Monday, June 14, 2010

सारा देश भोपाल के साथ, हम किसका मुंह तक रहे हैं?

कल्पेश याग्निक

मुट्ठी भर मठाधीश, पांच लाख निर्दोषों को छल रहे हैं। पूरे 26 बरस से। तब ये बेगुनाह निर्ममता से बर्बाद कर दिए गए। अब निर्लज्जता से प्रताड़ित किए जा रहे हैं। कानून के नाम पर। किंतु अन्याय की सीमा होती है। न्याय करने वाले हर व्यवस्था में होते ही हैं। दुखद यह है कि उन्हें झकझोरना पड़ता है। भोपाल गैस त्रासदी मामले में अदालती आदेश के बाद ऐसा करने का समय आ गया है।

दो ही विकल्प हैं। या तो सुप्रीम कोर्ट अपने ही स्तर पर 1996 में जस्टिस ए.एम.अहमदी की कलम से बदलीं, कमजोर कर दी गईं धाराओं की समीक्षा करे। या फिर केंद्र सरकार इस केस को फिर से खुलवाए। दोनों ही बातें संभव हैं। देश हित में हैं। हमें किंतु इसके लिए आक्रामक मुद्रा अपनानी होगी। तंत्र से लड़ाई आसान नहीं होती। किंतु जहरीली गैस की भयावह यादों को सीने में दबाए, इतने बरसों से हर पल, हारी-बीमारी-बेकारी-बेबसी से लड़ ही तो रहे हैं हम। एक और लड़ाई।

अब कुछ पथरीले, खुरदुरे व्यावहारिक सच। जब चारों ओर मौत फैली थी तब लोकतंत्र के तीनों स्तंभों में कहीं गर्जना नहीं उठी कि यूनियन कार्बाइड के दोषी वॉरेन एंडरसन को ऐसे रहस्यमय ढंग से छोड़ क्यों दिया? एक मामूली वाहन चालान बनने पर भी पुलिस डपटती है कि थाने चलो- यहां 25 हजार मौतों के जिम्मेदार की जैसे राजकीय अतिथि सी सेवा की गई। वो भी मुख्यमंत्री के स्तर पर। वो भी प्रधानमंत्री को विश्वास में लेकर। उस दिन की वीडियो क्लिप में यदि आप गौर से देखें तो लग ही नहीं रहा कि अर्जुन सिंह किसी सादे से हादसे का भी मुकाबला करके आए हों। बड़े ही आत्मविश्वास और प्रभावी शैली में वे पत्रकारों से त्रासदी को लेकर बात कर रहे थे। साथ बैठे राजीव गांधी गंभीर तो दिख रहे हैं लेकिन पूरी तरह अजरुनसिंह से प्रभावित।


जाहिर है उन्होंने ही प्रधानमंत्री को मना लिया होगा। और यदि नहीं- तो वे राष्ट्र के सामने क्यों नहीं लाते कि भोपाल के गुनहगार को क्यों जाने दिया? क्यों? किसी को पता नहीं। क्योंकि किसी ने इन्हें झंझोड़ा नहीं। पक्ष तो होता ही है रीढ़ की हड्डी के बिना। विपक्ष को क्यों सांप सूंघ गया था? और बाद में भी किसने कुछ किया? देखें एक नजर : नरसिंह राव सरकार ने उसे अमेरिका से बुलाने के प्रयास कमजोर कर दिए। अटल सरकार ने तो एक कदम आगे बढ़कर कार्बाइड के भारतीय प्रमुख केशुब महिंद्रा को पद्म पुरस्कार के लिए चुना।


दूसरी कड़ी हैं नौकरशाह। आज वे टीवी चैनलों पर एक-दूजे को दोषी सिद्ध करने की होड़ में लगे हैं। तब अपने पुंसत्व को ताक में रख गुपचुप उन्हीं आदेशों का पालन करने में लगे थे, जो उनकी आत्मा पर बोझ बन गए होंगे। पीसी अलेक्जेंडर, ब्रह्मस्वरूप, मोतीसिंह और क्या स्वराज पुरी? हर छोटी-बड़ी बात पर नोटशीट पर टीप लिखने के आदी। ‘पुनर्विचार करें, समीक्षा करें’ लिखकर हर फैसले में अंड़गा बनने के जन्मजात अधिकारी ये नौकरशाह आज किस मुंह से आरोप-प्रत्यारोप लगा रहे हैं?


तीसरी कड़ी है कानून के रखवालों की। चाहे केस तैयार करने वाली पुलिस-सीबीआई हो या फिर लड़ने वाला प्रॉसिक्यूशन हो या कि तत्कालीन न्यायमूर्ति हों। सभी पर प्रश्नचिह्न है। आखिर न्याय के सर्वोच्च ओहदे पर बैठे अहमदी ऐसा कैसे कर सकते हैं? सीबीआई, केंद्र या राज्य सरकार- कोई तो १९९६ के उस फैसले को चुनौती देता? इन सबसे हटकर बड़ा प्रश्न। सरकार चाहें तो क्या नहीं कर सकतीं। सुप्रीम कोर्ट ने तो अफजल गुरु को फांसी सुना दी है। चार साल हो गए। क्या हुआ?


सुप्रीम कोर्ट ने तो शाहबानो को गुजारा भत्ता दिए जाने का फैसला दिया था। सरकार ने एक कानून बनाकर उसे खत्म कर दिया। केरल के मल्लापेरियार बांध से तमिलनाडु पानी लेता था। सुप्रीम कोर्ट ने बांध की ऊंचाई बढ़ाने का फैसला दिया तो केरल ने विधानसभा में कानून बदलकर उस फैसले को निर्थक कर दिया। इंदिरा गांधी ने किस ताकत के साथ इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को अनदेखा किया था- वह देश को भलीभांति याद है। सब सरकार के हाथ में है। किंतु भोपाल के लाखों पीड़ितों के लिए कोई नेता, अफसर, कानून का रखवाला आगे न आया।
(कल्पेश याग्निक दैनिक भास्कर के नेशनल एडिटर हैं)

दैनिक भास्कर अतीत के अंधेरे को अपने करोड़ों पाठकों के माध्यम से मिटाना चाहता है। भोपाल त्रासदी में पहले दिन से भास्कर की कलम सिर्फ पीड़ितों के पक्ष और सत्ताधीशों की गलत बातों के विपरीत चली है। आज इस अभियान में सांसदों को, सरकार को, सुप्रीम कोर्ट को यदि हम एक पोस्टकार्ड लिखकर, याचिका लगाकर केस पुन: खुलवाने की आवाज उठाएंगे तो मानवता के बड़े अभियान में सहभागी होंगे। पीड़ितों को सफलता निश्चित मिलेगी। क्योंकि सारा देश उनके साथ है।

Wednesday, June 9, 2010

शून्य से शिखर तक तय हुआ सफर

उत्कर्ष शिविर की ऊंची उडान

बांसवाडा। देश में अपनी तरह के कदाचित अनूठे उपक्रम के तहत बांसवाड्ा के पुलिस विभाग द्वारा शिक्षा विभाग के सहयोग से 2007 में जनजाति क्षेत्र की दसवीं कक्षा में शून्य प्रतिशत परिणाम वाली छात्राओं के उन्नयन के लिए प्रारम्भ किया गया शिविर इस अभियान के तीसरे साल शिखर तक का सफर तय करने में कामयाब रहा। सत्र 2007-08 में तत्कालीन पुलिस अधीक्षक के.एल.बैरवा के व्यक्तिगत प्रयासों और विशिष्ट पहल पर सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों से बांसवाडा शहर में लाकर पढ्ाई जा रही बालिकाओं ने ऐसा परिणाम दिया है जिससे पुलिस और शिक्षा विभाग की बांछे खिली हुई है। इस सत्र में 12 वीं कक्षा में 15 छात्राएं सम्मिलित हुई थी और सभी उत्तीर्ण होकर शत प्रतिशत परिणाम दिया है। यही नही इन्ही छात्राओं में से एक 63 प्रतिशत अंकों के साथ प्रथम श्रेणी में भी उत्तीर्ण हुई है। शेष 14 द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण रही।

कभी ये सिफर के दायरे में थी

सत्र 2007-8 में तत्कालीन पुलिस अधीक्षक बैरवा जब इन बालिकाओं को लेकर बांसवाडा आए तब ये सभी बालिकाएं 10 व क क्षा में शून्य प्रतिशत परीक्षा परिणाम के साथ अनुत्तीर्ण रही थी। उसी सत्र में यहां लाकर इन छात्राओं के उन्नयन की दिशा में किए गए पहले प्रयास में 48 में से 21 छात्राएं उत्तीर्ण हुई थी। दूसरे वर्ष 16 छात्राओं ने 10 वीं उत्तीर्ण की। जो छात्राएं पहले ही प्रयास में दसवीं उत्तीर्ण हुई वे इस सत्र में 12 वीं की बोर्ड परीक्षा में शामिल हुई थी। हिन्दी, संस्कृत और गृह विज्ञान विषयों के साथ छात्राओं ने यहां के उत्कर्ष शिविर में पूरी मेहनत से पढाई कर पुलिस और शिक्षा विभाग के प्रयासों और अरमानों को पंख लगा दिए।

अब न रूकी है अब न रूकेंगी

दसवीं फेल होने के बाद आगे पढने का इरादा लगभग छोड चुकी इन छात्राओं के साथ उनके अभिभावकों ने भी इन्हें आगे पढाने के बारे में भी सपने में नहीं सोचा था। लेकिन भारतीय पुलिस सेवा के संवेदनशील अधिकारी के रूप में इन छात्राओं की जिन्दगी में एक ऐसी शख्सियत का सान्निध्य मिला जिनके अभिनव प्रयासों ने इनकी तकदीर बदलने का सिलसिला शुरू कर दिया। के.एल.बैरवा ने इन छात्राओं की अंधेरी जिन्दगी में आशा की रोशनी भर दी। बारहवी कक्षा पास हुई अब ये छात्राएं जोश और उत्साह से लबरेज होकर कहती है कि अब मंजिल पा जाने तक रूकने का नाम नहीं लेंगी। यह उपलब्धि हांसिल करने वाली छात्राओं में कैलाश, सन्तु, मना, सुगना, दुर्गा डामोर, दुर्गा खिहुरी, इन्दिरा, गीता, उषा, ललिता, हीरा, लक्ष्मी तथा रेखा शामिल है।

मिसाल पेश की सास-ससुर ने

इन छात्राओं में दो छात्राएं ऐसी है जिन्हे उत्तकर्ष शिविर में रहते हुए ही वयस्क आयु में परिणय सूत्र में बंधना पडा इसके बावजूद ससुराल वालो ने अपनी बहुओं की पढाई बंद नहीं कराई। यही नही इस सत्र में तीन बार आयोजित अभिभावका सम्मेलन में इन शादी शुदा छात्राओं के सास ससुर भी शामिल हुए। जनजाति विकास एवं तकनीकी शिक्षा मंत्री महेन्द्रजीत सिंह मालवीया तथा विधायक अर्जुन बामनिया ने बालिका शिक्षा को प्रोत्साहन दिए जाने हेतु इन सास ससुर का सम्मान भी किया। संगति का असर जीवन में कितना प्रभाव डालता है इसका नमूना भी कीर्तिमान बनाने वाले इस बार के परिणाम में सामने आया। इन छात्राओं की देखरेख के लिए पुलिस विभाग बांसवाडा द्वारा तैनात एक महिला कांस्टेबल ने भी 12 वी कक्षा की यही रहते हुए परीक्षा दी और वह द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हुई।

खुशी मिली इतनी कि. ..

इस अनूठे अनुष्ठान के प्रणेता और संस्थापक तत्कालीन पुलिस अधीक्षक के एल बैरवा, वर्तमान पुलिस अधीक्षक गजानन्द वर्मा, जिला शिक्षा अधिकारी माध्यमिक गणेशराम निनामा तथा इस अभियान के समन्वयक प्रकाश पण्डया ने इस उपलब्धि पर अपार हर्ष जताया है और कहा है कि यह सब बालिकाओं की मेहनत का परिणाम है तथा यह उपलब्धि साबित करती है कि जनजाति बहुल बांसवाडा जिले में सेवा भाव से कार्य करने वाले शिक्षकों की कमी नहीं है।