Wednesday, October 14, 2009

इस्लामी दुनिया में लोकतांत्रिक प्रक्रिया से परहेज क्यों?

सुभाष धूलिया

अमेरिका पर आतंकवादी हमलों के उपरांत पूरे विश्व की राजनीति बदल गई और आज बदलाव की यह प्रक्रिया दलदल में फंसी है और दिशाहीनता का शिकार नजर आती है। आतंकवाद के खिलाफ अमेरिका द्वारा छेड़े गये वैश्विक युद्ध अपने कोई भी घोषित उद्देश्य पूरा नहीं कर पाये। अफगानिस्तान और इराक पर विजय हासिल करना अमेरिकी सैनिक शक्ति के लिए कभी मुश्किल नहीं था लेकिन अब आज इन पर नियंत्रण बनाये रखना और किसी भी तरह स्थायित्व पैदा करने का कोई भी प्रयास सफल होता नजर नहीं आ रहा। दरअसल इन देशों में अमेरिकी कब्जे का प्रतिरोध का मूल्यांकन ही दोषपूर्ण है। इराक और अफगानिस्तान में अमेरिका और उसके सहयोगियों पर हमले करने वालों में इस्लामी आतंकवादियों के अलावा वे राष्ट्रवादी भी शामिल हैं जो देश में विदेशी आधिपत्य के खिलाफ लड़ रहे हैं। और इस राष्ट्रवादी धारा के साथ संवाद का रास्ता निकाले बिना इन युद्धों का स्वरुप अंतहीन ही बना रहेगा।

इससे कोई भी फर्क नहीं पड़ता कि राष्ट्रपति ओबामा 'आतंकवाद के खिलाफ युद्ध' की शब्दावली के स्थान पर भले ही 'हिंसक इस्लामी उग्रवाद के खिलाफ संघर्ष' का प्रयोग कर रहे हैं लेकिन धरातल की वास्तविकता में इस शब्दावली के परिवर्तन से कोई खास अंतर नहीं आया है। बुश प्रशासन पर हावी नव-अनुदारवादियों की विश्व भर में 'उदार और लोकतांत्रितक' अमेरिकी आधिपत्य का अभियान इराक और अफगानिस्तान के दलदल में फंस गया है और अगर इस इसी रूप में ये अभियान जारी रखा गया तो यही दलदल कब्रिस्तान भी बन सकता है।

ओबामा प्रशासन भले ही विश्व विजय की नव-अनुदारवादी धारा से हटते प्रतीत होते हों लेकिन फिर भी वे उस दिशा को बदल देने में सक्षम दिखाई नहीं पड़ते जिस पर अमेरिका बहुत आगे बढ़ चुका है। इसी कारण ओबाना प्रशासन अफगानिस्तान में किसी भी राजनीतिक पहल के लिए सक्षम नहीं हैं और वहां और सैनिक भेजकर सैनिक अभियान को तेज कर रहे हैं।

अमेरिका में आतंकवादी हमलों के उपरांत अमेरिका की विदेश और घरेलू नीतियों में एसे परिवर्तन किये गये कि अमेरिकी प्रशासन दुनियाभर में स्वछंद रुप से सैनिक अभियान चला सके। इसीलिए आज भी ये सवाल उठाये जाते हैं कि क्या 9/11हमले अफगानिस्तान की किसी गुफा से बिन लादेन ने संचालित किये थे? कैसे अमेरिकी खुफियातंत्र को इतने बड़े हमले की योजना की भनक तक नहीं चली? क्यों अनेक विदेशी खुफिया एजेंसियों द्वारा अमेरिकी पर किसी बड़े आतंकवादी हमले की चेतावनी को अनदेखा किया गया? आज तक 9/11 हमलों के बारे में की गयी तमाम जाचें किसी भी तार्किक निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पायी हैं और इस कारण 9/11 हमले किसने किये और क्या किसी ने होने दिये? इस बात को लेकर संदेह बने रहे हैं। लेकिन तमाम संदेहों के बावजूद यह तो सच ही है कि अमेरिका पर ये हमले इस्लामी आतंकवादियों ने किए थे और इसके जवाब में अमेरिका के पास सैनिक कार्रवाई के अलावा कोई विकल्प नहीं था। निश्चय ही इस्लाम की एक धारा में हिंसक अमेरिका विरोध भरा पड़ा है लेकिन इस आईने से पूरी इस्लामी दुनिया को देखना एक ऐतिहासिक भूल होगी

आज सवाल यह उठ रहा कि आतंकवाद के खिलाफ सैनिक अभियान छेड़े जाने पर इसका समग्र रूप से विश्लेषण क्यों नहीं किया गया था और जिस स्थिति में सैनिक अभियान के प्रभावी होने पर संदेह पैदा हो रहे थे तभी इसका मूल्यांकन करके नई रणनीति क्यों नहीं बनायी गयी। आज स्वयं अफगानिस्तान में सैनिक कमांडर मौजूदा रणनीति के सफल होने पर संदेह व्यक्त कर रहे हैं। ऐसे में 'इस्लामी आतंकवाद' या 'हिसंक धार्मिक उग्रवाद' के खिलाफ सैनिक अभियान के क्या विकल्प अमेरिका के पास बचे हुए हैं? राजनीतिक प्रक्रिया शुरु करने के लिए हाल ही में अफगानिस्तान और इससे पहले इराक में किए गए चुनावों में कहीं से भी किसी लोकतांत्रिक तत्व उपस्थित नहीं थे। जाहिर है कि विदेशी आधिपत्य में कोई भी लोकतांत्रिक चुनाव नहीं हो सकते और भला कोई भी ऐसा चुनाव लोकतांत्रिक कैसे हो सकता है जिसमें ऐसी कोई राजनीतिक पार्टी या नेता चुनाव न लड़ रहा हो जो विदेश आधिपत्य को खत्म करने का पक्षधर हो। सच तो ये है कि इन चुनावों से राजनीतिक प्रक्रिया को नुकसान ही अधिक पहुंचा है।

आज आतंकवाद के खिलाफ अमेरिका के सैनिक अभियान को 8 वर्ष पूरे हो चुके हैं। इन 8 वर्षों में सफलता पाना तो दूर,सफलता को पारिभाषित करना भी दिनों दिन जटिल होता जा रहा है। ओबामा ने मिस्र की राजधानी काहिरा में एक अभिभाषण में इस्लामी दुनिया को साथ आने का न्यौता दिया था और इसके दिल में जगह बनाने की कोशिश की था। पर इसका कोई भी परिणाम आना अभी बाकी है।
अमेरिका एक बेमिसाल सैनिक, आर्थिक और सांस्कृतिक ताकत है। बुश प्रशासन ने अमेरिका को सैनिक ताकत की ओर अधिकाधिक उन्मुख कर दिया था लेकिन आज यह स्पष्ट होता जा रहा है कि किसी तात्कालिक स्थिति में भले ही सैनिक ताकत की केन्द्रीय भूमिका हो लेकिन दार्घकाल में राजनीतिक प्रक्रिया के बिना कोई भी उद्धेश्य पूरा नहीं किया जा सकता। 9/11 हमलों के उपरांत बुश प्रशासन के सैनिक अभियान को अमेरिका में ही नहीं पूरी दुनिया में भरपूर समर्थन मिला था लेकिन आक्रोश की स्थिति को हमेशा नहीं बनाये रखा जा सकता और सैनिक अभियान के समर्थन को भी लंबे समय तक खींचना संभव नहीं होता। यह समझना मुश्किल है कि अमेरिकी प्रशासन इस बात का आकलन क्यों नहीं कर रहा है कि आज अमेरिका को आतंकवाद से कितना खतरा है और क्या यह खतरा इतने बड़े सैनिक अभियान के औचित्य को साबित करता है? क्या अमेरिकी सैनिक अभियान से आतंकवादी संगठनों की कमर नहीं टूट चुकी है? और क्या आज 9/11 जैसे हमले करना अब भी संभव रह गया है ?

मौजूदा परिस्थितियों में कहीं ना कहीं कोई बड़ा परिवर्तन करना आवश्यक है। अगर अमेरिका को अपनी बेमिसाल सैनिक ताकत के पतन को रोकना है तो दुनिया पर सैनिक आधिपत्य कायम करने के बजाय इसे लोकतांत्रिक विश्व व्यवस्था की ओर उन्मुख होना पड़ेगा। अमेरिका को इस्लामी दुनिया में भी ऐसी सरकारों के साथ जीना सीखना होगा जो अमेरिका विरोधी हों लेकिन अमेरिका के लिए कोई खतरा न पैदा करती हों। दुनिया भर में ऐसी अनेक सरकारें हैं जो अमेरिका-विरोधी है तो फिर इस्लामी दुनिया में इस तरह की राजनीतिक प्रकिया से परहेज क्यों?

2 comments:

Mohammed Umar Kairanvi said...

बडे लोगों से बडा सवाल है, उन्‍हीं को जवाब देना चाहिये, हम तो यह कह कि चलते बनते हैं कि आप अच्‍छा लिखते है, इशारों में वार नहीं कर रहे ऐसा एक नजर में लगा, धन्‍यवाद बच्‍चों का यहां क्‍या काम

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

सही सवाल उठाया है.