Wednesday, November 19, 2008

इस बार कौन, मतदाता मौन

ढोल नगाड़ों की थाप शांत हो गई। नेता-कार्यकर्ता दोनों अब घर-घर जाकर लोगों को वोट देने के लिए कह रहे हैं। इस बीच छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव में बड़े नेताओं की रैलियों में भीड़ नहीं जुटना कुछ खास संकेत दे रही है। यह संदेश उन नेताओं के लिए घातक हैं जो चुनावी सभाओं में सिर्फ कोरे वायदे करते हैं। यहां की आदिवासी बहुल जनता मानो यह जान गई हो कि कोई भी बड़ा नेता वायदा छोड़कर कुछ करने से रहा, इसलिए यह रैलियों में आने से कतरा रहे थे।

जनता के नेताओं से टूटते विश्वास को जोड़ने के लिए अब कोरे वायदे कारगर नहीं होंगे, इसके लिए जमीनी सच्चाई से भी नेताओं को रू-ब-रू होना पड़ेगा। कांग्रेस हो या फिर भाजपा दोनों ही दलों के शीर्ष नेताओं को जनता ने अपनी ताकत का एहसास कराने की कोशिश जरूर की है, लेकिन अब देखना यह होगा कि वह अपने नेताओं को जमीनी हकीकत से वाकिफ कराने में कितनी सफल होती है।
छत्तीसगढ़ के दौरे पर गए कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने तो मानो सारी हदें ही पार कर दी हों। रायपुर में चुनाव सभा को संबोधित करते हुए उन्होंने यह कह डाला कि उत्तराखंड में आकर अच्छा लग रहा है। उन्होंने प्रदेश में अंबिकापुर, कोरबा और रायपुर में कुल आठ रैलियां की लेकिन किसी में भी आशा के अनुरूप लोग इकट्ठा नहीं हुए। यह हाल सिर्फ राहुल गांधी का ही नहीं है।

भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणी के बस्तर दौरे पर लोगों की भीड़ नहीं जुटने के कारण सभा को रद्द करना पड़ा और सभा को कार्यकर्ता सम्मेलन में बदलना पड़ गया। आडवाणी की रायपुर जिले में पहली रैली में भी हजार से ज्यादा लोगों की भीड़ नहीं पहुंची। हालांकि रायगढ़ की रैली में लोग आडवाणी को सुनने जरूर पहुंचे। रैलियों में कम होती जनता की उपस्थिति को देखते हुए कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की खरसिया में होने वाली रैली के लिए कांग्रेसियों को खासी मशक्कत करनी पड़ी। सोनिया ने प्रदेश में एकमात्र सभा की और वह भी कांग्रेस के गढ़ में। पहले उनकी रैली बिलासपुर में होने वाली थी, जिसे बाद में टाल दिया गया। यहां भी लोग आशा के अनुरूप मौजूद नहीं थे। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की कांग्रेस के गढ़ में होने वाली रैली में लोगों का नहीं आना कांग्रेस की प्रदेश में खस्ताहाल स्थिति को साफ करता है।

प्रदेश में भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह की रैलियों में कुछ भीड़ देखने को जरूर मिली लेकिन यह भी उनके कद को देखते हुए कम ही आंकी गई। आखिर भाजपा और कांग्रेस की रैलियों में जनता की भागीदारी क्यों नहीं हो रही है, यह राजनीतिक दलों की समा से परे है। इसके लिए मौसम को जिम्मेदार तो नहीं ठहराया जा सकता लेकिन कुछ हद तक धान की कटाई जरूर जिम्मेदार है। साथ ही कार्यकर्ताओं के चुनाव की तैयारी में लगे होने के कारण भीड़ का जुगाड़ कौन करता। ऐसे में नेता हाथ मलते रैलियों और सभाओं से वापस आ गए।

Tuesday, November 18, 2008

आसान राह में कुछ कांटे भी

मृगेंद्र पांडेय

छत्तीसगढ़ के चुनावी समर का परिणाम आठ दिसंबर को आ जाएगा। बैनर, पोस्टर और चुनावी दावों वाले नारों का शोर थम जाएगा। जनता कांग्रेस के ‘हाथज् बागडोर सौंपेगी या फिर भगवा लहराएगा, यह सब तय हो जाएगा। इसे तय करने की जद्दोजहद में कांग्रेस और भाजपा दोनों ही दल सारे हथकंडे अपना रहीं हैं। यही कारण है कि दोनों दलों ने उन नेताओं को चुनावी अखाड़े मे उतारने में कोई संकोच नहीं किया, जिन पर पार्टी की नैया पार लगाने की आस टिकी हुई है।


कांग्रेस ने जहां पिछले चुनाव की हार का बदला लेने के लिए बड़ी संख्या में नेताओं के बेटे-बेटियों को टिकट दिया, वहीं इसमें भाजपा भी पीछे नहीं रही। कांग्रेस ने मुख्यमंत्री के प्रबल दावेदार अजीत जोगी को मरवाही से मैदान में उतारकर यह संकेत देने की कोशिश भी की कि वह एक-एक सीट को लेकर गंभीर है। हालांकि जोगी को लेकर क्षेत्र की जनता में खासी नाराजगी देखने को मिल रही है। मरवाही के लोगों का मानना है कि पिछली बार जब जोगी यहां से जीतकर गए, उसके बाद से क्षेत्र में आए ही नहीं। मरवाही में एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है जो जोगी की जातिवादी नेता की छवि से भी नाराज है। उनका कहना है कि जोगी सिर्फ सतनामी समाज के लोगों को बढ़ाने का काम करते हैं। जनता में इस तरह की भावना जोगी के लिए मुश्किल तो खड़ी कर सकती हैं, लेकिन जोगी का करिश्माई व्यक्तितव इससे निपटने में कारगर है। कांग्रेस के दिग्गज सत्यनारायण शर्मा को भी कठिन चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। सत्यनारायण से क्षेत्र की जनता उतनी नाराज नहीं है, जितनी जोगी से लेकिन भाजपा ने चंद्रशेखर साहू को उनके खिलाफ उतारकर मुश्किलें पैदा कर दी हैं। ऐसा माना जाता है कि रायपुर ग्रामीण विधानसभा में साहू मतदाताओं की अच्छी खासी तादात है और चंद्रशेखर उनकी पहली पसंद हो सकते हैं। यहीं हाल अमितेश शुक्ल, रविंद्र चौबे और प्रीति नेताम का भी है। प्रीति के खिलाफ प्रचार कर रहे लोगों ने बाहरी होने की बात कहकर मतदाताओं को एकजुट करने का प्रयास किया है। अगर प्रीति इसे सुलााने में सफल नहीं होती हैं, तो उनके लिए मुश्किल हो सकती है।


ऐसा नहीं है कि कांग्रेस के दिग्गज ही मुश्किल में हैं। भाजपा के रमन सिंह पर लगातार क्षेत्र बदलने का आरोप लगता रहा है। कांग्रेस इस मुद्दे को लेकर जोर शोर से प्रचार कर रही है। रमन की साफ स्वच्छ छवि उनके लिए फायदेमंद है, लेकिन उनके मंत्रियों पर लगे भ्रष्टाचार के आरोप उनके लिए मुश्किल खड़ा कर सकते हैं। अमर अग्रवाल की बिलासपुर विधानसभा में परिसीमन के बाद कुछ क्षेत्र ऐसे जुड़ गए हैं, जिसके कारण उनकी मुश्किलें बढ़ गई हैं। पर्यटन मंत्री और रायपुर शहर से लगातार विधायक रहे बृजमोहन अग्रवाल इस बार अपनी सीट आसानी से निकालने में सफल हो सकते हैं। इसके पीछे उनकी प्रभावी छवि और क्षेत्र में विकास तो हैं ही, साथ ही कांग्रेस की ओर से कमजोर उम्मीदवार उतरना भी उतना ही जिम्मेदार है। कांग्रेस ने उनके खिलाफ युवक कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष योगेश तिवारी को मैदान में उतारा है।


कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि कांग्रेस और भाजपा दोनों ही पार्टियों के दिग्गज जनता के रुख को भांपकर अपनी रणनीति बनाते हैं तो उनकी सीटें निकलना आसान होगा। बश्र्ते वे जनता के रुख को भांप पाएं।

Sunday, November 16, 2008

चावल चले तो दाल गले

छत्तीसगढ़ में चावल इस समय तीन रुपए किलो बिक रहा है। कांग्रेस ने जीतने पर इसे दो रुपए करने का दांव चला। भाजपा ने जो घोषणा-पत्र जारी किया उसमें इसे एक रुपए करने की बात कही। नक्सली हिंसा, बेरोजगारी, महंगाई और जन-जीवन से जुड़ी ढेरों समस्याओं को भूलकर प्रदेश में प्रमुख पार्टियां चावल की राजनीति कर
रही हैं।


मृगेंद्र पांडेय

धान के कटोरे में इस बार चावल की जंग चल रही है। छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव में सभी बड़े राजनीतिक दल जनता को सस्ता चावल देने की बात करके उन्हें लुभाने की फिराक में हैं। धान के कटोरे में सस्ते चावल की जंग अचानक कैसे शुरू हुई यह तो लोगों की समझ से परे है, लेकिन इतना तय है कि बेरोजगारी, गरीबी और शिक्षा को राजनीतिक मुद्दा नहीं बनाए जाने से एक बड़ा वर्ग दोनों ही राजनीतिक दलों से खासा नाराज है। बहरहाल जिस भी राजनीतिक दल की चावल की चाल चल गई, समझो प्रदेश में उसकी दाल गल गई।

प्रदेश में भाजपा सरकार ने गरीबों को तीन रुपए किलो चावल देकर जनता में एक ऐसा संदेश देने की कोशिश की है कि वह उनकी सच्ची रहनुमा है, लेकिन प्रदेश में दाल, तेल, शक्कर और अन्य उपयोग की वस्तुओं की कीमतों को कम करने के लिए सरकार की ओर से कोई खास पहल नहीं की गई। इसके कारण एक बड़े वर्ग में खासा असंतोष है। प्रदेश में लोगों का यह मानना है कि क्या केवल चावल खाकर ही जिंदगी गुजारी जा सकती है। चुनाव में कांग्रेस जब भाजपा के तीन रुपए किलो चावल की काट नहीं खोज पाई, तो वह भी घिसी-पिटी राह पर चल पड़ी और दावा कर दिया कि अगर सरकार में आते हैं तो जनता को दो रुपए किलो चावल देंगे। भाजपा ने इससे एक कदम आगे बढ़कर अपने घोषणा पत्र में ही कह डाला कि प्रदेश की जनता ने उनको दोबारा सरकार बनाने का मौका दिया तो वे एक रुपए में चावल दिलाएंगे।

मध्यप्रदेश से अलग होकर छत्तीसगढ़ को नया राज्य बने आठ साल हो गए हैं। इसमें तीन साल कांग्रेस का शासन रहा और बाकी पांच साल भाजपा ने राज किया। पहले चरण के चुनाव में आदिवासी बहुल सीटों से निपटने के बाद अब दोनों ही दलों का मुकाबला ग्रामीण वोटरों से होगा। यहां कांग्रेस और भाजपा दोनों की स्थिति लगभग बराबर है। ऐसे में चावल जसे मुद्दों से जनता को कौन सी पार्टी लुभाती है, यह कहना कठिन है। यहां के मतदाताओं के लिए चावल के अलावा भी कई ऐसे मामले हैं, जिन्हें रमन सरकार पूरा करने में असफल रही है। लोगों को शिक्षा देने के लिए हजारों स्कूल लोगों के सहयोग से खोल तो दिए गए हैं, लेकिन शिक्षकों की कमी से निपटने के लिए कोई कारगर उपाय सरकार ने नहीं किया है। संविदा के आधार पर शिक्षकों को रखा गया है लेकिन उनमें भी खासा रोष है। वे नियमित करने की मांग कर रहे हैं। कांग्रेस अगर उनके रोष को भुनाने में सफल हो जाती है तो उसके साथ पढ़े-लिखे लोगों का एक ऐसा वर्ग जुड़ जाएगा जो कांग्रेस की नैया को पार कराने में कारगर हो सकता है।

प्रदेश में बेरोजागरों की एक लंबी फौज है, लेकिन सरकार के पास इन लोगों के लिए कोई कारगर योजना नहीं है। प्राकृतिक संसाधनों से भरे इस प्रदेश के युवा रोजगार न मिलने के कारण बड़ी संख्या में पलायन कर रहे हैं। सरकार को इनको रोकने के लिए भी कोई योजना नहीं है। असंगठित क्षेत्र में छत्तीसगढ़ के लाखों मजदूर दूसरे प्रदेशों में काम कर रहे हैं, लेकिन सरकार को उनकी सुध नहीं है। कांग्रेस और भाजपा दोनों इन लोगों के लिए लोक-लुभावन वादे तो करती हैं लेकिन बाद में वह भूल जाती हैं।

प्रदेश में मुद्दे तो बहुत हैं, लेकिन न तो राजनीतिक दल और न ही कोई नेता इसके बारे में बात करने को तैयार है। ऐसा लगता है कि मानो लोगों को एक अच्छा समाज, एक अच्छी शिक्षा, एक बेहतर जीवन देने के बारे में कोई सोचने को तैयार नहीं है। अगर ऐसा ही रहा तो सरकार किसी की भी बने, जनता का भला होने वाला नहीं है।

Friday, November 14, 2008

दस फीसद भी एक गनीमत

छत्तीसगढ़ में महिलाओं को दुबारा मुंह की खानी पड़ी। गनीमत यह है कि दोनों प्रमुख पार्टियों ने दस फीसद सीटें महिलाओं को दीं और ऐसा इत्मीनान जताया जसे कोई बड़ा काम कर दिया हो। युवा भी मुंह ताकते रहे। राजनीति की तर्ज 'ओल्ड इज गोल्डज् की रही।

मृगेंद्र पांडेय

महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण देने की बात करने वाले राजनीतिक दलों ने छत्तीसगढ़ में मानों उनके साथ पक्षपात ही किया हो। दो बड़े राजनीतिक दल कांग्रेस और भाजपा ने प्रदेश में मात्र दस-दस महिला उम्मीदवारों पर भरोसा जताया। बसपा और अन्य दलों में भी महिलाओं का अनुपात कम ही रहा। दोनों ही दलों ने उन महिलाओं को ही टिकट दिया हैं, जो या तो किसी बड़े नेता के परिवार से हैं या फिर पहले से विधायक। इन पैमानों के इतर पार्टी ने जिन महिला उम्मीदवारों पर विश्वास जताया है, उनके बारे में ऐसा माना जा रहा है कि वे इन सीटों पर पार्टी की जीत दर्ज कराएंगी। कांग्रेस ने पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी की पत्नी रेणू जोगी को कोटा सीट से मैदान में उतारा है तो भाजपा ने राष्ट्रीय सचिव सरोज पांडेय को वैशालीनगर सीट पर उम्मीदवार बनाया है।

महिला और युवा उम्मीदवारों के बीच रोचक टक्कर इस सीट पर देखने को मिल रही है जहां कांग्रेस ने सरोज पांडेय के खिलाफ युवा नेता बृजमोहन सिंह को मैदान में उतारा है। कांग्रेस जहां गंगा पोटोई, गीतादेवी सिंह, प्रतिभा चंद्राकर, पदमा मनहर जसे प्रभावशाली नेताओं को मैदान में उतार है। तो भाजपा भी इनसे पीछे नहीं है। भाजपा ने भागवा परचम लहराने के लिए सरोज पांडेय, लता उसेंडी, जमुनादेवी सिंह, पिंकी शाह पर विश्वास जताया है। कई सीटों पर कांग्रेस और भाजपा दोनों ने ही महिला उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है। डोडीलोहरा से भाजपा की नीलम टेकाम को कांग्रेस की अनीता कुमेटी कड़ी टक्कर दे रहीं हैं। वहीं कांग्रेस के कद्दावर नेता और पूर्व गृह मंत्री नंद कुमार पटेल के मुकाबले भाजपा ने खरसिया सीट पर लक्ष्मी पटेल को टिकट देकर सबको सकते में डाल दिया है। इस सीट पर लंबे समय से कांग्रेस का कब्जा है।प्रदेश में दूसरी पारी खेलने के लिए भाजपा ने इस बार नए और युवा चेहरों पर भरोसा जताया है। इसके लिए भाजपा ने अपने कुछ विधायकों के टिकट काटने में भी गुरेज नहीं किया। वहीं टिकटों के बंटवारे में कांग्रेस का युवाओं पर भरोसा कम नजर आया। यही कारण है कि पार्टी का युवा वर्ग प्रदेश नेतृत्व और राहुल गांधी से खासा नराज है।

कांग्रेस ने इस चुनाव में दो दर्जन से ज्यादा नए चेहरों को मैदान में तो उतारा लेकिन इसमें दस युवा ही अपनी जगह बनाने में सफल रहे। ऐसा माना जा रहा है कि पार्टी युवाओं से ज्यादा उन नेताओं पर भरोसा कर रही है, जो लंबे समय से क्षेत्र की जनता के बीच रहे हैं और पार्टी के लंबे समय से झंडाबदर हैं।कांग्रेस में युवा के नाम पर युवक कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष योगेश तिवारी को रायपुर से टिकट मिल सका, वहीं प्रीति नेताम, राम दयाल उइके सहित 10 युवाओं पर ही पार्टी ने भरोसा जताया। लेकिन भाजपा ने इससे इतर पार्टी की युवा ईकाई भाजयुमो पर पूरा भरोसा दिखाया और 20 युवा नेताओं को टिकट दिया। भाजपा ने अंबिकापुर से भाजयुमो के नेता अनुराग सिंह देव पर भरोसा जताया, तो सच्चिदानंद उपासने को रायपुर से टिकट से नवाजा। प्रदेश में नए चेहरों की बात की जाए तो कांग्रेस ने रायपुर शहर की चार में से तीन सीट पर नए चेहरों को तरजीह दी है। यहां से पार्टी ने कुलदीप जुनेजा, संतोष अग्रवाल और योगेश तिवारी को मैदान में उतारा है। वहीं भाजपा ने अपने पिछले धुरंधरों को ही इनके मुकाबले में उतरा है। प्रदेश में कांग्रेस और भाजपा आलाकमान के सामने युवाओं ने मजबूत दावदारी रखी, लेकिन पार्टी ने 'ओल्ड इज गोल्डज् की तर्ज पर उनकी भावनाओं को दरकिनार कर दिया।

Thursday, November 13, 2008

गढ़-गढ़ में सगे-संबंधी

रविशंकर शुक्ल से मध्यप्रदेश की कहानी शुरू होती है। उनके बेटों विद्याचरण और श्यामाचरण शुक्ल इस कहानी को आगे बढ़ाते रहे हैं। छत्तीसगढ़ इसी मध्यप्रदेश से कटकर बना है, इसलिए परिवार वाद के लिए उतना ही पुराना है, जितना पुराना विद्या भैया का राजनीति से संबंध। इस बार लेकिन कांग्रेस में ही नहीं भाजपा में भी रिश्तेदारों को टिकट बांटने की हदें टूटीं हैं। पिछली हार नेता-पुत्र को टिकट दिलाने में बाधक नहीं रही। जो भी कसौटियां थीं, वे दूसरों के लिए थीं। नेता के परिवार वालों के लिए तो मन उदार था और उन पर वरदहस्त था।

मृगेंद्र पांडेय


दो करोड़ की आबादी वाले आदिवासी बहुल छत्तीसगढ़ में भाई-भतीजावाद का इस कदर बोलबाला है कि यहां दो बड़े राजनीतिक दलों ने दो दर्जन से ज्यादा नेताओं के बेटे और उनके सगे संबंधियों को टिकट दे डाला। इन दलों पर सगे संबंधियों को टिकट देने के आरोप लगातार लगते रहे हैं। इसके कारण कई बड़े नेताओं ने पार्टियों से तौबा भी कर लिया, लेकिन यह कम नहीं हुआ और कमोबेश हालात जस के तस बने हुए हैं। पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र की बात की जाए तो वह किसी भी दल में नजर नहीं आ रहा है। इसका एक बड़ा कारण पार्टियों में केंद्रीयकरण जसी व्यवस्था है। कांग्रेस में जहां सभी निर्णयों पर गांधी परिवार या आलाकमान की ही अंतिम मुहर लगती है, वहीं भाजपा भी इससे अछूती नहीं है। इनके निर्णयों में संघ परिवार का खासा दखल रहता है। देश की एक बड़ी राजनीतिक पार्टी में तो टिकटों की बोली लगाए जाने का आरोप अखबारों की सुर्खियां बन रहीं हैं।


अब बात छत्तीसगढ़ की करते हैं। आजादी के बाद से ही अविभाजित मध्यप्रदेश में रविशंकर शुक्ल के बाद उनके बेटे विद्याचरण शुक्ला और श्यामाचरण शुक्ल का दबदबा कायम रहा। मोतीलाल वोरा भी प्रदेश की राजनीति में खासा दखल रखते हैं। ऐसा माना जाता है कि लंबे समय से कांग्रेस के कोषाध्यक्ष रहे वोरा आलाकमान में करीबी लोगों में हैं। वहीं प्रदेश की राजनीति में आदिवासी नेता अरविंद नेताम भी कोई कमजोर खिलाड़ी नहीं है। अगर नेताम ने पार्टी का बार-बार दामन न छोड़ा होता, तो वे छत्तीसगढ़ के पहले मुख्यमंत्री भी हो सकते थे। इस चुनाव में मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री श्यामाचरण शुक्ल के बेटे अमितेश शुक्ल को पार्टी ने राजिम से मैदान में उतारा है। हालांकि वे पिछला चुनाव हार गए थे। इसी तरह मोतीलाल वोरा के बेटे अरुण वोरा को भी पार्टी ने पिछला चुनाव हारने के बावजूद टिकट से नवाजा। यही हाल आदिवासी नेता अरविंद नेताम का है। कांग्रेस से कई बार अंदर बाहर करने के बावजूद वे अपनी बेटी प्रीति नेताम को टिकट दिलाने में सफल रहें हैं। प्रीति कांकेर से कांग्रेस की उम्मीदवार तो हैं, लेकिन स्थानीय स्तर पर उनका खासा विरोध हो रहा है। लोगों का मानना है कि वे एक बाहरी प्रत्याशी हैं। दिल्ली में रहने वाली प्रीति अगर इस मुद्दें को दबाने में असफल होती हैं तो पार्टी के हाथ से यह सीट निकल सकती है।


छत्तीसगढ़ में भाई-भतीजावाद का सही उदाहरण अजीत जोगी से मिल सकता है। प्रदेश में जोगी एकमात्र ऐसे उम्मीदवार है, जो पति-पत्नी दोनों चुनावी अखड़े में हैं। अजीत जोगी जहां मरवाही से भाग्य आजमा रहे हैं तो उनकी पत्नी रेणू जोगी कोटा से उम्मीदवार है। ऐसा नहीं है कि जोगी अपनी पत्नी को ही टिकट दिलाने में सफल रहे हैं। उन्होंने अपने कई करीबी लोगों को भी टिकट दिलाया। गीता देवी सिंह को टिकट देने के बारे में कहा जाता है कि सोनिया गांधी ने खुद हस्तक्षेप करके उनको टिकट दिलाया। उनका कहना था कि गीतादेवी के पति पूर्व सांसद शिवेंद्र बहादुर का पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी से अच्छे संबंध थे, इसलिए पार्टी ने उनको टिकट दिया। अपने परिवार वालों को टिकट दिलाने में कई सांसद और पूर्व विधायक भी सफल रहे हैं। पूर्व सांसद वासुदेव चंद्राकर की बेटी प्रतिभा चंद्राकर, पूर्व विधायक हुल्लास राम मनहर की बेटी पदमा मनहर, रविंद्र चौबे, ओंकार शाह, टीएस सिंहदेव, योगीराज सिंह और देवेंद्र बहादुर सिंह हैं।


ऐसा नहीं है कि परिवार के आधार पर कांग्रेस में ही टिकटों का बंटवारा किया गया है। भाजपा कांग्रेस से पीछे तो है लेकिन उसमें भी आधा दर्जन से ज्यादा ऐसे उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है, जिनके परिवार के लोगों की प्रदेश की राजनीति में खासा दखल रहा है। प्रदेश भाजपा में सबसे ताकतवर खेमे का प्रतिनिधित्व करने वाले लखीराम अग्रवाल के बेटे अमर अग्रवाल बिलासपुर से मैदान में है। रमन सिंह सरकार में वे वित्त मंत्री थे। रायपुर शहर से पूर्व विधायक और संघ परिवार में खासी दखल रखने वाली कुसुमताई उपासने के बेटे सच्चिदानंद उपासने को पार्टी ने रायपुर उत्तर से उम्मीदवार बनाया है। आदिवासी सांसद बलीराम कश्यप भी अपने बेट केदार कश्यप को उम्मीदवार बनवाने में सफल रहे हैं। रायपुर के सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री रमेश बैस जो भाजपा को बहुमत मिलने के बाद मुख्यमंत्री के दावेदारों में थे, उन्होंने भी अपने परिवार के लोगों को चुनावी वैतरणी में उतारा है। उनके रिश्तेदार नारायण चंदेल मैदान में हैं। अंबिकापुर से भाजपा के कद्दावर नेता प्रभुनाथ त्रिपाठी अपने बेट रविशंकर त्रिपाठी को टिकट दिलाने में सफल रहे हैं।


इसके साथ ही भाजपा और कांग्रेस के कई बड़े नेताओं ने अपने करीबी सहयोगियों को भी टिकट दिलाया। पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी अपने खास रहे युवक कांग्रेस के अध्यक्ष योगेश तिवारी को भी रायपुर दक्षिण से टिकट दिलाने में सफल रहे। वहीं विद्याचरण शुक्ल अपने करीबी कुलदीप जुनेजा को टिकट दिलाने में सफल रहे। 90 विधानसभा सीट वाले छत्तीसगढ़ में दो दर्जन से ज्यादा लोगों को टिकट दिलाने में करीबी और भाई-भातीजावाद का चलन उन लोगों के लिए खतरनाक है, जो देश की राजनीति को एक सही दिशा में ले जाने का प्रयास करना है। इस तरह के चलन पर रोक नहीं लगाई गई, तो वह दिन दूर नहीं जब राजनीति में अच्छे और होनहार लोगों को खोजना मुश्किल हो जाए।

Monday, November 10, 2008

स्वतंत्र विदेश नीति पर संकट

सुभाष धूलिया

भारत अमेरिका से काफी बड़े पैमाने पर सैनिक साजो-सामान की खरीद कर रहा है। आए दिन भारत और अमेरिका के संयुक्त सैनिक अभ्यास होते रहते हैं। अमेरिका भारत के सैनिक नाभिकीय कार्यक्रम में भी अप्रत्यक्ष रूप से मदद कर रहा है। दोनों देशों के बीच अरबों-खरबों का नाभिकीय व्यापार होने जा रहा है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या भारत के लिए स्वतंत्र और गुटनिरपेक्ष नीति पर चलना संभव रह पाएगा ? भारत को वैश्विक नाभिकीय समुदाय में शामिल करने के लिए अमेरिका ने असाधारण प्रयास किए और इन प्रयासों असाधारणा से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि दोनों देशों के बीच नाभिकीय सहयोग का दायरा सिर्फ भारत की ऊर्जा जरूरतों को पूरा करना और अमेरिकी कंपनियों के लिए एक बड़ा नाभिकीय बाजार खोलने तक ही सीमित नहीं है बल्कि यह एक व्यापक और गहरी सामरिक रणनीति का हिस्सा है।

कुछ समय पहले तक ही ईरान और जार्जिया को एक बड़े युद्ध के कगार पर खड़ा देखा जा रहा था लेकिन हाल ही में अफगानिस्तान-पाकिस्तान को लेकर अमेरिका ने जो आक्रमक रुख अपनाया है उससे तो यही लगता है कि अब दक्षिण एशिया एक बड़े और खतरनाक युद्ध के कगार पर खड़ा है। अमेरिका आतंकवाद के खिलाफ राजनीतिक युद्ध हारता चला जा रहा है और इस हार की भरपाई अधिकाधिक सैनिक हस्तक्षेप से करना चाहता है। अमेरिका में इस बात को लेकर राजनीतिक सहमति बन गयी है कि इराक के बजाय अफगानिस्तान पर ध्यान केन्द्रित करना होगा और अफगान युद्ध तबतक नहीं जीता जा सकता जब तक पाकिस्तानी जमीन पर सैनिक कार्रवाई कर सीमा से लगे कबाइली इलाकों से आतंकवादी गढ़ों को ध्वस्त नहीं कर दिया जाता।

पाकिस्तान की जमीन पर अमेरिका की सैनिक कार्रवाई एक बहुत बड़े टकराव की शुरुआत होगी। इस तरह के टकराव के उपरांत पाकिस्तान का जो राजनीतिक,सामाजिक और सैनिक मानचित्र उभरेगा उसकी सहज कल्पना की जा सकती है। पिछले काफी समय से भारत की पूरी विदेश नीति का ध्यान केवल अमेरिका के साथ नाभिकीय समझौते पर ही केन्द्रित रहा है और ऐसा आभास होता है कि पड़ोस में पनप रही खतरनाक स्थिति को लेकर कोई परिपक्व सोच विकसित नहीं की गयी है। पाकिस्तान की जमीन पर अमेरिका की सैनिक कार्रवाई में भारत की भूमिका क्या होगी ?

इराक और अफगानिस्तान में अमेरिका ऐसे युद्ध लड़ रहा है जिन्हें जीता ही नहीं जा सकता। आतंकवाद के खिलाफ अमेरिका का वैश्विक युद्ध की अवधारणा दिनोंदिन स्पष्ट होने के बजाय बोझिल होती जा रही है। आज अनेक हलकों में यह कहा जा रहा है कि आतंकवाद के खिलाफ अमेरिका के युद्ध में भले ही सैनिक रूप से आतंकवाद के गढ़ों को भारी नुकसान पहुंचाया गया है लेकिन राजनीतिक रूप से इस्लामी उग्रवाद आज इतना प्रबल हो गया है जितना इतिहास में कभी नहीं था। आतंकवाद के खिलाफ पांच सालों से अमेरिका युद्ध लड़ रहा है लेकिन आतंकवाद खत्म होना तो दूर और प्रबल हुआ है। अचरज की बात यह है कि अमेरिका में आतंकवाद के खिलाफ युद्ध का कोई व्यावहारिक मूल्यांकन नहीं किया गया है और इस्लामी दुनिया में अमेरिकी अवधारणाओं को रोपित करने की कोई जांच-परख नहीं की गयी है। इसी का परिणाम है कि केवल बुश प्रशासन ही नहीं समूचा अमेरिका सत्ता प्रतिष्ठान युद्ध को खत्म करने के बजाय युद्ध के विस्तार में ही अमेरिका के हित देख रहा है।

आज यह मानने के कारण लगभग क्षीण हो गए हैं कि पाकिस्तान की जमीन पर अमेरिका कोई बड़ी सैनिक कार्रवाई नहीं करेगा और अगर ऐसा होता है कि एक राष्ट्र-राज्य के रूप में पाकिस्तान के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लग जाएंगे। अटलबिहारी वाजपेयी समेत भारत के हर प्रधानमंत्री ने हमेशा ही कहा है कि स्थिर और संपन्न पाकिस्तान ही भारत के हित में है। पाकिस्तान में अमेरिकी हस्तक्षेप के विनाशकारी परिणाम होंगे। पाकिस्तान में एक हलके का मानना है कि भारत दोनों का फायदा उठाकर पाकिस्तान के खिलाफ कोई बड़ी सैनिक कार्रवाई कर सकता है। इस संदर्भ में इस बात को नहीं भूला जाना चाहिए कि दोनों ही देशों के पास नाभिकीय हथियार हैं। हालांकि एक अत्यंत नाजुक स्थिति में अमेरिका संयुक्त राष्ट्र के घोषणापत्र के प्रावधान के तहत पाकिस्तान के नाभिकीय हथियारों को 'खतरनाक' घोषित करवा सकता है और इन पर नियंत्रण के लिए अंतर्राष्ट्रीय कार्रवाई भी की जा सकती है। अब सवाल यही उठते हैं कि इस तरह का परिदृश्य उभरने पर भारत कहां खड़ा होगा ?

आज बुश प्रशासन ने नाभिकीय समझौते के लिए असाधारण प्रयास किए हैं ऐसे में भारत से उसकी अपेक्षाएं बढ़ना स्वाभाविक ही है। इस बात को कैसे भूला जा सकता है कि अमेरिका के साथ नाभिकीय सहयोग की प्रक्रिया शुरु होते ही ऊर्जा एजेंसी की बैठक में भारत ने दो बार ईरान के खिलाफ वोट दिया जबकि रूस और चीन जैसे देश कम से कम अनुपस्थित रहने में सक्षम रहे थे। इस नाभिकीय सहयोग के उपरांत ही अरबों डॉलर की ईरान-पाकिस्तान-भारत गैस पाइपलाइन को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। ईरान को लेकर भारत से अमेरिका ये अपेक्षाएं रखता है तो पाकिस्तान के संदर्भ में क्या होगा इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है।

मनमोहन सिंह सरकार के दौरान भारत ने अनेक मोर्चों पर महत्वपूर्ण पहलों का लगभग परित्याग सा कर दिया है। शीतयुद्ध के बाद उभरी एकध्रवीय दुनिया में अमेरिकी ताकत पर अंकुश लगाने के लिए किसी नए सत्ता समीकरण की अपेक्षा की गयी थी। इस संदर्भ में भारत, रूस और चीन के बीच गठजोड़ कायम करने के लिए पहल की गई थी । रूस के राष्ट्रपति पुतिन ने यूरेशिया में अमेरिका के आक्रमक कूटनीति के जवाब में भारत, रूस, चीन और ब्राजील के गठजोड़ की वकालत की थी। रूस की सरहदों तक नाटो के विस्तार और जॉर्जिया पर रूस के आक्रमण से पहले ही नया शीतयुद्ध शुरु हो चुका है। चीन को लेकर अमेरिका हमेशा ही आतंकित रहा है और अब चीन की बढ़ती ताकत की वजह से आशंकाओं के बादल और घने होते जा रहे हैं।

मध्यपूर्व और मध्य एशिया पर नियत्रंण की अमेरिकी की रणनीति में भारत की क्या भूमिका होगी ? अगर ईरान के खिलाफ कोई सैनिक कार्रवाई होती है तो भारत किसके पक्ष में और कहां खड़ा होगा ? इन तमाम सवालों को मौजूदा सरकार संबोधित करती नजर नहीं आती और भारत की विदेश नीति एक शून्य में दिशाहीन सी प्रतीत होती है। विश्व राजनीति के इस अंतरिम दौर में भारत अपने आपको एक ऐसी महाशक्ति के साथ संबद्ध कर रहा है जो खुद ही ऐसे गहरे संकटों में फंसी है जिनके आसान तो दूर गूढ़ समाधान भी कहीं नजर नहीं आ रहे हैं।

नाभिकीय समझौते की आड़ में मनमोहन सरकार ने अमेरिका के साथ जिस तरह का सामरिक गठजोड़ कायम कर लिया है उससे अमेरिका पर भारत की निर्भरता इस हद तक बढ़ गयी है कि संदेह पैदा होता कि क्या आज भारत स्वतंत्र निर्णय लेने में सक्षम है ? भारत की विदेश नीति कितनी स्वतंत्र और गुटनिरपेक्ष रह पाती है इसकी परीक्षा जल्द होने वाली है।

Sunday, November 9, 2008

तीसरे विश्वयुद्ध की दस्तक

एक देश, एक तानाशाह और एक अधकचरा लोकतंत्र
सुभाष धूलिया


मध्यपूर्व में क्या तीसरा महायुद्ध छिड़ने जा रहा है। क्या ईरान पर इस्राइल(अमेरिका) आक्रमण करने जा रहे हैं या यह सिर्फ दवाब डालने के हथकंड़े भर हैं पर आज धरातल की वास्तविकता ये है कि इस्राइल किसी भी कीमत पर ईरान को यूरेनियम संवर्धन की क्षमता विकसित नहीं करने देगा जिसका इस्तेमाल बिजली और नाभिकीय हथियार दोनों को बनाने के लिए किया जा सकता है। ईरान बिजली बनाने के लिए इस क्षमता को विकसित करने के अपने अधिकार का समर्पण करेगा ये भी उम्मीद नहीं की जा सकती।अमेरिका मध्यपूर्व पर अपना प्रभुत्व कायम करने के लिए ईरान को कभी की ये क्षमता हासिल नहीं करने देगा। ईरान को एक क्षेत्रीय महाशक्ति के रूप में उभरने से रोकना अमेरिका और इस्राइल की उस रणनीति का हिस्सा है जिसके तहत इराक-अफगानिस्तान में युद्ध लड़े जा रहे हैं और मध्यपूर्व में सैनिक अड्डों की भरीपूरी श्रृंखला कायम की गयी है

इस पृष्ठभूमि में ईरान की नाभिकीय क्षमता को ध्वस्त करने के लिए सैनिक आक्रमण की धमकियों को दवाब डालने की कोशिश के रूप में नहीं देखा जा सकता। इससे एक ऐसा माहौल तैयार किया जा रहा है जिससे विश्व की अन्य महाशक्तियों को इस आक्रमण के लिए तैयार किया जा सके। यह उसी तरह की रणनीति है जो इरना पर आक्रमण करने से पहले अपनाई गयी थी।ईरान को खलनायक साबित करने के लिए जबर्दस्त प्रचार अभियान छेड़ दिया गया है और ये साबित करने का प्रयास किया जा रहा है कि अगर ईरान को रोका नहीं गया तो विश्व शांति के लिए खतरा पैदा हो जाएगा। इसका असर भी होना शुरु हो गया है और यूरोपियन यूनियन द्वारा आठ बड़े देशों के पैकेज को ईरान ने स्वीकार नहीं किया है। इन पैकेज में यही प्रस्ताव था कि ईरान यूरेनियम संवर्धन के कार्यक्रम का परित्याग कर दे और बदले में आर्थिक मदद के साथ-साथ अपने नाभिकीय संयंत्रों से बिजली उत्पादन के लिए यूरेनियम की सप्लाई भी प्राप्त कर सकता है। पर ईरान ने यूरेनियम संवर्धन के अपने अधिकार का परित्याग करने से इंकार कर दिया है और अब यूरोपीय देश भी ये मानने लगे हैं कि ऐसे में इस्राइल को अकेले नहीं छोड़ा जा सकता है। इसके साथ ही इस्राइल ने मध्यपूर्व में ईरान के परंपरागत सहयोगियों के साथ तालमेल बिठाने के प्रयास भी किए हैं जिसमें गाजा में हमास,लेबनान में हिज़बुल्ला और सीरिया में असद की सत्ता शामिल है। इसका मकसद ईरान पर आक्रमण की स्थिति में इन्हें इस्राइल पर आक्रमण करने से रोकना है। यानि इराक की तरह ईरान को अलग-थलग करने के प्रयास सफल होते नजर आ रहे हैं और आक्रमण का आधार मजबूत हो रहा है। इस्राइल ने पिछले दिनों एक बहुत बड़ा सैनिक अभ्यास किया जिसमें 100 से भी अधिक लड़ाकू विमानों ने भाग लिया जिसका मकसद 1400 किलोमीटर की दूरा पर बड़ा हमला करना था। इस्राइल से ईरानी नाभिकीय प्रतिष्ठान भी इतनी ही दूर हैं। इसके बदले में ईरान ने कई मिसाइलों का परीक्षण किया जो इस्राइल तक मारने की क्षमता रखती हैं। इस्राइल हालांकि स्वीकार नहीं करता पर ये सर्वविधित है कि इस्राइल के पास 100 से अधिक नाभिकीय बम है। लेकिन इस्राइल ईरान जैसे देश को नाभिकीय हथियार विकसित नहीं करने देगा जो इसके अस्तित्व को ही नहीं स्वीकार करता।

अमेरिकी प्रशासन के एक हल्के में में मानना है कि ईरान पर आक्रमण के विनाशकारी परिणाम होंगे जो द्वितीय विश्व युद्ध के विनाश को भी बौना कर देंगे इसलिए राजनयिक तरीकों से ही ईरान को रोका जाना चाहिए। दूसरी और बुश प्रशासन का एक प्रभावशाली तबके का मानना है कि ईरान को राजनयिक तरीकों से राजी करने के सारे राजनयिक प्रयास विफल हो चुके हैं और अब युद्ध ही एकमात्र विकल्प है। राष्ट्रपति बुश के हाल ही के बयानों से स्पष्ट है कि वो आक्रमण के विकल्प की ओर झुक रहे हैं।

आज इतिहास अपने को दोहराता दिखाई देता है। ईरान के राष्ट्रपति अहमदीनेजाद इस्राइल के अस्तित्व को मिटाने की धमकी देने का कोई अवसर नहीं चूकते और इसी तरह की बयानबाजी से अमेरिका को ईरान को एक बड़ा खतरा साबित करने में सफलता मिली थी। ईरान को लेकर भी इराक जैसा परिदृश्य उभर रहा है। अमेरिका की सभी खुफिया एजेंसियों का आकलन है कि ईरान नाभिकीय हथियार बनाने के कार्यक्रम का 2003 में ही परित्याग कर चुका है लेकिन अमेरिका का राजनीतिक नेतृत्व इसे स्वीकार नहीं करता और उसका मानना है कि यूरोनियम संवंर्धन की क्षमता ही नाभिकीय हथियार बनाए जा सकते हैं।

नाभिकीय ईरान को न तो अमेरिका और ना ही इस्राइल स्वीकार करने को तैयार है। ईरान के पास नाभिकीय हथियारों होने भर से ही सत्ता समीकरण बदल जाएंगे और इनके इस्तेमाल की संभवना भर ही मध्यपूर्व में अमेरिका और इस्राइल के प्रभुत्व पर अंकुश लगा सकती है। नाभिकीय ईरान के उदय से तेल-संपंन्न मध्यपुर्व पर नियत्रंण कायम करने का अमेरिका का सपना पूरा नहीं हो पाएगा।ईरान एक नाभिकीय हथियारों के साथ-साथ अपने अकूत तेल संसाधनों के बल पर एक बड़ी क्षेत्रीय महाशक्ति बन जाएगा। नाभिकीय ईरान इस्राइल के लिए केवल सैनिक खतरा ही नहीं बल्कि अनेक तरह के संकट पैदा करेगा। इस वक्त मध्यपूर्व में इस्राइल ही एकमात्र नाभिकीय ताकत है और और नाभिकीय ईराम के बाद इसका एकाधिकार खत्म हो जाएगा। इस्राइल इतना छोटा देश है कि इसके अस्तित्व को मिटाने के लिए एक ही बम काफी है। नाभिकीय ीरान के उदय के बाद इस्राइल मध्यपूर्व में सैनिक कार्रवाइयों के लिए उतना स्वच्छंद नहीं रह पाएगा जितना अबतक रहा है और यह स्वच्छंदता इस्राइल का सबसे बड़ा हथियार रहा है। इस्राइल की रमनीति प्रतिरक्षा की बजाय आक्रमण पर टिकी रही है। नाभिकीय ईरान मध्यपूर्व में इस्राइल विरोधी तमाम इस्लामी और कट्टरवादी ताकतों के संगठित होने का केन्द्र बन जाएगा। इस्राइल के अस्तित्व को पैदा होने वाले खतरे से हर तरह के संसाधनों का पलायन शुरु हो जाएगा और इस्राइल का संपंन्न तबका भी अधिक सुरक्षित स्थानों की ओर कूच कर सकता है। इस स्थिति में सैनिक ताकत के बल पर भी इस्राइल को जर्जर होने से रोकना मुश्किल होगा

सैनिक रूप से इस्राइल के लिए ईरान के नाभिकीय प्रतिष्ठानों को ध्वस्त करना उतना आसान नहीं होगा जो उसने 1981 में इराक और पिछले सितंबर में सीरिया में किया था। लेकिन इस्राइली नेतृत्व का मानना है कि ईरान को नाभिकीय क्षमता हासिल करने से रोकने के लिए कुछ तो जोखिम उठाना ही होगा। इस्राइल यह भी जानता है कि नाभिकीय ईरान मुख्य रूप से इस्राइल के लिए खतरा होगा लेकिन ईरान पर आक्रमण से जो परिस्थितियां पैदा होंगी उससे सारा विश्व संकट में होगा और इस्राइल अकेली नहीं रहेगा। अब चाहे आक्रमण इस्राइल करे या वो अमेरिका के सा ख मिलकर आक्रमण करे, ईरान दोनों ही स्थितियों में इस्राइल और खाड़ी में अमेरिकी सैनिक अड्डों, युद्धपोतों और इराक और अफहानिस्ता में अमेरिकी सैनाओं पर प्रति आक्रमण करेगा। ईरान ने होर्मुज जलडमरु मध्य को बी बंद करने की धमकी दी है जहां से विश्व की 40 प्रतिशत तेल की आपूर्ति होती है। अमेरिका ने चेतावनी दी है कि वो किसी भी कीमत पर इस सामरिक जलमार्ग को बंद नहीं होने देगा।

तेल संकट से जूझ रहे विश्व के लिए 40 प्रतिशत तेल आपूर्ति के बाधित होने से क्या असर पड़ेगा इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है फिर ईरान दुनिया का चौथा तेल उत्पादक देश है ऐसी स्थिति में क्या होगा इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि ईरान द्वारा मिसाइल परीक्षण करने पर तेल के दाम प्रति बैरल 135 से बढ़कर 140.6 डालर हो गए थे।

युद्ध के विनाशकारी परिणामों को सीमित करने के लिए अमेरिका और इस्राइल ऐसे आक्रमण की योजना बना रहे हैं जिससे ईरान की प्रतिआक्रमण की क्षमता को युद्ध के शुरुआती दौर में ही कुंद कर दिया जाए। इसके लिए एक बड़े आक्रमण की योजना बनाई जा रही है और ईरान के केवल नाभिकीय प्रतिष्ठानों को नहीं बल्कि तीन हजार से अधिक लक्ष्यों पर क्रूज मिसाइल से हमला किया जाएगा। यह बी कहा जा रहा कि ईरान के अतिसुरक्षित नाभिकीय प्रतिष्ठानों को ध्वस्त करने के लिए एक छोटे नाभिकीय बम का प्रयोग भी करना पड़ सकता है। इराक और अफगानिस्तान के अनुभव के बाद अमेरिका ईरान के युद्ध को चटपट खत्म करना चाहेगी और हां इसके लिए ईरान का इस हद तक विनाश जरूरी है कि वो जल्द उठ ना सके।

इस पृष्ठभूमि में यही सवाल बचा नजर आता है कि आक्रमण कब होगा ? ईरान पर आक्रमण के मसले पर राष्ट्रपति बुश इस्राइल की सोच के सबसे ज्यादा करीब माने जाते हैं और अपना कार्यकाल खत्म होने से पहले ऐसा भी कुछ करना चाहते हैं कि उन्हें 'ऐतिहासिक' होने का दर्जा हासिल हो सके। अमेरिकी राष्ट्रपति पज के डेमोक्रेटिक उम्मीदवार ओबामा ईरान से सीधी बात के पक्षधर हैं और इस्राइल का ये बी मानना है कि रिपब्लिकन मैक्केन भी अगर राष्ट्रपति बनते हैं तो वो सत्ता संभालते ही ईरान पर आक्रमण का फैसला नहीं करेंगे। ऐसे में इस्राइल का मानना है कि ईरान को नाभिकीय क्षमता हासिल करने के लिए पर्याप्त समय मिल जाएगा। इसलिए ईरान पर आक्रमण के लिए सबसे उपयुक्त समय 4 नवंबर को मतदान और 20 जनवरी को अमेरिका में नए राष्ट्रपति के सत्तासीन होने के बीच का समय ही 'ऐतिहासिक मौका' है जब ईरान को ध्वस्त किया जा सकता है

इस पृष्ठभूमि में अगर युद्ध को रोकने का कोई भी रास्ता तैयार करना है तो इस्राइल,अमेरिका या अहमदीनेजाद के नेतृत्व वाले ईरान में से किसी ना किसी को तो झुकना ही होगा। लेकिन अब सवाल ये उठता कि जब हर पक्ष का इतना कुछ दांव पर लगा हुआ है तो झुकेगा कौन ?

Saturday, November 8, 2008

अमेरिका : चुनाव और युद्ध

सुभाष धूलिया

इन दिनों अमेरिका से मिल रहा हर संकेत एक ही दिशा में इशारा करता नजर आता है कि आने वाले कुछ महीने में विश्व राजनीति में कुछ बड़े परिवर्तन आने वाले हैं। अमेरिका में राष्ट्रपति के चुनाव में डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार बराक ओबामा ने बुश प्रशासन को इस बात के लिए आड़े हाथों लिया है कि पाकिस्तान अरबों डॉलर की अमेरिकी मदद का इस्तेमाल आतंकवाद के बजाय भारत के साथ युद्ध की तैयारी में लगा रहा है। ओबामा पहले भी कह चुके हैं अगर बिन लादेन के अफगान सीमा से लगे पाकिस्तानी कबाइली इलाकों में छिपे होने की पुख्ता खुफिया जानकारी है तो अमेरिका को खुद ही सैन्य कार्रवाई कर देनी चाहिए। लेकिन स्थिति यह है कि बुश प्रशासन ने भले ही खुलमखुल्ला पाकिस्तान के खिलाफ बड़ी सैनिक कार्रवाई न की हो लेकिन पाकिस्तानी ज़मीन पर अमेरिकी की सीधी कार्रवाइयां लगातार बढ़ती जा रही है। अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में ओबामा और रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार मेक्कैन- दोनों ही बढ-चढ़कर कह रहे हैं कि वे नर्क के दरवाजे और पाकिस्तानी कबाइली इलाकों की गुफा तक बिन लादेन का पीछा करेंगे। लेकिन अफगानिस्तान की स्थिति जिस तेजी से बिगड़ रही है उससे यही लगता है कि जिस सैनिक अभियान की बात ओबामा और मेक्कैन कह रहे हैं वह बुश के सत्तासीन रहते ही शुरु हो जाएगा। पाकिस्तान में जरदारी जैसे कमजोर नेता राष्ट्रपति के पद पर आसीन हो गए हैं ऐसे में जरदारी से वह करने की उम्मीद कैसे की जा सकती है जो तानाशाह मुशर्रफ नहीं कर पाए थे ? जरदारी जैसे पाकिस्तानी नेता की नीयति यही है कि उनका सारा ध्यान अपना कुर्सी बचाने पर ही केंद्रित रहेगा इसलिए पाकिस्तान के आंतरिक सत्ता समीकरण को देखते हुए भी अमेरिकी सैनिक कार्रवाई की संभावना प्रबल हो जाती है।

अमेरिका की विदेश नीति इस वक्त इतने गहरे संकट में है कि यह कहा जा रहा है इस बार का राष्ट्रपति का चुनाव विदेश नीति पर ही केन्द्रित होकर रह जाएगा। बुश प्रशासन के दौरान अमेरिका सैनिक ताकत पर अधिकाधिक निर्भर होता चला गया और आज वह ऐसे मुकाम पर आ खड़ा हुआ है कि सैनिक कार्रवाईयों का विस्तार उसकी मजबूरी बन गयी है। ओबामा 'परिवर्तन' की चाहे कितनी भी बातें करे लेकिन युद्ध के मामले में उनका मानना है कि सैनिक प्रयासों को इराक के बजाय अफगानिस्तान-पाकिस्तान पर केन्द्रित होना चाहिए।

अमेरिका की विदेश नीति का दूसरा सबसे बड़ा संकट रूस में उभरता राष्ट्रवाद है। ऐसे समय में जब अमेरिका जॉर्जिया और युक्रेन को नाटो में शामिल करने जा रहा था रूस ने जॉर्जिया पर आक्रमण कर दिया। इस आक्रमण के माध्यम से रूस ने अपनी सैनिक शक्ति का प्रदर्शन ही नहीं किया बल्कि यह भी साफ कर दिया कि सैनिक रूप से घेरे जाने की स्थिति में वह क्या कर सकता है। रूस सैकड़ों नाभिकीय हथियारों से लैस है। जॉर्जिया पर रूस के आक्रमण से यूरोप का नया नक्शा रचने की अमेरिकी रणनीति संकट में फंस गयी है।

अमेरिका का तीसरा बड़ा संकट ईरान को लेकर है। ईरान को नाभिकीय संबर्धन की प्रोद्योगिकी विकसित करने से रोकने के प्रयास लगभग विफल हो गए हैं। इस प्रोद्योगिकी का इस्तेमाल बिजली बनाने के अलावा नाभिकीय हथियार विकसित करने के लिए भी किया जा सकता है। अमेरिका को नाभिकीय क्षमता वाला ईरान स्वीकार्य नहीं है । इजराइल तो नाभिकीय क्षमता वाले ईरान को अपने अस्तित्व के लिए खतरा मानता है और अमेरिका के बिना भी ईरान की नाभिकीय क्षमता को ध्वस्त के इरादे साफ कर चुका है। ईरान भी इजराइल के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता और ईरान के राष्ट्रपति अहमदीनेजाद इस्राइल के अस्तित्व को मिटाने की धमकी देने का कोई अवसर नहीं चूकते। ईरान पर आक्रमण के मसले पर राष्ट्रपति बुश इस्राइल की सोच के सबसे ज्यादा करीब माने जाते हैं और अपना कार्यकाल खत्म होने से पहले ऐसा भी कुछ करना चाहते हैं कि उन्हें 'ऐतिहासिक' होने का दर्जा हासिल हो सके। अमेरिकी राष्ट्रपति पद के डेमोक्रेटिक उम्मीदवार ओबामा ईरान से सीधी बात के पक्षधर हैं और इस्राइल का ये बी मानना है कि रिपब्लिकन मैक्केन भी अगर राष्ट्रपति बनते हैं तो वो सत्ता संभालते ही ईरान पर आक्रमण का फैसला नहीं करेंगे। ऐसे में इस्राइल का मानना है कि ईरान को नाभिकीय क्षमता हासिल करने के लिए पर्याप्त समय मिल जाएगा। इजराइल के एक प्रभावशाली तबके की धारणा है कि अब से लेकर नए राष्ट्रपति के सत्तासीन होने के बीच का समय ईरान पर आक्रमण का 'अंतिम' अवसर है। अमेरिकी राष्ट्रपति का चुनाव प्रचार दो महीने चलेगा और 4 नवंबर को मतदान होगा। जनवरी में नए राष्ट्रपति सत्ता की बागडोर संभालेंगे।

इस वक्त अमेरिकी जनमत निर्णायक रुप किसी के भी पक्ष में नहीं है। कांटे की टक्कर है और यह कयास लगाए जा रहे हैं कि अगर ईरान और अफगानिस्तान-पाकिस्तान में कोई बड़ी सैनिक कार्रवाई न हो तो ओबामा का पलड़ा भारी हो सकता है। ईरान पर आक्रमण एक बड़े युद्ध की शुरुआत होगी। ऐसे में अमेरिका भूतपूर्व सैनिक मेक्कैन को चुनेगा या भूतपूर्व सामुदायिक समाजसेवी ओबामा को अमेरिकी सेना का कमांडर-इन-चीफ के पद पर आसीन करेगा- इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। अगर राष्ट्रपति बुश इराक,अफगानिस्तान और ईरान को ऐसे ही छोड़कर जाते हैं जैसे वे आज हैं तो इतिहास में उनका नाम एक विफल राष्ट्रपति के रूप में ही दर्ज होगा। आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक युद्ध छेड़े जाने के बावजूद बिन लादेन आजतक हाथ नहीं आया है। ये सच है कि बिन लादेन के साथ ही आंतकवाद के खिलाफ लड़ाई खत्म नहीं होगी लेकिन अमेरिका के लिए इसका बहुत प्रतीकात्मक महत्व है और इतिहास और राजनीति में प्रतीकों की भूमिका भी होती है। बुश इतिहास के पन्नों पर अपना नाम विफल नेता के रूप में दर्ज नहीं होने देना चाहते इसलिए बिन लादेन के मामले में वो कुछ करके ही जाना चाहते हैं और हाल ही में पाकिस्तान की जमीन पर बढ़ती सैनिक कार्रवाई इसी ओर इशारा करती है।

आज अमेरिका की राजनीति निश्चित रूप से बड़े परिवर्तन के दरवाजे पर खड़ी है। अगर मेक्कैन जीतते है तो वो युद्ध के विस्तार के ही राजनीतिक उत्पाद होंगे और अगर ओबामा अमेरिका के राष्ट्रपति बनते हैं, तो वे भले ही अमेरिकी युद्धों को कोई नई दिशा दें, लेकिन फिर भी वो एक नए उभरते अमेरिका के प्रतीक होंगे। ठोस परिवर्तन को लेकर ओबामा के दावे कितने ही अपरिभाषित क्यों न हों लेकिन वे नए अमेरिका में नई राजनीति के प्रतीक बन गए हैं और नई पीढ़ी उनमें अपने सपनों का अमेरिका देखती प्रतीत होती है। अमेरिका की मुख्यधारा राजनीति को ओबामा भले ही अच्छे लग रहे हों लेकिन लगता है अभी वह अपने को उनसे संबंद्ध नहीं कर पा रही है, अभी वह उन्हें पूरी तरह समझ नहीं पा रही और एक युद्धग्रस्त देश को ओबामा के हवाले करने के लिए पूरी तरह तैयार नहीं है। अब यह देखा जाना बाकी है कि अमेरिका की मुख्यधारा राजनीति इसके लिए तैयार हो पाती है या नहीं और कहीं एक नया युद्ध ओबामा और राष्ट्रपति पद के बीच में आकर तो खड़ा नहीं हो जाएगा ?

बुश इतिहास में अपना नाम दर्ज कराना चाहते हैं,ओबामा इतिहास का पन्ना पलटना चाहते हैं, एक बड़ा युद्ध मेक्कैन को सत्तासीन करवा सकता है- हर स्थिति में अमेरिका एक नई तरह की राजनीति की ओर उन्मुख है। अमेरिका चाहे जो भी करवट ले, हर तरफ युद्ध का विस्तार है जिसका विश्व राजनीति पर गहरा असर होगा।