नवनीत गुर्जर
जयपुर हैरत में है। दहशत दहाड़ रही है और अफसरों, सरकारों, कंपनियों की लापरवाही अट्टहास कर रही है। दरअसल, सरकार और नौकरशाही जब बड़ी कंपनियों के खतरों को शहर के बीचों-बीच बसाने के लिए बेजा लालायित होती हैं तो इसके विध्वंसक नतीजों के मूकदर्शक बने रहने के अलावा कोई चारा नहीं रह जाता।
माना कि यह ऑयल टर्मिनल जब सीतापुरा में लगा तब वहां कोई आबादी नहीं थीं, लेकिन 20 साल बाद का मास्टर प्लान बनाने वाले शिल्पकार क्या कर रहे थे? हर पांच साल में नए रूप में आने वाली सरकारों को क्यों नहीं सूझा कि वे नया जयपुर बसाने से पहले पुराने शहर की नम आंखों को भी देख लें! दरअसल आज के हालात में कोई अफसर, कोई नेता, कोई सरकार हमारे लिए कुछ नहीं कर पाएंगे। हमें यानी शहरवासियों को ही इन खतरों को बसने से पहले उखाड़ फेंकना होगा।
..और जो पहले से खतरा बने हुए हैं, उनके खिलाफ आंदोलन छेड़कर हटने पर मजबूर करना होगा। दो दिन हो गए। हमारे शहर में सूरज घबराते हुए रोशनी की खिड़की खोलता है और धुएं का गुबार देख अंधेरे की सीढ़ियां उतरने लगता है। अंबर निढाल-सा धुंध का हुक्का पी रहा है। खाली कराए गए इलाके के लोगों के मुंह पर निवाला नहीं, उसकी बातें भर रह गई और रातें काली चीलों की तरह आसमान पर उड़ रही हैं।
काले राक्षसों की तरह दिन-रात जो धुआं हमारे आकाश में घुल रहा है, वह शहर की कितनी सांसों को दूषित कर गया, इसकी तो इन जिम्मेदार नेताओं, अफसरों के पास गिनती भी नहीं है। इलाके के लोग ही नहीं, पेड़-पौधे और घायल अट्टालिकाएं भी बदन चुराते हुए सवाल कर रही हैं कि आखिर हम यहां क्यों हैं?..और हमारा होना अगर सही है तो यह ऑयल टर्मिनल हमारे सिर पर अट्टहास क्यों कर रहा है?
निश्चित ही जयपुरवासियों को भी यही सवाल तमाम जिम्मेदारों से करना चाहिए कि आखिर इस तरह हमारे दिन के आंगन में कब तक रातें उतरती रहेंगी? स्याह इतिहास के गालों से कौन आंसू पोंछेगा? आखिर ऑयल चोरी के दागदार लोग अपने टैंकों के खराब वॉल्व से हमारी जिंदगी, हमारा भविष्य काला करने वाले होते कौन हैं?
लेखक दैनिक भास्कर राजस्थान के स्टेट हेड हैं।
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