सुभाष धूलिया
राष्ट्रपति बराक ओबामा का दुनिया को बदलने का नारा अब उस दुनिया में प्रवेश कर रहा है जो वास्तविक दुनिया है और बेहद जटिल परिस्थितियों से गुजर रही है। मिस्र की राजधानी काहिरा में इस्लामी दुनिया के ऐतिहासिक संबोधन का निश्चय ही बेहद प्रतीकात्मक महत्व था और अब इस प्रतीक को धरातल के यथार्थ से संबद्ध करने का समय आ चुका है। इराक और अफगानिस्तान में अमेरिका पहले ही ऐसे युद्ध लड़ रहा है जिनका मकसद आज उससे भी कहीं अधिक अस्पष्ट हैं जितने वे उस वक्त थे जब ये युद्ध छेड़े गये थे। बुश प्रशासन से जो अमेरिका ओबामा को विरासत में मिला उसमें अमेरिकी नीतियां एक ऐसे जंजाल में फंसी हैं कि बिना एक व्यापक राजनीतिक दृष्टि के इन्हें बाहर निकालना कठिन है।
ईरान इन मुद्दों में से एक महत्वपूर्ण मुद्दा है जिसे लेकर अमेरिकी विदेश नीति पशोपेश में पड़ी है। 1979 में ईरान में इस्लामी क्रांति के बाद दोनों देशों के बीच कोई वार्ता नहीं हुई है। चुनाव अभियान के दौरान ओबामा ने ईरान से बिना शर्त बातचीत का आश्वासन दिया था जिसके परिणामस्वरुप अब जल्द ही दोनों देशों के बीच बातचीत होने जा रही है। लेकिन इरान के साथ जिन मसलों पर अमेरिका का टकराव है वे वैसे ही बने हुए हैं जो बुश प्रशासन के दौरान थे। ईरान के राष्ट्रपति अहमदीनेजाद ने एक बार फिर साफ कर दिया है कि ईरान नाभिकीय कार्यक्रम के अपने राष्ट्रीय अधिकार का कभी भी परित्याग नहीं करेगा। अब अमेरिका के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि ईरान के साथ बातचीत में वह किसी ऐसे उद्धेश्य को पारिभाषित कर पाता है जिसे पूरा किया जा सके ?
ईरान के नाभिकीय कार्यक्रम को लेकर जितने भी मतभेद हैं वे काफी हद तक शक-संदेहों पर आधारित हैं । इस्राइल और पश्चिमी हलकों में यह धारणा गहरी जड़ें जमा चुकी है कि ईरान के मौजूदा नाभिकीय कार्यक्रम से इसे नाभिकीय हथियार विकसित करने की क्षमता हासिल हो जाती है। चंद दिनों पहले ही अंतर्राष्ट्रीय आणविक ऊर्जा ऐजेंसी ने कहा है कि ईरान पहले ही नाभिकीय हथियार हासिल करने की क्षमता हासिल कर चुका है ।
इस्लामी क्रांति से ही ईरान ने अमेरिका और इस्राइल के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था और बार-बार इजराइल को दुनिया के नक्शे से मिटाने की धमकियां देता रहा है। अरब दुनिया की छाती पर पश्चिम द्वारा इस्राइल को थोपना कितना भी बड़ा अन्याय क्यों ना रहा हो लेकिन आज की ताऱीख पर इस्राइल को मिटा देने की बात करना विनाशकारी रास्ते पर कदम बढ़ाना ही होगा। इजराइल की सुरक्षा को लेकर अमेरिका ही नहीं पश्चिम के तमाम बड़े देश संवेदनशील हैं। अमेरिका के समूचे सत्ता प्रतिष्ठान में तो इस्राइल की सुरक्षा को लेकर कोई खास मतभेद नहीं है। इसलिए अमेरिका और इस्राइल का विरोध केवल ईरान द्वारा नाभिकीय हथियार विकसित करने को लेकर नहीं है बल्कि वे ईरान के पास इस तरह की क्षमता होने को भी स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। दरअसल ईरान जिस नाभिकीय प्रोद्योगिकी का विकास कर रहा है उसका इस्तेमाल बिजली और हथियार दोनों को बनाने के लिए किया जा सकता है।
इस्राइल के अस्तित्व को लेकर ईरान के रुख के कारण इस्राइल का चिंतित होना स्वाभाविक है। इस्राइल की शिकायत है कि ईरान को रोकने के लिए अमेरिका उतने प्रयास नहीं कर रहा जितने करने की जरुरत है। एक समय तो इस्राइल ने ईरान के नाभिकीय प्रतिष्ठानों पर हमला करने की योजना को अंतिम रूप दे दिया था और इसके लिए बहुत बड़ा सैनिक अभ्यास किया था। तब कयास लगाए जा रहे थे कि अमेरिका चुनाव के पहले ही इस्राइल ईरान पर हमला बोल देगा क्योकि इसके बाद अमेरिकी प्रशासन का रुख और परिस्थितियां इसके लिए अनुरुप नहीं होंगी। लेकिन बुश प्रशासन ने इस्राइल को हरी झंड़ी नहीं दी। ओबामा के सत्ता में आने के बाद निश्चय ही इस वक्त ईरान पर सैनिक आक्रमण का विकल्प बेहद सीमित हो चुका है लेकिन खत्म भी नहीं हुआ है। इस्राइल को लेकर ईरान के रुख में खास परिवर्तन नहीं आ रहा है। इस्राइल इतना छोटा देश है कि इसे ध्वस्त करने के लिए एक ही नाभिकीय बम काफी है और इस स्थिति में इस्राइल के स्वयं अपने नाभिकीय हथियार बेमानी हो जाते हैं। ईरान जैसे देश के नाभिकीय हथियार विकसित करने की क्षमता हासिल करने से ही इस्राइल में ऐसी असुरक्षा का माहौल पैदा हो सकता है कि वहां से मानव और आर्थिक संसाधनों के पलायन की प्रक्रिया शुरु हो सकती है। ऐसे में सवाल यह पैदा होता है कि अमेरिका कैसे और किस हद तक इस्राइल की इन सुरक्षा चिंताओं को संबोधित करे और साथ ही कैसे उन उद्देश्यो का निर्धारण करे जिन्हें वह ईरान के साथ बातचीत से हासिल करना चाहता है।
हाल ही में ओबामा प्रशासन ने ईरान के चुनाव के दौरान हस्तक्षेप न कर सकारात्मक संदेश दिया है। पूरी इस्लामिक दुनिया का इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है कि जब जब भी अमेरिका ने हस्तक्षेप किया उदार लोकतांत्रिक ताकतें कमजोर हुई और धार्मिक कट्टरपंथ को ताकत मिली। विदेशी हस्तक्षेप की स्थिति में चाहे कैसी भी सरकार हो उसे राष्ट्रवाद के उफान से ताकत मिलती है। ईरान पर आर्थिक प्रतिबंध लगाकर इरान के लोगों की तकलीफों को बढाकर अहमदीनेजाद के खिलाफ विद्रोह भड़काने का तर्क भी निहायत ही दोषपूर्ण है।
ईरान के मसले पर रुस की भूमिका अहम है। रुस से ही ईरान को नाभिकीय आपूर्ति होती है। रूस का रुख ईरान के प्रति अनुकूल रहा है इसका कारण रुस की अपनी सुरक्षा चिंताएं हैं। यूरोप में नाभिकीय सुरक्षा कवच की अमेरिकी रणनीति को रूस अपने लिए सबसे गंभीर खतरा मानता था। ओबामा ने इस कवच को हटाकर रुस को एक हद तक आश्वस्त किया है और इसका एक कारण ईरान को लेकर रुस का समर्थन जुटाना भी है। रुस के समर्थन से ऐसा कोई रास्ता निकाला जा सकता है कि ईरान को होने वाली नाभिकीय आपूर्ति का इस्तेमाल हथियार बनाने के लिए न किया जा सके। ईरान के मसले को नाभिकीय प्रोद्योगिकी की बारीकियों की दृष्टि से कहीं अधिक राजनीतिक रुप से देखने की जरुरत है। इस मसले का समाधान यहां-वहां निरीक्षण करने और न कर देने में निहित नहीं है। यह मसला दोनों पक्षों के बीच समाये गहरे अविश्वास का है इसलिए इस मसले का समाधान राजनीतिक पटल पर ही हो सकता है। निश्चय ही यह खाई इतनी गहरी और इतनी चौड़ी है कि इस पर पुल बनाने के लिए असाधारण प्रयासों की जरुरत है।
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