Sunday, July 27, 2008

अमर उजाला में लोकशाही....


किस कीमत पर सरकार!

इस बिकाऊ सांसदों ने मनमोहन ¨सह की सरकार और अमेरिका के साथ होने वाला परमाणु करार दोनों को बचा लिया। मनमोहन ¨सह ने 21 जुलाई को जब लोकसभा में विश्वास मत का प्रस्ताव पेश किया तो उनकी छवि एक एेसे बेदाग प्रधानमंत्री की थी जिसे देश हित में एक अंतरराष्ट्रीय करार करने से रोका जा रहा था। सरकार के विश्वास मत हासिल करने के फैसले के दिन से 22 जुलाई को विश्वास मत जीतने तक जो कुछ हुआ उसके दो पहलू हैं।

एक लोकतंत्र और संसदीय व्यवस्था से जुड़ा है और दूसरा व्यावहारिक राजनीति के तकाजों और विचारधारा की राजनीति के टकराव का है। देश में बुद्धिजीवियों का एक अच्छा खासा वर्ग है जो मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव प्रकाश करात से नाराज है। उसे लगता है कि करात ने अपने निजी अहम की संतुष्टि के लिए सरकार से समर्थन वापस लिया। संसद में बाइस जुलाई को दृश्य नजर आया वह शर्मनाक था पर प्रकाश करात के बारे देश के प्रबुद्ध वर्ग की यह राय चिंतित करने वाली है।

राजनीतिक दलों ने तो विचारधारा को बहुत पहले तिलांजलि दे दी थी। आज के राजनीतिक दलों और राजनीतिज्ञों की एक ही विचारधारा है चुनाव जीतो और सत्ता हासिल करो। ऐसी सोच के पीछे राजनेताओं के अपने निहित स्वार्थ हैं। पर जब देश का प्रबुद्ध वर्ग भी एेसा ही सोचने लगे तो मानना चाहिए कि समस्या राजनीति तक ही सीमित नहीं है। कांग्रेस ने तो आजादी के बाद ही इस गुरुमंत्र को समझ लिया था। यहअलग बात है कि अमल में लाने में उसे समय लगा।

समाजवादी पार्टी के विघटन और फिर विलोपन के बाद जनसंघ अब भारतीय जनता पार्टी और वामदल विचारधारा वाले राजनीतिक दल और समूह रह गए थे। विचारधारा से बिना डिगे संसदीय और सत्ता की राजनीति करना कठिन काम है। यह बहुत धीमा और धैर्य वाला रास्ता है। इस रास्ते पर चलने के लिए कदम -कदम पर सत्ता के लालच को लगातार नकारना पड़ता है। सत्ता को अपनाना जितना आसान है नकारना उतना ही कठिन।

यह महज इत्तफाक ही है कि 1996 में माकपा ने देश के सर्वोच्च प्रशासनिक पद को लेने से इनकार कर दिया। यह आसान फैसला नहीं था। बाद में ज्योति बसु ने इसे ऐतहासिक भूल कहा पर माकपा उनके इस विचार से न तब सहमत थी और न अब है। 1996 में ही भाजपा की तेरह दिन की सरकार बनी। अटल बिहारी वाजपेयी तेरह दिन तक इंतजार करते रहे लेकिन कोई दल उनकी सरकार को समर्थन देने आगे नहीं आया। सरकार गिरने के बाद लाल कृष्ण आडवाणी ने कहा कि विचारधारा की राजनीति की अपनी सीमाएं होती हैं। एक स्थिति के बाद आप संसदीय राजनीति में विचारधारा के आधार पर आगे नहीं बढ़ सकते।

1998 में भाजपा ने अपनी विचारधारा से समझौता किया और पहली बार कें्र में सत्ता हासिल करने में कामयाब हो गई। भौतिकतावाद, भूमंडलीकरण सत्ता को सब कुछ मानने के दौर में विचारधारा और सिद्धांत की बात करने वालों को पुरातनपंथी और नासमझ माना जाता है। प्रकाश करात के साथ वही हो रहा है। वह जमाने के साथ बदलने को तैयार नहीं हैं, क्योंकि वे सत्ता को ही साध्य मानने को तैयार नहीं हैं। ऐसे समय में जब राजनेताओं और बुद्धिजीवियों के सोचने के तरीके में फर्क न रह गया हो प्रकाश करात जसे लोगों का तिरस्कार तो होना ही चाहिए। इस विश्वास मत का दूसरा पहलू सांसदों की खरीद-फरोख्त का है।

1950 में देश का संविधान बनने के बाद से अब तक कुल दस बार अविश्वास या विश्वास प्रस्ताव संसद में आया है। पहला अविश्वास प्रस्ताव 1963 में जवाहर लाल नेहरू की सरकार के विरोध में आया था। तब उन्होंने कहा था कि यह अच्छी परम्परा है। इससे सरकार को पता चलता है कि उसकी खामियां क्या हैं और देश के लोगों को पता चलता है कि सरकार ने क्या काम किया है। दसवां विश्वास प्रस्ताव मनमोहन ¨सह ने पेश किया और उसे अनावश्यक व्यवधान बताया।

1993 में पीवी नरसिंह राव की सरकार के खिलाफ अविस्वास प्रस्ताव आया था। इन दस प्रस्तावों में से केवल दो मौकों पर सांसदों की खरीद-फरोख्त हुई। दोनों ही मौकों पर कांग्रेस की सरकार थी। इसके अलावा किसी मौके पर सांसदों की खरीद- फरोख्त की चर्चा तक नहीं हुई। 1993 का झारखंड मुक्ति मोर्चा कांड सुप्रीम कोर्ट तक गया। देश की सर्वोच्च अदालत ने यह तो माना कि सांसदों को खरीदने के लिए पैसा दिया गया। उसने पैसा देने वालों को तो दोषी माना पर लेने वालों को नहीं। क्योंकि पैसे लेने वालों ने वोट देने का काम सदन में किया इसलिए उनके खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई नहीं की जा सकती।

हमने 1993 के झामुमो कांड को नजरअंदाज किया इसलिए 22 जुलाई 2008 को भारतीय संसद और लोकतंत्र पूरी दुनिया के सामने शर्मसार हुआ। लोकतंत्र को जीवित रखना है तो सबकी जिम्मेदारी है कि 22 जुलाई 2008 नजरअंदाज न होने पाए।

प्रदीप सिंह

Friday, July 25, 2008

इस जीत के बाद!

विश्वास मत की बहस और विवाद की धूल जमने के साथ ही राजनीतिक दलों ने अब अपने घरों की सुध लेना शुरू कर दिया है। विपक्ष ने अपने बागी सांसदों को पार्टी से निकाल दिया। सरकार ने विश्वास मत के लिए समर्थन के समय किए वायदे पूरे करने का काम शुरू कर दिया है।

सबसे पहले सबसे अहम सहयोगी द्रविड़ मुनेत्र कषगम की मांग पूरा करने के लिए सेतु सम्रुम पर सुप्रीम कोर्ट में एक नई बात कही कि राम ने ही सेतु तोड़ दिया था। सरकार का यह दावा विश्वास मत के बाद से मूर्छित पड़ी भाजपा को ताजा हवा के झोंके के समान लगा होगा। संसद में बहस के समय जो राजनीतिक ध्रुवीकरण नजर आया मोटे तौर पर उसके अगले लोकसभा चुनाव तक जारी रहने की संभावना है। विश्वास मत में भले ही कांग्रेस और उसके सहयोगी दल जीते हों पर उसका परोक्ष लाभ विपक्ष को भी हुआ है।

सरकार के लिए इस जीत ने संभावना और संकट दोनों के द्वार खोल दिए हैं। एक बात तय मानना चाहिए कि अब चुनाव अपने नियत समय पर होंगे। सरकार के पास अगले नौ महीने मतदाता को लुभाने के लिए हैं। विधानसभा चुनावों में लगातार हार से कांग्रेस के कार्यकर्ताओं में आई निराशा इस जीत से छंटेगी। पार्टी नए उत्साह के साथ एक बार फिर जुटेगी।

कांग्रेस के लिए संकट उसके सहयोगी पैदा करेंगे। चुनाव के नजरिए से अब हर घटक अपनी जायज- नाजायज मांगे पूरी करवाने के लिए दबाव डालेगा। द्रमुक ने इसकी शुरुआत कर दी है। सरकार की नई सहयोगी समाजवादी पार्टी के लिए असली चुनावी रण क्षेत्र उत्तर प्रदेश है और लक्ष्य मायावती का राजनीतिक मानमर्दन है। जसे विश्वास मत में समाजवादी पार्टी ने हर तरह के हथकंडे अपनाने में कोई संकोच नहीं किया। वैसे ही वे चाहेंगे कि केंद्र सरकार की ताकत का हर तरह इस्तेमाल मायावती और बहुजन समाज पार्टी को घेरने में हो। इसके लिए समाजवादी पार्टी कुछ दिनों में केंद्रीय गृह मंत्रालय की मांग करे तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

विश्वास मत में विपक्ष की हार ने मुख्य विपक्षी दल भाजपा को अपने घाव सहलाने का समय दे दिया है। सत्तारूढ़ गठबंधन ने सबसे ज्यादा सेंध भाजपा के ही घर में लगाई। कांग्रेस का विकल्प होने का दावा करने वाली भाजपा को पता ही नहीं था कि उसके अपने घर में क्या हो रहा है। कर्नाटक जहां अभी दो महीने पहले वह विधानसभा चुनाव जीती है वहां से भी तीन सांसद पार्टी का साथ छोड़ गए। मान लीजिए कि सरकार विश्वास मत हार जाती तो क्या होता। उस हालत में मायावती, वामदल यूएनपीए और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सबके निशाने पर भाजपा होती।

हार ने भाजपा को इस हमले से बचा लिया। पार्टी में एेसे लोगों की कमी नहीं है जो सरकार के जीतने से खुश हैं। उनका मानना है कि इससे आडवाणी कमजोर हुए हैं। अब जिस पार्टी में अंदर ही एेसी सोच हो वह क्या तो विकल्प बनेगी और क्या संघर्ष में उतरेगी। दरअसल भाजपा अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व की कमी से अभी तक उबर नहीं पाई है।

आडवाणी को पार्टी ने प्रधानमंत्री पद का दावेदार भले ही घोषित कर दिया हो पर वे पार्टी के स्वाभाविक और निर्विवाद नेता नहीं बन पाए हैं। भाजपा में एक वर्ग ऐसा भी है जो मानता है कि आडवाणी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने से फायदे की बजाय नुक्सान हुआ है। ऐसे लोगों का मानना है कि वाजपेयी के लौटने का भ्रम बनाए रखना फायदेमंद होता। इस बात को हाल में हुए कर्नाटक विधानसभा के चुनाव में बड़ी शिद्दत से महसूस किया गया। पूरे प्रदेश से वाजपेयी के कार्यक्रम की मांग हो रही थी। पूरे विश्वास मत के दौरान भाजपा दरअसल कहीं भी कांग्रेस से लड़ती नजर नहीं आई तो इस वजह से कि अभी उसके अंदर ही संघर्ष चल रहा है।विश्वास मत के लिए चली राजनीति का सबसे ज्यादा फायदा मिला है बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती को।

राजनीतिक रूप से अछूत बनी मायावती और उनकी पार्टी न केवल राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में आ गई बल्कि वे प्रधानमंत्री पद की दावेदार भी बन गईं। सत्रह सांसद लेकर सात दिन में उनका कद एक सौ तीस सांसदों की पार्टी के नेता आडवाणी से बड़ा नजर आने लगा। पिछले चार साल से जिस तीसरे मोर्चे की बात हो रही थी, वह आकार लेने लगा। मुलायम ¨सह यादव के इस मोर्चे में रहते वामदलों के बावजूद यह मोर्चा क्षेत्रीय ताकतों का मंच नजर आता था।

मायावती के आने से अचानक उसकी राष्ट्रीय छवि नजर आने लगी। इसलिए कि मुलायम सिंह यादव की बनिस्पत मायावती मोर्चे में शामिल सभी दलों के वोट बैंक में कुछ जोड़ने की हैसियत रखती हैं। इसलिए मायावती कांग्रेस के जनाधार के लिए खतरा हैं और भाजपा के नेतृत्व के लिए। प्रकाश करात को इन दोनों से लड़ना है। इसलिए वामदल मायावती के साथ हैं। यह सैद्धांतिक हठवादिता की राजनीति और व्यवहारिक राजनीति का गठजोड़ है।


प्रदीप सिंह

Sunday, July 20, 2008

तीसरे विश्वयुद्ध की दस्तक

मध्यपूर्व में युद्ध के बादल

मध्यपूर्व में क्या तीसरा महायुद्ध छिड़ने जा रहा है ? क्या ईरान पर इस्राइल-अमेरिका आक्रमण करने जा रहे हैं या यह सिर्फ दवाब डालने के हथकंड़े भर हैं ? आज वास्तविकता ये है कि इस्राइल किसी भी कीमत पर ईरान को यूरेनियम संवर्धन की क्षमता विकसित नहीं करने देगा जिसका इस्तेमाल बिजली और नाभिकीय हथियार दोनों को बनाने के लिए किया जा सकता है। ईरान बिजली बनाने के लिए इस क्षमता को विकसित करने के अपने अधिकार का समर्पण करेगा ये भी उम्मीद नहीं की जा। ईरान को एक क्षेत्रीय महाशक्ति के रूप में उभरने से रोकना अमेरिका और इस्राइल की उस रणनीति का हिस्सा है जिसके तहत इराक-अफगानिस्तान में युद्ध लड़े जा रहे हैं और मध्यपूर्व में सैनिक अड्डों की भरीपूरी श्रृंखला कायम की गयी है

इस्राइल ने पिछले दिनों एक बहुत बड़ा सैनिक अभ्यास किया जिसमें 100 से भी अधिक लड़ाकू विमानों ने भाग लिया जिसका मकसद 1400 किलोमीटर की दूरा पर बड़ा हमला करना था। इस्राइल से ईरानी नाभिकीय प्रतिष्ठान भी इतनी ही दूर हैं। इसके बदले में ईरान ने कई मिसाइलों का परीक्षण किया जो इस्राइल तक मारने की क्षमता रखती हैं। इस्राइल हालांकि स्वीकार नहीं करता पर ये सर्वविधित है कि इस्राइल के पास 100 से अधिक नाभिकीय बम है। लेकिन इस्राइल ईरान जैसे देश को नाभिकीय हथियार विकसित नहीं करने देगा जो इसके अस्तित्व को ही नहीं स्वीकार करता।

अमेरिकी प्रशासन के एक हल्के में में मानना है कि ईरान पर आक्रमण के विनाशकारी परिणाम होंगे जो द्वितीय विश्व युद्ध के विनाश को भी बौना कर देंगे इसलिए राजनयिक तरीकों से ही ईरान को रोका जाना चाहिए। दूसरी और बुश प्रशासन का एक प्रभावशाली तबके का मानना है कि ईरान को राजनयिक तरीकों से राजी करने के सारे राजनयिक प्रयास विफल हो चुके हैं और अब युद्ध ही एकमात्र विकल्प है। राष्ट्रपति बुश के हाल ही के बयानों से स्पष्ट है कि वो आक्रमण के विकल्प की ओर झुक रहे हैं। अमेरिका की सभी खुफिया एजेंसियों का आकलन है कि ईरान नाभिकीय हथियार बनाने के कार्यक्रम का 2003 में ही परित्याग कर चुका है लेकिन अमेरिका का राजनीतिक नेतृत्व इसे स्वीकार नहीं करता और उसका मानना है कि यूरोनियम संवंर्धन की क्षमता ही नाभिकीय हथियार बनाए जा सकते हैं।

ईरान के पास नाभिकीय हथियारों होने भर से ही सत्ता समीकरण बदल जाएंगे। नाभिकीय ईरान के उदय से तेल-संपंन्न मध्यपुर्व पर नियत्रंण कायम करने का अमेरिका का सपना पूरा नहीं हो पाएगा।ईरान एक नाभिकीय हथियारों के साथ-साथ अपने अकूत तेल संसाधनों के बल पर एक बड़ी क्षेत्रीय महाशक्ति बन जाएगा। नाभिकीय ईरान इस्राइल के लिए केवल सैनिक खतरा ही नहीं बल्कि अनेक तरह के संकट पैदा करेगा। इस्राइल इतना छोटा देश है कि इसके अस्तित्व को मिटाने के लिए एक ही बम काफी है। नाभिकीय ीरान के उदय के बाद इस्राइल मध्यपूर्व में सैनिक कार्रवाइयों के लिए उतना स्वच्छंद नहीं रह पाएगा जितना अबतक रहा है । नाभिकीय ईरान मध्यपूर्व में इस्राइल विरोधी तमाम इस्लामी और कट्टरवादी ताकतों के संगठित होने का केन्द्र बन जाएगा। इस्राइल के अस्तित्व को पैदा होने वाले खतरे से हर तरह के संसाधनों का पलायन शुरु हो जाएगा और इस्राइल का संपंन्न तबका भी अधिक सुरक्षित स्थानों की ओर कूच कर सकता है। इस स्थिति में सैनिक ताकत के बल पर भी इस्राइल को जर्जर होने से रोकना मुश्किल होगा .

सैनिक रूप से इस्राइल के लिए ईरान के नाभिकीय प्रतिष्ठानों को ध्वस्त करना उतना आसान नहीं होगा जो उसने 1981 में इराक और पिछले सितंबर में सीरिया में किया था। लेकिन इस्राइली नेतृत्व का मानना है कि ईरान को नाभिकीय क्षमता हासिल करने से रोकने के लिए कुछ तो जोखिम उठाना ही होगा। अब चाहे आक्रमण इस्राइल करे या वो अमेरिका के सा ख मिलकर आक्रमण करे, ईरान दोनों ही स्थितियों में इस्राइल और खाड़ी में अमेरिकी सैनिक अड्डों, युद्धपोतों और इराक और अफहानिस्ता में अमेरिकी सैनाओं पर प्रति आक्रमण करेगा। ईरान ने होर्मुज जलडमरुमध्य को बी बंद करने की धमकी दी है जहां से विश्व की 40 प्रतिशत तेल की आपूर्ति होती है। अमेरिका ने चेतावनी दी है कि वो किसी भी कीमत पर इस सामरिक जलमार्ग को बंद नहीं होने देगा।

तेल संकट से जूझ रहे विश्व के लिए 40 प्रतिशत तेल आपूर्ति के बाधित होने से क्या असर पड़ेगा इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है फिर ईरान दुनिया का चौथा तेल उत्पादक देश है ऐसी स्थिति में क्या होगा इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि ईरान द्वारा मिसाइल परीक्षण करने पर तेल के दाम प्रति बैरल 135 से बढ़कर 140.6 डालर हो गए थे।

युद्ध के विनाशकारी परिणामों को सीमित करने के लिए अमेरिका और इस्राइल ऐसे आक्रमण की योजना बना रहे हैं जिससे ईरान की प्रतिआक्रमण की क्षमता को युद्ध के शुरुआती दौर में ही कुंद कर दिया जाए। इसके लिए एक बड़े आक्रमण की योजना बनाई जा रही है और ईरान के केवल नाभिकीय प्रतिष्ठानों को नहीं बल्कि तीन हजार से अधिक लक्ष्यों पर क्रूज मिसाइल से हमला किया जाएगा। यह बी कहा जा रहा कि ईरान के अतिसुरक्षित नाभिकीय प्रतिष्ठानों को ध्वस्त करने के लिए एक छोटे नाभिकीय बम का प्रयोग भी करना पड़ सकता है। इराक और अफगानिस्तान के अनुभव के बाद अमेरिका ईरान के युद्ध को चटपट खत्म करना चाहेगी और हां इसके लिए ईरान का इस हद तक विनाश जरूरी है कि वो जल्द उठ ना सके। इस पृष्ठभूमि में यही सवाल बचा नजर आता है कि आक्रमण कब होगा ? ईरान पर आक्रमण के मसले पर राष्ट्रपति बुश इस्राइल की सोच के सबसे ज्यादा करीब माने जाते हैं और अपना कार्यकाल खत्म होने से पहले ऐसा भी कुछ करना चाहते हैं कि उन्हें 'ऐतिहासिक' होने का दर्जा हासिल हो सके। अमेरिकी राष्ट्रपति पज के डेमोक्रेटिक उम्मीदवार ओबामा ईरान से सीधी बात के पक्षधर हैं और इस्राइल का ये बी मानना है कि रिपब्लिकन मैक्केन भी अगर राष्ट्रपति बनते हैं तो वो सत्ता संभालते ही ईरान पर आक्रमण का फैसला नहीं करेंगे। ऐसे में इस्राइल का मानना है कि ईरान को नाभिकीय क्षमता हासिल करने के लिए पर्याप्त समय मिल जाएगा। इसलिए ईरान पर आक्रमण के लिए सबसे उपयुक्त समय 4 नवंबर को मतदान और 20 जनवरी को अमेरिका में नए राष्ट्रपति के सत्तासीन होने के बीच का समय ही 'ऐतिहासिक मौका' है जब ईरान को ध्वस्त किया जा सकता है

इस पृष्ठभूमि में अगर युद्ध को रोकने का कोई भी रास्ता तैयार करना है तो इस्राइल,अमेरिका या अहमदीनेजाद के नेतृत्व वाले ईरान में से किसी ना किसी को तो झुकना ही होगा। लेकिन अब सवाल ये उठता कि जब हर पक्ष का इतना कुछ दांव पर लगा हुआ है तो झुकेगा कौन ?

सुभाष धूलिया

Monday, July 14, 2008

नए हमनवां की तलाश

भविष्यवाणी करना हमेशा से जोखिम भरा काम रहा है। बात राजनीतिक भविष्यवाणी की हो तो और भीर ज्यादा दुष्कर। किंतु एक पत्रकार के लिए राजनीतिक समीकरणों और इसके द्वारा होने वाले राजनीतिक परिवर्तनों की अनदेखी करना कर्म-धर्म से विरत होने जसा है।


अब जब आगामी लोकसभा चुनावों में अधिकतम आठ माह का समय बचा है, राजनीति के चौसर पर चली जाने वाली प्रत्तेक चाल का चुनावी महत्व होना लाजिमी है। ऐसे में राजनीतिक पार्टियों के पुराने संबंधों से नाते तोड़ने और नए हमनवां तलाश करने की कोशिशों को भविष्य के नफे- नुकसान से जोड़कर देखना जरूरी हो गया है।


कहते हैं कि दिल्ली का दरवाजा उत्तर प्रदेश से होकर गुजरता है। अस्सी लोकसभा सीटों वाले इस प्रदेश में मैदान मारने वाले के लिए राजधानी में केंद्रीय सत्ता का लाल गलीचा हमेशा स्वागतोच्छुक की भूमिका में खड़ा रहता है। नब्बे की राम लहर के बाद जाति के खाचों में बंट गए इस प्रदेश में देश के दो प्रमुख राजनीतिक दल (कांग्रेस और भाजपा) अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं।


ऐसे में सात रेस कोर्स का सफर तय करने के लिए इस प्रदेश में दोनों को क्षेत्रीय दलों की बैसाखियों की जरूरत है। प्रदेश की राजनीति बराबर की हैसियत रखने वाली और गुलाबो-सिताबो की तरह लड़ रही समाजवादी पार्टी और बहुजन समाजवादी पार्टी को भी एक दूसरे को पटखनी देने के लिए अतिरिक्त ‘ताकतज् का सहारा चाहिए। इस अतिरिक्त ताकत की तलाश में सपा ने एक माह पूर्व तक कट्टर दुश्मन कांग्रेस का दामन थामा तो अभी तक सपा को केंद्र के क्रोध से शेल्टर प्रदान कर रहे वामपंथियों ने बसपा के लिए छाता तान दिया है। दरअसल राजनीति में जरूरत की दोस्ती को देशहित का बाना पहनाने का शगल बेहद पुराना है।

देश हित के नाम पर सप्त क्रांति की अवधारणा वाले समाजवादियों ने इंदिरा विरोध के नाम पर कभी सांप्रदायिक (भारतीय) जनता पार्टी के साथ सरकार बनाई तो उन्हीं के अनुयाईयों (लालू प्रसाद यादव) ने सांप्रदायिकता को दर किनार करने के लिए एक बार फिर तथाकथित साम्राज्यवादी कांग्रेस के साथ समझौता कर लिया।


नेताओं के इस नए अवसरवादी देशहित ने भविष्य की राजनीतिक तस्वीर को साफ कर दिया है। तीसरे मोर्चे को तोड़ कर राजनीति को दो ध्रुवीय बनाने की कांग्रेसी कोशिशों को पलीता लग चुका है। देश भर में कांग्रेस की जड़ों में मठ्ठा घोल रही मायावती अब कांग्रेस के लिए औरा बड़ी मुसीबत साबित हो सकती हैं। अपने उपर केंद्रीय जांच ऐजेंसियों के हमले से तिलमिलाई मायावती वामदलों के साथ मिलकर कांग्रेस के खिलाफ एक बड़ा मोर्चा खड़ा कर सकती है।


देश के दलित वोटों पर उनकी पकड़ और प्रदेशों में टीडीपी, राकांपा, वामदलों का गठजोड़ कांग्रेस को राजनीतिक हाशिए पर भेज सकता है। खुद उत्तर प्रदेश में हालात बदल चुके हैं। करार को मुस्लिम विरोधी बता चुकी मायावती ने इस मामले पर जिस तरह से मुस्लिम धर्मगुरुओं को अपने पाले में खड़ा करने में सफलता पाई है वह बानगी भर है। माया की राजनीति पर करीबी नजर रखने वालों के मुताबिक ज्यादा से ज्यादा मुस्लिम उम्मीदवारों को खड़ा करने की उनकी रणनीति बुश व अमेरिका के खिलाफ गुस्से से भरे इस समाज को भाजपा को हरा सकने में सक्षम एक नए विकल्प के रूप में आकर्षित कर सकता है।


अमर सिंह के सपा में आने के बाद मुलायम के जमीन से कट जाने की सियासी हकीकत के बाद सपा का कैडर और प्रतिबद्ध मतदाता दोनों बिखराव के दौर से गुजर रहे हैं। ऐसे में सपा से कांग्रेस की यह दोस्ती कांग्रेस की बड़ी भूल भी साबित हो सकती है।

सीतेश ‌द्विवेदी

Sunday, July 13, 2008

अरे भाई ऐसी भी क्या जल्दी है!

प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह और उनकी सरकार परमाणु करार पर इतनी जल्दी में क्यों है। सरकार की मानें तो जार्ज बुश के राष्ट्रपति रहते करार न हुआ और बराक ओबामा राष्ट्रपति बन गए तो करार नहीं हो पाएगा। क्योंकि वे इसमें इतनी कड़ी शर्ते जोड़ देंगे कि भारत के लिए घाटे का करार हो जाएगा।


करार समर्थकों ने इसे मान लिया। सरकार ने प्रचार अभियान शुरू कर दिया है कि करार अभी नहीं किया तो इतिहास हमें माफ नहीं करेगा।

यह सही है कि ओबामा शुरू में करार के विरोध में थे। उनका मानना था कि यह करार भारत के पक्ष में है। पर ओबामा के एक साक्षात्कार ने पूरा परिदृश्य बदल दिया है। भारत की एक अंग्रेजी पत्रिका आउटलुक को दिए साक्षात्कार में ओबामा ने कहा कि वे असैनिक परमाणु करार को अमेरिका-भारत के सामरिक रिश्तों और भारत की ऊर्जा जरूरतों के नजरिए से संतुलित मानते हैं।

परमाणु करार के मुद्दे पर 22 जुलाई को सरकार का क्या होगा यह कहना मुश्किल है। पर अमेरिका के राष्ट्रपति के चुनाव के बारे में आप ज्योतिष के ज्ञान के बिना भी कह सकते हैं कि जॉन मैकेन और बराक ओबामा में से किसी एक का राष्ट्रपति चुना जाना तय है। मैकेन जार्ज बुश की रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार हैं। वे राष्ट्रपति बने तो अपनी ही पार्टी की सरकार के अंतरराष्ट्रीय समझौते से मुकर जाएंगे ऐसा मानने का कोई आधार नहीं है।

ओबामा करार के पक्ष में हैं ही। ऐसे में बुश के रहते यदि करार नहीं हो पाता तो भी करार खतरे में नहीं है। फिर सरकार इतनी जल्दी में क्यों है?

क्या प्रकाश करात का आरोप सही है कि मनमोहन सिंह को जार्ज बुश से किए वादे को पूरा करने की जल्दी है? या कांग्रेस महंगाई से ध्यान हटाने के लिए करार पर जोर आजमाइश करने के चक्कर में जल्दी में है। समाजवादी पार्टी को केंद्र में मदारी की भूमिका निभाने की जल्दी तो है ही उससे ज्यादा जल्दी उत्तर प्रदेश में मायावती को निपटाने की है।

इसके लिए केंद्र सरकार का साथ और सीबीआई दोनों की जरूरत है। इसके लिए उन्होंने गैर कांग्रेसवाद के नारे को दफन कर दिया। भारतीय जनता पार्टी को सत्ता में आने की जल्दी है। इसलिए सरकार गिरने या गिराने का कोई मौका वह छोड़ना नहीं चाहती। दो बार तो मुलायम सिंह यादव को प्रधानमंत्री बनाने का प्रस्ताव कर चुकी है।

पार्टी इंतजार कर भी ले तो लालकृष्ण आडवाणी के पास इंतजार के लिए समय नहीं है। अजित ¨सह एचडी देवगौड़ा, शीबू सोरेन और चंद्रशेखर राव के अलावा कई टुटपुंजिया नेताओं को बहती गंगा में डुबकी लगाने की जल्दी है। देश का मतदाता हैरान है कि पांच साल के लिए जिन्हें चुनकर भेजा वे पहले लौटने की जल्दी में क्यों हैं।

बस जल्दी में नहीं हैं तो वामदल। उन्होंने कांग्रेस को समझने और समझाने का पूरा मौका दिया। वामदलों ने सरकार से समर्थन वापस लिया इसकी बजाय यह कहना ज्यादा सही होगा कि कांग्रेस ने समर्थन वापस करवाया। वैसे अब वामदलों को भी जल्दी है-मनमोहन सिंह को भूतपूर्व बनवाने की।

प्रदीप सिंह

Saturday, July 12, 2008

बचे सरकार लेकिन कैसा है करार

अमेरिका के साथ हो रहा परमाणु करार देश हित में है या नहीं? इसके बारे में राजनीतिक दलों की राय जानकर आप किसी नतीजे पर पहुंचना चाहते हों तो निराशा हाथ लगेगी। हां, राजनीतिक दलों के बयानों से आप यह जरूर जान सकते हैं कि देश का कौन सा समुदाय या जाति करार से खुश होगी या नाराज। केंद्र की सरकार और सरकारी प्रतिष्ठानों के सारे वैज्ञानिक मिलकर वामदलों को नहीं समझा सके कि करार देश हित में है।


देश हित और धर्म निरपेक्षता की रक्षा में निकली समाजवादी पार्टी को अचानक इलहाम हुआ कि अभी तक तो वह करार को वामदलों के नजरिए से देख रही थी। सो उसने तय किया कि अब वह कांग्रेस के चश्मे से देखेगी कि करार में क्या है।


देश के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार सपा नेताओं को समझाने गए कि करार क्यों ठीक है। सपा नेताओं ने कहा बात नहीं बनी। प्रधानमंत्री बताएं। प्रधानमंत्री ने आनन फानन में तीन पेज का बयान जारी कर दिया। तब समाजवादी पार्टी के नेताओं को याद आया कि उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने कहा था कि देश का मुसलमान परमाणु करार के खिलाफ है। इसलिए यूएनपीए की बैठक में तय हुआ कि देश के सबसे बड़े वैज्ञानिक से पूछ कर तय करेंगे कि करार का समर्थन करें या नहीं।


वैज्ञानिक का मुसलमान होना जरूरी था इसलिए यूएनपीए के नेता पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के पास पहुंचे। सारा देश जानता है कि कलाम करार के पक्ष में हैं। सिर्फ यूएनपीए के नेताओं को पता नहीं था।


समाजवादी पार्टी कह रही है कि साम्प्रदायिकता करार से भी ज्यादा बुरी है। इससे आप क्या समझॊ? क्या दोनों बुरे हैं? अब जरा दूसरे दलों पर नजर डालिए।


वामदल करार के व्यवहारिक ही नहीं सैद्धांतिक रूप से भी खिलाफ हैं यह बात आप हम सब पहले दिन से जानते हैं पर कांग्रेस मानने को तैयार नहीं थी। इसी तरह सबको पता था और प्रधानमंत्री बार बार कह रहे थे कि हम करार पर आगे बढ़ेंगे। पर वामदलों को नहीं पता था कि सरकार ऐसा करेगी।


देश का विपक्षी दल यानी भाजपा करार के पक्ष में है भी और नहीं भी। पहले ऐसी भाषा उसके नेता अटल बिहारी वाजपेयी बोलते थे अब पूरी पार्टी बोल रही है। कभी करार को देश हित के विरोध में बताते हैं कभी कहते हैं कि कांग्रेस ने हमसे बात की नहीं?
यानी बात करती तो करार का समर्थन करते?


भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार लाल कृष्ण आडवाणी कहते हैं कि वे करार के खिलाफ नहीं उसमें मामूली संशोधन चाहते हैं। नवम्बर 2007 से यह राष्ट्रीय प्रहसन चल रहा है। राजनीतिक दलों ने मान लिया है कि जनता कुछ नहीं समझती। जो वे समझाएंगे वही मान लेगी। जनता हर चुनाव में राजनीतिक दलों को गलत साबित करती है। पर नेता हैं कि मानते नहीं।


प्रदीप सिंह