Monday, February 14, 2011

भारत की वर्तमान दुर्दशा पर महात्मा गाँधी के विचार

आज की मुख्यधारा राजनीति की प्रवक्ता अख़बार ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में कांग्रेस पार्टी की प्रवक्ता जयंती नटराजन का एक लेख छपा है। लेख की आख़िरी पंक्ति में गाँधी (महात्मा गाँधी न कि कोई अन्य नकली गाँधी) के 1917 के किसी बयान को उद्धृत करते हुए संसद के महिमामंडन का प्रयास उसी तरीके से किया गया है जिसके लिए अंग्रेजी में एक मुहावरा प्रचलित है- ‘डेविल क्वोटिंग बाइबिल’। इसलिए ऐसे दुष्प्रयासों को आईना दिखाने के लिए ही मैंने हिन्द स्वराज के उस अध्याय को नए आलोक में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है जिसमें गाँधी ने ईंगलैंड के तत्कालीन संसद और संसदीय राजनीति पर कुछ खरे शब्दों में एक लाज़वाब विश्लेषण किया था। पढ़कर देखिए यह भारत के संदर्भ में आज भी उतना ही प्रासंगिक है। इसलिए मूल लेख में जहाँ-जहाँ ‘ईंगलैंड’ या ‘अंग्रेज’ आदि शब्द का प्रयोग हुआ था वहाँ यदि हम क्रमशः भारत और भारतीय रख कर भी देखें तो वह उतना ही प्रासंगिक जान पड़ता है।

हिन्द स्वराज: भारत की हालत

-पाठक: आप जो कहते हैं उस पर से तो मैं यही अंदाजा लगाता हूं कि भारत में जो राज्य चलता है वह ठीक नहीं है और हमारे लायक नहीं है।

संपादक: आपका यह खयाल सही है। ईंगलैंड (यानि आज के भारत) में आज जो हालत है वह सचमुच दयनीय तरस खाने लायक है। मैं तो भगवान से यही मांगता हूं कि हिन्दुस्तान की ऐसी हालत कभी न हो। जिसे आप पार्लियामेन्टों की माता कहते हैं वह संसद तो बांझ और बेसवा है। ये दोनों शब्द बहुत कड़े हैं तो भी उसे अच्छी तरह लागू होते हैं। मैंने उसे बांझ कहा क्योंकि अब तक उस संसद ने अपने आप एक भी अच्छा काम नहीं किया। अगर उस पर जोर दबाव डालनेवाला कोई न हो तो वह कुछ भी न करे, ऐसी उसकी कुदरती हालत है। और वह बेसवा है क्योंकि जो मंत्रिमंडल उसे रखे उसके पास वह रहती है। आज उसका मालिक कोई एस्क्विथ (आज के संदर्भ में कोई सिंह) है तो कल कोई बालफर (कोई नकली गांधी) होगा और परसों कोई तीसरा।

पाठक: आपके बोलने में कुछ व्यंग्य है। बांझ शब्द को अब तक आपने लागू नहीं किया। संसद लोगों की बनी है इसलिए बेशक लोगों के दबाव से ही वह काम करेगी। वही उसका गुण है। उसके ऊपर का अंकुश है।

संपादक: यह बड़ी गलत बात है। अगर संसद बांझ न हो तो इस तरह होना चाहिये- लोग उसमें अच्छे से अच्छे सदस्य चुनकर भेजते हैं। सदस्य तनख्वाह नहीं लेते इसलिए उन्हें लोगों की भलाई के लिए संसद में जाना चाहिये। लोग खुद सुशिक्षित संस्कारी माने जाते हैं इसलिए उनसे भूल नहीं होती। ऐसा हमें मानना चाहिये ऐसी संसद को अर्जी की जरूरत नहीं होनी चाहिये। न दबाव की। उस संसद का काम इतना सरल होना चाहिये कि दिन ब दिन उसका तेज बढ़ता जाय और लोगों पर उसका असर होता जाय। लेकिन इससे उलटे इतना तो सब कबूल करते हैं कि संसद के सदस्य दिखावटी और स्वार्थी पाये जाते हैं। सब अपना मतलब साधने की सोचते हैं।

सिर्फ डर के कारण ही संसद कुछ काम करती है। जो काम आज किया वह कल उसे रद्द करना पड़ता है। आज तक एक भी चीज को संसद ने ठिकाने लगाया हो, ऐसी कोई मिसाल देखने में नहीं आती। बडे सवालों की चर्चा जब संसद में चलती है तब उसके सदस्य पैर फैलाकर लेटते हैं या बैठे बैठे झपकियां लेते हैं। उस संसद में सदस्य इतने जोरों से चिल्लाते हैं कि सुनने वाले हैरान परेशान हो जाते हैं।

उसके एक महान लेखक ने उसे दुनिया की बातूनी जैसा नाम दिया है। सदस्य जिस पक्ष के हों उस पक्ष के लिए अपना मत वे बगैर सोचे विचारे देते हैं। देने को बंधे हुए हैं। अगर कोई सदस्य इसमें अपवाद रूप निकल आये तो उसकी कमबख्ती ही समझिये। जितना समय और पैसा संसद खर्च करती है उतना समय और पैसा अगर अच्छे लोगों को मिले तो प्रजा का उद्धार हो जाय। ब्रिटिश (भारतीय) संसद महज प्रजा का खिलौना है और वह खिलौना प्रजा को भारी खर्च में डालता है। ये विचार मेरे खुद के हैं, ऐसा आप न मानें। बडे और विचारशील अंग्रेज (भारतीय) ऐसा विचार रखते हैं।

एक सदस्य ने तो यहां तक कहा है कि संसद धार्मिक आदमी के लायक नहीं रही। दूसरे सदस्य ने कहा है कि संसद एक बच्चा (बेबी) है। बच्चों को कभी आपने हमेशा बच्चे ही रहते देखा है। आज सात सौ (भारत के संदर्भ में एकसठ बरस) बरस के बाद भी अगर संसद बच्चा ही हो तो वह बड़ी कब होगी?

पाठक: आपने मुझे सोच में डाल दिया यह सब मुझे तुरंत मान लेना चाहिये ऐसा तो आप नहीं कहेंगे आप बिलकुल निराले विचार मेरे मन में पैदा कर रहे हैं। मुझे उन्हें हजम करना होगा। अच्छा अब बेसवा शब्द का विवेचन कीजिये।

संपादक: मेरे विचारों को आप तुरन्त नहीं मान सकते यह बात ठीक है। उसके बारे में आपको जो साहित्य पढ़ना चाहिये वह आप पढ़ेंगे तो आपको कुछ ख्याल आयेगा। संसद को मैंने बेसवा कहा, वह भी ठीक है। उसका कोई मालिक नहीं है। उसका कोई एक मालिक नहीं हो सकता लेकिन मेरे कहने का मतलब इतना ही नहीं है। जब कोई उसका मालिक बनता है जैसे प्रधानमंत्री तब भी उसकी चाल एक सरीखी नहीं रहती। जैसे बुरे हाल बेसवा के होते हैं वैसे ही सदा संसद के होते हैं। प्रधानमंत्री को संसद की थोड़ी ही परवाह रहती है। वह तो अपनी सत्ता के मद में मस्त रहता है। अपना दल कैसे जीते इसी की लगन उसे रहती है। संसद सही काम कैसे करे इसका वह बहुत कम विचार करता है। अपने दल को बलवान बनाने के लिए प्रधानमंत्री संसद से कैसे कैसे काम करवाता है इसकी मिसालें जितनी चाहिये उतनी मिल सकती हैं। यह सब सोचने लायक है।

पाठक: तब तो आज तक जिन्हें हम देशभिमानी और ईमानदार समझते आये हैं, उन पर भी आप टूट पड़ते है।

संपादक: हां, यह सच है। मुझे प्रधानमंत्रियों से द्वेष नहीं है। लेकिन तर्जुबे से मैंने देखा है कि वे सच्चे देशाभिमानी नहीं कहे जा सकते। जिसे हम घूस कहते हैं वह घूस वे खुल्लमखुल्ला नहीं लेते-देते इसलिए भले ही वे ईमानदार कहे जायें। लेकिन उनके पास वसीला काम कर सकता है। वे दूसरों से काम निकालने के लिए उपाधि वगैरह की घूस बहुत देते हैं। मैं हिम्मत के साथ कह सकता हूं कि उनमें शुद्ध भावना और सच्ची ईमानदारी नहीं होती।

पाठक: जब आपके ऐसे खयाल हैं तो जिन अंग्रेजों (अथवा भारतीयों) के नाम से संसद राज करती है उनके बारे में अब कुछ कहिये, ताकि उनके स्वराज्य का पूरा ख्याल मुझे आ जाये।

संपादक: जो अंग्रेज (भारतीय) वोटर हैं (चुनाव करते हैं), उनकी धर्म पुस्तक (बाइबल) तो है अखबार। वे अखबारों से अपने विचार बनाते हैं। अखबार अप्रमाणिक होते हैं। एक ही बात को दो शक्लें देते हैं। एक दल वाले उसी बात को बड़ी बनाकर दिखलाते हैं तो दूसरे दलवाले उसी को छोटी कर डालते हैं। एक अखबारवाला किसी भारतीय नेता को प्रामाणिक मानेगा तो दूसरा अखबार वाला उसको अप्रामाणिक मानेगा। जिस देश में ऐसे अखबार हैं उस देश के आदमियों की कैसी दुर्दशा होगी?

पाठक: यह तो आप ही बताइये।

संपादक: उन लोगों के विचार घड़ी घड़ी में बदलते हैं। उन लोगों में यह कहावत है कि ‘सात सात बरस में रंग बदलता है।’ घड़ी के लोलक की तरह वे इधर उधर घूमा करते है। जमकर वे बैठ ही नहीं सकते। कोई दौर दमामवाला आदमी हो और उसने अगर बड़ी बड़ी बातें कर दीं या दावतें दे दीं तो वे नक्कारची की तरह उसी के ढोल पीटने लग जाते हैं। ऐसे लोगों की संसद भी ऐसी ही होती है। उनमें एक बात जरूर है। वह यह कि वे अपने देश को खोयेंगे नहीं। अगर किसी ने उस पर बुरी नजर डाली तो वे उसकी मिट्टी पलीद कर देंगे। लेकिन इससे उस प्रजा में सब गुण आ गये या उस प्रजा की नकल की जाय ऐसा नहीं कह सकते, अगर हिन्दुस्तान अंग्रेज प्रजा की नकल करे तो हिन्दुस्तान पागल हो जाय, ऐसा मेरा पक्का खयाल है।

पाठक: अंग्रेज (भारतीय) प्रजा ऐसी हो गई है, इसके आप क्या कारण मानते हैं?

संपादक: इसमें अंग्रेजों (भारतीयों) का कोई खास कसूर नहीं है पर उनकी बल्कि यूरोप (पश्चिम) की आजकल की सभ्यता का कसूर है। वह सभ्यता नुकसान देह है और उससे यूरोपा (भारत) की प्रजा पागल होती जा रही है।


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Saturday, February 12, 2011

शराब कारोबार के विज्ञापन में गांधी

-रायपुर में लगाए फ्लैक्स और हार्डिंग, गांधीवादी चुप
मृगेंद्र पांडेय

शराब का कारोबार करने वाले राज्य सरकार के एक उपक्रम बेवरेज कार्पोरेशन ने अपनी ब्रांडिंग के लिए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के नाम और फोटो का इस्तेमाल शुरू किया है। कार्पोरेशन के एक विज्ञापन में राष्ट्रपिता की बड़ी-बड़ी फोटो लगाई गई है। साथ ही उसमें गांधी जी के उन शब्दों का इस्तेमाल किया गया है, जो उन्होंने शराबबंदी के लिए दिया है। विज्ञापन में गांधी जी के बगल में मुख्यमंत्री रमन सिंह की तस्वीर भी लगाई गई है। कार्पोरेशन के इस विज्ञापन गांधीवादी चुप है। बेवरेज कार्पोरेशन के विज्ञापन में इन्हें लगाना राष्ट्रपिता का अपमान है।

गांधी जी शराब के खिलाफ थे। वे हमेशा आबकारी से मिले राजस्व का विरोध करते थे। यही नहीं, कई मौके पर गांधी जी ने शराबबंदी के आंदोलन की अगुवाई कर चुके हैं। बेवरेज कार्पोरेशन के अध्यक्ष भाजपा विधायक देवजी पटेल हैं। बेवरेज कार्पोरेशन राज्य सरकार की एक संस्था है, जो शराब की बिक्री को बढ़ाकर राजस्व उपजाने का काम करती है। हाल ही में मुख्यमंत्री ने इसके अध्यक्ष का चयन किया है। गांधीजी की फोटो लगा विज्ञापन जेल रोड पर अरण्य भवन के सामने लगाया गया है।

Tuesday, February 1, 2011

पल भर में बदली रोहित की जिंदगी

मीरा जैन।। मुंबई
पता नहीं कब किसकी तकदीर पलट जाए। दो साल पहले एक के बाद एक दो माह के भीतर माता-पिता को गंवाने वाले रोहित ने सपने में भी खुद के भाग्योदय की बात नहीं सोची होगी। 13 साल के अनाथ रोहित ने पेट भरने के लिए लोकल ट्रेन में हेयर क्लिप बेचना शुरू कर दिया था। शनिवार को मानो प्रकृति उसे उन्नति के द्वार पर धकेल रही थी। रोहित दुबे ने राहुल गांधी की सभा का पोस्टर देखा और यह सोचकर वहां जा पहुंचा कि भीड़ में उसका धंधा हो जाएगा और शायद उसे राहुल को करीब से देखने का मौका भी मिल जाए, पर उसका तो जीवन ही बदल गया।

पल भर की बात जीने का सामान दे गई
पालघर के आर्यन स्कूल मैदान में पास न होने के कारण रोहित को अंदर नहीं जाने दिया गया, तो वह मायूस होकर वहीं खड़ा रहा और सोचने लगा इतनी दूर आया हूं राहुल गांधी की एक झलक पा लूं। वह भी न हुआ, तो हेलिकॉप्टर ही देख लेता हूं। सभा के बाद भीड़ यहीं से बाहर निकलेगी, तब बात बन सकती है और बात क्या खूब बनी। करीब 2000 लोगों की भारी भीड़ के बीच कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी की नजर रोहित दुबे पर पड़ी। बस एक मिनट की बात हुई और राहुल गांधी का दिल भर आया। उन्होंने तत्काल आदिवासी विकास राज्यमंत्री राजेंद्र गावित को निर्देश दिया कि वे रोहित को फिर से स्कूल भेजने का इंतजाम करें। साथ ही, यह भी कहा कि गावित साल दर साल उसकी प्रगति की जानकारी देते रहें।

कांटों भरा बचपन
दु:ख और परेशानियों के पहाड़ तले दबे रोहित को लगा उसका पूरा बोझ उतर गया है और अब वह उड़नखटोले में बैठकर उड़ रहा है। रोहित के पिता बिल्डर के यहां दिहाड़ी मजदूर थे। 2009 में मलेरिया ने उनकी जान ले ली थी, फिर भी मां घर काम करके रोहित की शिक्षा का खर्च जुटा लेती थी। अक्टूबर 2009 में ही पेट की बीमारी ने 11 साल के रोहित से मां भी छीन ली। शोक मनाने से बड़ा पेट का सवाल मुंह बाए खड़ा था। रोहित जगह-जगह काम खोजने लगा, तभी एक साथी उसे लोकल में हेयर क्लिप बेचने की सलाह दी। उसके लिए भी राहुल को 500 रुपये चाहिए थे, तभी माल मिलता।

मुफलिसी में मदद का हाथ
इस कठिन घड़ी में रोहित को एक घर याद आया, जहां उसकी मां काम करती थी। कई बार वह कुछ सामान लेने मां के साथ वसई के उस गुजराती परिवार के घर गया था। उस दयालु परिवार ने न सिर्फ 500 रुपये दिए, बल्कि यह भी कहा कि ये पैसे लौटाने की जरूरत नहीं है। बस, रोहित क्लिप बेचकर पेट पालने लगा और दिन कटने लगे। अब तक उसने दोस्तों के साथ मिलकर नाला सोपारा (पूर्व) की चाल में खोली ले ली थी। इसके लिए वे सभी मिलकर 2000 रुपये मासिक किराया देते हैं।

दादा-दादी से मिलने की तमन्ना
आगामी 2 फरवरी को गावित ने रोहित को बुलाया है। इसके बाद वह अपने पुराने हिंदी माध्यम के स्कूल में पढ़ने लगेगा। उसके रहने का क्या इंतजाम होगा और खर्च कैसे मिलेगा? ये सारी बातें तभी बताई जाएंगी। उसे लगता है सिर्फ पढ़ाई पर ही मेहनत के दिन आ गए हैं। छूट जाएगी यह खस्ताहाल खोली और लेडीज डिब्बे की भीड़। अब, उसे जौनपुर के खेतों में मजदूरी करके जीवन यापन करने वाले दादा-दादी याद आ रहे हैं। उसका कहना है कि कुछ पैसे जुटे, तो जौनपुर जाकर दादा-दादी से मिलूंगा।

नवभारत टाइम्स से साभार
http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/7403222.cms