Saturday, September 12, 2009

महंगाई के मुद्दे पर पानी सिर से गुजरने का इंतजार कर रही है सरकार ?

आनंद प्रधान

ऐसा लगता है कि महंगाई यूपीए सरकार के नियंत्रण से बिल्कुल बाहर हो गयी है। अनाजों और आवश्यक वस्तुओं की आसमान छूती कीमतों से त्रस्त लोगों के लिए महंगाई के मोर्चे पर एक और बुरी खबर है। पहले से ही लगातार बढ़ती कीमतों के कारण लोगों का चैन छीन रही चीनी अब और कड़वी हो सकती है। खबरों के मुताबिक खुद सरकार यह संकेत दे रही है कि इस साल सूखे और पिछले साल गन्ने के कम उत्पादन के कारण चीनी की लगभग 50 लाख टन कमी होने की आशंका पैदा हो गयी है।

यही कारण है कि अगले सप्ताहों में त्यौहारों के दौरान चीनी की बढ़ी हुई मांग के मद्देनजर उसकी कीमतों में और उछाल की आशंकाएं बढ़ गयी हैं। साफ है कि मिष्ठान प्रिय भारतीय परिवारों के लिए कड़वी होती चीनी आनेवाले त्यौहारों का मजा किरकिरा कर सकती है। लेकिन लोगों को राहत देने के लिए जरूरी उपाय करने के बजाय यूपीए सरकार निश्चिंत दिख रही है। सरकार का यह रवैया हैरान करनेवाला है। ऐसा लगता है कि मनमोहन सरकार यह भूल गयी है कि चीनी राजनीतिक रूप से कितनी ‘ज्वलनशील’ वस्तु है और अतीत में उसकी किल्लत और बढ़ी हुई कीमतों के कारण कितनी सरकारों को उसकी राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ी है?

यूपीए सरकार को इसलिए भी चिंतित और सतर्क हो जाना चाहिए कि इन दिनों सिर्फ चीनी की कीमतें ही नहीं चढ़ रही हैं बल्कि उसके साथ-साथ आम आदमी खासकर गांवों में रहनेवाले गरीब-गुरबों के लिए मिठास के एकमात्र स्रोत गुड़ की कीमतें भी आसमान छू रही हैं। ध्यान रहे कि खुदरा बाजार में चीनी की कीमत लगभग 40 रूपए प्रति किलो तक पहंुच गयी है जबकि गुड़ भी 32 रूपए किलो के आसपास बिक रहा है। इसलिए यूपीए सरकार और खासकर आम आदमी की दुहाई देनेवाली कांगे्रस अगर इस मुगालते में है कि चीनी की आसमान छूती कीमतों से केवल शहरी उपभोक्ता परेशान हैं तो वह बहुत बड़े भ्रम में है। चीनी के साथ-साथ गुड़ की सरपट दौड़ती कीमतों के कारण ग्रामीण उपभोक्ता भी उतने ही परेशान हैं।

इसके बावजूद अगर सरकार निश्चिंत दिख रही है तो इसके दो ही कारण हो सकते हैं। पहला, वह सचमुच में इस भ्रम में हो कि न तो महंगाई कोई मुद्दा है और न ही चीनी और गुड़ की बढ़ती कीमतों से लोगों की सेहत पर कोई फर्क पड़ रहा है। थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति यानी महंगाई की दर पिछले तीन महीनों से शून्य से भी नीचे ऋणात्मक बनी हुई है, इसलिए चिंता करने की कोई खास बात नहीं है। यही नहीं, प्रधानमंत्री से लेकर कृषि मंत्री तक लगभग हर दिन याद दिलाते रहते हैं कि सूखे और बढ़ती महंगाई से निपटने के लिए सरकार के पास न सिर्फ पर्याप्त अनाज भंडार है बल्कि जरूरत पड़ने पर आयात के लिए जरूरी विदेशी मुद्रा का भंडार भी भरा है। लेकिन हैरानी की बात यह है कि महंगाई की बेकाबू सुरसा से लड़ने के नाम पर सरकार ‘डान क्विकजोट’ की तरह हवाई तलवार भांजती हुई नजर आ रही है।

जाहिर है कि ऐसा करते हुए वह मजाक का पात्र बन गयी है। लेकिन उससे अधिक वह महंगाई के आगे दयनीयता की हद तक पराजित दिख रही है। सच यही है कि यूपीए सरकार ने महंगाई की सुरसा के सामने घुटने टेक दिए हैं। दरअसल, महंगाई को लेकर सरकार की निश्चिंतता की दूसरी वजह भी यही है। उसने मान लिया है कि महंगाई को काबू में करना उसके वश की बात नहीं है। यही कारण है कि उसके कई मंत्री और अधिकारी न सिर्फ महंगाई को लेकर सरकार की विवशताओं की दुहाई दे रहे हैं बल्कि लोगों को इस महंगाई के साथ जीने की आदत डालने की सलाह दे रहे हैं।

लेकिन सबसे हास्यास्पद महंगाई का बचाव करना यानी उसे स्वाभाविक और उसके लिए बहुत हद तक प्राकृतिक कारणों (जैसे सूखे या दालों और गन्ने के कम उत्पादन आदि) को जिम्मेदार ठहराना जारी है। जबकि तथ्य इसके ठीक उलट हैं। सूखे की स्थिति पिछले कुछ सप्ताहों में पैदा हुई है जबकि महंगाई पिछले एक साल से अधिक समय से लगातार आसमान पर चढ़ी जा रही है। सच यह है कि उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पिछले साल अगस्त में ही दोहरे अंक में पहंुच गया था और तब से लगातार उसी के आसपास बना हुआ है। ताजा आंकड़ों के मुताबिक थोक मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रास्फीति की दर भले ही अब भी ऋणात्मक बनी हुई हो लेकिन खेतिहर मजदूरों के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक इस साल जुलाई में 12.9 प्रतिशत की रेकार्ड उंचाई पर पहंुच गया है।

हालांकि मनमोहन सिंह सरकार अब भी थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित आंकड़ों की आड़ लेकर अपना बचाव करने की कोशिश कर रही है लेकिन सच यह है कि थोक मूल्य सूचकांक के आंकड़े न सिर्फ भ्रामक और चैथाई सच का बयान हैं बल्कि उनसे बड़ा मजाक कोई नहीं है। ये आंकड़े महंगाई के मारे लोगों के जख्मों पर नमक छिड़कने की तरह हैं। तथ्य यह है कि थोक मूल्य सूचकांक आसमान छूती महंगाई के बावजूद ऋणात्मक इसलिए है क्योंकि वह पिछले वर्ष की रेकार्डतोड़ महंगाई के आंकड़ों की तुलना में है। दूसरे, थोक मूल्य सूचकांक में खाद्यान्नों और दूसरी जरूरी वस्तुओं का भारांक बहुत कम है जिसके कारण अनाजों और आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में भारी बढ़ोत्तरी के बावजूद सूचकांक की सेहत पर कोई खास असर नहीं दिख रहा है।

यही कारण है कि इन वस्तुओं की कीमतों के आसमान छूने के बावजूद मुद्रास्फीति की दर ऋणात्मक बनी हुई है। इस तथ्य के बावजूद सच्चाई यह भी है कि थोक मूल्य सूचकांक में प्राथमिक वस्तुओं के खंड में केवल खाद्य वस्तुओं की मुद्रास्फीति दर 13.3 प्रतिशत की रेकार्डतोड़ उंचाई पर पहुंची हुई है। इसी तरह, थोक मूल्य सूचकांक में शामिल सभी खाद्यान्नों, खाद्य वस्तुओं और उत्पादों (कुल भारांक 26.9 प्रतिशत) की मुद्रास्फीति दर 11.6 प्रतिशत तक पहुंच चुकी है।

इसके बावजूद यूपीए सरकार की निश्चिंतता और महंगाई की चुनौती से निपटने के बजाय उसके सामने घुटने टेक देनेवाला रवैया न सिर्फ चिंतित करनेवाला है बल्कि आम आदमी की धैर्य की परीक्षा ले रहा है। सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि सरकार के इस रवैये का फायदा अनाजों, खाद्य वस्तुओं और फल-सब्जियों के बड़े व्यापारी, बिचैलिए, सट्टेबाज और जमाखोर उठा रहे हैं। उनकी तो जैसे चांदी हो गयी है। लेकिन उनपर लगाम लगाने की राजनीतिक इच्छाशक्ति सिरे से गायब है।

आखिर यूपीए सरकार किस बात का इंतजार कर रही है? क्या वह पानी सिर से गुजरने का इंतजार कर रही है? क्या वह अनाज के भरे भंडारों का मुंह तब खोलेगी जब लोग भूख से मरने लगेंगे? क्या वह अनाजों और जरूरी खाद्यान्नों का आयात तब करेगी जब अंतर्राष्ट्रीय बाजार में भी कीमतें आसमान छूने लगेंगी?

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