Wednesday, July 8, 2009

यह बजट किस आम आदमी का है?

आनंद प्रधान

फरवरी में अंतरिम बजट पेश करते हुए वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने कहा था कि मौजूदा असामान्य आर्थिक और वित्तीय परिस्थितियों से निपटने के लिए असामान्य उपायों की जरूरत हैं। लेकिन उस समय वित्त मंत्री ने संवैधानिक परम्पराओं और बाध्यताओं का उल्लेख करते हुए यह जिम्मेदारी अगली सरकार पर डाल दी थी। यूपीए सरकार की दूसरी पारी की शुरूआत कर रहे वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी से यह अपेक्षा थी कि वे मौजूदा आर्थिक संकट की गंभीरता को महसूस करते हुए उससे निपटने के लिए अपने कहे मुताबिक एक साहसिक बजट पेश करेंगे। उनसे यह भी अपेक्षा थी कि यूपीए खासकर कांग्रेस उस आम आदमी को जिसके कारण उसकी चुनावी जीत संभव हो पायी, उसे महंगाई, बेरोजगारी से मुक्त कराने और उसकी दूसरी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए बजट में ठोस उपाय करेगी।

लेकिन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी एक बार फिर अपनी जिम्मेदारी से कन्नी काट गए। नतीजा सबके सामने है। यूपीए सरकार की दूसरी पारी के पहले बजट में कोई बड़ी सोच नहीं दिखाई पड़ती है। इसमें निरंतरता अधिक है और परिवर्तन न के बराबर। इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जिसके बारे में यह कहा जा सके कि उसमें मौजूदा आर्थिक और वित्तीय संकट से निपटने के लिए कोई बड़ी पहल की गई है। अलबत्ता वित्त मंत्री ने कोई बड़ी और साहसिक पहल की कमी को आंकड़ों की उलट फेर के जरिए भरने की कोशिश की है। उन्होंने इसके लिए एक बहुत आसान रास्ता यह चुना है कि चालू वित्तीय वर्ष के बजट में सारे प्रावधान पिछले वित्तीय वर्ष के बजट अनुमानों से तुलना करते हुए पेश किए हैं। इससे एकबारगी ऐसा लगता है कि वित्त मंत्री ने पूरी उदारता के साथ विभिन्न मदों और क्षेत्रों के लिए प्रावधान किया है।

लेकिन, यह सच नहीं है। उदाहरण के लिए खुद प्रणब मुखर्जी ने अंतरिम बजट पेश करते हुए कहा था कि मौजूदा आर्थिक मंदी से निपटने के लिए जरूरी है कि सरकार योजना व्यय में जीडीपी की कम से कम आधे से लेकर एक फीसदी रकम और खर्च करे। अपना नया बजट पेश करते हुए वित्त मंत्री ने दावा किया है कि चालू वित्तीय वर्ष के बजट में उन्होंने योजना व्यय में 34 फीसदी की वृद्धि की है। लेकिन यह अधूरा सच है। यह ठीक है कि पिछले वित्तीय वर्ष (2008-09) के बजट अनुमान की तुलना में चालू वित्तीय वर्ष (2009-10) योजना व्यय में 34 फीसदी की वृद्धि हुई है। लेकिन पूरा सच यह है कि योजना व्यय में पिछले वर्ष के संशोधित बजट अनुमान 282957 करोड़ रूपये की तुलना में सिर्फ पन्द्रह फीसदी की बढ़ोत्तरी के साथ 325149 करोड़ रूपये का प्रावधान किया गया है।

दरअसल, वित्त मंत्री ने इस मामले में चतुराई दिखाते हुए पूरे बजट भाषण में आंकड़ों की बाजीगरी की है। उन्होंने चालू वित्तीय वर्ष के बजट अनुमान पेश करते हुए पिछले वर्ष के बजट अनुमान को आधार बनाया है। इस कारण विभिन्न मदों और क्षेत्रों में किए गए बजटीय प्रावधान काफी भारी-भरकम दिखाई पड़ते हैं। लेकिन उनके नए बजट में किए गए प्रावधानों को पिछले वित्तीय वर्ष के संशोधित बजट अनुमानों के आधार पर तौला जाए तो साफ है कि अधिकांश मदों में बहुत कम या न के बराबर वृद्धि हुई है।

उदाहरण के लिए राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना के बजट को लीजिए। वित्त मंत्री ने बजट भाषण में दावा किया है कि ग्रामीण रोजगार योजना के लिए पिछले वित्तीय वर्ष के बजट अनुमान की तुलना में 144 फीसदी वृद्धि करते हुए 39100 करोड़ रूपये का प्रावधान किया गया है। लेकिन सच यह है कि पिछले वित्तीय वर्ष के संशोधित बजट अनुमान के मुताबिक राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना पर 30 हजार करोड़ रूपये और संपूर्ण ग्रामीण रोजगार योजना पर 6750 करोड़ रूपये यानि कुल 36750 करोड़ रूपये खर्च किए गए। चालू वित्तीय वर्ष के बजट अनुमानों में संपूर्ण ग्रामीण रोजगार योजना को समाप्त करके राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम में समाहित कर दिया गया है। इस तरह चालू वित्तीय वर्ष में ग्रामीण रोजगार योजना पर पिछले वर्ष के संशोधित बजट अनुमानों की तुलना में सिर्फ 2350 करोड़ रूपये यानि 6.39 प्रतिशत की मामूली वृद्धि की गई है।

हैरत की बात है कि वित्त मंत्री ने उस योजना के लिए ऐसी कंजूसी दिखाई है जिसे यूपीए खासकर कांग्रेस की जीत का श्रेय दिया जा रहा है। इससे सरकार की प्राथमिकताओं का भी पता चलता है। कहां तो यह अपेक्षा थी कि यूपीए सरकार ग्रामीण गरीबों और बेरोजगारों के राजनीतिक समर्थन के प्रति अपनी कृतज्ञता जाहिर करने और उन्हें सचमुच राहत पहुंचाने के लिए इस कानून के तहत 100 दिन के बजाय कम से कम 150 से 200 दिनों के रोजगार और न्यूनतम 150 रूपये प्रति दिन मजदूरी की व्यवस्था करेगी, वहां चालू वित्तीय वर्ष के बजट प्रावधान से ऐसा लगता है कि यूपीए सरकार राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून के प्रति ईमानदार नहीं है।

कहने की जरूरत नहीं है कि अगर वह रोजगार गारंटी को लागू करने और ग्रामीण गरीबों को न्यूनतम 100 दिनों का रोजगार उपलब्ध कराने के प्रति सचमुच ईमानदार है तो उसे बजट में कम से कम 50 हजार करोड़ रूपये का प्रावधान करना चाहिए था। यह इसलिए भी जरूरी था कि इस साल मानसून मंे विलम्ब और बारिश कम होने की आशंकाओं के बीच कृषि क्षेत्र के प्रभावित होने के कारण ग्रामीण मजदूरों को काम कम मिलने की उम्मीद है। ऐसे ग्रामीण मजदूरों के लिए ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना ही उम्मीद की आखिरी किरण हैं। तीसरे, मानसून में गड़बड़ी और कृषि क्षेत्र की विकास दर में गिरावट के मद्देनजर भी यह जरूरी था कि ग्रामीण रोजगार योजना को और प्रभावी बनाने के लिए बजट में पर्याप्त प्रावधान किया जाए।

बजट में यूपीए सरकार की ऐसी ही वायदा खिलाफी प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कानून और शिक्षा के अधिकार कानून के प्रति भी दिखायी पड़ती है। सरकार ने 100 दिन के एजेंडे में यह वायदा किया है कि रोजगार गारंटी कानून की तर्ज पर लोगों के भोजन के अधिकार यानि खाद्य सुरक्षा और बहुत लम्बे अरसे से लटके शिक्षा के अधिकार के कानून को अमली जामा पहनाया जाएगा। इस वायदे का उल्लेख राष्ट्रपति के अभिभाषण में भी था। लेकिन वित्त मंत्री ने बजट में इन दोनों अधिकारों को लागू करने के लिए कोई प्रावधान नहीं किया है। उन्होंने बजट भाषण में खाद्य सुरक्षा कानून का उल्लेख तो किया है लेकिन यह स्पष्ट नहीं किया है कि यह कानून और कितने दिनों में लागू होगा। इसके बजाय उन्होंने कहा है कि सरकार प्रस्तावित राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक का मसौदा सार्वजनिक बहस और विचार-विमर्श के लिए जल्दी ही पेश करेगी।

कहने की जरूरत नहीं है कि भूखमरी के शिकार लोगों के साथ इससे बड़ा मजाक और कुछ नहीं हो सकता है। ऐसे ही रवैये की खिल्ली उड़ाते हुए मशहूर शायर अदम गोंडवी ने बहुत पहले लिखा था कि ‘‘भूख है तो सब्र कर, रोटी नहीं तो क्या हुआ/आजकल दिल्ली में है जेरे-बहस ये मुद्दआ।’’ सवाल यह है कि भूखे लोगों को रोटी उपलब्ध कराने के लिए और कितने दिन बहस चलेगी? यह सवाल इसलिए भी और महत्वपूर्ण और दुखी करनेवाला है कि आज भारत में दुनिया के सबसे अधिक भूखे लोग रहते हैं जिन्हें दो जून का भर पेट भोजन भी नहीं मिल पाता है। इससे अधिक और शर्मनाक बात क्या हो सकती है कि तेज विकास दर के बावजूद देश में कुपोषण और भूखमरी की समस्या ज्यों की त्यों बनी हुई है। ताजा आर्थिक सर्वेक्षण में भी इस तथ्य को स्वीकार किया गया है कि 1998-99 में तीन वर्ष से कम आयु के 47 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार थे और अगले सात वर्षों में तीव्र विकास दर के बावजूद 2005-06 में भी ऐसे बच्चों की संख्या 46 फीसदी पर बनी हुई थी।

वित्त मंत्री ने कुछ ऐसा ही रवैया शिक्षा के अधिकार के कानून के प्रति भी दिखाया है। उन्हांेने बजट भाषण में शिक्षा के बारे में बड़ी-बड़ी बातें करने के बावजूद शिक्षा के अधिकार के कानून का न तो कोई जिक्र किया और न ही उसके लिए कोई बजटीय प्रावधान किया। उल्टे बजट में प्राथमिक शिक्षा के मद में पिछले वित्तीय वर्ष के संशोधित बजट अनुमान 19488 करोड़ रूपये की तुलना में चालू वित्तीय वर्ष में सिर्फ 194 करोड़ रूपये यानि एक फीसदी की बढ़ोत्तरी की है। दोहराने की जरूरत नहीं है कि शिक्षा के अधिकार के कानून को ईमानदारी से लागू करने के लिए कम से कम 55 हजार से लेकर एक लाख करोड़ रूपये की आवश्यकता पड़ेगी। लेकिन न तो पिछली यूपीए सरकार और न अब नई यूपीए सरकार इतनी बड़ी रकम खर्च करने के लिए तैयार हैं। यही कारण है कि शिक्षा के अधिकार का विधेयक पिछले कई वर्षों से लटका पड़ा है। वित्त मंत्री के रवैये को देखकर लगता नहीं है कि सरकार शिक्षा के अधिकार के कानून को लागू करने को लेकर कहीं से भी उत्साहित है।

निश्चय ही, वित्त मंत्री सामाजिक क्षेत्र की इन महत्वपूर्ण योजनाओं और कार्यक्रमों को लागू करने के मामले में अपनी कंजूसी का बचाव यह कहकर कर सकते हैं कि सीमित संसाधनों के बीच इससे अधिक कर पाना संभव नहीं है। वे यह भी कह सकते हैं कि मौजूदा आर्थिक मंदी के दौर में राजस्व वसूली में गिरावट के कारण उनके हाथ बंधे हुए थे। लेकि न यह भी अधूरा सच है। यह ठीक है कि आर्थिक मंदी के कारण सरकार के राजस्व में उस रफ्तार से वृद्धि होने की उम्मीद नहीं है जितनी पिछले कुछ वर्षों में रही है। लेकिन अगर यह सच है तो वे अमीर और उच्च मध्यवर्ग को करों में छूट देने के मामले में इतने उदार क्यों हो गए? उन्होंने काॅरपोरेट क्षेत्र को खुश करने के लिए फ्रिंज बैनिफिट टैक्स खत्म कर दिया है। लेकिन 2007-08 में फ्रिंज बैनिफिट टैक्स से सरकारी खजाने को 6533 करोड़ रूपये की आय हुई थी। इसका अर्थ यह हुआ कि वित्त मंत्री ने एक झटके में काॅरपोरेट क्षेत्र को लगभग 7 हजार करोड़ रूपये का तोहफा दे दिया।

इसी तरह उन्होंने निजी आयकर पर दस प्रतिशत के सरचार्ज को समाप्त कर दिया है। इसका फायदा दस लाख रूपये से अधिक की आय वाले अमीर वर्गों को होगा। उन्होंने मध्यवर्ग को भी खुश करने के लिए टैक्स के स्लैब में मामूली फेर-बदल किया है। यही नहीं, उन्होंने जिंसों के कारोबार में सक्रिय सटोरियों को काबू में रखने के लिए उन पर लगने वाले कमोडिटी ट्रांजैक्शन टैक्स को भी समाप्त कर दिया है। उल्लेखनीय है कि जिंसों के वायदा कारोबार का कुल टर्न ओवर 2008 में लगभग 50 लाख करोड़ रूपये तक पहुंच गया और यह माना जाता है कि कई जिंसों और खाद्यान्नों की कीमतों में असामान्य वृद्धि की एक बड़ी वजह उनका वायदा कारोबार भी है। कहने की जरूरत नहीं है कि कमोडिटी ट्रांजक्शन टैक्स समाप्त कर वित्त मंत्री ने किसकी मदद की है?

इससे स्पष्ट है कि वित्त मंत्री नवउदारवादी आर्थिक नीतियों से हटने के लिए तैयार नहीं है। यह बजट भी उन्हीं नव उदारवादी आर्थिक नीतियों की निरंतरता का एक और सबूत है जो गरीबों के बजाय कारपोरेट समूहों, अमीरों और उच्च मध्यवर्गों के हितों का अधिक ध्यान रखता है। अलबत्ता पहले की तुलना में एक रणनीतिक फर्क सिर्फ यह आया है कि यूपीए सरकार यह सब गरीबों और आम आदमी का नाम लेकर कर रही है। जाहिर है कि नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के स्थायित्व और भविष्य के लिए यह जरूरी हो गया है कि गरीबों और आम आदमी का राग जोर-शोर से गाया जाए। यह बजट भी इसी रणनीति का एक और उदाहरण है।

गतिहीन ममतामई रेल

मृगेंद्र पांडेय

ममता का रेल बजट इस कदर गतिहीन है कि वह न तो देश को आगे ले जाने वाला है न ही रेल को। महज चंद रेलगाड़ियों को चलाना अगर रेल बजट होता है तो ममता ने अपने काम को बखूबी अंजाम दिया। लेकिन जब हम इससे आगे की सोचते हैं तो हमें गौर करना होगा की दीदी की नजर कहां है। उनके सपने क्यां है। उनकी सोच कहां तक जाती है। क्या उनके पास देश और रेल दोनों को आगे ले जाने वाली सोच है या फिर उन्हें सिर्फ और सिर्फ लालगढ़ और सिंगूर ही नजर आ रहा है। ममतामई बजट पेश करने की हर रेल मंत्री कोशिश करता है, लेकिन ऐसे समय जब देश में मंदी हो, लोगों को उम्मीद होती है कि आधारभूत संरचना के विकास के लिए कुछ कदम उठाए जाएंगे, जो करने में ममता असफल रहीं है।

ममता ने कुछ चीजों को पूरी तरह से छोड़ दिया। आम तौर पर पढ़े-लिखे कलाकारों, साहित्यकारों की पार्टी की मुखिया होने के नाते ममता से यह उम्मीद की जा सकती है कि उनकी सोच में कुछ नयापन होगा, लेकिन ऐसा कुछ नजर नहीं आया। पैसा कहां से आएगा और कहा जाएगा इसकी बात अगर छोड़ भी दी जाए तो ममता ने कम से कम युवा पीढ़ी को इस बात की उम्मीद तो थी ही की वह कुछ ऐसा करेंगी जो उनके लिए मददगार होगा। ममता ने युवा एक्सप्रेस चलाकर यह बताने की कोशिश की कि उनकी नजर युवाओं पर है, लेकिन क्या सिर्फ इतने से युवाओं को संतोष होगा। देश की 50 फीसदी से ज्यादा आबादी युवा है और अनुमान लगाया जा रहा है कि 2020 तक भारत की औसत उम्र 29 साल होगी। ऐसे में ममता के बजट ने युवाओं को निराश ही किया।

युवाओं को रोजगार से मतलब है। आज का युवा इंटरनेट का भरपूर उपयोग करता है। आज के युवा के पास समय भी कम है, क्योंकि वह सबकुछ जल्दी पाना चाहता है। क्या बजट बनाते समय दीदी की नजर में ये बातें थी, अगर थी तो उसकी झलक क्यों नजर नहीं आई। ममता ने भविष्य के लिए नई योजना के बारे में कोई पहल नहीं की। लालू के समय में बुलेट ट्रेन शुरू करने पर काम किया जा रहा था। ममता ने उसका जिक्र तक नहीं किया। ‘एज् ग्रेड शहरों में मेट्रो शुरू करने की बात कही जा रही थी, लेकिन वह योजना भी ठंडे बस्ते में पड़ी रही। रेल पटरियों का जाल भले ही देश भर में हो लेकिन उनकी गुणवत्ता को सुधारने, ट्रेनों की रफ्तार को बढ़ाने के लिए पटरियों को उसके हिसाब से बनाने और सबसे महत्वपूर्ण रेलगाड़ियों को समय से पहुंचाने के बारे में कोई उपाय नजर नहीं आया।

यहां यह स्पष्ट करना चाहूंगा कि ममता की कई योजनाएं काफी अच्छी है। जसे दूरंत, इज्जत लेकिन इन मुद्दों को भी जोड़ा जाना चाहिए था।