था और आपने अपने 10 साल के कार्यकाल में कांग्रेस को कहां ला पटका, यह दुनिया जानती है। दुनिया क्या आप खुद भी अच्छी तरह से जानते थे कि एक नहीं, कई चुनावों तक अब मध्यप्रदेश में कांग्रेस की वापसी संभव नहीं है। तभी तो आपने 10 साल के राजनैतिक संन्यास की घोषणा कर डाली थी।
अच्छा! अच्छा! याद आया, 10 साल तो पूरे होने जा रहे हैं और उसके बाद भी मध्यप्रदेश में कांग्रेस का फिर से राज आता नजर नहीं आ रहा है!

अच्छा तो यह बात है! फिर तो ठीक ही है दिग्गी राजा! बिना राज-पाट के राजा कहलाना काफी तकलीफ देता होगा, है न? ऐसे में आपके पास केंद्र की कुर्सी के अलावा और विकल्प भी नहीं है। मध्यप्रदेश में आपने जो कांग्रेस की दुर्गति की है, वह दो चुनावों में दिख चुकी है। और आने वाले चुनावों में भी उसकी वापसी आपकी गुटबाजी के कारण संभव नहीं दिखती। ऐसे में अगर केंद्र की कुर्सी की खातिर दिल्ली दरबार को खुश रखने के लिए डॉ. रमन सिंह के खिलाफ प्रचार युद्ध कर रहे हैं तो ठीक ही कर रहे हैं। वैसे भी दिल्ली दरबार में भोंपुओं को भरपूर तरजीह देने की परंपरा रही है। दिल्ली में मध्यप्रदेश से आपके पहले के कुंवर अर्जुन सिंह रिटायर हो चुके हैं और दूसरे चहेते सुरेश पचौरी बैक टू दि पेवेलियन यानी मध्यप्रदेश पहुंच चुके हैं। ऐसे में आपका दिल्ली दरबार को खुश करने के लिए राजनैतिक कलाबाजियां खाना कहीं से गलत नहीं लगता।
मगर सोचिए तो सही, राजा साब! इस बार तो आम जनता भी मारी गई है नक्सली हमले में। पुलिस वालों को निशाना बनाने वाले नक्सली अब जनप्रतिनिधियों और जनता को मार रहे हैं और आप उनसे कह रहे हैं चुनाव लड़ो। छत्तीसगढ़ सरकार को बता रहे हैं कि गोली नक्सलियों का जवाब नहीं है। यानी सरकार गोली चलाना भी बंद करे और नक्सली गोलियां चलाते रहे। मरते रहें बस्तरवासी। बेमतलब और बेवजह। क्या आपको दर्द नहीं होता अपनी पुरानी जनता के मारे जाने का? क्या जमीन के बंटवारे से रिश्तों का भी बंटवारा हो जाता है? अगर बंटवारा नहीं हुआ होता और आप ही यहां के मुख्यमंत्री रहते तब भी क्या आप वही कहते, जो आज कह रहे हैं?

राजा साब, माफ कीजिएगा; यह समय फिजूल की बयानबाजी का नहीं है। यह समय है इस बात पर गंभीरता से विचार करने का कि क्या अब बस्तर में आम आदमी सुरक्षित रह गया है? राजा बाबू! बस्तर में बारुदी सुरंगों का जाल बिछा हुआ है। वैसे ही जैसे आप राजा- महाराजा लोग जंगलों में जानवरों का शिकार करने के लिए जाल बिछाया करते थे। तब जैसे जानवर मरते थे न राजा साब, वैसे अब इंसान मर रहे हैं! आपको क्या लगता है कि आपके कहने से चुनाव लड़ लेंगे, नक्सली? उनका उद्देश्य सत्ता पाना नहीं है,सिर्फ हिंसा है, लूट-पाट है। और फिर, सिर्फ बस्तर संभाग और सरगुजा के कुछ इलाकों के भरोसे सरकार तो नहीं बना सकते न नक्सली; इसलिए जंगलों में अघोषित सरकार चलाना चाहते हैं वे! इसलिए कि तेंदूपत्ता के कारोबार के जरिए हजारों-करोड़ रुपए बटोर सकें। लकड़ी और वनोपज की अफरा-तफरी कर सकें। बहुमूल्य और सामजिक महत्व के खनिजों की तस्करी कर सकें। उन्हें विकास से लेना-देना होता तो वे वहां सालों बाद बनी पक्की सड़कें नहीं खोदते। वे वहां दशकों बाद (इसमें आपके कार्यकाल के साढेÞ सात साल भी शामिल है) बने स्कूल और अस्पताल नहीं उड़ाते। वे पंचायत भवन और विश्राम गृह नहीं तोड़ते। वे बिजली के टॉवर नहीं गिराते। वे रेल की पटरियां नहीं उखाड़ते। वे पंचों-सरपंचों को अपना निशाना नहीं बनाते। दरअसल वे तो चाहते ही नहीं है कि बस्तर का विकास हो, और इसी बहाने वे बस्तर में अपना खूनी खेल चला सकें।

दिग्गी राजा अभी भी समय है। संभल जाइए और इस बात पर विचार कीजिए कि बोतल से बाहर आने वाला जिन्न किसी का नहीं होता। आज हमारी, तो फिर तुम्हारी बारी है। नक्सलवाद बोतल से निकला हुआ वह जिन्न है जो धीरे-धीरे सबको निगल रहा है। आज जनता का खुद को हितैषी बताने वाला यह जिन्न अब आम जनता को भी निगलने लगा है। अब भी संभल जाइए और सिर्फ जुबानी जमा-खर्च करने के बजाय केंद्र में बैठी अपनी सरकार को समझाइए कि यह समय राजनीति करने का नहीं है। वैसे भी लाशों पर राजनीति स्थायी नहीं होती। आज नक्सली छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखंड और बिहार में ज्यादा सक्रिय हैं तो क्या कल वे महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश और दिल्ली को छोड़ देंगे? तब क्या करेंगे आप दिग्गी राजा, जब ये नासूर फैलकर पूरे देश को अपनी गिरफ्त में ले लेगा? क्या तब तक इंतजार करवाओगे? अगर अपने कार्यकाल की थोड़ी बहुत याद बाकी है और भोले-भाले बस्तर के आदिवासियों से मिला प्यार याद है तो खुलकर कहो कि नक्सलवाद जड़ से खत्म होना चाहिए। मगर अफसोस, आप तो ऐसा भी नहीं कर सकते क्योंकि अभी दिल्ली दरबार और वहां के राजकुमार इस मामले में खामोश हैं। अगर वे कह दें तो शायद सबसे जोर से आप ही चिल्लाएंगे, ‘नक्सलियों को खत्म कर दो! जड़ से मिटा दो नक्सलवाद को!’


अमीर धरती गरीब लोग

Monday, May 17, 2010

अपराध रिपोर्टिंग का “अपराध”

आनंद प्रधान
समाचार चैनलों में अपराध की खबरों को लेकर एक अतिरिक्त उत्साह दिखाई पड़ता है. आश्चर्य नहीं कि चैनलों पर अपराध की खबरों को काफी जगह मिलती है. हिंदी के अधिकांश समाचार चैनलों पर अपराध के विशेष कार्यक्रम भी दिखाए जाते हैं. लेकिन अगर अपराध की वह खबर शहरी-मध्यमवर्गीय पृष्ठभूमि से हो और उसमें सामाजिक रिश्तों और भावनाओं का एक एंगल भी हो तो चैनलों की दिलचस्पी देखते ही बनती है. चैनलों के मौजूदा ढांचे में यह काफी हद तक स्वाभाविक भी है. अपराध की खबरों के प्रति चैनलों के अतिरिक्त आकर्षण को देखते हुए ऐसी खबरों में अतिरिक्त दिलचस्पी में कोई बुराई नहीं है बशर्ते चैनल उसे रिपोर्ट करते हुए पत्रकारिता और रिपोर्टिंग के बुनियादी उसूलों और नियमों का ईमानदारी से पालन करें.


लेकिन दिक्कत तब शुरू होती है जब चैनल ऐसी खबरों को ना सिर्फ अतिरिक्त रूप से मसालेदार और सनसनीखेज बनाकर बल्कि खूब बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने लगते हैं. यही नहीं, एक-दूसरे से आगे रहने की होड़ में वे रिपोर्टिंग के बहुत बुनियादी नियमों और उसूलों की भी परवाह नहीं करते हैं. इस प्रक्रिया में उनके अपराध संवाददाता पुलिस के प्रवक्ता बन जाते हैं. वे पुलिस की आफ द रिकार्ड ब्रीफिंग के आधार पर ऐसी-ऐसी बे-सिरपैर की कहानियां गढ़ने लगते हैं कि तथ्य और गल्प के बीच का भेद मिट जाता है. क्राईम स्टोरीज खबर कम और ‘स्टोरी’ अधिक लगने लगती हैं. चैनलों और उनके रिपोर्टरों का सारा जोर तथ्यों से अधिक कहानी गढ़ने पर लगने लगता है.


सचमुच, इस मायने में चैनलों का कोई जवाब नहीं है. सबसे ताजा मामला दिल्ली की युवा पत्रकार निरुपमा पाठक की मौत का है. निरुपमा अपने एक सहपाठी और युवा पत्रकार प्रियभांशु रंजन से प्रेम करती थीं और दोनों शादी करना चाहते थे. लेकिन निरुपमा के घरवालों को यह मंजूर नहीं था. निरुपमा की २९ अप्रैल को अपने गृहनगर तिलैया (झारखण्ड) में रहस्यमय परिस्थितियों में मौत हो गई थी जो बाद में पोस्टमार्टम रिपोर्ट में ‘हत्या’ निकली. इसे स्वाभाविक तौर पर “आनर किलिंग” का मामला माना गया जिसने निरुपमा के सहपाठियों, सहकर्मियों, शिक्षकों के अलावा बड़ी संख्या में बुद्धिजीवियों, पत्रकारों और महिला-छात्र संगठनों को आंदोलित कर दिया.


हालांकि उसके बाद पूरे मामले में कोडरमा पुलिस की लापरवाही और राजनीतिक दबावों में काम करने के कारण पुलिस जांच ना सिर्फ सुस्त गति से चल रही है बल्कि पूरी जांच को भटकाने/बिगाडने की कोशिश की जा रही है. ऊपर से हत्या के आरोप में जेल में बंद निरुपमा की माँ के परिवाद पर स्थानीय कोर्ट के इस निर्देश के कारण मामला और पेचीदा हो गया है कि पुलिस निरुपमा के दोस्त प्रियभांशु पर रेप, धोखा, आत्महत्या के लिए उकसाने जैसे संगीन आरोपों में मामला दर्ज करके जांच करे.


स्वाभाविक तौर पर अधिकांश चैनलों ने निरुपमा मामले को जोरशोर से उठाया. हालांकि अधिकांश चैनलों की नींद निरुपमा की मौत के चार दिन बाद तब खुली जब पोस्टमार्टम रिपोर्ट में हत्या की बात सामने आने के बाद एन.डी.टी.वी और इंडियन एक्सप्रेस ने इसे प्रमुखता से उठाया. ऐसा नहीं है कि चैनलों के रिपोर्टरों को घटना की जानकारी नहीं थी. निरुपमा देश के सबसे प्रतिष्ठित मीडिया संस्थान की छात्रा रही थी. इस संस्थान के छात्र सभी चैनलों और अखबारों में हैं. निरुपमा और प्रियाभांशु के दोस्तों ने बहुतेरे चैनलों/अखबारों को निरुपमा की संदेहास्पद परिस्थितियों में मौत के बारे में बताया था लेकिन किसी ने कोई खास दिलचस्पी नहीं ली.


असल में, चैनलों के साथ एक अजीब बात यह भी है कि जब तक किसी खबर को उसके पूरे पर्सपेक्टिव के साथ दिल्ली का कोई बड़ा अंग्रेजी अखबार जैसे इंडियन एक्सप्रेस, टाइम्स आफ इंडिया, एच.टी या हिंदू अपने पहले पन्ने की स्टोरी नहीं बनाते हैं, चैनल आमतौर पर उस खबर को छूते नहीं हैं या आम रूटीन की खबर की तरह ट्रीट करते हैं. लेकिन जैसे ही वह खबर इन अंग्रेजी अख़बारों के पहले पन्ने पर आ जाती है, चैनल बिलकुल हाइपर हो जाते हैं. चैनलों में एक और प्रवृत्ति यह है कि अधिकांश समाचार चैनल किसी खबर को पूरा महत्व तब देते हैं, जब कोई बड़ा और टी.आर.पी की दौड़ में आगे चैनल उसे उछालने लग जाता है. कहने की जरूरत नहीं है कि चैनलों की यह भेड़चाल अब किसी से छुपी नहीं राह गई है.



निरुपमा के मामले भी यह भेड़चाल साफ दिखाई दी. पहले तो चैनलों ने पोस्टमार्टम रिपोर्ट, निरुपमा के पिता की चिट्ठी, निरुपमा के एस.एम.एस और प्रियाभांशु के बयानों के आधार पर इसे ‘आनर किलिंग’ के मामले के बतौर ही उठाया लेकिन जल्दी ही कई चैनलों के संपादकों/रिपोर्टरों की नैतिकता और कई तरह की भावनाएं जोर मारने लगीं. खासकर प्रियाभांशु के खिलाफ स्थानीय कोर्ट के निर्देश और पुलिस की आफ द रिकार्ड और सेलेक्टिव ब्रीफिंग ने इन्हें खुलकर खेलने और कहानियां गढ़ने का मौका दे दिया. अपराध संवाददाताओं को और क्या चाहिए? पूरी एकनिष्ठता के साथ वे प्रियाभांशु के खिलाफ पुलिस द्वारा प्रचारित आधे-अधूरे तथ्यों और गढ़ी हुई कहानियों को बिना किसी और स्वतन्त्र स्रोत या कई स्रोतों से पुष्टि किए या क्रास चेक किए तथ्य की तरह पेश करने लगे.


दरअसल, अपराध संवाददाताओं का यह ‘अपराध’ नया नहीं है. इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़कर चैनलों और अखबारों में क्राईम रिपोर्टिंग पूरी तरह से पुलिस के हाथों का खिलौना बन गई है. क्राईम रिपोर्टर पुलिस के अलावा और कुछ नहीं देखता है, पुलिस के कहे के अलावा और कुछ नहीं बोलता है और पुलिस के अलावा और किसी की नहीं सुनता है. सबसे अधिक आपत्तिजनक बात यह है कि अधिकांश क्राईम रिपोर्टर पुलिस से मिली जानकारियों को बिना पुलिस का हवाला दिए अपनी एक्सक्लूसिव खबर की तरह पेश करते हैं.


इसी का नतीजा है कि आज से नहीं बल्कि वर्षों से पुलिस की ओर से प्रायोजित “मुठभेड़ हत्याओं” की रिपोटिंग में बिना किसी अपवाद के खबर एक जैसी भाषा में छपती रही है. यही नहीं, अपराध संवाददाताओं की मदद से पुलिस हर फर्जी मुठभेड़ को वास्तविक मुठभेड़ साबित करने की कोशिश करती रही है. सबसे हैरानी की बात यह है कि पुलिस की ओर से हर मुठभेड़ की एक ही तरह की कहानी बताई जाती है और अपराध संवाददाता बिना कोई सवाल उठाये उसे पूरी स्वामीभक्ति से छापते रहे हैं. कई मामलों में यह स्वामीभक्ति पुलिस से भी एक कदम आगे बढ़ जाती रही है.


यह ठीक है कि क्राईम रिपोर्टिंग में पुलिस एक महत्वपूर्ण स्रोत है लेकिन उसी पर पूरी तरह से निर्भर हो जाने का मतलब है कि रिपोर्टर ने अपनी स्वतंत्रता पुलिस के पास गिरवी रख दी है. दूसरे, यह पत्रकारिता के बुनियादी सिद्धांत यानी हर खबर की कई स्रोतों से पुष्टि या क्रास चेकिंग का भी उल्लंघन है. आश्चर्य नहीं कि इस तरह की गल्प रिपोर्टिंग के कारण पुलिस और मीडिया द्वारा ‘अपराधी’ और ‘आतंकवादी’ घोषित किए गए कई निर्दोष लोग अंततः कोर्ट से बाइज्जत बरी हो गए. लेकिन अपराध रिपोर्टिंग आज भी अपने ‘अपराधों’ से सबक सीखने के लिए तैयार नहीं है.

Friday, May 7, 2010

निर्दोष नहीं है निरुपमा का प्रेमी


विष्णु गुप्त

शायद सिर्फ प्रियभांषु को मालूम था कि निरूपमा ऑनर किलिंग का ग्रास बनने जा रही है। अगर उसे आभास था तो क्या उसने निरूपमा की जान बचाने के लिए पुलिस और हाईकोर्ट में गुहार लगायी? वह चुपचाप निरूपमा को ऑनर किलिंग के ग्रास बनते हुए देखता रहा। प्रियभांषु कब चिल्लाया? उसने महिला आयोग और पत्रकार संगठनों का दरवाजा कब खट-खटकाया? मीडिया में अपनी प्रेम कहानी कब खोली? जब निरूपमा की हत्या हो चुकी थी।

निरूपमा अब इस दुनिया में नहीं है। इसलिए उसके प्रति प्रियभांषु कितना समर्पित था और ईमानादार था, इसे भी शक की निगाह से देखी जानी चाहिए। कही प्रियभांषु निरूपमा के साथ दोहरा खेल तो नहीं खेल रहा था। मोहरे से मोहरे लडाने में तो वह नहीं लगा था। निरूपमा के गर् को वह उसके घर वालों के माध्यम से ही निपटाना चाहता था क्या? क्योंकि गर्भ का प्रश्न हल हो जाने के बाद प्रियभांषु शादी के झमेले में पडने से भी बच सकता था। अगर ऐसी धारणा सही हो सकती है तो निरूपमा अपने परिजनों के साथ ही साथ अपने प्रेमी प्रियभांषु की भी साजिश का शिकार हुई है.

प्रेमी प्रियभांषु रंजन पर एक और गंभीर लापरवाही सामने आती है। प्रियभांषु के शब्दों में निरूपमा पाठक के परिजन किसी भी परिस्थिति में शादी नहीं होने देने के लिए कटिबद्ध थे। इसके लिए निरूपमा के परिजन प्यार, लोकलाज से लेकर इज्जत का भी हवाला देकर निरूपमा को प्रियभांषु से अलग करने की कोशिश कर चुके थे। निरूपमा पर उसके परिजनों ने कठोरता भी बरती थी। प्रियभांषु रंजन की ये सभी बातें सही हैं। ऐसी प्रक्रिया चली होगी। ऑनर किलिंग से पहले निरूपमा के परिजन ये सभी हथकंडे जरूर अपनाये होंगे। जो परिवार और जो घराना ऑनर किलिंग कर सकता है वह परिवार और घराना उसके पहले अपनी इज्जत का हवाला देकर कुछ भी कर सकता है। पिता द्वारा निरूपमा पाठक को लिखी गयी चिट्ठी भी इसकी गवाही देती है। यह सब यहां यह जताने के लिए तथ्य और ऑनर किलिंग की स्थितियां बतायी जा रही है ताकि यह स्पष्ट हो सके कि निरूपमा खतरे से घिरी हुई थी। खतरा उसके परिजनों से ही था। यह भी ज्ञात हुआ है कि वह कई महीनों से घर नहीं गयी थी। इस खतरे को देखते हुए भी निरूपमा अपने मां-पिता से मिलने झारखंड की कोडरमा शहर अपने घर गयी और जाने दिया गया। यह तो पहले से ही स्पष्ट था कि उसके परिजन किसी भी खतरनाक और लोमहर्षक प्रक्रिया को अपना सकते हैं। ऐसी स्थिति में प्रियभांषु रंजन को निरूपमा को कोडरमा जाने से रोकना चाहिए था। यह भी स्पष्ट हुआ है कि निरूपमा के प्रियभांषु के साथ प्यार और शादी के लिए जिद करने की जानकारी परिजनों को थी पर वह चार महीने की गर्भवती थी यह जानकारी निरूपमा के घर आने पर ही उसके परिजनो को हुई होगी। गांवों और कस्बायी महिलाओं को एक-दो दिन के गर्भ के लकक्षण भी पता चल जाते है, वह तो चार माह की गर्भवती थी।

प्रियभांषु कब चिल्लाया? वह महिला आयोग और पत्रकार संगठनों का दरवाजा कब खट-खटकाया? मीडिया कब अपनी खतरनाक प्रेम कहानी कब खोली? जब निरूपमा की हत्या हो चुकी थी। जब निरूपमा इस दुनिया में रही नहीं। ऐसी मुहिम का अब निरूपमा के लिए क्या मतलब? निरूपमा के परिजनों को सजा हो ही जायेगी पर निरूपमा की जान वापस आयेगी क्या? यह लापरवाही प्रिय ांषु जान कर की है या अनजाने में। इस तथ्य का पता लगाना मुश्किल है। पर उसने खतरनाक ढग से लापरवाही बरती ही है।

निरूपमा ऑनर किलिंग की ग्रास बनने की ओर अग्रसर हो रही है। ऐसी जानकारियां निरूपमा अपने प्रेमी प्रियभांषु रंजन को देती रही थी। एसएमएस और मोबाइल कॉल के द्वारा। टेलीविजनों और प्रिंट मीडिया में भी निरूपमा द्वारा प्रियभांषु रंजन को भेजे गये एसएमएस दिखाया गया। एसएमएस में निरूपमा लिखती है कि कोई एक्सटीम एक्शन मत लेना। यानी निरूपमा को अपनी हत्या की आशंका ही नहीं बल्कि पूरा विश्वास हो गया था। वह जान रही थी कि अब उसका बचना मुश्किल है। उसके भाई और भाई के दोस्त उस पर नजर रखे हुए थे। मां और पिता वापस दिल्ली आने देने के लिए किसी भी परिस्थिति में तैयार नहीं थे, जबकि निरूपमा दिल्ली आना चाहती थी और अपना कैरियर जारी रखना चाहती थी। ऐसी सूचना मिलने पर तत्काल उसे सहायता की जरूरत थी। पर निरूपमा को सहायता मिली नहीं। निरूपमा की जान खतरे में है यह जानकारी सिर्फ और सिर्फ प्रियभांषु रंजन को थी। प्रियभांषु रंजन ने निरूपमा को सुरक्षा दिलाने और उसकी जान बचाने की कोई कार्रवाई नहीं की। प्रियभांषु रंजन झारखंड ओर कोडरमा पुलिस से निरूपमा की जान बचाने की गुहार लगा सकता था। प्रत्रकार संगठनों को एक महिला पत्रकार की जान बचाने के लिए तत्काल मुहिम शुरू करने के लिए कह सकता था। इसके अलावा वह हाईकोर्ट जैसे जगह पर प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर कर निरूपमा को उसके परिजनों के चंगुल से मुक्त कराने का सफलतम प्रयास कर सकता था। क्या प्रियभांषु ने निरूपमा की जान बचाने के लिए पुलिस और हाईकोर्ट में गुहार लगायी? वह चुपचाप निरूपमा को ऑनर किलिंग के ग्रास में जाते देखता रहा। ऐसा मानो उसका निरूपमा से कोई वास्ता ही नहीं था।

जब घर वाले शादी के लिए राजी नहीं थे तब दोनों के पास कोर्ट मैरेज का विकल्प खुला था। हमारे जैसे अनेक लोगों का इस प्रकरण में राय यही बनी है कि अगर प्रियभांषु ने निरूपमा के साथ कोर्ट मैरेज कर लिया होता तो शायद यह हत्या नहीं होती। दिल्ली में आकर हत्या करने के लिए निरूपमा के परिजन सौ बार सोचते। ज्यादा से ज्यादा परिजन निरूपमा से नाता तोत्रड लेते। कई ऐसे उदाहरण सामने हैं जिसमें परिजनों के खिलाफ जाकर कोर्ट मैरिज हुई है और परिजनों से सुरक्षा के लिए कोर्ट भी खड़ा हुआ है। अंतरजातीय ही नहीं बल्कि अंतधार्मिक शादियां धत्रडडले के साथ हो रही हैं और न्यायालय-प्रशासन सुरक्षा कवज के रूप में खत्रडा है। यह एक संवैधानिक जिम्मेदारी भी है। निरूपमा और प्रियभांषु दोनो वर्किग पत्रकार थे। दोनों अपने पैरों पर खड़े थे। इसके बाद भी यह विकल्प नहीं चुना जाना हैरतअंग्रेज बात है। जबकि दोनों के बीच 2007 से ही प्रेम संबंध थे।

ऑनर किलिंग जैसी घटनाओ के लिए भारतीय समाज की विंसगतियां जिम्मेवार रही है। जातीय आधारित ारतीय समाज आज भी अपने को बदलने के लिए तैयार नहीं है। निरुपमा प्रकरण अकेली घटना नहीं है। अभी हाल ही में न्यायालय ने हरियाणा में ऑनर किलिंग पर कड़ी सजा सुनायी है। निरूपमा के हत्यारे परिजनों को कड़ी सजा मिलनी चाहिए। इसके लिए पत्रकार संगठनों की सक्रियता जरूरी है। पत्रकार संगठनों और मीडिया ने निरुपमा को न्याय दिलाने के लिए सुर्खियां पर सुर्खियां बना रही है। इसी का परिणाम हुआ कि निरूपमा की मां जेल के अंदर हुई और उसके अन्य परिजन भी जेल जाने की प्रक्रिया में खड़े हैं। निरूपमा प्रकरण से ऑनर किलिंग मानसिकता को सबक मिलना चाहिए। पर हमें लापरवाह, गैर जिम्मेदार, असुरक्षित-खतरनाक यौन संबंध पर भी गौर करना चाहिए। लापरवाह, गैर जिम्मेदार, असुरक्षित-खतरनाक यौन संबंधों की प्रेम कहानी ने निरूपमा को मौत के मुंह में धकेला है और इसके लिए उसके प्रेमी प्रियभांषु रंजन भी जिम्मेदार है। इसके लिए कानून भले ही उसे कोई सजा न दे लेकिन सामाजिक रूप से उसे इसकी सजा मिलनी ही चाहिए.

विस्फॊट डाट काम से साभार