Monday, November 1, 2010

अरुंधती पर हमला: अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर नाज करनेवाले कहां हैं?

“देशभक्ति, लम्पट-बदमाशों की आखिरी शरणस्थली है.”
- सैमुअल जॉन्सन

आनंद प्रधान

लेखिका अरुंधती राय के घर पर भाजपा के महिला मोर्चे के कार्यकर्ताओं द्वारा हमले और तोड़फोड़ पर किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए. उन्होंने अरुंधती को पहले से ही ‘राष्ट्रद्रोही’ घोषित करते हुए सबक सिखाने की धमकी दे रखी थी. बजरंग दल के एक नेता के मुताबिक उन्हें पता है कि अरुंधती जैसों को कैसे ठीक किया जाता है. उसने संकेतों में ही अपनी एक रणनीति का खुलासा भी किया था कि देश भर में अरुंधती के खिलाफ देशद्रोह के मुकदमे दायर किए जा सकते हैं.

जाहिर है कि इस बजरंगी का संकेत एम.एफ हुसैन को सबक सिखाने से था. यह किसी से छुपा नहीं है कि किस तरह से परेशान करने के लिए हुसैन के खिलाफ पूरे देश में कई जगहों पर अदालतों में मुक़दमे दायर किए गए थे. उनपर और उनकी पेंटिंग प्रदर्शनियों पर हमले किए गए. हालत यह हो गई कि ९० साल की उम्र में हुसैन को देश छोड़कर लन्दन और दुबई में रहना पड़ रहा है. अब अरुंधती निशाने पर हैं.


सांप्रदायिक फासीवादी संगठनों से और उम्मीद भी क्या की जा सकती है? उनका इतिहास यही है. उनके लिए देशभक्ति वह गंगा है जिसमें वे अपने सभी पाप धोते हैं. देशभक्ति की आड़ में ही उनका गुजरात जैसे सैकड़ों जनसंहारों, रक्षा सौदों में दलाली-घूसखोरी, कर्नाटक-झारखण्ड जैसे राज्यों में खान माफियाओं की सरपरस्ती का काला कारोबार चलता है. बजरंग दल जैसे संगठन तो पहले से ही गांव और मोहल्ले के लफंगों-बदमाशों और शोहदों के गिरोह हैं.

लेकिन आज जब इन सभी के पितृ संगठन आर.एस.एस के एक बड़े नेता इन्द्रेश कुमार का नाम अजमेरशरीफ के बम धमाकों में आ रहा है तो इनकी देशभक्ति कुछ ज्यादा ही जाग पड़ी है. आश्चर्य नहीं होगा अगर आनेवाले दिनों में आर.एस.एस के नेतृत्व में इस देशभक्ति ब्रिगेड के हमले और बढ़ें. जाहिर है कि अरुंधती के कश्मीर पर दिए बयान सिर्फ एक बहाना हैं.


लेकिन इस मामले में सबसे अधिक हैरानी और निराशा पुलिस, अदालतों और सरकार के रवैये से होती है. सवाल है कि ऐसे हर हमले के समय चाहे वह अरुंधती के घर पर हो या हुसैन पर या पार्कों-पबों-कालेजों में प्रेमी युगलों पर या सिनेमा घरों पर या समाचार पत्रों-चैनलों के दफ्तरों पर- पुलिस या तो जानकारी के बावजूद वहां देर से पहुंचती है या खामोश तमाशा देखती रहती है.

इसी तरह से अदालतें यह जानते हुए भी कि ये मुकदमे अगंभीर, सतही और सिर्फ तंग करने के लिए दायर किए गए हैं, उन्हें खुशी-खुशी एंटरटेन करती हैं, सम्मन और कई बार गिरफ़्तारी के वारंट जारी कर देती हैं और सांप्रदायिक संगठनों का हौसला बढ़ाने में मददगार बन जाती हैं. लेकिन यही अदालतें लेखकों, कलाकारों और बुद्धिजीवियों पर खुले और परोक्ष हमलों को अनदेखा करती रहती हैं जबकि उनसे अभिव्यक्ति की आज़ादी की रक्षा करने की उम्मीद की जाती है.

विडम्बना देखिये कि यह सब राष्ट्रभक्ति और उस संविधान की रक्षा के नाम पर हो रहा है जिसमें हर नागरिक को अभिव्यक्ति की आज़ादी का मौलिक अधिकार मिला हुआ है. लेकिन सचमुच, इस देश की पुलिस, अदालतों, सरकार और मीडिया पर तरस आता है कि उन्होंने सांप्रदायिक फासीवादी संगठनों को इस आज़ादी की सीमाएं तय करने का ठेका दे दिया है. अब ये संगठन तय कर रहे हैं कि किसका बयान और आचरण राष्ट्रभक्ति, नैतिकता और धार्मिक आस्थाओं के दायरे से बाहर है और उसे क्या सबक सिखाया जाना चाहिए?


लेकिन यू.पी.ए सरकार के बारे में क्या कहा जाए? खुद को धर्मनिरपेक्ष बतानेवाली इस कांग्रेसी सरकार ने जिस तरह से सांप्रदायिक शक्तियों के आगे घुटने टेक दिए हैं और उन्हें देशभक्ति का ठेका दे दिया है, वह निराश और परेशान करनेवाला जरूर है लेकिन उसमें नया कुछ नहीं है. कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता जिस नरम हिंदुत्व पर खड़ी है, वह हमेशा आर.एस.एस के गरम हिंदुत्व के आगे समर्पण कर देती है.

इसी तरह, एक कथित ‘विदेशी’ सोनिया गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस के लिए देशभक्ति भी एक दुखती रग बन चुकी है. उसे हमेशा यह डर सताता रहता है कि कहीं आर.एस.एस-भाजपा कश्मीर के मामले में उसके जरा भी नरम रवैये के कारण उसकी ‘देशभक्ति’ पर सवाल न खड़ा कर दें. इस कारण यू.पी.ए सरकार ने अपनी कश्मीर नीति पूरी तरह से आर.एस.एस-भाजपा के हवाले कर दी है. हैरानी की बात नहीं है कि कश्मीर मुद्दे पर यू.पी.ए सरकार का राजनीतिक एजेंडा भाजपा-आर.एस.एस तय कर रहे हैं.


ऐसे में, इस कश्मीर नीति पर गंभीर और बुनियादी सवाल उठानेवाली अरुंधती राय को अगर कांग्रेस और यू.पी.ए भी देशद्रोही मानते हैं तो आश्चर्य कैसा? लेकिन अगर इस मुद्दे पर उदार, धर्मनिरपेक्ष, न्यायप्रिय, और जनतांत्रिक शक्तियां चुप रहीं तो तय जानिए कि अगली बारी आपमें, हममें से ही किसी की हैं.




जर्मन कवि पास्टर निमोलर की चंद पंक्तियां याद आ रही हैं:

“ पहले वे यहूदियों के लिए आये
मैं कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं यहूदी नहीं था


फिर वे कम्युनिस्टों के लिए आये
मैं कुछ नहीं बोला क्योंकि मैं कम्युनिस्ट नहीं था


फिर वे ट्रेडयूनियन वालों के लिए आये
मैं कुछ नहीं बोला क्योंकि मैं ट्रेड यूनियनवाला नहीं था


फिर वे मेरे लिए आये
और मेरे लिए बोलनेवाला कोई नहीं था...”

(कल इस मामले में मीडिया की भूमिका पर कुछ बातें)
teesraraasta.blogspot.com

1 comment:

Tausif Hindustani said...

आज सब एक दोसरे के बस कहने पर दौड़ पड़ते हैं , अपने बुद्धि का प्रयोग तो अभी भी लोग नहीं करते हैं ,सराहनीय कदम
dabirnews.blogspot.com