Saturday, October 31, 2009

खतरों को शहर से उखाड़ फेंकना होगा

नवनीत गुर्जर
जयपुर हैरत में है। दहशत दहाड़ रही है और अफसरों, सरकारों, कंपनियों की लापरवाही अट्टहास कर रही है। दरअसल, सरकार और नौकरशाही जब बड़ी कंपनियों के खतरों को शहर के बीचों-बीच बसाने के लिए बेजा लालायित होती हैं तो इसके विध्वंसक नतीजों के मूकदर्शक बने रहने के अलावा कोई चारा नहीं रह जाता।

माना कि यह ऑयल टर्मिनल जब सीतापुरा में लगा तब वहां कोई आबादी नहीं थीं, लेकिन 20 साल बाद का मास्टर प्लान बनाने वाले शिल्पकार क्या कर रहे थे? हर पांच साल में नए रूप में आने वाली सरकारों को क्यों नहीं सूझा कि वे नया जयपुर बसाने से पहले पुराने शहर की नम आंखों को भी देख लें! दरअसल आज के हालात में कोई अफसर, कोई नेता, कोई सरकार हमारे लिए कुछ नहीं कर पाएंगे। हमें यानी शहरवासियों को ही इन खतरों को बसने से पहले उखाड़ फेंकना होगा।

..और जो पहले से खतरा बने हुए हैं, उनके खिलाफ आंदोलन छेड़कर हटने पर मजबूर करना होगा। दो दिन हो गए। हमारे शहर में सूरज घबराते हुए रोशनी की खिड़की खोलता है और धुएं का गुबार देख अंधेरे की सीढ़ियां उतरने लगता है। अंबर निढाल-सा धुंध का हुक्का पी रहा है। खाली कराए गए इलाके के लोगों के मुंह पर निवाला नहीं, उसकी बातें भर रह गई और रातें काली चीलों की तरह आसमान पर उड़ रही हैं।

काले राक्षसों की तरह दिन-रात जो धुआं हमारे आकाश में घुल रहा है, वह शहर की कितनी सांसों को दूषित कर गया, इसकी तो इन जिम्मेदार नेताओं, अफसरों के पास गिनती भी नहीं है। इलाके के लोग ही नहीं, पेड़-पौधे और घायल अट्टालिकाएं भी बदन चुराते हुए सवाल कर रही हैं कि आखिर हम यहां क्यों हैं?..और हमारा होना अगर सही है तो यह ऑयल टर्मिनल हमारे सिर पर अट्टहास क्यों कर रहा है?

निश्चित ही जयपुरवासियों को भी यही सवाल तमाम जिम्मेदारों से करना चाहिए कि आखिर इस तरह हमारे दिन के आंगन में कब तक रातें उतरती रहेंगी? स्याह इतिहास के गालों से कौन आंसू पोंछेगा? आखिर ऑयल चोरी के दागदार लोग अपने टैंकों के खराब वॉल्व से हमारी जिंदगी, हमारा भविष्य काला करने वाले होते कौन हैं?

लेखक दैनिक भास्कर राजस्थान के स्टेट हेड हैं।

Thursday, October 29, 2009

हाईकॊर्ट में क्रिकेट

मृगेंद्र पांडेय

यह सुनने में भले ही अनॊखा लग रहा हॊ लेकिन यह सच है। हाईकॊर्ट में क्रिकेट चल रहा था। पूरी की पूरी टीम थी। पचासॊं बकील साहब काली कॊट में आराम से कुर्सी पर बैठकर मैच का मजा ले रहे थे। आवाज आई सचिन आउट सचिन आउट। गलती कर गया सचिन। फिर सहवाग ने दनादन शुरू किया। लॊग रम गए। यह नजारा बुधवार कॊ जयपुर हाईकॊर्ट में था। यह देखने में काफी अच्छा लग रहा था कि अदालत में भी लॊग काम से थॊडा समय निकालकर क्रिकेट का मजा भी ले ले रहे थे।

दरअसल सरकार की ओर से कॊर्ट में वकील और आम लॊगॊं के मनॊरंजन का इंतजाम भी किया गया है। इसके लिए बकायदा एक बडे कमरे मे एलसीडी लगाई गई है। यही नहीं दूर तक कुर्सी लगी हुई है। लॊग बडे मजे से मैच का आनंद ले रहे थे। यह नजारा मेरे लिए नया था। यह भी कहा जा सकता है कि मैं पहली बार किसी हाईकॊर्ट में गया था। शायद और भी जगह ऐसी सुविधा हॊ लेकिन मेरे लिए सबकुछ नया था।

आमतौर पर वकील हमेशा गंभीर नजर आते हैं। बाकी समय हॊं या न हॊं काली कॊट पहनने के बाद तॊ हॊ ही जाते हैं। ऐसे में इनकॊ मैच का मजा लेते देखने में मुझे भी मजा आ गया। देश के और भी हाईकॊर्ट में ऐसी सुविधा हॊ तॊ मुझे भी बताएं।

Monday, October 26, 2009

गहलॊत ने की मगन बिस्सा की मदद

राजस्थान के मुख्यमंत्री अशॊक गहलॊत ने मगन बिस्सा की मदद की। उन्हॊंने उनके इलाज के लिए पांच लाख रुपए देने की घॊषणा की। यह मदद काफी तॊ नहीं है लेकिन मगन के इलाज में उनके परिवार वालॊं कॊ थॊडी मदद जरूर मिलेगी।

हमारी कॊशिश है कि मगन के इलाज में आप लॊग भी आगे आएं। ऐसा इसलिए क्यॊंकि उनके इलाज में काफी खर्च आ रहा है। आपकॊ एक बार फिर बताना जरूरी समझता हूं कि इंस्टीट्यूट ऑफ लीवर एंड बाइनरी साइंस में भर्ती मगन एवरेस्ट के नजदीक सात मई को बर्फीले तूफान में फंसने के कारण घायल हो गए। इस दौरान उनकी पत्नी सुषमा बिस्सा भी उनके साथ थीं।

मगन और सुषमा उत्तरकाशी स्थित नेहरू इंस्टीट्यूट ऑफ माउंटेनियरिंग अभियान के सदस्य थे। हादसे के बाद मगन को हेलिकॉप्टर से लाकर काठमांडू के एक अस्पताल में भर्ती कराया गया। बाद में उन्हें इलाज के लिए दिल्ली भेजा गया, जहां अभी भी उनकी हालत गंभीर बनी हुई है। अस्पताल के चिकित्सकों के मुताबिक अब तक बिस्सा की आंत के तीन बड़े ऑपरेशन हो चुके हैं और उसका 80 फीसदी हिस्सा गैंगरीन के चलते बाहर निकाला जा चुका है। यही नहीं, उनकी आंत से लीकेज भी हो रहा है।

अगर आप मगन बिस्सा की मदद करना चाहते हैं तॊ उनकी पत्नी सुषमा से 09414139850 और आरके शर्मा 09414139950से पर संपर्क कर सकते है। अधिक जानकारी के लिए www.helpmagan.org कॊ भी देखें।

दौसा में पायलट की पहचान का संकट


अखर गई सचिन पायलट की गैरमौजूदगी

मृगेंद्र पांडेय

आमतौर पर दौसा का नाम राजनीतिक गलियारों में पायलट परिवार के कारण जाना जाता है। चाहे राजेश पायलट हों या उनके बेटे सचिन। दोनों वहां से सांसद तो बने ही, उनकी पहचान भी वहीं से है। भले ही यह उनकी जन्मभूमि न हो, लेकिन दौसा की राजनीतिक वारिस तो वही हैं। सवाल पहचान का है। पायलट की पहचान। कांग्रेस की पहचान। सरकार की पहचान। युवा चेहरे की पहचान। गुम होती पहचान और पहचान का संकट। दरअसल पहचान ही सबकुछ है, या ये कहें कि पहचान के लिए ही सबकुछ है।

दौसा एक क्षेत्र नहीं है। यहां संस्कृतियां बसतीं हैं। पत्थर पर नक्काशी का अनूठा नमूना। सिकंदरा की खास पहचान। अमर सिंह के घर के बाहर भी उसकी झलक देखने को मिल जाती है। चाहे वह गणेश जी हों या फिर गोल गोला, जो उनके बाग की रौनक बढ़ा रहे हैं। दो पिछड़ी जातियां भी रहती है यहां। एक आदिवासी है और एक आदिवासी बनाने की मांग कर रही है। जो कभी आपस में संघर्ष करतीं है, तो कहीं पर एक थाली में खाती नजर आती है। मीणा और गुर्जर। सचिन या किरोणीलाल। दोनों एक से हैं। दोनों की पहचान एक सी है। भले वह मीणा या गुर्जर हैं। जीत पहचान देती है। राजेश पायलट से लेकर सचिन तक, लगातार जीत होती रही। यहां न तो जनता ने सवाल पूछा, न किसी नेता ने। हमने जवाब देने की जहमत भी नहीं उठाई। हम बात सिर्फ लोकसभा चुनाव की नहीं कर रहे हैं।

लोकसभा चुनाव के बाद के समीकरणों की कर रहे हैं। यहां रहते तो मीणा ज्यादा हैं, लेकिन बरसो से इनका सांसद गुर्जर था। संघर्ष के बाद भी गुर्जर ही थी। सचिन पायलट। लेकिन अब बदलाव आ गया है। मीणा का सांसद मीणा होगा। किरोणी लाल मीणा। मीणा समाज का सबसे बड़ा नेता। या ये कहें कि नेता कोई भी हो उसे बनाएगा किरोणीलाल मीणा ने ही।

अब टोडभीम में उपचुनाव होने हैं। उम्मीदवार किरोणीलाल ही तय कर रहे हैं। जिसे तय कर दिया उसकी जीत तय। चाहे वह कांग्रेस का हो, भाजपा का या फिर निर्दलीय। अब सवाल यह उठता है कि बरसों की विरासत कहां खो गई। क्या चुनाव लड़ने से ही इलाका अपना होता। नेता का चुनाव क्षेत्र बदल जाए तो क्या समर्थक भी क्षेत्र छोड़ देते हैं। अगर नहीं तो कहां हैं दौसा में सचिन पायलट। कहां खो गए हैं सचिन के समर्थक। क्या वह पलायान कर गए। यह सवाल अनायास ही नहीं खड़े हो रहे हैं। दरअसल कुछ दिनों पहले जब मैं दौसा गया था तो वहां न तो सचिन का पोस्टर नजर आया। न ही किसी दिवाल पर सचिन जिंदाबाद। न ही पान की दुकान, चौराहों पर सचिन की बात करने वाले। ऐसा इसलिए क्योंकि चुनाव क्षेत्र बदलने के बाद सचिन वहां गए ही नहीं। मानों उनका दौसा के लोगों से संबंध ही टूट गया हो।

क्या इसी दिन के लिए बाहर से राजेश पायलट को दौसा की जनता ने चुना था। या सचिन को छोटी उमर में ही संसद में राहुल के बगल में बैठाया था। अगर आपका जवाब हां है तो मेरा सवाल खड़ा करना जायज नहीं है। लेकिन अगर सवाल का जवाब ना में है तो सचिन कब नजर आएंगे दौसा की दिवारों पर। कब पोस्टर और फ्लैक्स में लगे सचिन की फोटो में लगी पगड़ी, दौसा की पगड़ी होगी।

Saturday, October 24, 2009

एवरेस्ट जीता, अपनों से हारा

मौत से लड रहा है देश का जांबाज

पर्वतारोही मगन बिस्सा ने भले ही माउंट एवरेस्ट को बड़ी आसानी से फतह कर लिया हो, लेकिन आज वह दिल्ली के एक अस्पताल में जिंदगी और मौत के बीच जूझ रहा है। यह वही मगन बिस्सा हैं, जिन्होंने तीन बार एवरेस्ट को फतह कर राजस्थान का नाम रोशन तो किया ही, इस बार भी अगर हादसा न हुआ होता तो वह एवरेस्ट को फतह करने वाले दुनिया के पहले दंपती होते। दुख की बात ये है कि मगन बिस्सा को न ही राज्य सरकार, न ही केंद्र सरकार कोई सुविधा मुहैया करा रही है।

इंस्टीट्यूट ऑफ लीवर एंड बाइनरी साइंस में भर्ती मगन एवरेस्ट के नजदीक सात मई को बर्फीले तूफान में फंसने के कारण घायल हो गए। इस दौरान उनकी पत्नी सुषमा बिस्सा भी उनके साथ थीं। मगन और सुषमा उत्तरकाशी स्थित नेहरू इंस्टीट्यूट ऑफ माउंटेनियरिंग अभियान के सदस्य थे। हादसे के बाद मगन को हेलिकॉप्टर से लाकर काठमांडू के एक अस्पताल में भर्ती कराया गया। बाद में उन्हें इलाज के लिए दिल्ली भेजा गया, जहां अभी भी उनकी हालत गंभीर बनी हुई है। अस्पताल के चिकित्सकों के मुताबिक अब तक बिस्सा की आंत के तीन बड़े ऑपरेशन हो चुके हैं और उसका 80 फीसदी हिस्सा गैंगरीन के चलते बाहर निकाला जा चुका है। यही नहीं, उनकी आंत से लीकेज भी हो रहा है।

मगन के इलाज पर रोजाना 20 से 25 हजार रुपए खर्च हो रहे हैं। आर्थिक तंगी का आलम यह है कि उनके इलाज के लिए लोन लेना पड़ रहा है। मगन की पत्नी सुषमा बिस्सा ने बताया कि इलाज के लिए आर्थिक मदद के लिए यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत तक को पत्र लिखा गया, लेकिन कहीं से कोई पहल नहीं हुई। बिस्सा सरकारी मदद के हकदार हैं और इसके लिए सरकार को खुद पहल करनी चाहिए। अगर ये हादसा न होता तो वे एवरेस्ट पर जाने वाले पहले दंपती होते। उनके दोस्तों और शुभचिंतकों ने मदद के लिए एक वेबसाइट शुरू की है। हेल्पमगन. ओआरजी नाम से शुरू इस वेबसाइट पर मदद के लिए लोग आगे भी आ रहे हैं।

मगन बिस्सा पहली बार उस समय सुर्खियों में आए थे, जब 1984 में बछेंद्री पाल के साथ एवरेस्ट पर तिरंगा फहराया था। बीकानेर में पले-बढ़े मगन को इसके लिए सेना मैडल से भी नवाजा जा चुका है। बिस्सा फिलहाल राजस्थान एडवेंचर फाउंडेशन के अध्यक्ष और नेशनल एडवेंचर फाउंडेशन (राजस्थान-गुजरात चेप्टर) के निदेशक हैं।

अगर आप मगन बिस्सा की मदद करना चाहते हैं तॊ उनकी पत्नी सुषमा से 09414139850 और आरके शर्मा 09414139950से पर संपर्क कर सकते है। अधिक जानकारी के लिए www.helpmagan.org कॊ भी देखें।

Wednesday, October 21, 2009

ईरान: कहां से निकले रास्ता ?

सुभाष धूलिया

राष्ट्रपति बराक ओबामा का दुनिया को बदलने का नारा अब उस दुनिया में प्रवेश कर रहा है जो वास्तविक दुनिया है और बेहद जटिल परिस्थितियों से गुजर रही है। मिस्र की राजधानी काहिरा में इस्लामी दुनिया के ऐतिहासिक संबोधन का निश्चय ही बेहद प्रतीकात्मक महत्व था और अब इस प्रतीक को धरातल के यथार्थ से संबद्ध करने का समय आ चुका है। इराक और अफगानिस्तान में अमेरिका पहले ही ऐसे युद्ध लड़ रहा है जिनका मकसद आज उससे भी कहीं अधिक अस्पष्ट हैं जितने वे उस वक्त थे जब ये युद्ध छेड़े गये थे। बुश प्रशासन से जो अमेरिका ओबामा को विरासत में मिला उसमें अमेरिकी नीतियां एक ऐसे जंजाल में फंसी हैं कि बिना एक व्यापक राजनीतिक दृष्टि के इन्हें बाहर निकालना कठिन है।

ईरान इन मुद्दों में से एक महत्वपूर्ण मुद्दा है जिसे लेकर अमेरिकी विदेश नीति पशोपेश में पड़ी है। 1979 में ईरान में इस्लामी क्रांति के बाद दोनों देशों के बीच कोई वार्ता नहीं हुई है। चुनाव अभियान के दौरान ओबामा ने ईरान से बिना शर्त बातचीत का आश्वासन दिया था जिसके परिणामस्वरुप अब जल्द ही दोनों देशों के बीच बातचीत होने जा रही है। लेकिन इरान के साथ जिन मसलों पर अमेरिका का टकराव है वे वैसे ही बने हुए हैं जो बुश प्रशासन के दौरान थे। ईरान के राष्ट्रपति अहमदीनेजाद ने एक बार फिर साफ कर दिया है कि ईरान नाभिकीय कार्यक्रम के अपने राष्ट्रीय अधिकार का कभी भी परित्याग नहीं करेगा। अब अमेरिका के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि ईरान के साथ बातचीत में वह किसी ऐसे उद्धेश्य को पारिभाषित कर पाता है जिसे पूरा किया जा सके ?

ईरान के नाभिकीय कार्यक्रम को लेकर जितने भी मतभेद हैं वे काफी हद तक शक-संदेहों पर आधारित हैं । इस्राइल और पश्चिमी हलकों में यह धारणा गहरी जड़ें जमा चुकी है कि ईरान के मौजूदा नाभिकीय कार्यक्रम से इसे नाभिकीय हथियार विकसित करने की क्षमता हासिल हो जाती है। चंद दिनों पहले ही अंतर्राष्ट्रीय आणविक ऊर्जा ऐजेंसी ने कहा है कि ईरान पहले ही नाभिकीय हथियार हासिल करने की क्षमता हासिल कर चुका है ।

इस्लामी क्रांति से ही ईरान ने अमेरिका और इस्राइल के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था और बार-बार इजराइल को दुनिया के नक्शे से मिटाने की धमकियां देता रहा है। अरब दुनिया की छाती पर पश्चिम द्वारा इस्राइल को थोपना कितना भी बड़ा अन्याय क्यों ना रहा हो लेकिन आज की ताऱीख पर इस्राइल को मिटा देने की बात करना विनाशकारी रास्ते पर कदम बढ़ाना ही होगा। इजराइल की सुरक्षा को लेकर अमेरिका ही नहीं पश्चिम के तमाम बड़े देश संवेदनशील हैं। अमेरिका के समूचे सत्ता प्रतिष्ठान में तो इस्राइल की सुरक्षा को लेकर कोई खास मतभेद नहीं है। इसलिए अमेरिका और इस्राइल का विरोध केवल ईरान द्वारा नाभिकीय हथियार विकसित करने को लेकर नहीं है बल्कि वे ईरान के पास इस तरह की क्षमता होने को भी स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। दरअसल ईरान जिस नाभिकीय प्रोद्योगिकी का विकास कर रहा है उसका इस्तेमाल बिजली और हथियार दोनों को बनाने के लिए किया जा सकता है।

इस्राइल के अस्तित्व को लेकर ईरान के रुख के कारण इस्राइल का चिंतित होना स्वाभाविक है। इस्राइल की शिकायत है कि ईरान को रोकने के लिए अमेरिका उतने प्रयास नहीं कर रहा जितने करने की जरुरत है। एक समय तो इस्राइल ने ईरान के नाभिकीय प्रतिष्ठानों पर हमला करने की योजना को अंतिम रूप दे दिया था और इसके लिए बहुत बड़ा सैनिक अभ्यास किया था। तब कयास लगाए जा रहे थे कि अमेरिका चुनाव के पहले ही इस्राइल ईरान पर हमला बोल देगा क्योकि इसके बाद अमेरिकी प्रशासन का रुख और परिस्थितियां इसके लिए अनुरुप नहीं होंगी। लेकिन बुश प्रशासन ने इस्राइल को हरी झंड़ी नहीं दी। ओबामा के सत्ता में आने के बाद निश्चय ही इस वक्त ईरान पर सैनिक आक्रमण का विकल्प बेहद सीमित हो चुका है लेकिन खत्म भी नहीं हुआ है। इस्राइल को लेकर ईरान के रुख में खास परिवर्तन नहीं आ रहा है। इस्राइल इतना छोटा देश है कि इसे ध्वस्त करने के लिए एक ही नाभिकीय बम काफी है और इस स्थिति में इस्राइल के स्वयं अपने नाभिकीय हथियार बेमानी हो जाते हैं। ईरान जैसे देश के नाभिकीय हथियार विकसित करने की क्षमता हासिल करने से ही इस्राइल में ऐसी असुरक्षा का माहौल पैदा हो सकता है कि वहां से मानव और आर्थिक संसाधनों के पलायन की प्रक्रिया शुरु हो सकती है। ऐसे में सवाल यह पैदा होता है कि अमेरिका कैसे और किस हद तक इस्राइल की इन सुरक्षा चिंताओं को संबोधित करे और साथ ही कैसे उन उद्देश्यो का निर्धारण करे जिन्हें वह ईरान के साथ बातचीत से हासिल करना चाहता है।

हाल ही में ओबामा प्रशासन ने ईरान के चुनाव के दौरान हस्तक्षेप न कर सकारात्मक संदेश दिया है। पूरी इस्लामिक दुनिया का इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है कि जब जब भी अमेरिका ने हस्तक्षेप किया उदार लोकतांत्रिक ताकतें कमजोर हुई और धार्मिक कट्टरपंथ को ताकत मिली। विदेशी हस्तक्षेप की स्थिति में चाहे कैसी भी सरकार हो उसे राष्ट्रवाद के उफान से ताकत मिलती है। ईरान पर आर्थिक प्रतिबंध लगाकर इरान के लोगों की तकलीफों को बढाकर अहमदीनेजाद के खिलाफ विद्रोह भड़काने का तर्क भी निहायत ही दोषपूर्ण है।

ईरान के मसले पर रुस की भूमिका अहम है। रुस से ही ईरान को नाभिकीय आपूर्ति होती है। रूस का रुख ईरान के प्रति अनुकूल रहा है इसका कारण रुस की अपनी सुरक्षा चिंताएं हैं। यूरोप में नाभिकीय सुरक्षा कवच की अमेरिकी रणनीति को रूस अपने लिए सबसे गंभीर खतरा मानता था। ओबामा ने इस कवच को हटाकर रुस को एक हद तक आश्वस्त किया है और इसका एक कारण ईरान को लेकर रुस का समर्थन जुटाना भी है। रुस के समर्थन से ऐसा कोई रास्ता निकाला जा सकता है कि ईरान को होने वाली नाभिकीय आपूर्ति का इस्तेमाल हथियार बनाने के लिए न किया जा सके। ईरान के मसले को नाभिकीय प्रोद्योगिकी की बारीकियों की दृष्टि से कहीं अधिक राजनीतिक रुप से देखने की जरुरत है। इस मसले का समाधान यहां-वहां निरीक्षण करने और न कर देने में निहित नहीं है। यह मसला दोनों पक्षों के बीच समाये गहरे अविश्वास का है इसलिए इस मसले का समाधान राजनीतिक पटल पर ही हो सकता है। निश्चय ही यह खाई इतनी गहरी और इतनी चौड़ी है कि इस पर पुल बनाने के लिए असाधारण प्रयासों की जरुरत है।

Wednesday, October 14, 2009

इस्लामी दुनिया में लोकतांत्रिक प्रक्रिया से परहेज क्यों?

सुभाष धूलिया

अमेरिका पर आतंकवादी हमलों के उपरांत पूरे विश्व की राजनीति बदल गई और आज बदलाव की यह प्रक्रिया दलदल में फंसी है और दिशाहीनता का शिकार नजर आती है। आतंकवाद के खिलाफ अमेरिका द्वारा छेड़े गये वैश्विक युद्ध अपने कोई भी घोषित उद्देश्य पूरा नहीं कर पाये। अफगानिस्तान और इराक पर विजय हासिल करना अमेरिकी सैनिक शक्ति के लिए कभी मुश्किल नहीं था लेकिन अब आज इन पर नियंत्रण बनाये रखना और किसी भी तरह स्थायित्व पैदा करने का कोई भी प्रयास सफल होता नजर नहीं आ रहा। दरअसल इन देशों में अमेरिकी कब्जे का प्रतिरोध का मूल्यांकन ही दोषपूर्ण है। इराक और अफगानिस्तान में अमेरिका और उसके सहयोगियों पर हमले करने वालों में इस्लामी आतंकवादियों के अलावा वे राष्ट्रवादी भी शामिल हैं जो देश में विदेशी आधिपत्य के खिलाफ लड़ रहे हैं। और इस राष्ट्रवादी धारा के साथ संवाद का रास्ता निकाले बिना इन युद्धों का स्वरुप अंतहीन ही बना रहेगा।

इससे कोई भी फर्क नहीं पड़ता कि राष्ट्रपति ओबामा 'आतंकवाद के खिलाफ युद्ध' की शब्दावली के स्थान पर भले ही 'हिंसक इस्लामी उग्रवाद के खिलाफ संघर्ष' का प्रयोग कर रहे हैं लेकिन धरातल की वास्तविकता में इस शब्दावली के परिवर्तन से कोई खास अंतर नहीं आया है। बुश प्रशासन पर हावी नव-अनुदारवादियों की विश्व भर में 'उदार और लोकतांत्रितक' अमेरिकी आधिपत्य का अभियान इराक और अफगानिस्तान के दलदल में फंस गया है और अगर इस इसी रूप में ये अभियान जारी रखा गया तो यही दलदल कब्रिस्तान भी बन सकता है।

ओबामा प्रशासन भले ही विश्व विजय की नव-अनुदारवादी धारा से हटते प्रतीत होते हों लेकिन फिर भी वे उस दिशा को बदल देने में सक्षम दिखाई नहीं पड़ते जिस पर अमेरिका बहुत आगे बढ़ चुका है। इसी कारण ओबाना प्रशासन अफगानिस्तान में किसी भी राजनीतिक पहल के लिए सक्षम नहीं हैं और वहां और सैनिक भेजकर सैनिक अभियान को तेज कर रहे हैं।

अमेरिका में आतंकवादी हमलों के उपरांत अमेरिका की विदेश और घरेलू नीतियों में एसे परिवर्तन किये गये कि अमेरिकी प्रशासन दुनियाभर में स्वछंद रुप से सैनिक अभियान चला सके। इसीलिए आज भी ये सवाल उठाये जाते हैं कि क्या 9/11हमले अफगानिस्तान की किसी गुफा से बिन लादेन ने संचालित किये थे? कैसे अमेरिकी खुफियातंत्र को इतने बड़े हमले की योजना की भनक तक नहीं चली? क्यों अनेक विदेशी खुफिया एजेंसियों द्वारा अमेरिकी पर किसी बड़े आतंकवादी हमले की चेतावनी को अनदेखा किया गया? आज तक 9/11 हमलों के बारे में की गयी तमाम जाचें किसी भी तार्किक निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पायी हैं और इस कारण 9/11 हमले किसने किये और क्या किसी ने होने दिये? इस बात को लेकर संदेह बने रहे हैं। लेकिन तमाम संदेहों के बावजूद यह तो सच ही है कि अमेरिका पर ये हमले इस्लामी आतंकवादियों ने किए थे और इसके जवाब में अमेरिका के पास सैनिक कार्रवाई के अलावा कोई विकल्प नहीं था। निश्चय ही इस्लाम की एक धारा में हिंसक अमेरिका विरोध भरा पड़ा है लेकिन इस आईने से पूरी इस्लामी दुनिया को देखना एक ऐतिहासिक भूल होगी

आज सवाल यह उठ रहा कि आतंकवाद के खिलाफ सैनिक अभियान छेड़े जाने पर इसका समग्र रूप से विश्लेषण क्यों नहीं किया गया था और जिस स्थिति में सैनिक अभियान के प्रभावी होने पर संदेह पैदा हो रहे थे तभी इसका मूल्यांकन करके नई रणनीति क्यों नहीं बनायी गयी। आज स्वयं अफगानिस्तान में सैनिक कमांडर मौजूदा रणनीति के सफल होने पर संदेह व्यक्त कर रहे हैं। ऐसे में 'इस्लामी आतंकवाद' या 'हिसंक धार्मिक उग्रवाद' के खिलाफ सैनिक अभियान के क्या विकल्प अमेरिका के पास बचे हुए हैं? राजनीतिक प्रक्रिया शुरु करने के लिए हाल ही में अफगानिस्तान और इससे पहले इराक में किए गए चुनावों में कहीं से भी किसी लोकतांत्रिक तत्व उपस्थित नहीं थे। जाहिर है कि विदेशी आधिपत्य में कोई भी लोकतांत्रिक चुनाव नहीं हो सकते और भला कोई भी ऐसा चुनाव लोकतांत्रिक कैसे हो सकता है जिसमें ऐसी कोई राजनीतिक पार्टी या नेता चुनाव न लड़ रहा हो जो विदेश आधिपत्य को खत्म करने का पक्षधर हो। सच तो ये है कि इन चुनावों से राजनीतिक प्रक्रिया को नुकसान ही अधिक पहुंचा है।

आज आतंकवाद के खिलाफ अमेरिका के सैनिक अभियान को 8 वर्ष पूरे हो चुके हैं। इन 8 वर्षों में सफलता पाना तो दूर,सफलता को पारिभाषित करना भी दिनों दिन जटिल होता जा रहा है। ओबामा ने मिस्र की राजधानी काहिरा में एक अभिभाषण में इस्लामी दुनिया को साथ आने का न्यौता दिया था और इसके दिल में जगह बनाने की कोशिश की था। पर इसका कोई भी परिणाम आना अभी बाकी है।
अमेरिका एक बेमिसाल सैनिक, आर्थिक और सांस्कृतिक ताकत है। बुश प्रशासन ने अमेरिका को सैनिक ताकत की ओर अधिकाधिक उन्मुख कर दिया था लेकिन आज यह स्पष्ट होता जा रहा है कि किसी तात्कालिक स्थिति में भले ही सैनिक ताकत की केन्द्रीय भूमिका हो लेकिन दार्घकाल में राजनीतिक प्रक्रिया के बिना कोई भी उद्धेश्य पूरा नहीं किया जा सकता। 9/11 हमलों के उपरांत बुश प्रशासन के सैनिक अभियान को अमेरिका में ही नहीं पूरी दुनिया में भरपूर समर्थन मिला था लेकिन आक्रोश की स्थिति को हमेशा नहीं बनाये रखा जा सकता और सैनिक अभियान के समर्थन को भी लंबे समय तक खींचना संभव नहीं होता। यह समझना मुश्किल है कि अमेरिकी प्रशासन इस बात का आकलन क्यों नहीं कर रहा है कि आज अमेरिका को आतंकवाद से कितना खतरा है और क्या यह खतरा इतने बड़े सैनिक अभियान के औचित्य को साबित करता है? क्या अमेरिकी सैनिक अभियान से आतंकवादी संगठनों की कमर नहीं टूट चुकी है? और क्या आज 9/11 जैसे हमले करना अब भी संभव रह गया है ?

मौजूदा परिस्थितियों में कहीं ना कहीं कोई बड़ा परिवर्तन करना आवश्यक है। अगर अमेरिका को अपनी बेमिसाल सैनिक ताकत के पतन को रोकना है तो दुनिया पर सैनिक आधिपत्य कायम करने के बजाय इसे लोकतांत्रिक विश्व व्यवस्था की ओर उन्मुख होना पड़ेगा। अमेरिका को इस्लामी दुनिया में भी ऐसी सरकारों के साथ जीना सीखना होगा जो अमेरिका विरोधी हों लेकिन अमेरिका के लिए कोई खतरा न पैदा करती हों। दुनिया भर में ऐसी अनेक सरकारें हैं जो अमेरिका-विरोधी है तो फिर इस्लामी दुनिया में इस तरह की राजनीतिक प्रकिया से परहेज क्यों?

Tuesday, October 13, 2009

हर जगह खॊज लेते हैं हाथी


मृगेंद्र पांडेय

हरियाणा महाराष्ट्र और अरुणाचल प्रदेश में विधानसभा चुनाव समाप्त हॊ गया। हरियाणा में कांग्रेस इनेलॊद भाजपा के बीच मुकाबला है तॊ महाराष्ट्र में कांग्रेस शिवसेना भाजपा और मनसे के बीच मुकाबला है। सभी विश्लेषक यहां एक ऐसी पार्टी कॊ भूल रहे हैं जॊ उत्तर प्रदेश के बाहर वॊटकटवा के रुप में सभी दलॊं कॊ परेशान किए हुए है। बहन मायावती के खिलाफ सुप्रीम कॊर्ट भले ही कितना सख्त हॊ लेकिन उनके वॊटर हाथी हर जगह खॊज लेते हैं।

महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में २८१ उम्मीदवारॊं कॊ मैदान में उतारा है। मायावती की रैली मे कार्यकर्ता प्रचार के दौरान हाथी आया हाथी आया चिल्लाते दौडते नजर आए। यहां विदर्भ में बसपा की सीट निकालने की उम्मीद है। राजनीतिक विश्लेषक बताते हैं कि इस चुनाव में बसपा कॊ कांशीराम के बामसेफ और डीएस४ का समर्थन मिल रहा है जॊ वॊटकटवा कॊ विजेता में भी बदल सकता है।

हरियाणा में भले ही बसपा का समझौता नहीं हॊ पाया लेकिन दलित मुख्यमंत्री का नारा काम करता नजर आ रहा है। यहां कांग्रेस भले ही स्पष्ट बहुमत पा ले लेकिन भाजपा और इनेलॊद कॊ कई सीटॊं पर मुंह की खानी पड सकती है। इन सब के लिए कांग्रेस का चुनाव प्रचार या विकास जिम्मदार नहीं हॊगा बल्कि जिम्मेदार हॊंगे बसपा के काटे वॊट।

दरअसल यहां यह स्पष्ट करने की कॊशिश की जा रही है कि हर चुनाव की तरह बसपा के बारे में बात करने से बचने वाली मीडिया कॊ इस बार भी परिणाम आने के बाद बहन जी के लिए गुणगान के दॊ शब्द तॊ जरूर कहने हॊंगे। यह सब हॊगा उनके उन वॊटरॊं के कारण जॊ हाथी कॊ कहीं भी खॊज लेते हैं।

अफगानिस्तानः भारत पर हमले क्यों ?

सुभाष धूलिया

अफगानिस्तान में भारत पर हमले क्यों हो रहे हैं ? भारतीय दूतावास पर आत्मघाती हमला अगर उतना सफल हो गया होता जितनी योजना बनाई गई थी तो पूरे परिसर में तबाही मच गई होती. पंद्रह महीने पहले हुए हमले में 60 लोग मारे गए थे जिसमें 2 वरिष्ठ भारतीय राजनयिक शामिल थे. इससे पहले समय-समय पर अनेक विकास कार्यों में लगे भारतीय इंजीनियरों के अपहरण और हत्या की घटनाएं होती रही हैं.

भारत पर ये हमले तब हो रहे हैं जबकि यही एकमात्र ऐसा देश है जो अफगानिस्तान में चल रहे सैनिय अभियान में शामिल नहीं है और सड़क, स्कूल, अस्पताल, बिजली, बांध के निर्माण जैसे कार्यों में लगा हुआ है. 1989 में सोवियत संघ की पराजय के उपरांत उभरे सत्ता समीकरण में भारत का लगभग अफगानिस्तान से पलायन हो गया था और भारत-अफगान संबंध उत्तरी गठजोड़ को भारतीय मदद तक ही सीमित हो गया था. काबुल में मुजाहिदीनों और बाद में तालिबानों की सत्ता कायम हो चुकी थी जिन्हें भारत मान्यता तक नहीं देता था. लेकिन इस अपवाद को छोड़कर अफगानिस्तान के साथ हमेशा ही बहु-आयामी संबंध रहे हैं और दोनों देशों के बीच गहरा सांस्कृतिक लगाव है. 1950 में दोनों देशों के बीच मैत्री और सहयोग की संधि हुई थी. इसके विपरीत अफगानिस्तान के साथ पाकिस्तान के संबंध मुजाहिदीन और तालिबानी शासनकाल को छोड़कर कभी भी अच्छे नहीं रहे हैं. यहां तक कि 1947 में देश के बंटवारे के वक्त बलूच बहुत सहरदी सूबे और पख्तूनों में पाकिस्तान में शामिल होने के सवाल पर विरोध था.

9/11 के बाद अमेरिका ने सैनिक हस्तक्षेप से तालिबान सरकार को ध्वस्त कर दिया और एक बार फिर भारत ने अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में साझीदार बनकर अफगानिस्तान में प्रवेश किया. अफगानिस्तान में अमेरिकी युद्ध को 8 साल पूरे हो गए हैं और अमेरिका केवल पाकिस्तान के साथ मिलकर सैन्य अभियान के बूते पर इस्लामी उग्रवाद को पराजित करने पर केन्द्रित रहा है. वहीं भारत ने अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है. अफगानिस्तान की मौजूदा सत्ता भले ही कितनी ही कमजोर और प्रभावहीन हो लेकिन भारत के साथ संबंधों को लेकर इसका वृहत सकारात्मक रुख रहा है और अफगानिस्तान में उग्रवादी हिंसा को लेकर इसने समय-समय पर पाकिस्तान को आड़े हाथों लिया है. भारतीय दूतावास पर हमले को लेकर भी अफगान सरकार ने भी लगभग स्पष्ट रूप से कहा है कि इसके पीछे पाकिस्तान स्थिति उन उग्रवादियों का हाथ है जिन्हें पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई का संरक्षण प्राप्त है.

हांलाकि पिछले सप्ताह भारतीय दूतावास पर हमले के अलावा पाकिस्तान में पेशावर में एक आतंकवादी हमले में 80 लोग मारे गए; रावलपिंडी में पाकिस्तान के सैनिक मुख्यालय पर एक बड़ा आतंकवादी हमला हुआ है; और, अमेरिकी सेना पर एक हमले में 8 सैनिक मारे गए. लेकिन इन तमाम आतंकवादी हमलों को एक ही तराजू पर नहीं तौला जा सकता और भारतीय दूतावास पर हुए हमलों में आईएसआई का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से शामिल होने के तार्किक कारण हैं. अनेक कारणों से हाल के वर्षों में अफगानिस्तान में भारत का प्रभाव बढ़ रहा है. अफगानिस्तान में भारत के प्रभाव को लेकर पाकिस्तान हमेशा ही चिंतित रहा है. अमेरिकी युद्ध में पाकिस्तानी सेना की भूमिका के कारण अमेरिकी प्रशासन का एक हिस्सा भी भारत को अफगानिस्तान से दूर रखना चाहता है.

यह आश्चर्य की बात है कि अमेरिका एक ओर तो हमेशा यह कहता आया है कि अफगानिस्तान में स्थिरता कायम करने में पाकिस्तान के अलावा भारत, ईरान, रूस और चीन सबके हित जुड़े हुए हैं. लेकिन पिछले आठ वर्षों में अमेरिका पाकिस्तान के साथ मिलकर सैनिक ताकत के बल पर ही समाधान ढूंढ़ रहा है और इस संकट के क्षेत्रीय समाधान की निरंतर उपेक्षा करता रहा है. यह और भी आश्चर्य की बात है कि अमेरिका इस्लामी उग्रवाद को पराजित करने के अपने अभियान में भारत को संबद्ध करने से बचता ही नहीं रहा है बल्कि इससे दूरी बनाकर पाकिस्तान के सैनिक प्रतिष्ठान को रिझाने की कोशिश करता रहा है. भारत पर हो रहे हमलों का मकसद अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में भारतीय प्रयासों को सीमित करना है. यह आश्चर्य की बात है कि भारतीय प्रभाव में पाकिस्तान और इस्लामी उग्रवादियों को जो खतरे दिख रहे हैं उनके प्रति अमेरिका उदासीन ही नहीं बल्कि नकारात्मक रहा है.

आठ वर्ष युद्ध के बाद भी अमेरिका अफगानिस्तान को समझने में विफल दिखाई प्रतीत होता है. यह वही अफगानिस्तान है जहां सोवियत महाशक्ति को 10 वर्ष के युद्ध के बाद पराजय झेलनी पड़ी थी. यह वही अफगानिस्तान है जिस पर कब्जा करने के ब्रिटिश साम्राज्य के तीन प्रयास विफल रहे थे. इसलिए इस देश को, ‘साम्राज्यों का कब्रिस्तान’ भी कहा जाता है. ओबामा प्रशासन अफगानिस्तान-पाकिस्तान को लेकर नई रणनीति बनाने पर जुटा हुआ है और इस मसले पर तीखे मतभेद उभर रहे हैं. विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने कहा है कि अमेरिका कुछ तालिबानी तत्वों के साथ सहयोग का अध्ययन कर रहा है. काफी समय से ‘उदार’ तालिबान के साथ सहयोग की बातें चल रही हैं.

निश्चय ही अफगानिस्तान की समस्या के किसी भी राजनीतिक समाधान के लिए करजई सरकार एकदम अपर्याप्त है और अफगानिस्तान में ऐसी राजनीतिक शक्तियों का उभरना जरूरी है जो तालिबान जैसे इस्लामी उग्रवादियों से लड़ सके. निश्चय ही तालिबानी का एक धड़ा इस तरह की राजनीतिक शक्ति के रूप में उभर सकता है क्योंकि यह कहना सही नहीं होगा कि विदेशी सैनिक आधिपत्य से लड़ने वाला हर अफगानी उग्रवादी है. इन अफगान लड़ाकों में राष्ट्रवादी भी शामिल हैं. लेकिन इस तरह की राजनीतिक शक्तियां शून्य में पैदा नहीं हो सकती हैं. इस तरह की शक्तियों के उभरने के लिए एक सामाजिक आधार को विकसित करना आवश्यक है और यह तभी हो पाएगा जब बंदूकों की नालें थोड़ी नीची कर दी जाएं और भारत जैसे देशों को लेकर एक स्थानीय समाधान की तरफ ध्यान दिया जाए. नई अफगान रणनीति को लेकर ओबामा प्रशासन के सैनिक धड़े और राजनीतिक नेतृत्व के बीच टकराव की स्थिति पैदा हो गई है. अफगानिस्तान में अमेरिकी कमांडर जनरल स्टेनली मेक्रिस्टर ने 40 हजार और सैनिकों की तैनाती की मांग की है और कहा है कि अगर ऐसा नहीं होता तो अफगानिस्तान में अमेरिका का मिशन एक साल में विफल हो जाएगा यानी अमेरिका पराजित हो जाएगा. मेक्रिस्टर अफगानिस्तान के चप्पे-चप्पे में जमीनी सैनिक अभियान चलाकर तालिबान को ध्वस्त करना चाहते हैं. दूसरी ओर यह तर्क दिया जा रहा है कि अफगानिस्तान में अल कायदा का लगभग सफाया हो चुका है और केवल पाकिस्तान में ही अल कायदा के गढ़ बचे हुए हैं. यह तर्क दिया जा रहा है कि तालिबान अमेरिका के लिए अल कायदा जैसा खतरा नहीं है इसलिए अमेरिकी रणनीति पाकिस्तान में अल कायदा के अड्डों को ध्वस्त करने पर केन्द्रित होनी चाहिए. उप-राष्ट्रपति जो बिदेन जमीनी सैनिक अभियान की बजाय पाकिस्तान में स्थित आतंकी ठिकानों पर हवाई हमले और पाकिस्तानी जमीन पर विशेष सैनिक दस्तों के हमले की पैरवी कर रहे हैं. जनरल मेक्रिस्टर द्वारा सुझाई जा रही रणनीति भले ही एक जटिल समस्या को सैनिक विजय तक सीमित करती हो लेकिन उनके इस तर्क में काफी दम है कि मौजूदा स्थिति के चलते एक वर्ष में अमेरिका यह युद्ध हार जाएगा और अल कायदा और तालिबान को अलग करके नहीं देखा जा सकता. जनरल मिक्रेस्टर तालिबान का सफाया कर देना चाहते हैं तो बिदेन अल कायदा पर केन्द्रित होने के पक्षधर हैं.

अमेरिकी रणनीति का हर विकल्प युद्ध के विस्तार की ओर उन्मुख है और अफगान समस्या के वास्तविक समाधान से भटक रही है. पाकिस्तानी जमीन पर हमलों से पाकिस्तान में तूफान खड़ा हो जाएगा और जमीनी सैनिक अभियान से बड़े पैमाने पर आम लोग मारे जाएंगे.

शांति का नोबेल पुरस्कार पाने के बाद ओबामा व्हाईट हाउस में अपने सभाकारों और सैनिक जनरलों के साथ मिलकर एक नए युद्ध की रणनीति तैयार कर रहे हैं. लेकिन अब भी उस सब से बच रहे हैं जिसके रास्ते अफगान युद्ध में विजय के साथ-साथ इस देश में किसी तरह का कोई स्थायित्व पैदा हो सकता है. कोई ऐसी सत्ता उभर सकती है जो सीमित अर्थों में ही सही अफगान लोगों की आशाओं-आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करती हो. अमेरिका को अपनी विजय को परिभाषित करना होगा. मौजूदा परिस्थिति में इस उम्मीद से परहेज क्यों किया जाए कि नोबेल शांति विजेता सैनिक विजय के बाद के अफगानिस्तान को भी देख सकेगा जिसे शांति और स्थायित्व की बेहद दरकार होगी और यह भी पहचान कर पाएगा कि इस तरह के अफगानिस्तान के निर्माण में उसके सहयोगी कौन हो सकते हैं ? युद्ध सिर्फ युद्ध के लिए नहीं लड़े जाते, इनका मकसद शांति भी होता है.

Monday, October 12, 2009

ओबामा शांतिदूत, क्यों मनमोहन में कांटे लगे थे


-रीतेश

12 दिन के लिए नोबेल. ये नोबेल का अपमान है या पतन, ये कहे बिना मैं इतना कहना चाहूंगा कि अगर ईरान के खिलाफ आग न उगलने या चीन के डर से नोबेल शांति पुरस्कार के ही दूसरे विजेता दलाई लामा तक से मिलने से मुंह चुराने वाले को इस लायक समझा गया है तो यह रॉयल फाउंडेशन की गंभीरता पर चोट है.

अगर विश्व शांति के लिए इस साल किसी को नोबेल देना ही था तो अपने मनमोहन सिंह से बेहतर भला और कौन है. और कुछ नहीं तो कम से कम मुंबई हमले के बाद कुछ राजनीतिक दलों और कई समाचार संगठनों के संगठित हल्ला-बोल के बावजूद पाकिस्तान पर हमला न करना क्या विश्व शांति में कोई छोटा योगदान है.

पाकिस्तान पर भारत हमला करता तो कुछ और पड़ोसी मित्र का चोला उतारकर मैदान में देर-सबेर नहीं आ जाते, इसकी कोई गारंटी तो थी नहीं. मनमोहन सिंह ने इतनी दूरदर्शिता का परिचय दिया और पड़ोस में पड़े एक महाशक्ति को भारत पर हमला करने का कोई मौका नहीं दिया, ये क्या वैश्विक शांति में छोटा योगदान है.

आज भास्कर में गिरीश निकम जी ने लिखा है कि उनके पास भी विश्व शांति के लिए गजब का विजन है. उन्हें क्यों नहीं दिया जा रहा है नोबेल. ओबामा को भी तो विश्व को परमाणु हथियारों से मुक्ति दिलाने के विजन के लिए ही पुरस्कार दिया जा रहा है. और तो और, ओबामा ने क्या कहा, वो इस दिशा में लगातार काम करेंगे लेकिन उन्हें नहीं लगता कि उनके राष्ट्रपति रहते, यहां तक कि उनके जिंदा रहते, ऐसा हो पाएगा.

अब ऐसे नोबेल पुरस्कार पाने वाले को चूमने और बधाई देने के अलावा और क्या किया जा सकता है.

Thursday, October 8, 2009

हमारे कारण फैला नक्सलवाद


कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने स्वीकारा। कहा नक्‍सलवाद के लिए राज्‍य सरकार जिम्‍मेदार
मृगेंद्र पांडेय

राहुल गांधी ने देश में फैले नक्‍सलवाद के लिए राज्‍य सरकारों को जिम्‍मेदार ठहराया है। उन्‍होंने कहा है कि राज्‍य सरकारें लोगों तक अपनी पहुंच नहीं बना सकीं, जिसके परिणामस्‍वरूप नक्‍सलवाद कई राज्‍यों में तेजी से फैल रहा है। अब सवाल यह उठता है कि आखिर यहां विकास का पैमाना क्या है। सवाल यह भी उठता है कि लंबे समय से प्रदेशॊं में सरकार किसकी है। अगर कांग्रेस लंबे समय तक सरकार में रही है तॊ बाबा स्पष्ट रूप से यह कहना चाहते हैं कि हम है नक्सलवाद के जनक।

बाबा कहते हैं जिन राज्‍यों में विकास को प्रमुख मुद्दा बनाया गया और विकास के साथ-साथ लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था रही वहां नक्सलवाद की समस्‍याएं नहीं आयीं। राजस्थान पश्चिमी उत्तर प्रदेश हरियाणा में कहां है विकास। खुफिया सूत्रॊं की मानें तॊ नक्सली तॊ दिल्ली में भी हैं। कॊबाड गांधी जैसे लॊगॊं की मौजूदगी यह बताती है कि विकास जहां हुआ है वहां भी नक्सली मौजूद हैं। तॊ क्या यह मान लिया जाए कि देश में कहीं विकास नहीं हुआ।

विकास के नाम पर सड़क, बिजली की ही बात होती है। नगरों और महानगरों में हॊ रहे विकास कॊ कितना असली माना जाए। इस विकास ने ही करॊडॊं लॊगॊं के रॊजगार छिन लिए। देश के दस बडे महानगर दिल्ली मुंबई कॊलकाता चेन्नई अहमदाबाद बेंगलुरु हैदराबाद जयपुर में सांस लेने के लिए साफ हवा तक मयस्सर नहीं है। पानी पीने से पहले दस बार सॊचना पडता है। पर्यावरण पहले से और ख़राब हुआ है. ख़राब पर्यावरण का असर है नक्सलवाद।

राहुल जी नक्सलवाद कॊ अगर समस्या के रूप में देखेंगे तॊ कभी सुलझा नहीं पाएंगे। क्यॊं आम आदमी अपनी गुहार लेकर नक्सली के पास जाता है। थानेदार से ज्यादा नक्सलियॊं पर हम क्यॊं करते हैं विश्वास। क्यॊं हम सभी कॊ खाना मुहैया नहीं करा पाते और वही नक्सली छिनकर उनके पेट भरने कॊ तैयार रहता है। आखिर क्यॊं गांव और आदिवासी इलाकॊं में ही पैदा हॊते ही करॊडॊं बच्चे दम तॊड देते हैं। क्या कभी आपने सॊचा है। अगर सॊचा है तॊ निवेदन है कि इस तरह के बयान देने से पहले इनके बारे में एक बार फिर सॊचें।

Tuesday, October 6, 2009

पहाड या रेत फिसलना तॊ पडेगा



मृगेंद्र पांडेय

रेगिस्तान से पहाड और पहाड से रेगिस्तान के बीच समतल जमीन पर जिसके पैर फिसल रहे हैं वह जसवंत हैं। ठाकुर जसवंत। गॊरखा जसवंत। और अब पहचान खॊजते जसवंत। दरअसल पहचान का संकट सबसे बडा संकट हॊता है। इससे निपटने के लिए आदमी तरह तरह के हथकंडे अपनाता हैं। जसवंत सिंह भी फिलहाल वही कर रहे हैं। उनकी सॊच। नई पुरानी आगे पीछे सब गडमगड हॊ गई है। उनकी हालत आज ऐसी है जैसी किसी अच्छी पीआर एजेंसी के बिना खरीदारॊं के हाथ से फिसलता साबुन।

हॊता तॊ वह अच्छा है लेकिन बिक नहीं पाता। या यूं कहें कि खरीदार उस तक पहुंच नहीं पाता। वह भी जाता है रेगिस्तान से पहाड और पहाड से रेगिस्तान। लेकिन समतल जमीन पर फिसलता रहता है। यहां भी पहचान का संकट है। पहचान ‌खॊजता साबुन। अगर निकल गया तॊ डॊव हॊ सकता है वरना जसवंत हैं न। भाजपा से निकाले जाने के बाद जसवंत और भी फिसलते जा रहे हैं।

एक नई पार्टी बनाने की यॊजना बना रहे हैं। उसमें उन लॊगॊं कॊ साथ रखेंगे जॊ अपनी पार्टी कॊ या तॊ दगा दे चुके है या पार्टी ने उन्हें दगा दे दिया है। इसमें उनके साथ झारखंड के नामधारी जी हॊंगे बिहार के दिग्विजय सिंह हॊंगे और भी ढेर सारे पार्टी के मारे लॊग हॊंगे। अब देखना यह हॊगा कि जसवंत की नई कवायद उनकॊ कितनी पहचान दिला पाती है। या यह कहें कि पहचान के लिए और कितनी कवायद करवाती है।

Monday, October 5, 2009

बढ गई एक और राजनीतिक बहू



मृगेंद्र पांडेय

हम भारतीयॊं की कॊशिश रहती है कि महिलाओं के खिलाफ कुछ कहने से बचे। मैं भी ऐसा ही हूं। लेकिन देश में आ रहे राजनीतिक बदलाव के बारे में अपनी बात कहे बिना रह नहीं सकता इसलिए कह रहा हूं। आप लॊग भी सॊंचे कि क्या यह जॊ हॊ रहा है वह सही है। अगर नहीं तॊ फिर इसका जवाब क्या हॊना चाहिए।

समाजवादी पार्टी कॊ फिरॊजाबाद से चुनाव मैदान में कॊई उम्मीदवार नहीं मिल रहा है। इसलिए नेताजी ने बहू कॊ मैदान में उतार दिया। सारी उम्र सर पर लाल टॊपी ढॊने वाले कल्लू यादव या फिर मुलायम की हर रैली में झंडा लेकर सबसे आगे खाडे रहने वाले पढे लिखे सचिन की बारी कब आएगी। जब मुलायम थे तब वे उम्मीदवार बने। उनका बेटा आया उसकी भी रैली में हम ही झंडा उठाकर दौडे। अब बहू की रैली में भी पॊस्टर हमारे हाथ की साटेंगे। आखिर कब आएगी हमारी बारी जब हमारी भी फॊटॊ पॊस्टर पर हॊगी। भैया और भाभी हमारा प्रचार करेंगे और हम उम्मीदवार हॊंगे। हमें भी तॊ हमारा हक देने की सॊंचे मुलायम जी। या अभी हमारी बारी नहीं आई।

राहुल गांधी यह कहकर नहीं बच सकते की वह सिस्टम की पैदाइश है। उनके पास और कॊई चारा नहीं है। मुलायम कॊ बेट बहू भाई भतीजा के आगे कॊई नजर नहीं आता। हरियाणा में चुनाव लडने वाले ५१ फीसदी करॊडपति है। महाराष्ट्र में कॊई राजनीतिक परिवार नहीं बचा जिसका बेटा चुनाव मैदान में नहीं उतरा। जिसका बेटा लायक नहीं उसने अपनी बेटी कॊ मैदान में उतार दिया। आखिर कब तक चलेग । यह सब। कब जागेंगे हम ।

Friday, October 2, 2009

स्वतंत्र पत्रकारिता के लिए खतरनाक गृह मंत्रालय की सक्रियता

आनंद प्रधान

गृहमंत्री पी चिदम्बरम की अगुवाई में गृह मंत्रालय कुछ ज्यादा ही सक्रिय हो गया है। इस अधिक और दायरे से बाहर जा रही सक्रियता का ताजा उदाहरण है- प्रमुख अंग्रेजी दैनिक ’द टाइम्स आफ इंडिया’ के दो पत्रकारों के खिलाफ इस आरोप में प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) दर्ज कराने का फैसला कि उन्होंने भारत-चीन सीमा पर चीनी सैनिकों और भारत तिब्बत सीमा पुलिस (आइटीबीपी) के बीच कथित फायरिंग में आइटीबीपी के दो जवानों के ’घायल’ होने की मनगढंत खबर दी। गृह मंत्रालय का यह फैसला न सिर्फ हैरान करनेवाला और अपनी सीमा लांघनेवाला है बल्कि उसमें स्वतंत्र पत्रकारिता के खिलाफ बदले की भावना की बू भी आती है। अगर खुद गृह मंत्रालय इस तरह से पत्रकारों के खिलाफ बात-बात पर एफआईआर दर्ज कराने लगेगा तो इससे न सिर्फ प्रेस परिषद जैसी वैद्यानिक संस्था बेमानी हो जाएगी बल्कि पत्रकारों के लिए ’बिना किसी भय या लोभ’ के स्वतंत्र पत्रकारिता करना भी मुश्किल हो जाएगा।

लेकिन यह कहने के बाद समाचार मीडिया के बड़े हिस्से के इस व्यवहार पर भी बात करना जरूरी है जो स्वतंत्र और जिम्मेदार पत्रकारिता के दायरे में नहीं आता है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि पत्रकारों पर एफआईआर दर्ज कराने का गृह मंत्रालाय का फैसला जितना हैरान करने और अपनी सीमा लांघनेवाला है उससे कम चिंचित और हैरान करनेवाला व्यवहार समाचार मीडिया का नहीं है जिसने पिछले कुछ सप्ताहों चीन के खिलाफ एक सुनियोजित सा दिखनेवाला संगठित प्रचार (प्रोपेगैंडा) अभियान छेड़ रखा है। इस अभियान के तहत कथित चीनी घुसपैठ की खबरों को न सिर्फ बहुत बढ़ा चढ़ाकर दिखाया और बताया जा रहा है बल्कि कुछ बिल्कुल झूठी और मनगढंत (उदाहरण के लिए चीनी सेना और आइटीबीपी के बीच फायरिंग) खबरें भी दी जा रही हैं। यह सचमुच,हैरान और संदेह पैदा करनेवाली बात है कि अचानक ऐसा क्या हुआ कि समाचार मीडिया के एक हिस्से में चीन विरोधी खबरों की न सिर्फ भरमार हो गयी बल्कि उन्हें इस तरह से उछाला जा रहा है?

हद तो यह हो गयी कि समाचार मीडिया के एक हिस्से ने चीन के खिलाफ एक तरह का युद्वोन्मादी माहौल तैयार करना शुरू कर दिया। निश्चय ही, यह किसी भी तरह से जिम्मेदार पत्रकारिता नही है। इस पत्रकारिता में न सिर्फ पत्रकारिता के बुनियादी उसूलों यानी तथ्यों की शुद्धता, वस्तुनिष्ठता, संतुलन और निष्पक्षता का ध्यान नही रखा जा रहा है बल्कि इसमें कुछ निहित स्वार्थो और हित समूहों के एजेंडे को आगे बढ़ाने की मंशा के साथ चीन विरोधी प्रोपेगैंडा अभियान चलाया जा रहा है। कहने की जरूरत नही है कि इस तरह के अभियानों से दो देशों के संबंधों पर कितना बुरा असर पड़ रहा है। अफसोस की बात यह है कि भारतीय मीडिया के बड़े हिस्से में आमतौर पर पाकिस्तान और अक्सर चीन के खिलाफ चलाये जा रहे इन अभियानों के कारण इन दोनों पड़ोसी देशों के साथ भारत के पहले से चले आ रहे जटिल संबंधों को सामान्य बनाने की प्रक्रिया कितनी कठिन हो गयी है।

यह भी सच है कि इस तरह का माहौल बनाने में सरकार और राजनीतिक दलों की भी भूमिका भी कम जिम्मेदार नहीं है। चीन के मामले में ही जितनी खबरें छपी वे सत्ता प्रतिष्ठान के अंदर से ही निकली और उनका खंडन करने में सरकार ने जानबूझकर बहुत देर लगाई। सच तो यह है कि इस मामले में सरकार और सरकार से बाहर बैठे लोगों ने मीडिया का इस्तेमाल किया। और उसके बाद उसे ही जिम्मेदार भी ठहरा दिया। लेकिन सवाल यह है कि मीडिया ने इसका मौका ही क्यों दिया ?