Sunday, July 27, 2008

किस कीमत पर सरकार!

इस बिकाऊ सांसदों ने मनमोहन ¨सह की सरकार और अमेरिका के साथ होने वाला परमाणु करार दोनों को बचा लिया। मनमोहन ¨सह ने 21 जुलाई को जब लोकसभा में विश्वास मत का प्रस्ताव पेश किया तो उनकी छवि एक एेसे बेदाग प्रधानमंत्री की थी जिसे देश हित में एक अंतरराष्ट्रीय करार करने से रोका जा रहा था। सरकार के विश्वास मत हासिल करने के फैसले के दिन से 22 जुलाई को विश्वास मत जीतने तक जो कुछ हुआ उसके दो पहलू हैं।

एक लोकतंत्र और संसदीय व्यवस्था से जुड़ा है और दूसरा व्यावहारिक राजनीति के तकाजों और विचारधारा की राजनीति के टकराव का है। देश में बुद्धिजीवियों का एक अच्छा खासा वर्ग है जो मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव प्रकाश करात से नाराज है। उसे लगता है कि करात ने अपने निजी अहम की संतुष्टि के लिए सरकार से समर्थन वापस लिया। संसद में बाइस जुलाई को दृश्य नजर आया वह शर्मनाक था पर प्रकाश करात के बारे देश के प्रबुद्ध वर्ग की यह राय चिंतित करने वाली है।

राजनीतिक दलों ने तो विचारधारा को बहुत पहले तिलांजलि दे दी थी। आज के राजनीतिक दलों और राजनीतिज्ञों की एक ही विचारधारा है चुनाव जीतो और सत्ता हासिल करो। ऐसी सोच के पीछे राजनेताओं के अपने निहित स्वार्थ हैं। पर जब देश का प्रबुद्ध वर्ग भी एेसा ही सोचने लगे तो मानना चाहिए कि समस्या राजनीति तक ही सीमित नहीं है। कांग्रेस ने तो आजादी के बाद ही इस गुरुमंत्र को समझ लिया था। यहअलग बात है कि अमल में लाने में उसे समय लगा।

समाजवादी पार्टी के विघटन और फिर विलोपन के बाद जनसंघ अब भारतीय जनता पार्टी और वामदल विचारधारा वाले राजनीतिक दल और समूह रह गए थे। विचारधारा से बिना डिगे संसदीय और सत्ता की राजनीति करना कठिन काम है। यह बहुत धीमा और धैर्य वाला रास्ता है। इस रास्ते पर चलने के लिए कदम -कदम पर सत्ता के लालच को लगातार नकारना पड़ता है। सत्ता को अपनाना जितना आसान है नकारना उतना ही कठिन।

यह महज इत्तफाक ही है कि 1996 में माकपा ने देश के सर्वोच्च प्रशासनिक पद को लेने से इनकार कर दिया। यह आसान फैसला नहीं था। बाद में ज्योति बसु ने इसे ऐतहासिक भूल कहा पर माकपा उनके इस विचार से न तब सहमत थी और न अब है। 1996 में ही भाजपा की तेरह दिन की सरकार बनी। अटल बिहारी वाजपेयी तेरह दिन तक इंतजार करते रहे लेकिन कोई दल उनकी सरकार को समर्थन देने आगे नहीं आया। सरकार गिरने के बाद लाल कृष्ण आडवाणी ने कहा कि विचारधारा की राजनीति की अपनी सीमाएं होती हैं। एक स्थिति के बाद आप संसदीय राजनीति में विचारधारा के आधार पर आगे नहीं बढ़ सकते।

1998 में भाजपा ने अपनी विचारधारा से समझौता किया और पहली बार कें्र में सत्ता हासिल करने में कामयाब हो गई। भौतिकतावाद, भूमंडलीकरण सत्ता को सब कुछ मानने के दौर में विचारधारा और सिद्धांत की बात करने वालों को पुरातनपंथी और नासमझ माना जाता है। प्रकाश करात के साथ वही हो रहा है। वह जमाने के साथ बदलने को तैयार नहीं हैं, क्योंकि वे सत्ता को ही साध्य मानने को तैयार नहीं हैं। ऐसे समय में जब राजनेताओं और बुद्धिजीवियों के सोचने के तरीके में फर्क न रह गया हो प्रकाश करात जसे लोगों का तिरस्कार तो होना ही चाहिए। इस विश्वास मत का दूसरा पहलू सांसदों की खरीद-फरोख्त का है।

1950 में देश का संविधान बनने के बाद से अब तक कुल दस बार अविश्वास या विश्वास प्रस्ताव संसद में आया है। पहला अविश्वास प्रस्ताव 1963 में जवाहर लाल नेहरू की सरकार के विरोध में आया था। तब उन्होंने कहा था कि यह अच्छी परम्परा है। इससे सरकार को पता चलता है कि उसकी खामियां क्या हैं और देश के लोगों को पता चलता है कि सरकार ने क्या काम किया है। दसवां विश्वास प्रस्ताव मनमोहन ¨सह ने पेश किया और उसे अनावश्यक व्यवधान बताया।

1993 में पीवी नरसिंह राव की सरकार के खिलाफ अविस्वास प्रस्ताव आया था। इन दस प्रस्तावों में से केवल दो मौकों पर सांसदों की खरीद-फरोख्त हुई। दोनों ही मौकों पर कांग्रेस की सरकार थी। इसके अलावा किसी मौके पर सांसदों की खरीद- फरोख्त की चर्चा तक नहीं हुई। 1993 का झारखंड मुक्ति मोर्चा कांड सुप्रीम कोर्ट तक गया। देश की सर्वोच्च अदालत ने यह तो माना कि सांसदों को खरीदने के लिए पैसा दिया गया। उसने पैसा देने वालों को तो दोषी माना पर लेने वालों को नहीं। क्योंकि पैसे लेने वालों ने वोट देने का काम सदन में किया इसलिए उनके खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई नहीं की जा सकती।

हमने 1993 के झामुमो कांड को नजरअंदाज किया इसलिए 22 जुलाई 2008 को भारतीय संसद और लोकतंत्र पूरी दुनिया के सामने शर्मसार हुआ। लोकतंत्र को जीवित रखना है तो सबकी जिम्मेदारी है कि 22 जुलाई 2008 नजरअंदाज न होने पाए।

प्रदीप सिंह

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