राजभवन का पत्र कलेक्टोरेट की फाइलों में गुमा
मृगेंद्र पांडेय
आर्थिक तंगी के चलते अपने 24 साल के बेटे का इलाज न करा पाने के कारण एक मां आज उसे गोद में उठाकर दर-दर भटकने को मजबूर है। राज्यपाल, मुख्यमंत्री, मंत्री व विधायक, सभी के दरवाजों पर उसने अपना दुखड़ा सुनाया, पर कहीं से उम्मीद की किरण नहीं दिखाई दी। कुछ दिनों पहले राजभवन से कलेक्टोरेट एक पत्र आया था, जिसमें उसकी मदद की बात कही गई है, लेकिन वह पत्र भी फाइलों में दबकर कहीं गुम हो गया है। वह मां अब बेटे का इलाज छोड़कर उस पत्र की खोज में जुट गई है।
राजिम के पास कोपरा गांव की रहने वाली सकुन बाई अपने बेटे गोविंद साहू को लेकर कलेक्टोरेट में आफिस दर आफिस भटक रही है। गुरुवार को वह कलेक्टर से मिलने आई थी, लेकिन मुलाकात नहीं हो पाई। गोविंद को हड्डी संबंधी कोई बीमारी है। इससे उसकी लंबाई डेढ़ फीट से ज्यादा नहीं बढ़ी। वजन भी सिर्फ दस किलो ही है। वह न तो खुद खाना खा सकता है, न ही अपना कोई काम कर सकता है। हालांकि उसका दिमाग पूरी तरह ठीक है और उसने कक्षा पांचवीं तक की पढ़ाई भी की है।
पिता की मौत के बाद टूट गया परिवार
गोविंद के पिता की मौत के बाद यह परिवार पूरी तरह टूट गया है। छह भाई-बहन के इस परिवार में गोविंद और उसकी एक बहन इस रोग से पीडि़त हैं। पिता सेवाराम ही घर का खर्च चलाते थे। उनकी मौत के बाद सकुन बाई रोजी-मजदूरी करके किसी तरह बच्चों को पाल रही है।
इनके दरों पर कर चुकी फरियाद
बेटे के इलाज को लेकर सकुन बाई अब तक कई बड़े नेताओं से मिल चुकी है। उसने बताया कि छह माह पहले वह राज्यपाल से मिली थी। मुख्यमंत्री रमन सिंह को दो बार ज्ञापन सौंप चुकी है। पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी, सांसद चंदूलाल साहू, कांग्रेस अध्यक्ष धनेंद्र साहू और मोतीलाल साहू ने भी मुलाकात के दौरान सिर्फ आश्वासन दिया।
कोई तो मेरी मदद करो
गोविंद ने कहा कि मैं किसी नेता-मंत्री के काम का नहीं हूं, इसलिए कोई मेरी मदद नहीं करता। मेरा नाम वोटर लिस्ट और राशनकार्ड में नहीं है। नेताओं के चक्कर काटने पर भी कुछ नहीं हुआ। सरकार से सिर्फ एक ही गुजारिश है कि मेरी मदद करे। मेरा इलाज करा दे, पालन-पोषण के लिए सहयोग करे।
Friday, November 12, 2010
Saturday, November 6, 2010
आखिर कब सॊचेंगे हम
मृगेंद्र पांडेय
सरकार आखिर मजदूरॊं के बारे में क्यॊं नहीं सॊचती। सभी सरकार चाहे वॊ किसी भी प्रदेश की ही क्यॊं न हॊ आम आदमी का सिर्फ वॊट लेती है। उनके बारे में सॊचने का समय नहीं है। ऐसी सरकार कॊ हम कब तब झेलेंगे। अगर आज हम चुप रहेंगे तॊ कल हमारी बारी है। अपनी बारी आने से पहले कुछ ऐसा करने की जरूरत है कि सरकार सॊचे। नहीं तॊ लॊकतंत्र में हमें अपने बारे में सॊचना पडेगा।
राजस्थान से आई कुछ तस्वीर आप लॊग जरूर देखें।
Wednesday, November 3, 2010
इस देश की सुरक्षा को खतरा किससे है?
आनंद प्रधान
कल अरुंधती के घर पर हमले की निंदा करती टिप्पणी के लिंक को फेसबुक पर डालते हुए मुझे यह आशंका तो थी कि मेरे कई दोस्तों को इसपर आपत्ति होगी. यह अंदाज़ा भी था कि कई मित्र जो अरुंधती के विचारों से सहमत नहीं हैं, वे इस हमले से ज्यादा अरुंधती के विचारों को मुद्दा बनाएंगे लेकिन मुझे इसका अंदाज़ा नहीं था कि कश्मीर के सवाल पर देशभक्ति इतनी जल्दी अंध देशभक्ति में बदल जाती है कि तथ्यों को भी तोड़-मरोडकर पेश किया जायेगा.
फेसबुक पर चली बहस में समय की कमी कारण मैंने कुछ खास हस्तक्षेप नहीं किया लेकिन उनमें से कुछ मुद्दों का जवाब जरूर देना चाहता हूँ लेकिन आज नहीं. कोशिश करूँगा कि समय मिल सके तो कल कुछ लिखूं. लेकिन आज पाश की एक कविता जरूर यहां रखने चाहता हूँ जो उन्होंने ८० के दशक के मध्य में लिखी थी जब देश में पंजाब के आतंकवाद को लेकर जबरदस्त युद्धोन्माद का माहौल था.
हमें देश की सुरक्षा से खतरा है
• अवतार सिंह पाश
यदि देश की सुरक्षा यही होती है
कि बिना जमीर होना जिंदगी के लिए शर्त बन जाये
आंख की पुतली में हां के सिवाय कोई भी शब्द
अश्लील हो
और मन बदकार पलों के सामने दंडवत झुका रहे
तो हमें देश की सुरक्षा से खतरा है.
हम तो देश को समझे थे घर-जैसी पवित्र चीज
जिसमें उमस नहीं होती
आदमी बरसते मेंह की गूंज की तरह गलियों में बहता है
गेहूं की बालियों की तरह खेतों में झूमता है
और आसमान की विशालता को अर्थ देता है
हम तो देश को समझे थे आलिंगन-जैसे एक एहसास का नाम
हम तो देश को समझते थे काम-जैसा कोई नशा
हम तो देश को समझते थे कुरबानी-सी वफा
लेकिन गर देश
आत्मा की बेगार का कोई कारखाना है
गर देश उल्लू बनने की प्रयोगशाला है
तो हमें उससे खतरा है
गर देश का अमन ऐसा होता है
कि कर्ज के पहाड़ों से फिसलते पत्थरों की तरह
टूटता रहे अस्तित्व हमारा
और तनख्वाहों के मुंह पर थूकती रहे
कीमतों की बेशर्म हंसी
कि अपने रक्त में नहाना ही तीर्थ का पुण्य हो
तो हमें अमन से खतरा है
गर देश की सुरक्षा को कुचल कर अमन को रंग चढ़ेगा
कि वीरता बस सरहदों पर मर कर परवान चढ़ेगी
कला का फूल बस राजा की खिड़की में ही खिलेगा
अक्ल, हुक्म के कुएं पर रहट की तरह ही धरती सींचेगी
तो हमें देश की सुरक्षा से खतरा है.
कल अरुंधती के घर पर हमले की निंदा करती टिप्पणी के लिंक को फेसबुक पर डालते हुए मुझे यह आशंका तो थी कि मेरे कई दोस्तों को इसपर आपत्ति होगी. यह अंदाज़ा भी था कि कई मित्र जो अरुंधती के विचारों से सहमत नहीं हैं, वे इस हमले से ज्यादा अरुंधती के विचारों को मुद्दा बनाएंगे लेकिन मुझे इसका अंदाज़ा नहीं था कि कश्मीर के सवाल पर देशभक्ति इतनी जल्दी अंध देशभक्ति में बदल जाती है कि तथ्यों को भी तोड़-मरोडकर पेश किया जायेगा.
फेसबुक पर चली बहस में समय की कमी कारण मैंने कुछ खास हस्तक्षेप नहीं किया लेकिन उनमें से कुछ मुद्दों का जवाब जरूर देना चाहता हूँ लेकिन आज नहीं. कोशिश करूँगा कि समय मिल सके तो कल कुछ लिखूं. लेकिन आज पाश की एक कविता जरूर यहां रखने चाहता हूँ जो उन्होंने ८० के दशक के मध्य में लिखी थी जब देश में पंजाब के आतंकवाद को लेकर जबरदस्त युद्धोन्माद का माहौल था.
हमें देश की सुरक्षा से खतरा है
• अवतार सिंह पाश
यदि देश की सुरक्षा यही होती है
कि बिना जमीर होना जिंदगी के लिए शर्त बन जाये
आंख की पुतली में हां के सिवाय कोई भी शब्द
अश्लील हो
और मन बदकार पलों के सामने दंडवत झुका रहे
तो हमें देश की सुरक्षा से खतरा है.
हम तो देश को समझे थे घर-जैसी पवित्र चीज
जिसमें उमस नहीं होती
आदमी बरसते मेंह की गूंज की तरह गलियों में बहता है
गेहूं की बालियों की तरह खेतों में झूमता है
और आसमान की विशालता को अर्थ देता है
हम तो देश को समझे थे आलिंगन-जैसे एक एहसास का नाम
हम तो देश को समझते थे काम-जैसा कोई नशा
हम तो देश को समझते थे कुरबानी-सी वफा
लेकिन गर देश
आत्मा की बेगार का कोई कारखाना है
गर देश उल्लू बनने की प्रयोगशाला है
तो हमें उससे खतरा है
गर देश का अमन ऐसा होता है
कि कर्ज के पहाड़ों से फिसलते पत्थरों की तरह
टूटता रहे अस्तित्व हमारा
और तनख्वाहों के मुंह पर थूकती रहे
कीमतों की बेशर्म हंसी
कि अपने रक्त में नहाना ही तीर्थ का पुण्य हो
तो हमें अमन से खतरा है
गर देश की सुरक्षा को कुचल कर अमन को रंग चढ़ेगा
कि वीरता बस सरहदों पर मर कर परवान चढ़ेगी
कला का फूल बस राजा की खिड़की में ही खिलेगा
अक्ल, हुक्म के कुएं पर रहट की तरह ही धरती सींचेगी
तो हमें देश की सुरक्षा से खतरा है.
Monday, November 1, 2010
अरुंधती पर हमला: अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर नाज करनेवाले कहां हैं?
“देशभक्ति, लम्पट-बदमाशों की आखिरी शरणस्थली है.”
- सैमुअल जॉन्सन
आनंद प्रधान
लेखिका अरुंधती राय के घर पर भाजपा के महिला मोर्चे के कार्यकर्ताओं द्वारा हमले और तोड़फोड़ पर किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए. उन्होंने अरुंधती को पहले से ही ‘राष्ट्रद्रोही’ घोषित करते हुए सबक सिखाने की धमकी दे रखी थी. बजरंग दल के एक नेता के मुताबिक उन्हें पता है कि अरुंधती जैसों को कैसे ठीक किया जाता है. उसने संकेतों में ही अपनी एक रणनीति का खुलासा भी किया था कि देश भर में अरुंधती के खिलाफ देशद्रोह के मुकदमे दायर किए जा सकते हैं.
जाहिर है कि इस बजरंगी का संकेत एम.एफ हुसैन को सबक सिखाने से था. यह किसी से छुपा नहीं है कि किस तरह से परेशान करने के लिए हुसैन के खिलाफ पूरे देश में कई जगहों पर अदालतों में मुक़दमे दायर किए गए थे. उनपर और उनकी पेंटिंग प्रदर्शनियों पर हमले किए गए. हालत यह हो गई कि ९० साल की उम्र में हुसैन को देश छोड़कर लन्दन और दुबई में रहना पड़ रहा है. अब अरुंधती निशाने पर हैं.
सांप्रदायिक फासीवादी संगठनों से और उम्मीद भी क्या की जा सकती है? उनका इतिहास यही है. उनके लिए देशभक्ति वह गंगा है जिसमें वे अपने सभी पाप धोते हैं. देशभक्ति की आड़ में ही उनका गुजरात जैसे सैकड़ों जनसंहारों, रक्षा सौदों में दलाली-घूसखोरी, कर्नाटक-झारखण्ड जैसे राज्यों में खान माफियाओं की सरपरस्ती का काला कारोबार चलता है. बजरंग दल जैसे संगठन तो पहले से ही गांव और मोहल्ले के लफंगों-बदमाशों और शोहदों के गिरोह हैं.
लेकिन आज जब इन सभी के पितृ संगठन आर.एस.एस के एक बड़े नेता इन्द्रेश कुमार का नाम अजमेरशरीफ के बम धमाकों में आ रहा है तो इनकी देशभक्ति कुछ ज्यादा ही जाग पड़ी है. आश्चर्य नहीं होगा अगर आनेवाले दिनों में आर.एस.एस के नेतृत्व में इस देशभक्ति ब्रिगेड के हमले और बढ़ें. जाहिर है कि अरुंधती के कश्मीर पर दिए बयान सिर्फ एक बहाना हैं.
लेकिन इस मामले में सबसे अधिक हैरानी और निराशा पुलिस, अदालतों और सरकार के रवैये से होती है. सवाल है कि ऐसे हर हमले के समय चाहे वह अरुंधती के घर पर हो या हुसैन पर या पार्कों-पबों-कालेजों में प्रेमी युगलों पर या सिनेमा घरों पर या समाचार पत्रों-चैनलों के दफ्तरों पर- पुलिस या तो जानकारी के बावजूद वहां देर से पहुंचती है या खामोश तमाशा देखती रहती है.
इसी तरह से अदालतें यह जानते हुए भी कि ये मुकदमे अगंभीर, सतही और सिर्फ तंग करने के लिए दायर किए गए हैं, उन्हें खुशी-खुशी एंटरटेन करती हैं, सम्मन और कई बार गिरफ़्तारी के वारंट जारी कर देती हैं और सांप्रदायिक संगठनों का हौसला बढ़ाने में मददगार बन जाती हैं. लेकिन यही अदालतें लेखकों, कलाकारों और बुद्धिजीवियों पर खुले और परोक्ष हमलों को अनदेखा करती रहती हैं जबकि उनसे अभिव्यक्ति की आज़ादी की रक्षा करने की उम्मीद की जाती है.
विडम्बना देखिये कि यह सब राष्ट्रभक्ति और उस संविधान की रक्षा के नाम पर हो रहा है जिसमें हर नागरिक को अभिव्यक्ति की आज़ादी का मौलिक अधिकार मिला हुआ है. लेकिन सचमुच, इस देश की पुलिस, अदालतों, सरकार और मीडिया पर तरस आता है कि उन्होंने सांप्रदायिक फासीवादी संगठनों को इस आज़ादी की सीमाएं तय करने का ठेका दे दिया है. अब ये संगठन तय कर रहे हैं कि किसका बयान और आचरण राष्ट्रभक्ति, नैतिकता और धार्मिक आस्थाओं के दायरे से बाहर है और उसे क्या सबक सिखाया जाना चाहिए?
लेकिन यू.पी.ए सरकार के बारे में क्या कहा जाए? खुद को धर्मनिरपेक्ष बतानेवाली इस कांग्रेसी सरकार ने जिस तरह से सांप्रदायिक शक्तियों के आगे घुटने टेक दिए हैं और उन्हें देशभक्ति का ठेका दे दिया है, वह निराश और परेशान करनेवाला जरूर है लेकिन उसमें नया कुछ नहीं है. कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता जिस नरम हिंदुत्व पर खड़ी है, वह हमेशा आर.एस.एस के गरम हिंदुत्व के आगे समर्पण कर देती है.
इसी तरह, एक कथित ‘विदेशी’ सोनिया गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस के लिए देशभक्ति भी एक दुखती रग बन चुकी है. उसे हमेशा यह डर सताता रहता है कि कहीं आर.एस.एस-भाजपा कश्मीर के मामले में उसके जरा भी नरम रवैये के कारण उसकी ‘देशभक्ति’ पर सवाल न खड़ा कर दें. इस कारण यू.पी.ए सरकार ने अपनी कश्मीर नीति पूरी तरह से आर.एस.एस-भाजपा के हवाले कर दी है. हैरानी की बात नहीं है कि कश्मीर मुद्दे पर यू.पी.ए सरकार का राजनीतिक एजेंडा भाजपा-आर.एस.एस तय कर रहे हैं.
ऐसे में, इस कश्मीर नीति पर गंभीर और बुनियादी सवाल उठानेवाली अरुंधती राय को अगर कांग्रेस और यू.पी.ए भी देशद्रोही मानते हैं तो आश्चर्य कैसा? लेकिन अगर इस मुद्दे पर उदार, धर्मनिरपेक्ष, न्यायप्रिय, और जनतांत्रिक शक्तियां चुप रहीं तो तय जानिए कि अगली बारी आपमें, हममें से ही किसी की हैं.
जर्मन कवि पास्टर निमोलर की चंद पंक्तियां याद आ रही हैं:
“ पहले वे यहूदियों के लिए आये
मैं कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं यहूदी नहीं था
फिर वे कम्युनिस्टों के लिए आये
मैं कुछ नहीं बोला क्योंकि मैं कम्युनिस्ट नहीं था
फिर वे ट्रेडयूनियन वालों के लिए आये
मैं कुछ नहीं बोला क्योंकि मैं ट्रेड यूनियनवाला नहीं था
फिर वे मेरे लिए आये
और मेरे लिए बोलनेवाला कोई नहीं था...”
(कल इस मामले में मीडिया की भूमिका पर कुछ बातें)
teesraraasta.blogspot.com
- सैमुअल जॉन्सन
आनंद प्रधान
लेखिका अरुंधती राय के घर पर भाजपा के महिला मोर्चे के कार्यकर्ताओं द्वारा हमले और तोड़फोड़ पर किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए. उन्होंने अरुंधती को पहले से ही ‘राष्ट्रद्रोही’ घोषित करते हुए सबक सिखाने की धमकी दे रखी थी. बजरंग दल के एक नेता के मुताबिक उन्हें पता है कि अरुंधती जैसों को कैसे ठीक किया जाता है. उसने संकेतों में ही अपनी एक रणनीति का खुलासा भी किया था कि देश भर में अरुंधती के खिलाफ देशद्रोह के मुकदमे दायर किए जा सकते हैं.
जाहिर है कि इस बजरंगी का संकेत एम.एफ हुसैन को सबक सिखाने से था. यह किसी से छुपा नहीं है कि किस तरह से परेशान करने के लिए हुसैन के खिलाफ पूरे देश में कई जगहों पर अदालतों में मुक़दमे दायर किए गए थे. उनपर और उनकी पेंटिंग प्रदर्शनियों पर हमले किए गए. हालत यह हो गई कि ९० साल की उम्र में हुसैन को देश छोड़कर लन्दन और दुबई में रहना पड़ रहा है. अब अरुंधती निशाने पर हैं.
सांप्रदायिक फासीवादी संगठनों से और उम्मीद भी क्या की जा सकती है? उनका इतिहास यही है. उनके लिए देशभक्ति वह गंगा है जिसमें वे अपने सभी पाप धोते हैं. देशभक्ति की आड़ में ही उनका गुजरात जैसे सैकड़ों जनसंहारों, रक्षा सौदों में दलाली-घूसखोरी, कर्नाटक-झारखण्ड जैसे राज्यों में खान माफियाओं की सरपरस्ती का काला कारोबार चलता है. बजरंग दल जैसे संगठन तो पहले से ही गांव और मोहल्ले के लफंगों-बदमाशों और शोहदों के गिरोह हैं.
लेकिन आज जब इन सभी के पितृ संगठन आर.एस.एस के एक बड़े नेता इन्द्रेश कुमार का नाम अजमेरशरीफ के बम धमाकों में आ रहा है तो इनकी देशभक्ति कुछ ज्यादा ही जाग पड़ी है. आश्चर्य नहीं होगा अगर आनेवाले दिनों में आर.एस.एस के नेतृत्व में इस देशभक्ति ब्रिगेड के हमले और बढ़ें. जाहिर है कि अरुंधती के कश्मीर पर दिए बयान सिर्फ एक बहाना हैं.
लेकिन इस मामले में सबसे अधिक हैरानी और निराशा पुलिस, अदालतों और सरकार के रवैये से होती है. सवाल है कि ऐसे हर हमले के समय चाहे वह अरुंधती के घर पर हो या हुसैन पर या पार्कों-पबों-कालेजों में प्रेमी युगलों पर या सिनेमा घरों पर या समाचार पत्रों-चैनलों के दफ्तरों पर- पुलिस या तो जानकारी के बावजूद वहां देर से पहुंचती है या खामोश तमाशा देखती रहती है.
इसी तरह से अदालतें यह जानते हुए भी कि ये मुकदमे अगंभीर, सतही और सिर्फ तंग करने के लिए दायर किए गए हैं, उन्हें खुशी-खुशी एंटरटेन करती हैं, सम्मन और कई बार गिरफ़्तारी के वारंट जारी कर देती हैं और सांप्रदायिक संगठनों का हौसला बढ़ाने में मददगार बन जाती हैं. लेकिन यही अदालतें लेखकों, कलाकारों और बुद्धिजीवियों पर खुले और परोक्ष हमलों को अनदेखा करती रहती हैं जबकि उनसे अभिव्यक्ति की आज़ादी की रक्षा करने की उम्मीद की जाती है.
विडम्बना देखिये कि यह सब राष्ट्रभक्ति और उस संविधान की रक्षा के नाम पर हो रहा है जिसमें हर नागरिक को अभिव्यक्ति की आज़ादी का मौलिक अधिकार मिला हुआ है. लेकिन सचमुच, इस देश की पुलिस, अदालतों, सरकार और मीडिया पर तरस आता है कि उन्होंने सांप्रदायिक फासीवादी संगठनों को इस आज़ादी की सीमाएं तय करने का ठेका दे दिया है. अब ये संगठन तय कर रहे हैं कि किसका बयान और आचरण राष्ट्रभक्ति, नैतिकता और धार्मिक आस्थाओं के दायरे से बाहर है और उसे क्या सबक सिखाया जाना चाहिए?
लेकिन यू.पी.ए सरकार के बारे में क्या कहा जाए? खुद को धर्मनिरपेक्ष बतानेवाली इस कांग्रेसी सरकार ने जिस तरह से सांप्रदायिक शक्तियों के आगे घुटने टेक दिए हैं और उन्हें देशभक्ति का ठेका दे दिया है, वह निराश और परेशान करनेवाला जरूर है लेकिन उसमें नया कुछ नहीं है. कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता जिस नरम हिंदुत्व पर खड़ी है, वह हमेशा आर.एस.एस के गरम हिंदुत्व के आगे समर्पण कर देती है.
इसी तरह, एक कथित ‘विदेशी’ सोनिया गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस के लिए देशभक्ति भी एक दुखती रग बन चुकी है. उसे हमेशा यह डर सताता रहता है कि कहीं आर.एस.एस-भाजपा कश्मीर के मामले में उसके जरा भी नरम रवैये के कारण उसकी ‘देशभक्ति’ पर सवाल न खड़ा कर दें. इस कारण यू.पी.ए सरकार ने अपनी कश्मीर नीति पूरी तरह से आर.एस.एस-भाजपा के हवाले कर दी है. हैरानी की बात नहीं है कि कश्मीर मुद्दे पर यू.पी.ए सरकार का राजनीतिक एजेंडा भाजपा-आर.एस.एस तय कर रहे हैं.
ऐसे में, इस कश्मीर नीति पर गंभीर और बुनियादी सवाल उठानेवाली अरुंधती राय को अगर कांग्रेस और यू.पी.ए भी देशद्रोही मानते हैं तो आश्चर्य कैसा? लेकिन अगर इस मुद्दे पर उदार, धर्मनिरपेक्ष, न्यायप्रिय, और जनतांत्रिक शक्तियां चुप रहीं तो तय जानिए कि अगली बारी आपमें, हममें से ही किसी की हैं.
जर्मन कवि पास्टर निमोलर की चंद पंक्तियां याद आ रही हैं:
“ पहले वे यहूदियों के लिए आये
मैं कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं यहूदी नहीं था
फिर वे कम्युनिस्टों के लिए आये
मैं कुछ नहीं बोला क्योंकि मैं कम्युनिस्ट नहीं था
फिर वे ट्रेडयूनियन वालों के लिए आये
मैं कुछ नहीं बोला क्योंकि मैं ट्रेड यूनियनवाला नहीं था
फिर वे मेरे लिए आये
और मेरे लिए बोलनेवाला कोई नहीं था...”
(कल इस मामले में मीडिया की भूमिका पर कुछ बातें)
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