Saturday, November 8, 2008

अमेरिका : चुनाव और युद्ध

सुभाष धूलिया

इन दिनों अमेरिका से मिल रहा हर संकेत एक ही दिशा में इशारा करता नजर आता है कि आने वाले कुछ महीने में विश्व राजनीति में कुछ बड़े परिवर्तन आने वाले हैं। अमेरिका में राष्ट्रपति के चुनाव में डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार बराक ओबामा ने बुश प्रशासन को इस बात के लिए आड़े हाथों लिया है कि पाकिस्तान अरबों डॉलर की अमेरिकी मदद का इस्तेमाल आतंकवाद के बजाय भारत के साथ युद्ध की तैयारी में लगा रहा है। ओबामा पहले भी कह चुके हैं अगर बिन लादेन के अफगान सीमा से लगे पाकिस्तानी कबाइली इलाकों में छिपे होने की पुख्ता खुफिया जानकारी है तो अमेरिका को खुद ही सैन्य कार्रवाई कर देनी चाहिए। लेकिन स्थिति यह है कि बुश प्रशासन ने भले ही खुलमखुल्ला पाकिस्तान के खिलाफ बड़ी सैनिक कार्रवाई न की हो लेकिन पाकिस्तानी ज़मीन पर अमेरिकी की सीधी कार्रवाइयां लगातार बढ़ती जा रही है। अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में ओबामा और रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार मेक्कैन- दोनों ही बढ-चढ़कर कह रहे हैं कि वे नर्क के दरवाजे और पाकिस्तानी कबाइली इलाकों की गुफा तक बिन लादेन का पीछा करेंगे। लेकिन अफगानिस्तान की स्थिति जिस तेजी से बिगड़ रही है उससे यही लगता है कि जिस सैनिक अभियान की बात ओबामा और मेक्कैन कह रहे हैं वह बुश के सत्तासीन रहते ही शुरु हो जाएगा। पाकिस्तान में जरदारी जैसे कमजोर नेता राष्ट्रपति के पद पर आसीन हो गए हैं ऐसे में जरदारी से वह करने की उम्मीद कैसे की जा सकती है जो तानाशाह मुशर्रफ नहीं कर पाए थे ? जरदारी जैसे पाकिस्तानी नेता की नीयति यही है कि उनका सारा ध्यान अपना कुर्सी बचाने पर ही केंद्रित रहेगा इसलिए पाकिस्तान के आंतरिक सत्ता समीकरण को देखते हुए भी अमेरिकी सैनिक कार्रवाई की संभावना प्रबल हो जाती है।

अमेरिका की विदेश नीति इस वक्त इतने गहरे संकट में है कि यह कहा जा रहा है इस बार का राष्ट्रपति का चुनाव विदेश नीति पर ही केन्द्रित होकर रह जाएगा। बुश प्रशासन के दौरान अमेरिका सैनिक ताकत पर अधिकाधिक निर्भर होता चला गया और आज वह ऐसे मुकाम पर आ खड़ा हुआ है कि सैनिक कार्रवाईयों का विस्तार उसकी मजबूरी बन गयी है। ओबामा 'परिवर्तन' की चाहे कितनी भी बातें करे लेकिन युद्ध के मामले में उनका मानना है कि सैनिक प्रयासों को इराक के बजाय अफगानिस्तान-पाकिस्तान पर केन्द्रित होना चाहिए।

अमेरिका की विदेश नीति का दूसरा सबसे बड़ा संकट रूस में उभरता राष्ट्रवाद है। ऐसे समय में जब अमेरिका जॉर्जिया और युक्रेन को नाटो में शामिल करने जा रहा था रूस ने जॉर्जिया पर आक्रमण कर दिया। इस आक्रमण के माध्यम से रूस ने अपनी सैनिक शक्ति का प्रदर्शन ही नहीं किया बल्कि यह भी साफ कर दिया कि सैनिक रूप से घेरे जाने की स्थिति में वह क्या कर सकता है। रूस सैकड़ों नाभिकीय हथियारों से लैस है। जॉर्जिया पर रूस के आक्रमण से यूरोप का नया नक्शा रचने की अमेरिकी रणनीति संकट में फंस गयी है।

अमेरिका का तीसरा बड़ा संकट ईरान को लेकर है। ईरान को नाभिकीय संबर्धन की प्रोद्योगिकी विकसित करने से रोकने के प्रयास लगभग विफल हो गए हैं। इस प्रोद्योगिकी का इस्तेमाल बिजली बनाने के अलावा नाभिकीय हथियार विकसित करने के लिए भी किया जा सकता है। अमेरिका को नाभिकीय क्षमता वाला ईरान स्वीकार्य नहीं है । इजराइल तो नाभिकीय क्षमता वाले ईरान को अपने अस्तित्व के लिए खतरा मानता है और अमेरिका के बिना भी ईरान की नाभिकीय क्षमता को ध्वस्त के इरादे साफ कर चुका है। ईरान भी इजराइल के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता और ईरान के राष्ट्रपति अहमदीनेजाद इस्राइल के अस्तित्व को मिटाने की धमकी देने का कोई अवसर नहीं चूकते। ईरान पर आक्रमण के मसले पर राष्ट्रपति बुश इस्राइल की सोच के सबसे ज्यादा करीब माने जाते हैं और अपना कार्यकाल खत्म होने से पहले ऐसा भी कुछ करना चाहते हैं कि उन्हें 'ऐतिहासिक' होने का दर्जा हासिल हो सके। अमेरिकी राष्ट्रपति पद के डेमोक्रेटिक उम्मीदवार ओबामा ईरान से सीधी बात के पक्षधर हैं और इस्राइल का ये बी मानना है कि रिपब्लिकन मैक्केन भी अगर राष्ट्रपति बनते हैं तो वो सत्ता संभालते ही ईरान पर आक्रमण का फैसला नहीं करेंगे। ऐसे में इस्राइल का मानना है कि ईरान को नाभिकीय क्षमता हासिल करने के लिए पर्याप्त समय मिल जाएगा। इजराइल के एक प्रभावशाली तबके की धारणा है कि अब से लेकर नए राष्ट्रपति के सत्तासीन होने के बीच का समय ईरान पर आक्रमण का 'अंतिम' अवसर है। अमेरिकी राष्ट्रपति का चुनाव प्रचार दो महीने चलेगा और 4 नवंबर को मतदान होगा। जनवरी में नए राष्ट्रपति सत्ता की बागडोर संभालेंगे।

इस वक्त अमेरिकी जनमत निर्णायक रुप किसी के भी पक्ष में नहीं है। कांटे की टक्कर है और यह कयास लगाए जा रहे हैं कि अगर ईरान और अफगानिस्तान-पाकिस्तान में कोई बड़ी सैनिक कार्रवाई न हो तो ओबामा का पलड़ा भारी हो सकता है। ईरान पर आक्रमण एक बड़े युद्ध की शुरुआत होगी। ऐसे में अमेरिका भूतपूर्व सैनिक मेक्कैन को चुनेगा या भूतपूर्व सामुदायिक समाजसेवी ओबामा को अमेरिकी सेना का कमांडर-इन-चीफ के पद पर आसीन करेगा- इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। अगर राष्ट्रपति बुश इराक,अफगानिस्तान और ईरान को ऐसे ही छोड़कर जाते हैं जैसे वे आज हैं तो इतिहास में उनका नाम एक विफल राष्ट्रपति के रूप में ही दर्ज होगा। आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक युद्ध छेड़े जाने के बावजूद बिन लादेन आजतक हाथ नहीं आया है। ये सच है कि बिन लादेन के साथ ही आंतकवाद के खिलाफ लड़ाई खत्म नहीं होगी लेकिन अमेरिका के लिए इसका बहुत प्रतीकात्मक महत्व है और इतिहास और राजनीति में प्रतीकों की भूमिका भी होती है। बुश इतिहास के पन्नों पर अपना नाम विफल नेता के रूप में दर्ज नहीं होने देना चाहते इसलिए बिन लादेन के मामले में वो कुछ करके ही जाना चाहते हैं और हाल ही में पाकिस्तान की जमीन पर बढ़ती सैनिक कार्रवाई इसी ओर इशारा करती है।

आज अमेरिका की राजनीति निश्चित रूप से बड़े परिवर्तन के दरवाजे पर खड़ी है। अगर मेक्कैन जीतते है तो वो युद्ध के विस्तार के ही राजनीतिक उत्पाद होंगे और अगर ओबामा अमेरिका के राष्ट्रपति बनते हैं, तो वे भले ही अमेरिकी युद्धों को कोई नई दिशा दें, लेकिन फिर भी वो एक नए उभरते अमेरिका के प्रतीक होंगे। ठोस परिवर्तन को लेकर ओबामा के दावे कितने ही अपरिभाषित क्यों न हों लेकिन वे नए अमेरिका में नई राजनीति के प्रतीक बन गए हैं और नई पीढ़ी उनमें अपने सपनों का अमेरिका देखती प्रतीत होती है। अमेरिका की मुख्यधारा राजनीति को ओबामा भले ही अच्छे लग रहे हों लेकिन लगता है अभी वह अपने को उनसे संबंद्ध नहीं कर पा रही है, अभी वह उन्हें पूरी तरह समझ नहीं पा रही और एक युद्धग्रस्त देश को ओबामा के हवाले करने के लिए पूरी तरह तैयार नहीं है। अब यह देखा जाना बाकी है कि अमेरिका की मुख्यधारा राजनीति इसके लिए तैयार हो पाती है या नहीं और कहीं एक नया युद्ध ओबामा और राष्ट्रपति पद के बीच में आकर तो खड़ा नहीं हो जाएगा ?

बुश इतिहास में अपना नाम दर्ज कराना चाहते हैं,ओबामा इतिहास का पन्ना पलटना चाहते हैं, एक बड़ा युद्ध मेक्कैन को सत्तासीन करवा सकता है- हर स्थिति में अमेरिका एक नई तरह की राजनीति की ओर उन्मुख है। अमेरिका चाहे जो भी करवट ले, हर तरफ युद्ध का विस्तार है जिसका विश्व राजनीति पर गहरा असर होगा।

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