Monday, July 14, 2008

नए हमनवां की तलाश

भविष्यवाणी करना हमेशा से जोखिम भरा काम रहा है। बात राजनीतिक भविष्यवाणी की हो तो और भीर ज्यादा दुष्कर। किंतु एक पत्रकार के लिए राजनीतिक समीकरणों और इसके द्वारा होने वाले राजनीतिक परिवर्तनों की अनदेखी करना कर्म-धर्म से विरत होने जसा है।


अब जब आगामी लोकसभा चुनावों में अधिकतम आठ माह का समय बचा है, राजनीति के चौसर पर चली जाने वाली प्रत्तेक चाल का चुनावी महत्व होना लाजिमी है। ऐसे में राजनीतिक पार्टियों के पुराने संबंधों से नाते तोड़ने और नए हमनवां तलाश करने की कोशिशों को भविष्य के नफे- नुकसान से जोड़कर देखना जरूरी हो गया है।


कहते हैं कि दिल्ली का दरवाजा उत्तर प्रदेश से होकर गुजरता है। अस्सी लोकसभा सीटों वाले इस प्रदेश में मैदान मारने वाले के लिए राजधानी में केंद्रीय सत्ता का लाल गलीचा हमेशा स्वागतोच्छुक की भूमिका में खड़ा रहता है। नब्बे की राम लहर के बाद जाति के खाचों में बंट गए इस प्रदेश में देश के दो प्रमुख राजनीतिक दल (कांग्रेस और भाजपा) अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं।


ऐसे में सात रेस कोर्स का सफर तय करने के लिए इस प्रदेश में दोनों को क्षेत्रीय दलों की बैसाखियों की जरूरत है। प्रदेश की राजनीति बराबर की हैसियत रखने वाली और गुलाबो-सिताबो की तरह लड़ रही समाजवादी पार्टी और बहुजन समाजवादी पार्टी को भी एक दूसरे को पटखनी देने के लिए अतिरिक्त ‘ताकतज् का सहारा चाहिए। इस अतिरिक्त ताकत की तलाश में सपा ने एक माह पूर्व तक कट्टर दुश्मन कांग्रेस का दामन थामा तो अभी तक सपा को केंद्र के क्रोध से शेल्टर प्रदान कर रहे वामपंथियों ने बसपा के लिए छाता तान दिया है। दरअसल राजनीति में जरूरत की दोस्ती को देशहित का बाना पहनाने का शगल बेहद पुराना है।

देश हित के नाम पर सप्त क्रांति की अवधारणा वाले समाजवादियों ने इंदिरा विरोध के नाम पर कभी सांप्रदायिक (भारतीय) जनता पार्टी के साथ सरकार बनाई तो उन्हीं के अनुयाईयों (लालू प्रसाद यादव) ने सांप्रदायिकता को दर किनार करने के लिए एक बार फिर तथाकथित साम्राज्यवादी कांग्रेस के साथ समझौता कर लिया।


नेताओं के इस नए अवसरवादी देशहित ने भविष्य की राजनीतिक तस्वीर को साफ कर दिया है। तीसरे मोर्चे को तोड़ कर राजनीति को दो ध्रुवीय बनाने की कांग्रेसी कोशिशों को पलीता लग चुका है। देश भर में कांग्रेस की जड़ों में मठ्ठा घोल रही मायावती अब कांग्रेस के लिए औरा बड़ी मुसीबत साबित हो सकती हैं। अपने उपर केंद्रीय जांच ऐजेंसियों के हमले से तिलमिलाई मायावती वामदलों के साथ मिलकर कांग्रेस के खिलाफ एक बड़ा मोर्चा खड़ा कर सकती है।


देश के दलित वोटों पर उनकी पकड़ और प्रदेशों में टीडीपी, राकांपा, वामदलों का गठजोड़ कांग्रेस को राजनीतिक हाशिए पर भेज सकता है। खुद उत्तर प्रदेश में हालात बदल चुके हैं। करार को मुस्लिम विरोधी बता चुकी मायावती ने इस मामले पर जिस तरह से मुस्लिम धर्मगुरुओं को अपने पाले में खड़ा करने में सफलता पाई है वह बानगी भर है। माया की राजनीति पर करीबी नजर रखने वालों के मुताबिक ज्यादा से ज्यादा मुस्लिम उम्मीदवारों को खड़ा करने की उनकी रणनीति बुश व अमेरिका के खिलाफ गुस्से से भरे इस समाज को भाजपा को हरा सकने में सक्षम एक नए विकल्प के रूप में आकर्षित कर सकता है।


अमर सिंह के सपा में आने के बाद मुलायम के जमीन से कट जाने की सियासी हकीकत के बाद सपा का कैडर और प्रतिबद्ध मतदाता दोनों बिखराव के दौर से गुजर रहे हैं। ऐसे में सपा से कांग्रेस की यह दोस्ती कांग्रेस की बड़ी भूल भी साबित हो सकती है।

सीतेश ‌द्विवेदी

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