Saturday, September 19, 2009

नीतीश के लिए साधु-सुभाष साबित होंगे ललन सिंह

बिहार उप-चुनावः अराजकता और अहंकार के बीच उलझा जनादेश
 
बिहार विधानसभा की 18 सीटों के लिए 10 और 15 सितंबर को हुए मतदान के नतीजे आ गए हैं. जिन 18 सीटों पर चुनाव हुए थे, उनमें से 13 सीटों पर राजग का कब्जा था और बाकी बची 5 में से 4 राजद और 1 लोजपा के पास थीं. नतीजा जो आया, उससे इन 18 सीटों पर राजग की कुल हैसियत 5 रह गई है जबकि राजद और लोजपा ने 9 की ताकत पाई है. पिछली स्थिति के मुकाबले राजग को 8 सीटों का नुकसान हो गया है वहीं लालू और रामविलास की जोड़ी ने 4 ज्यादा सीटें हथिया ली. मुनाफे में रही पार्टियों में कांग्रेस, बसपा और एक निर्दलीय भी है जिन लोगों ने बाकी की 4 सीटें जीती हैं.
 
चुनाव का यह नतीजा मेरे विचार से लालू की अराजक सरकार और नीतीश की अहंकारी सरकार के बीच फंस गया जनादेश है. बिहार में जब लालू प्रसाद की सरकार हुआ करती थी तो अराजकता का आलम ये था कि कोई उसे जंगलराज कहता था और कोई नर्क. लेकिन उस दौर में भी लालू इतने घमंडी नहीं हुए थे जितने नीतीश इस छोटे से शासनकाल में ही बन गए.
 
लालू के राज में सड़कें नहीं बनती थीं. नीतीश के राज में जो सड़कें बन गई, लोग कहते हैं कि उनके कई ठेकेदार पेमेंट के लिए भटक रहे हैं. सड़कों को बनाने का काम लंबे समय से गुंडों के हाथ में ही रहा है. पेपर किसी और का, काम कोई और करता है. पेपर के मालिक जान बचाने के लिए लालू के राज से ही ऐसा करते रहे हैं. लालू के समय में सड़कें कम बनती थीं तो ज्यादातर गुंडे फुलटाइम गुंडागर्दी ही करते थे. किसी को उठा लिया, किसी को टपका दिया. ये सब सामान्य बात हो गई थी. लालू के ही समय में बिहार के कई डॉन टाइप के लोग विधायक और सांसद बन गए. नीतीश का राज आया तो सड़कें बनने लगीं. गुंडों को लगा कि नेता बनना है तो पैसा जुटाना होगा और ठेकेदारी करनी होगी. सारे गुंडे सड़क बनाने में जुट गए. छोटा गुंडा एक-दो किलोमीटर की ग्रामीण सड़कों का ठेकेदार हो गया तो बड़ा गुंडा लंबी सड़कों का हिसाब करने लगा. गुंडे ठेकेदार हो गए तो अपराध का ग्राफ धड़ाम से नीचे आ गया. मीडिया में जयकारा होने लगी. नीतीश ने तो कमाल कर दिया.
 
लेकिन जब समय बीता और नीतीश के दम पर ताकतवर हो गए अधिकारी आंशिक या अंतिम भुगतान के लिए ठेकेदारों को टहलाने लगे तो उसका असर सड़क के काम पर और काम करने वाले पर भी पड़ने लगा. इसका अंतिम असर इन चुनावों पर भी देखा जा सकता है. नीतीश के पीछे बड़ी संख्या में लालू राज के सताए गुंडे थे. अब ये गुंडे नीतीश से भी नाखुश हैं. बिना कमाई के आखिर कितने दिन ठेकेदारी चलेगी. अधिकारी किसी की सुनते नहीं हैं क्योंकि नीतीश मानते हैं कि सारे अधिकारी ईमानदार और सारे नेता भ्रष्ट हैं. गुंडों ने गुंडागर्दी से कमाई पूंजी लगा रखी है तो वो तन कर बात भी नहीं कर पाते. पता चला कि अधिकारी के साथ कुछ ज्यादा कर या कह बैठे तो जिंदगी की पूंजी ही फंसी रह जाएगी. इनलोगों के लिए नीतीश की सरकार अशुभ साबित हुई. ये सुधर तो गए लेकिन नीतीश उन्हें सुधारे रखने की गारंटी नहीं कर सके.
 
लालू राज में सरकारी अस्पतालों में डॉक्टर-मरीज कम मिलते थे. प्राइवेट क्लिनिक की सेहत ठीक रही. अब सरकारी अस्पताल में डॉक्टर-मरीज की भीड़ है. प्राइवेट क्लिनिक पहले से भी ज्यादा ठीक चल रहे हैं क्योंकि वहां के डॉक्टर भी एक्स-रे कराने सरकारी अस्पताल भेज देते हैं. सस्ते में काम हो जाता है. बिहार में मार-पीट के आधार पर कई मुकदमे हर रोज होते हैं. इन मुकदमों में अस्पताल में मिलने वाले जख्म प्रतिवेदन यानी मार-कुटाई की गंभीरता के प्रमाण पत्र की थाने और कोर्ट में जरूरत होती है. लालू राज में इसका कोई हिसाब-किताब नहीं था. अपनी पहुंच के हिसाब से लोगों के पास घायल और जख्मी हो जाने का विकल्प मौजूद था. नीतीश ने कहा कि हर अस्पताल का रजिस्टर होगा, उसमें रोज आने वाले मरीजों का नाम होगा, देखने वाले डॉक्टर का नाम होगा. अब हर रोज रजिस्टर भरा जाने लगा. नीतीश ने इन रजिस्टरों के नियमित हिसाब का प्रावधान कर दिया लेकिन इसकी गारंटी नहीं कर सके कि हर रोज यह रजिस्टर जिला या राज्य मुख्यालय तक अपनी रिपोर्ट दर्ज कराए. इसका नतीजा हुआ कि एक या दो दिन पीछे की तारीख में भी अपना नाम लिखवाने में अब लोगों को पांच-पांच अंक में रुपए खर्च करने पड़ रहे हैं. लालू की सरकार में यह सब काम खिलाने-पिलाने पर भी हो जाता था. इसका व्यापक असर मुकदमेबाज लोगों पर पड़ा है. नीतीश इस असर से कैसे बचे रहते.
 
नीतीश की सरकार के कई मंत्री अपने सचिवों से सीधे मुंह बात करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते क्योंकि सारे सचिव सीधे मुख्यमंत्री आवास से संपर्क में रहते हैं. जब मंत्रियों की यह हालत है तो विधायकों या सांसदों का क्या चलता-बनता होगा, समझा ही जा सकता है. और, जब अधिकारियों का मान-सम्मान इतना ज्यादा हो जाए तो उनका निरंकुश होना लाजिमी ही है. जो लाल कार्ड पहले सौ-पचास में बन जाता था, वो अब कुछ और महंगा हो गया है. हर जगह अधिकारियों ने अपने काम की रेट बढ़ा ली है. नेताओं की नहीं सुनने का लाइसेंस सरकार ने दे रखा है इसलिए विरोधी दलों के विरोध का भी असर अब इन अधिकारियों पर नहीं होता.
 
सरकारी इश्तहारों के दम पर लालू प्रसाद ने भी मीडिया को अपने हित के लिए खूब इस्तेमाल किया था लेकिन सुना जा रहा है कि नीतीश सरकार तो विरोधियों की खबर तक छपने से तड़प उठती है. पटना के अखबारों का बुरा हाल है. इश्तहार जारी करने वाले अधिकारी को इस बात की गारंटी करनी पड़ती है कि लालटेन या बंगला का हिसाब ठीक रहे. हिसाब गड़बड़ होने पर इश्तहार का हिसाब डगमगा जाता है. ऐसे में मीडिया के मन में भी नीतीश को लेकर जो भाव था वो बदल गया है. कशीदाकारी कम हो गई है क्योंकि उन्हें अब लगने लगा है कि उन्होंने ही इस सरकार की उम्मीदों को इतनी हवा दे दी है कि वो अब आलोचना का झोंका तक सहने को तैयार नहीं है.
 
नीतीश की पार्टी के नेता ललन सिंह को छोड़ दें तो पूरे प्रदेश में कोई विधायक या सांसद कोई काम कराने की बात दावे के साथ नहीं कर सकता. लालू यादव की पार्टी के कई नेता मानते हैं कि साधु यादव या सुभाष यादव लालू प्रसाद की जो दुर्गति नहीं कर सके, ललन सिंह नीतीश की उससे भी बुरी हालत करवाएंगे. बिहार के तमाम बड़े नाम जो अलग-अलग गिरोह के सरदार हैं, ललन सिंह के भरोसेमंद हैं. ललन सिंह मुंगेर से लड़ने जाते हैं तो उसकी तैयारी वो दो साल पहले शुरू कर देते हैं जबकि चुनाव आयोग तीन महीने की ट्रांसफर लिस्ट देखकर अपने को बहुत होशियार समझता है. अहंकारी नीतीश हैं या ललन सिंह, ये अंतर कर पाना कई महीनों से मुश्किल है. बिहार के नेताओं में यह बात खूब होती है कि नीतीश सीएम हैं तो ललन सिंह सुपर सीएम. कौन कहां रहेगा, कौन कहां नहीं रहेगा, ये ललन सिंह ही तय करते हैं. ललन सिंह के राजनीतिक सफर पर गौर करें तो नीतीश सरकार की एक मंत्री के सहयोगी के तौर पर सत्ता का स्वाद चखने वाले ललन सिंह आज ताकत के मामले में उस मंत्री के भी ऊपर हैं. उनकी बराबरी सुशील मोदी से की जा सकती है. बीजेपी वाले सुशील मोदी को अपनी पार्टी से ज्यादा नीतीश की पार्टी लेकिन जेडीयू नहीं, का नेता मानते हैं. लालू के खिलाफ पशुपालन घोटाला का मुकदमा उन्होंने दायर किया, इसके सिवा उनकी ऐसी कौन सी उपलब्धि है जो नीतीश जैसे नेता की पार्टी के वो राज्य में नेता बने रहें. चुनाव प्रबंधन में वो सबके उस्ताद हैं, ये उन्होंने इस लोकसभा चुनाव में साबित कर दिया है.
 
कायदे से तो नीतीश कुमार को खुद की, अपने पूरे मंत्रिमंडल की और बिना मंत्रिमंडल में रहे कई मंत्रियों से ज्यादा ताकतवर ललन सिंह की संपत्ति का ब्यौरा एक बार फिर से सार्वजनिक करना चाहिए. इन सबों की संपत्ति का ब्योरा चुनाव आयोग के पास है लेकिन इनके रहन-सहन का इनकी घोषित संपत्ति से कोई तालमेल नहीं है. लोगों ने शपथपत्र में मारुति लिखा लेकिन चढ़ रहे एंडेवर हैं. किसकी है लैंड क्रूजर, इसका हिसाब भी तो नीतीश जी देना चाहिए. लालू जी जब पटना और उसके बाद दिल्ली से बेदखल हो सकते हैं तो आप इस भ्रम में बिल्कुल न रहें कि बिहार की जनता ने आपके साथ कोई पंद्रह साल का करार किया है. आपकी ईमानदारी की तो आप जानें, आपकी ईमानदारी के नाम पर पूरे राज्य में कई दुकानें चल रही हैं. ललन सिंह जैसे लोगों की संगत में रहेंगे तो वोटरों को आपकी पंगत बदलते भी देर नहीं लगेगी.
 
बिहार विधानसभा की 18 सीटों के लिए हुए उप-चुनाव में पार्टियों की औकात- आरजेडी- 6, एलजेपी- 3, जेडीयू- 3, बीजेपी- 2, कांग्रेस- 2, बीएसपी- 1, निर्दलीय- 1
 
इस आधार पर अगर ये कहें कि एनडीए को लोकसभा चुनाव में जो वोट मिले बिहार के लोगों ने लालकृष्ण आडवाणी के नाम पर दिए तो कुछ ज्यादा नहीं होगा. बिहार वाले शायद आडवाणी को पीएम बनाना चाहते थे. नीतीश कुमार तो लिटमस टेस्ट में फेल हो गए क्योंकि आम तौर पर उप-चुनाव में सत्तारूढ़ पार्टी की जीत होती रही है. अगर इन 18 सीटों के हिसाब से विधानसभा का गठन होता तो लालू-रामविलास की सरकार तो बन ही जाती. लोकसभा चुनाव के बाद आरजेडी और दूसरे दलों से नेताओं को जेडीयू में आयात करने का जो सिलसिला शुरू हुआ था अब उसके आगे जारी रहने की उम्मीद बिल्कुल भी नहीं है. आरजेडी छोड़कर गए बड़े नेता अपनी औकात जान गए हैं. वोटरों ने उन्हें नकार दिया. बिहार में एनडीए की सरकार बनने के बाद एनडीए की तरफ दूसरे पाले से आए नेताओं का बड़ा हिस्सा जेडीयू को नसीब हुआ. बड़ी संख्या में आरजेडी और दूसरे दलों के नेताओं के आने से जेडीयू भी वैसा ही हो गया जैसा आरजेडी हुआ करता था.
 
असल में लगता ये है कि आरजेडी की गंदगी जेडीयू में चली आई और अच्छे लोग वहीं रुके रहे. अगले साल जब चुनाव होंगे तो क्या पता, ललन सिंह जैसे हवा-हवाई नेताओं और दूसरे दलों से आए इम्पोर्टेड नेताओं की वजह से नीतीश को विरोधी दल के नेता पद के लिए भी बीजेपी के साथ कुश्ती करनी पड़े. केंद्र में बिना कांग्रेस की मदद किए या लिए आने से तो नीतीश कुमार दूर ही रहे. ऐसे में अगर बिहार में भी वोटरों ने तीर को तोड़ दिया तो मीडिया के एक वर्ग में मिस्टर क्लिन के रूप में शोहरत बटोर रहे बेचारे नीतीश निशाना लगाएंगे कहां.
 
(संशोधित कॉपी- पहले की कॉपी में एनडीए को 5 की बजाय 6 सीट दे दी गई थी जबकि राजद और लोजपा को 9 की जगह पर 8 ही सीटें दी गई थीं. उस समय के नतीजे इसी तरह आ रहे थे. मौजूदा कॉपी चुनाव आयोग द्वारा जारी विजेता सूची के आधार पर है.)

फर्जी मुठभेड़ और समाचार मीडिया

आनंद प्रधान
अगर अहमदाबाद (गुजरात) के मेट्रोपोलिटन मैजिस्ट्रेट एस पी तमांग की जांच रिपोर्ट पर भरोसा करें तो कोई पांच साल पहले गुजरात पुलिस ने शहर के बाहर युवा इशरत जहां सहित जिन चार लोगों को लश्कर-ए-तैयबा का आतंकवादी बताते हुए पुलिस मुठभेड़ में मार गिराने का दावा किया था, वह मुठभेड़ पूरी तरह से फर्जी थी। लगभग 243 पृष्ठों की रिपोर्ट में मैजिस्ट्रेट ने न सिर्फ गुजरात पुलिस के अधिकांश दावों की पोल पट्टी खोल दी है बल्कि उसके सांप्रदायिक और हत्यारे चरित्र को भी पूरी तरह से बेनकाब कर दिया है। हैरानी की बात नहीं है कि इशरत जहां मुठभेड़ मामले में गुजरात पुलिस की क्राइम ब्रांच के उन्हीं अफसरों का नाम सामने आया है। जो पहले ही, इसी तरह के एक और फर्जी मुठभेड़-सोहराबुद्वीन शेख मामले में जेल की हवा खा रहे हैं।

कहने की जरूरत नहीं है कि इशरत जहां फर्जी मुठभेड़ मामला उजागर होने के साथ ही गुजरात पुलिस की बची-खुची साख भी मिट्टी में मिल गयी है। उससे अधिक नरेंद्र मोदी सरकार की असलियत खुलकर सामने आ गयी है जो एक बार फिर पूरी बेशर्मी के साथ अपराधी पुलिस अफसरों और कर्मियों के बचाव में उतर आयी है। लेकिन इस पूरे मामले में सवाल समाचार मीडिया की भूमिका पर भी उठ रहे हैं। सवाल यह है कि इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़कर आमतौर पर राष्ट्रीय और गुजराती समाचार मीडिया ने इन फर्जी मुठभेड़ों के बारे में पालतू तोते की तरह वही क्यों दोहराया जो मोदी सरकार और गुजरात पुलिस ने बताया? यह सवाल इसलिए उठ रहा है क्योंकि समाचार मीडिया से अपेक्षा की जाती है कि वह पुलिस और सरकार का भोंपू बनने के बजाय सच को सामने लाए, सवाल उठाए और कमजोर और पीड़ित लोगों की आवाज उठाए।

लेकिन अफसोस की बात यह है कि गुजरात और देश के कई और राज्यों में समाचार मीडिया ने अपनी इस भूमिका को न सिर्फ ताक पर रख दिया है बल्कि आतंकवाद से लड़ने के आब्सेशन में राज्य और पुलिस-सुरक्षा एजेंसियों की ज्यादतियों और गैर कानूनी तौर तरीकों में सहयोगी-सहभागी बन गयी है। स्थिति यह हो गयी है कि पुलिस/सुरक्षा एजेंसियां किसी (खासकर मुस्लिम और दूसरे अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्यों के साथ-साथ दलितों और आदिवासियों) को ‘आतंकवादी’, ‘उग्रवादी’, ‘नक्सली’ और अलगाववादी’घोषित कर मुठभेड़ में मार डालें तो सवाल उठाना और पुलिसिया दावों की जांच पड़ताल तो दूर की बात है, समाचार मीडिया का बड़ा हिस्सा और नमक-मिर्च लगाकर, सनसनीखेज तरीके से और मारे गए लोगों की चरित्र हत्या में जुट जाता है।

सचमुच, इससे बड़ी विडम्बना और क्या हो सकती है कि जिस समाचार मीडिया से सच को सामने लाने और कमजोर लोगों की आवाज बनने की अपेक्षा की जाती है, वह खुद फर्जी मुठभेड़ में शामिल दिख रहा है। फर्जी मुठभेडो में पुलिस तो एक बार गोली मारकर हत्या करती है लेकिन समाचार मीडिया दिन-रात चीख-चीखकर मुठभेड़ में मारे गये निर्दोष लोगों की सैकड़ों बार चरित्र हत्या करता है। मीडिया यह बुनियादी पत्रकारीय उसूल भूल जाता है कि मुठभेड़ों में मारे गये लोग कथित आतंकवादी हैं यानी कि पुलिस जिन्हें आतंकवादी मानती है, उसे जांच और अदालत में साबित होना अभी बाकी है।
दूसरे, ऐसा लगता है कि मुख्य धारा के अधिकांश समाचार मीडिया ने ‘देशभक्ति’ का ठेका ले लिया है। आतंकवाद का नाम सुनते ही उसकी देशभक्ति जोर मारने लगती है। इस देशभक्ति के जोश मंे वह जांच पड़ताल, सवाल उठाने और संदेह करने के बुनियादी पत्रकारीय उसूलों को तो स्थगित कर ही देता है, साथ ही साथ ऐसे मुठभेड़ों पर सवाल उठाने और संदेह करनेवालों को देशद्रोही साबित करने में जुट जाता है। यही नहीं, मुठभेड़ में शामिल पुलिस अधिकारियों को एनकाउंटर स्पेशलिस्ट बताकर उनका महिमामंडन भी किया जाता है। क्या यह कहना गलत होगा कि डीजी वंजारा जैसे पुलिस अफसरों को पैदा करने में मीडिया, मोदी सरकार से कम बड़ा दोषी नही है?

यह एक कड़वी सच्चाई है कि पिछले कुछ वर्षो में आतंकवाद और नक्सलवाद आदि से निपटने के नाम पर समाचार मीडिया ने पुलिस और सुरक्षा एजेसियों को फर्जी मुठभेड़ हत्याओं का लाइसेंस सा दे दिया है। कहने की जरूरत नही है कि यह सीधे-सीधे जंगल राज को समर्थन है। सवाल है कि अगर देश में एक सतर्क, संवेदनशील, आलोचक और निर्भय समाचार मीडिया होता तो क्या इशरत जहां और सोहराबुद्दीन जैसो को इस तरह फर्जी मुठभेड़ों में मारने से पहले पुलिस को दस बार सोचना नही पड़ता?

Friday, September 18, 2009

नीतीश के लिए साधु-सुभाष साबित होंगे ललन सिंह

बिहार उप-चुनावः अराजकता और अहंकार के बीच उलझा जनादेश
 
बिहार विधानसभा की 18 सीटों के लिए 10 और 15 सितंबर को हुए मतदान के नतीजे आ गए हैं. जिन 18 सीटों पर चुनाव हुए थे, उनमें से 13 सीटों पर राजग का कब्जा था और बाकी बची 5 में से 4 राजद और 1 लोजपा के पास थीं. नतीजा जो आया, उससे इन 18 सीटों पर राजग की कुल हैसियत 6 रह गई है जबकि राजद और लोजपा ने 8 की ताकत पाई है. पिछली स्थिति के मुकाबले राजग को 7 सीटों का नुकसान हो गया है वहीं लालू और रामविलास की जोड़ी ने 3 ज्यादा सीटें हथिया ली. मुनाफे में रही पार्टियों में कांग्रेस, बसपा और एक निर्दलीय भी है जिन लोगों ने बाकी की 4 सीटें जीती हैं.
 
चुनाव का यह नतीजा मेरे विचार से लालू की अराजक सरकार और नीतीश की अहंकारी सरकार के बीच फंस गया जनादेश है. बिहार में जब लालू प्रसाद की सरकार हुआ करती थी तो अराजकता का आलम ये था कि कोई उसे जंगलराज कहता था और कोई नर्क. लेकिन उस दौर में भी लालू इतने घमंडी नहीं हुए थे जितने नीतीश इस छोटे से शासनकाल में ही बन गए.
लालू के राज में सड़कें नहीं बनती थीं. नीतीश के राज में जो सड़कें बन गई, लोग कहते हैं कि उनके कई ठेकेदार पेमेंट के लिए भटक रहे हैं. सड़कों को बनाने का काम लंबे समय से गुंडों के हाथ में ही रहा है. पेपर किसी और का, काम कोई और करता है. पेपर के मालिक जान बचाने के लिए लालू के राज से ही ऐसा करते रहे हैं. लालू के समय में सड़कें कम बनती थीं तो ज्यादातर गुंडे फुलटाइम गुंडागर्दी ही करते थे. किसी को उठा लिया, किसी को टपका दिया. ये सब सामान्य बात हो गई थी. लालू के ही समय में बिहार के कई डॉन टाइप के लोग विधायक और सांसद बन गए. नीतीश का राज आया तो सड़कें बनने लगीं. गुंडों को लगा कि नेता बनना है तो पैसा जुटाना होगा और ठेकेदारी करनी होगी. सारे गुंडे सड़क बनाने में जुट गए. छोटा गुंडा एक-दो किलोमीटर की ग्रामीण सड़कों का ठेकेदार हो गया तो बड़ा गुंडा लंबी सड़कों का हिसाब करने लगा. गुंडे ठेकेदार हो गए तो अपराध का ग्राफ धड़ाम से नीचे आ गया. मीडिया में जयकारा होने लगी. नीतीश ने तो कमाल कर दिया.
 
लेकिन जब समय बीता और नीतीश के दम पर ताकतवर हो गए अधिकारी आंशिक या अंतिम भुगतान के लिए ठेकेदारों को टहलाने लगे तो उसका असर सड़क के काम पर और काम करने वाले पर भी पड़ने लगा. इसका अंतिम असर इन चुनावों पर भी देखा जा सकता है. नीतीश के पीछे बड़ी संख्या में लालू राज के सताए गुंडे थे. अब ये गुंडे नीतीश से भी नाखुश हैं. बिना कमाई के आखिर कितने दिन ठेकेदारी चलेगी. अधिकारी किसी की सुनते नहीं हैं क्योंकि नीतीश मानते हैं कि सारे अधिकारी ईमानदार और सारे नेता भ्रष्ट हैं. गुंडों ने गुंडागर्दी से कमाई पूंजी लगा रखी है तो वो तन कर बात भी नहीं कर पाते. पता चला कि अधिकारी के साथ कुछ ज्यादा कर या कह बैठे तो जिंदगी की पूंजी ही फंसी रह जाएगी. इनलोगों के लिए नीतीश की सरकार अशुभ साबित हुई. ये सुधर तो गए लेकिन नीतीश उन्हें सुधारे रखने की गारंटी नहीं कर सके.
 
लालू राज में सरकारी अस्पतालों में डॉक्टर-मरीज कम मिलते थे. प्राइवेट क्लिनिक की सेहत ठीक रही. अब सरकारी अस्पताल में डॉक्टर-मरीज की भीड़ है. प्राइवेट क्लिनिक पहले से भी ज्यादा ठीक चल रहे हैं क्योंकि वहां के डॉक्टर भी एक्स-रे कराने सरकारी अस्पताल भेज देते हैं. सस्ते में काम हो जाता है. बिहार में मार-पीट के आधार पर कई मुकदमे हर रोज होते हैं. इन मुकदमों में अस्पताल में मिलने वाले जख्म प्रतिवेदन यानी मार-कुटाई की गंभीरता के प्रमाण पत्र की थाने और कोर्ट में जरूरत होती है. लालू राज में इसका कोई हिसाब-किताब नहीं था. अपनी पहुंच के हिसाब से लोगों के पास घायल और जख्मी हो जाने का विकल्प मौजूद था. नीतीश ने कहा कि हर अस्पताल का रजिस्टर होगा, उसमें रोज आने वाले मरीजों का नाम होगा, देखने वाले डॉक्टर का नाम होगा. अब हर रोज रजिस्टर भरा जाने लगा. नीतीश ने इन रजिस्टरों के नियमित हिसाब का प्रावधान कर दिया लेकिन इसकी गारंटी नहीं कर सके कि हर रोज यह रजिस्टर जिला या राज्य मुख्यालय तक अपनी रिपोर्ट दर्ज कराए. इसका नतीजा हुआ कि एक या दो दिन पीछे की तारीख में भी अपना नाम लिखवाने में अब लोगों को पांच-पांच अंक में रुपए खर्च करने पड़ रहे हैं. लालू की सरकार में यह सब काम खिलाने-पिलाने पर भी हो जाता था. इसका व्यापक असर मुकदमेबाज लोगों पर पड़ा है. नीतीश इस असर से कैसे बचे रहते.
 
नीतीश की सरकार के कई मंत्री अपने सचिवों से सीधे मुंह बात करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते क्योंकि सारे सचिव सीधे मुख्यमंत्री आवास से संपर्क में रहते हैं. जब मंत्रियों की यह हालत है तो विधायकों या सांसदों का क्या चलता-बनता होगा, समझा ही जा सकता है. और, जब अधिकारियों का मान-सम्मान इतना ज्यादा हो जाए तो उनका निरंकुश होना लाजिमी ही है. जो लाल कार्ड पहले सौ-पचास में बन जाता था, वो अब कुछ और महंगा हो गया है. हर जगह अधिकारियों ने अपने काम की रेट बढ़ा ली है. नेताओं की नहीं सुनने का लाइसेंस सरकार ने दे रखा है इसलिए विरोधी दलों के विरोध का भी असर अब इन अधिकारियों पर नहीं होता.
 
सरकारी इश्तहारों के दम पर लालू प्रसाद ने भी मीडिया को अपने हित के लिए खूब इस्तेमाल किया था लेकिन सुना जा रहा है कि नीतीश सरकार तो विरोधियों की खबर तक छपने से तड़प उठती है. पटना के अखबारों का बुरा हाल है. इश्तहार जारी करने वाले अधिकारी को इस बात की गारंटी करनी पड़ती है कि लालटेन या बंगला का हिसाब ठीक रहे. हिसाब गड़बड़ होने पर इश्तहार का हिसाब डगमगा जाता है. ऐसे में मीडिया के मन में भी नीतीश को लेकर जो भाव था वो बदल गया है. कशीदाकारी कम हो गई है क्योंकि उन्हें अब लगने लगा है कि उन्होंने ही इस सरकार की उम्मीदों को इतनी हवा दे दी है कि वो अब आलोचना का झोंका तक सहने को तैयार नहीं है.
 
नीतीश की पार्टी के नेता ललन सिंह को छोड़ दें तो पूरे प्रदेश में कोई विधायक या सांसद कोई काम कराने की बात दावे के साथ नहीं कर सकता. लालू यादव की पार्टी के कई नेता मानते हैं कि साधु यादव या सुभाष यादव लालू प्रसाद की जो दुर्गति नहीं कर सके, ललन सिंह नीतीश की उससे भी बुरी हालत करवाएंगे. बिहार के तमाम बड़े नाम जो अलग-अलग गिरोह के सरदार हैं, ललन सिंह के भरोसेमंद हैं. ललन सिंह मुंगेर से लड़ने जाते हैं तो उसकी तैयारी वो दो साल पहले शुरू कर देते हैं जबकि चुनाव आयोग तीन महीने की ट्रांसफर लिस्ट देखकर अपने को बहुत होशियार समझता है. अहंकारी नीतीश हैं या ललन सिंह, ये अंतर कर पाना कई महीनों से मुश्किल है. बिहार के नेताओं में यह बात खूब होती है कि नीतीश सीएम हैं तो ललन सिंह सुपर सीएम. कौन कहां रहेगा, कौन कहां नहीं रहेगा, ये ललन सिंह ही तय करते हैं. ललन सिंह के राजनीतिक सफर पर गौर करें तो नीतीश सरकार की एक मंत्री के सहयोगी के तौर पर सत्ता का स्वाद चखने वाले ललन सिंह आज ताकत के मामले में उस मंत्री के भी ऊपर हैं. उनकी बराबरी सुशील मोदी से की जा सकती है. बीजेपी वाले सुशील मोदी को अपनी पार्टी से ज्यादा नीतीश की पार्टी लेकिन जेडीयू नहीं, का नेता मानते हैं. लालू के खिलाफ पशुपालन घोटाला का मुकदमा उन्होंने दायर किया, इसके सिवा उनकी ऐसी कौन सी उपलब्धि है जो नीतीश जैसे नेता की पार्टी के वो राज्य में नेता बने रहें. चुनाव प्रबंधन में वो सबके उस्ताद हैं, ये उन्होंने इस लोकसभा चुनाव में साबित कर दिया है.
 
कायदे से तो नीतीश कुमार को खुद की, अपने पूरे मंत्रिमंडल की और बिना मंत्रिमंडल में रहे कई मंत्रियों से ज्यादा ताकतवर ललन सिंह की संपत्ति का ब्यौरा एक बार फिर से सार्वजनिक करना चाहिए. इन सबों की संपत्ति का ब्योरा चुनाव आयोग के पास है लेकिन इनके रहन-सहन का इनकी घोषित संपत्ति से कोई तालमेल नहीं है. लोगों ने शपथपत्र में मारुति लिखा लेकिन चढ़ रहे एंडेवर हैं. किसकी है लैंड क्रूजर, इसका हिसाब भी तो नीतीश जी देना चाहिए. लालू जी जब पटना और उसके बाद दिल्ली से बेदखल हो सकते हैं तो आप इस भ्रम में बिल्कुल न रहें कि बिहार की जनता ने आपके साथ कोई पंद्रह साल का करार किया है. आपकी ईमानदारी की तो आप जानें, आपकी ईमानदारी के नाम पर पूरे राज्य में कई दुकानें चल रही हैं. ललन सिंह जैसे लोगों की संगत में रहेंगे तो वोटरों को आपकी पंगत बदलते भी देर नहीं लगेगी.
 
 
-रीतेश

Saturday, September 12, 2009

महंगाई के मुद्दे पर पानी सिर से गुजरने का इंतजार कर रही है सरकार ?

आनंद प्रधान

ऐसा लगता है कि महंगाई यूपीए सरकार के नियंत्रण से बिल्कुल बाहर हो गयी है। अनाजों और आवश्यक वस्तुओं की आसमान छूती कीमतों से त्रस्त लोगों के लिए महंगाई के मोर्चे पर एक और बुरी खबर है। पहले से ही लगातार बढ़ती कीमतों के कारण लोगों का चैन छीन रही चीनी अब और कड़वी हो सकती है। खबरों के मुताबिक खुद सरकार यह संकेत दे रही है कि इस साल सूखे और पिछले साल गन्ने के कम उत्पादन के कारण चीनी की लगभग 50 लाख टन कमी होने की आशंका पैदा हो गयी है।

यही कारण है कि अगले सप्ताहों में त्यौहारों के दौरान चीनी की बढ़ी हुई मांग के मद्देनजर उसकी कीमतों में और उछाल की आशंकाएं बढ़ गयी हैं। साफ है कि मिष्ठान प्रिय भारतीय परिवारों के लिए कड़वी होती चीनी आनेवाले त्यौहारों का मजा किरकिरा कर सकती है। लेकिन लोगों को राहत देने के लिए जरूरी उपाय करने के बजाय यूपीए सरकार निश्चिंत दिख रही है। सरकार का यह रवैया हैरान करनेवाला है। ऐसा लगता है कि मनमोहन सरकार यह भूल गयी है कि चीनी राजनीतिक रूप से कितनी ‘ज्वलनशील’ वस्तु है और अतीत में उसकी किल्लत और बढ़ी हुई कीमतों के कारण कितनी सरकारों को उसकी राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ी है?

यूपीए सरकार को इसलिए भी चिंतित और सतर्क हो जाना चाहिए कि इन दिनों सिर्फ चीनी की कीमतें ही नहीं चढ़ रही हैं बल्कि उसके साथ-साथ आम आदमी खासकर गांवों में रहनेवाले गरीब-गुरबों के लिए मिठास के एकमात्र स्रोत गुड़ की कीमतें भी आसमान छू रही हैं। ध्यान रहे कि खुदरा बाजार में चीनी की कीमत लगभग 40 रूपए प्रति किलो तक पहंुच गयी है जबकि गुड़ भी 32 रूपए किलो के आसपास बिक रहा है। इसलिए यूपीए सरकार और खासकर आम आदमी की दुहाई देनेवाली कांगे्रस अगर इस मुगालते में है कि चीनी की आसमान छूती कीमतों से केवल शहरी उपभोक्ता परेशान हैं तो वह बहुत बड़े भ्रम में है। चीनी के साथ-साथ गुड़ की सरपट दौड़ती कीमतों के कारण ग्रामीण उपभोक्ता भी उतने ही परेशान हैं।

इसके बावजूद अगर सरकार निश्चिंत दिख रही है तो इसके दो ही कारण हो सकते हैं। पहला, वह सचमुच में इस भ्रम में हो कि न तो महंगाई कोई मुद्दा है और न ही चीनी और गुड़ की बढ़ती कीमतों से लोगों की सेहत पर कोई फर्क पड़ रहा है। थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति यानी महंगाई की दर पिछले तीन महीनों से शून्य से भी नीचे ऋणात्मक बनी हुई है, इसलिए चिंता करने की कोई खास बात नहीं है। यही नहीं, प्रधानमंत्री से लेकर कृषि मंत्री तक लगभग हर दिन याद दिलाते रहते हैं कि सूखे और बढ़ती महंगाई से निपटने के लिए सरकार के पास न सिर्फ पर्याप्त अनाज भंडार है बल्कि जरूरत पड़ने पर आयात के लिए जरूरी विदेशी मुद्रा का भंडार भी भरा है। लेकिन हैरानी की बात यह है कि महंगाई की बेकाबू सुरसा से लड़ने के नाम पर सरकार ‘डान क्विकजोट’ की तरह हवाई तलवार भांजती हुई नजर आ रही है।

जाहिर है कि ऐसा करते हुए वह मजाक का पात्र बन गयी है। लेकिन उससे अधिक वह महंगाई के आगे दयनीयता की हद तक पराजित दिख रही है। सच यही है कि यूपीए सरकार ने महंगाई की सुरसा के सामने घुटने टेक दिए हैं। दरअसल, महंगाई को लेकर सरकार की निश्चिंतता की दूसरी वजह भी यही है। उसने मान लिया है कि महंगाई को काबू में करना उसके वश की बात नहीं है। यही कारण है कि उसके कई मंत्री और अधिकारी न सिर्फ महंगाई को लेकर सरकार की विवशताओं की दुहाई दे रहे हैं बल्कि लोगों को इस महंगाई के साथ जीने की आदत डालने की सलाह दे रहे हैं।

लेकिन सबसे हास्यास्पद महंगाई का बचाव करना यानी उसे स्वाभाविक और उसके लिए बहुत हद तक प्राकृतिक कारणों (जैसे सूखे या दालों और गन्ने के कम उत्पादन आदि) को जिम्मेदार ठहराना जारी है। जबकि तथ्य इसके ठीक उलट हैं। सूखे की स्थिति पिछले कुछ सप्ताहों में पैदा हुई है जबकि महंगाई पिछले एक साल से अधिक समय से लगातार आसमान पर चढ़ी जा रही है। सच यह है कि उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पिछले साल अगस्त में ही दोहरे अंक में पहंुच गया था और तब से लगातार उसी के आसपास बना हुआ है। ताजा आंकड़ों के मुताबिक थोक मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रास्फीति की दर भले ही अब भी ऋणात्मक बनी हुई हो लेकिन खेतिहर मजदूरों के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक इस साल जुलाई में 12.9 प्रतिशत की रेकार्ड उंचाई पर पहंुच गया है।

हालांकि मनमोहन सिंह सरकार अब भी थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित आंकड़ों की आड़ लेकर अपना बचाव करने की कोशिश कर रही है लेकिन सच यह है कि थोक मूल्य सूचकांक के आंकड़े न सिर्फ भ्रामक और चैथाई सच का बयान हैं बल्कि उनसे बड़ा मजाक कोई नहीं है। ये आंकड़े महंगाई के मारे लोगों के जख्मों पर नमक छिड़कने की तरह हैं। तथ्य यह है कि थोक मूल्य सूचकांक आसमान छूती महंगाई के बावजूद ऋणात्मक इसलिए है क्योंकि वह पिछले वर्ष की रेकार्डतोड़ महंगाई के आंकड़ों की तुलना में है। दूसरे, थोक मूल्य सूचकांक में खाद्यान्नों और दूसरी जरूरी वस्तुओं का भारांक बहुत कम है जिसके कारण अनाजों और आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में भारी बढ़ोत्तरी के बावजूद सूचकांक की सेहत पर कोई खास असर नहीं दिख रहा है।

यही कारण है कि इन वस्तुओं की कीमतों के आसमान छूने के बावजूद मुद्रास्फीति की दर ऋणात्मक बनी हुई है। इस तथ्य के बावजूद सच्चाई यह भी है कि थोक मूल्य सूचकांक में प्राथमिक वस्तुओं के खंड में केवल खाद्य वस्तुओं की मुद्रास्फीति दर 13.3 प्रतिशत की रेकार्डतोड़ उंचाई पर पहुंची हुई है। इसी तरह, थोक मूल्य सूचकांक में शामिल सभी खाद्यान्नों, खाद्य वस्तुओं और उत्पादों (कुल भारांक 26.9 प्रतिशत) की मुद्रास्फीति दर 11.6 प्रतिशत तक पहुंच चुकी है।

इसके बावजूद यूपीए सरकार की निश्चिंतता और महंगाई की चुनौती से निपटने के बजाय उसके सामने घुटने टेक देनेवाला रवैया न सिर्फ चिंतित करनेवाला है बल्कि आम आदमी की धैर्य की परीक्षा ले रहा है। सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि सरकार के इस रवैये का फायदा अनाजों, खाद्य वस्तुओं और फल-सब्जियों के बड़े व्यापारी, बिचैलिए, सट्टेबाज और जमाखोर उठा रहे हैं। उनकी तो जैसे चांदी हो गयी है। लेकिन उनपर लगाम लगाने की राजनीतिक इच्छाशक्ति सिरे से गायब है।

आखिर यूपीए सरकार किस बात का इंतजार कर रही है? क्या वह पानी सिर से गुजरने का इंतजार कर रही है? क्या वह अनाज के भरे भंडारों का मुंह तब खोलेगी जब लोग भूख से मरने लगेंगे? क्या वह अनाजों और जरूरी खाद्यान्नों का आयात तब करेगी जब अंतर्राष्ट्रीय बाजार में भी कीमतें आसमान छूने लगेंगी?

Friday, September 11, 2009

राहुल के टैलेंट हंट पर कितना भरोसा करें

मृगेंद्र पांडेय

भारत की राजनीति में हमेशा अच्छे लोगों की दरकार थी। या यह कह सकते हैं कि अच्छे लोगों की हमेशा कमी बनी रही। यह कमी कमोबेश कांग्रेस में भी है। पीढ़ियों के बीच का अंतर अब उनकी कार्यप्रणाली को प्रभाति करने लगा था। संक्रमण के दौर से गुजर रही कांग्रेस को अब कुछ बड़े बदला करने की जरूरत आन पड़ी थी। ऐसे में राहुल गांधी को एक रणनीति के तहत भारत की राजनीति में प्रवेश कराया गया। उनके लिए प्लेटफार्म बनाने का काम भले ही कांग्रेस के वरिष्ठ और सोनिया गांधी के करीबी लोगों ने किया, लेकिन वक्त के साथ राहुल को यह लगने लगा कि उनकी राह में ये वरिष्ठ लोग एक अनुभव के रूप में काम आ सकते हैं, लेकिन भविष्य नहीं हो सकते।

राहुल ने जब अपने और भारत के भविष्य के बारे में परवाह करने की शुरुआत की तो सबसे पहले उनकी नजर भी अपने पिता राजी गांधी की तरह युवाओं पर गई। राहुल को केंद्र में मंत्री बनाने और अच्छा मंत्रालय देने की वकालक की जाने लगी। कुछ बुढ़े और कमजोर नेता राहुल को सीधे प्रधानमंत्री बनाने का जोर-शोर से प्रचार करने लगे, लेकिन राहुल को यह साफ नजर आने लगा था कि राजनीति में अच्छे लोगों की कमी बरकरार है। यह अच्छे लोग कहां से आएंगे। इसकी खोज राहुल के साथ उनके वरिष्ठ सहयोगी और कुछ युवाओं की टीम ने करना शुरू किया।

यह ही दौर है जब राहुल ने खुद युवक कांग्रेस और एनएसयूआई की कमान अपने हाथ में ली। पहले चरण में उन लोगों ने राहुल के करीब आने में सफलता पाई, जो कांग्रेस के किसी बड़े नेता के बेटे थे, या फिर बड़े उद्योगपति। इस दौर में हुए लगभग सभी चुनावॊं में कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा। चाहे वह उत्तर प्रदेश का चुनाव हो, गुजरात हो या फिर हिमाचल। सारे लोगों ने राहुल को फ्लाप घोषित कर दिया। यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया थी। क्योंकि बिना संगठन के कहीं भी करिश्मा दिखा कर या फिर गांधी-नेहरू परिवार की बात करके जीत नहीं दर्ज की जा सकती। इस दौर के बाद राहुल को यह समझ में आने लगा कि अब उन्हें अपने दायरे को बढ़ाना होगा। यह दायरा कैसे बढ़ेगा। सचिन पायलट, जितिन प्रसाद, मिलिंद देवड़ा जैसे लोग अपनी पारी खेल रहे थे, लेकिन अब आगे का मैच कैसे पूरा होगा। विरॊधियों के विकेट कौन उखाड़ेगा। अब समय असली परीक्षा का आ गया था। राहुल के सामने सफल होने का संकट मंडराने लगा था। क्या किया जाए, कहां से आएंगे रणबांकुरे, यह किसी को समझ में नहीं आ रहा था।

फिर नई रणनीति के तहत टैलेंट हंट शुरू करने की योजना बनाई गई। कई प्रदेशों में किया भी गया और अब भी चल रहा है। लेकिन इस टैलेंट हंट की राजनीतिक फसल में कितने टैलेंट हंट किए गए। क्या वह काबिल लोगों की टीम है। क्या यही वह लोग हैं, जिनकी तलाश सही मायनों में राहुल गांधी को थी। या फिर यह कहें कि भारत के भविष्य को है। यहां यह कहना बहुत बड़ी बात होगी कि यह सभी सही है। लेकिन पिछले दिनों राजस्थान में हुई एक घटना ने राहुल के चयन पर सवाल खड़े कर दिए हैं। राजस्थान एनएसयूआई की प्रदेश अध्यक्ष रंजू रामावत ने विश्वविद्यालय के अध्यक्ष को उसके पद से हटा दिया। यहां विवाद का विषय पद से हटाने का नहीं है। पद से हटाए गए मुकेश भाकर और अजय मीणा यह दावा कर रहे हैं कि उनको रामावत कैसे हटा सकतीं हैं, जबकि हमारा चयन राहुल गांधी के टैलेंट हंट में किया गया है।

अब साल यह है कि आखिर क्या भाकर सही कह रहे हैं। अगर हां तो फिर पार्टी के कई वरिष्ठ लोगों ने जिस छात्र नेता को अच्छा माना। उनको लगा कि ये देश के भविष्य हो सकते हैं, फिर अचानक कैसे ये भविष्य के खलनायक बन गए। क्या ये नेता पहले से ही खलनायक थे और उनका चयन करने में उन मापदंडों को अपनाया नहीं गया। यहां उद्देश्य भाकर या मीणा की बात करना नहीं है। यहां बात करने का मकसद राहुल गांधी की बन रही भविष्य की टीम में सही लोगों के चयन का सवाल है। अगर आज सही दिशा में चयन नहीं हुआ तो फिर न तो राहुल के पास मौका होगा, न तो कांग्रेस पार्टी के पास और न ही जनता के पास ।

Friday, September 4, 2009

यह कैसा कारॊबार

स्विटज़रलैंड घूमने गए पटना के एक परिवार ने जिनीवा में जो देखा, कि वहां भगवान बुद्ध की प्रतिमा का इस्तेमाल जूते टांगने के लिए हॊ रहा है। उन्हॊंने ऐसा हॊगा कभी सपने में नहीं सोचा था। पटना के प्रभात चौधरी, उनकी पत्नी और बेटी जिनीवा में एक फुटवेअर की दुकान में गौतम बुद्ध की प्रतिमा देखकर हैरान रह गए। दरअसल दुकान में इस प्रतिमा का इस्तेमाल जूते टांगने के लिए किया जा रहा था।

प्रभात चौधरी के मुताबिक, 'हम बाजार में घूम रहे थे तभी मेरी 15 वर्षीय बेटी ने ऐन फॉन्टेन नाम की डिजाइनर फुटवेअर शॉप में जाने के लिए कहा। दुकान के भीतर हमने देखा कि जूते-चप्पल की शेल्फ में रखी भगवान बुद्ध की 4 फुट ऊंची मूर्ति के गले में जूतों की माला पड़ी थी।'

चौधरी परिवार को यह देखकर झटका लगा। प्रभात चौधरी की बेटी इस बात पर काफी नाराज हो गई। हालांकि, चौधरी दंपती डर रहे थे लेकिन उनकी बेटी ने बुद्ध की प्रतिमा पर लटके जूतों की विडियो फिल्म बना ली। पटना के प्रतिष्ठित नॉट्रे डेम अकैडमी में पढ़ने वाली उनकी बेटी ने चुपके से यह फिल्म बनाई, ताकि दुकान में मौजूद कोई कस्टमर या फिर स्टाफ उसे ऐसा करते हुए न देख पाए।

भारत लौटकर प्रभात चौधरी ने विदेश मंत्रालय को चिट्ठी लिखकर इस बात की जानकारी दी है। चौधरी चाहते हैं कि मंत्रालय इस बारे में स्विस प्रशासन से बात करे। चूंकि बुद्ध की प्रतिमा का ऐसा इस्तेमाल बौद्ध धर्म और एशियाई संस्कृति का घोर अपमान है।


नवभारत टाइम्स से सभार