Saturday, October 30, 2010

क्या लेकर आ रहे हैं ओबामा?

भारत पर परमाणु उत्तरदायित्व कानून में बदलाव से लेकर अमेरिकी कंपनियों के लिए अर्थव्यवस्था के दरवाजे खोलने का दबाव बढ़ रहा है

आनंद प्रधान

दिल्ली एक बार फिर सज रही है. खासकर संसद भवन को झाडा-पोछा और सजाया जा रहा है. संसद के कर्मचारियों की वर्दी को बदलने और उसे नया रंग देने पर विचार चल रहा है. पांच सितारा होटल आई.टी.सी मौर्या शेरेटन को तीन दिन के लिए बुक कर दिया गया है. पकवानों की सूची बन रही है. सुरक्षा बंदोबस्त को चुस्त-दुरुस्त किया जा रहा है. दिल्ली की ही तरह मुंबई में भी सडकों को ठीक किया जा रहा है. लब्बोलुआब यह कि सरकार मेहमानवाजी में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती है.

जाहिर है कि अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा कोई सामान्य मेहमान नहीं हैं. भारतीय शासक वर्गों ने जब से अमेरिका को अपना ‘स्वाभाविक मित्र’ मानते हुए उसके साथ अपना वर्तमान और भविष्य जोड़ लिया है, तब से उनके लिए हर अमेरिकी राष्ट्रपति का दौरा ईश्वरीय आगमन से कम नहीं होता है. नतीजा, यू.पी.ए सरकार ओबामा के स्वागत में बिछी जा रही है. ओबामा को खुश करने के लिए हर जतन किया जा रहा है. हालांकि वे नवंबर के पहले सप्ताह में भारत पहुंच रहे हैं. लेकिन इस यात्रा के लिए राजनीतिक और कूटनीतिक सरगर्मियां पिछले कई महीनों से जारी हैं. यात्रा की तैयारी में दोनों देशों के दर्जनों छोटे-बड़े अधिकारियों से लेकर मंत्रियों तक की आवाजाही लगी है.

हमेशा की तरह कारपोरेट मीडिया इस यात्रा को लेकर माहौल बनाने में जुट गया है. इस यात्रा से भारत-अमेरिका सामरिक और रणनीतिक मैत्री के और गहरे होने से लेकर ओबामा से भारत को और क्या मिल सकता है, इस बाबत कयास लगाये जा रहे हैं. कई देशी-विदेशी थिंक टैंक भारत-अमेरिका मैत्री का रोड मैप पेश करते हुए यह बताने में लग गए हैं कि इस दोस्ती को और मजबूत करने के लिए दोनों सरकारों को क्या करना चाहिए?


बुश प्रशासन के दो बड़े अधिकारियों से सजे थिंक टैंक- सेंटर फार ए न्यू अमेरिकन सेक्यूरिटी (सी.एन.ए.एस) ने बाकायदा एक परचा जारी करके इस बात की वकालत की है कि एशिया में चीन की बढ़ती ताकत से गड़बडाते शक्ति संतुलन को दुरुस्त करने के लिए भारत का मजबूत होना जरूरी है.

थिंक टैंक के मुताबिक इसके लिए अमरीका को न सिर्फ संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता के लिए भारतीय दावे का खुलकर समर्थन करना चाहिए बल्कि भारत को उच्च तकनीक के निर्यात पर लगे प्रतिबंधों को भी हटाना चाहिए. लेकिन अमेरिकी थिंक टैंक के अनुसार बदले में भारत को भी कुछ वायदे और नीतियों में परिवर्तन करना चाहिए. सी.एन.ए.एस के अनुसार भारत को तेजी से सिविल परमाणु समझौते को लागू करना चाहिए जो कि परमाणु उत्तरदायित्व सम्बन्धी विवादों के कारण लटक गया है.

दरअसल, अमेरिका चाहता है कि भारत हाल ही में संसद में पारित परमाणु उत्तरदायित्व कानून में संशोधन करके दुर्घटना की स्थिति में परमाणु रिएक्टर सप्लाई करनेवाली अमेरिकी कंपनियों के उत्तरदायित्व को कम करे. हालांकि परमाणु उत्तरदायित्व कानून उतना कठोर नहीं है, जितना उसे होना चाहिए था लेकिन इसके बावजूद परमाणु रिएक्टर और अन्य साजो-सामान सप्लाई करने को आतुर अमेरिकी कंपनियां- जेनरल इलेक्ट्रिक और वेस्टिंगहाउस आदि इस कानून के कई प्रावधानों को लेकर परेशान और नाराज हैं.

वे किसी भी तरह की जवाबदेही नहीं उठाना चाहती हैं. उन्हें सबसे अधिक आपत्ति परमाणु उत्तरदायित्व कानून की धारा १७(बी) को लेकर है. उनकी मांग है कि भारत सरकार को इस प्रावधान को हल्का करना चाहिए जो त्रुटिपूर्ण उपकरणों की आपूर्ति के कारण परमाणु दुर्घटना की स्थिति में भारतीय आपरेटर को सप्लायर के खिलाफ राइट टू रिकोर्स का अधिकार देता है.


अमेरिकी कंपनियां चाहती हैं कि उत्तरदायित्व कानून से यह प्रावधान हटाया जाए और अगर ऐसा करना संभव न हो तो भारत सरकार परमाणु बिजली संयंत्र के आपरेटर यानी न्यूक्लियर पावर कार्पोरेशन आफ इंडिया(एन.पी.सी.आई.एल) को द्विपक्षीय समझौते में यह अधिकार छोड़ते हुए अमेरिकी कंपनियों के खिलाफ इसका इस्तेमाल न करने का स्वैछिक ‘वचन’(अंडरटेकिंग) देने के लिए तैयार करे. हैरानी की बात यह है कि अमेरिकी कंपनियों की इस मुहिम में कुछ भारतीय कंपनियां भी शामिल हैं जो भारतीय परमाणु बिजली कारोबार के बाज़ार में अपना हिस्सा तो चाहती हैं लेकिन दुर्घटना की स्थिति में सीमित और न्यूनतम उत्तरदायित्व के लिए भी तैयार नहीं हैं.

यही नहीं, अमेरिकी कंपनियां यू.पी.ए सरकार पर यह भी दबाव बनाये हुए हैं कि परमाणु उत्तरदायित्व कानून को प्रचलित करने के लिए बनाये जानेवाले नियमों, विनियमों और प्रक्रियाओं को हल्का और ढीला रखा जाए. साफ है कि ये बड़ी और प्रभावशाली अमेरिकी कंपनियां भारतीय संसद द्वारा पास कानून और उसकी भावना के विपरीत उसे बेमानी बनाने पर तुली हुई हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि राष्ट्रपति ओबामा और उनका प्रशासन अमेरिकी कंपनियों की इस मुहिम के साथ खुलकर खड़ा है.

वह हर तरह से भारत को घेरने की कोशिश कर रहा है. इसी रणनीति के तहत ओबामा प्रशासन भारत पर दबाव डाल रहा है कि वह परमाणु संधि को लागू करने के लिए पहले अंतर्राष्ट्रीय कन्वेंशन आन सप्लीमेंट्री कंपनसेशन फार न्यूक्लियर डेमेज (सी.एस.सी) पर हस्ताक्षर करे. भारत इसके लिए तैयार है लेकिन अमेरिका का कहना है कि इसपर हस्ताक्षर करने से पहले भारत को अपने परमाणु उत्तरदायित्व कानून को इसके प्रावधानों के अनुकूल बनाना होगा.

ओबामा की यात्रा की तैयारी के सिलसिले में हाल ही में भारत आये राजनीतिक मामलों के विदेश उपमंत्री विलियम बर्न्स ने साफ संकेत दिया कि भारतीय परमाणु उत्तरदायित्व कानून सी.एस.सी के प्रावधानों के मुताबिक नहीं है. इसका अर्थ साफ है कि अगर भारत को सी.एस.सी पर हस्ताक्षर करना है तो उसे अपने संसद द्वारा पारित घरेलू कानून को बदलना पड़ेगा. जबकि भारतीय अधिकारियों का कहना है कि उत्तरदायित्व कानून सी.एस.सी के अनुकूल है और सी.एस.सी में कहीं नहीं कहा गया है कि यह घरेलू राष्ट्रीय कानूनों के ऊपर है.

इसके बावजूद अमेरिका दबाव बनाये हुए है. ओबामा ने अपनी यात्रा से ठीक एक पखवाड़े पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को इस बाबत चिट्ठी लिखकर दबाव और बढ़ा दिया है. इस चिट्ठी में ओबामा ने भारत से अमेरिकी अपेक्षाओं का उल्लेख किया है. जाहिर है कि ओबामा की विश लिस्ट बहुत भारी-भरकम है. ओबामा चाहते हैं कि दौरे के दौरान भारत न सिर्फ कई लंबित रक्षा समझौतों पर हस्ताक्षर करने के लिए तैयार हो जाए बल्कि कई बड़े रक्षा सौदों जैसे लगभग ५.८ अरब डालर (२६ हजार करोड़ रूपये) के युद्धक मालवाही विमान सी-१७ ग्लोबमास्टर आदि की खरीद को भी हरी झंडी दिखाए.

ओबामा चीन के खिलाफ भारत को ‘मजबूत बनाने’ के लिए यह भी चाहते हैं कि भारत अपने खुदरा व्यापार क्षेत्र को विदेशी खासकर वालमार्ट जैसी अमेरिकी कंपनियों के लिए खोले. इसके अलावा वे अमेरिकी कंपनियों के लिए वित्तीय क्षेत्र खासकर पेंशन-बीमा आदि को भी और उदार बनाने की मांग कर रहे हैं. वह यह भी चाहते हैं कि भारत अपना घरेलू बाजार अमेरिकी कृषि और दुग्ध उत्पादों के लिए खोले. लेकिन दूसरी ओर, खुद ओबामा घरेलू राजनीति के दबावों के कारण भारतीय कंपनियों के लिए आउटसोर्सिंग के दरवाजे बंद करने की हर जुगत कर रहे हैं. यही नहीं, वे सुरक्षा परिषद में भारत की स्थाई सदस्यता के दावे पर भी कोई प्रतिबद्धता नहीं देना चाहते हैं.


इस मामले में अमेरिकी रणनीति बिल्कुल साफ है. किसी भी दोस्ती में उसकी दिलचस्पी तभी तक है जब तक वह उसके आर्थिक, राजनीतिक, कूटनीतिक और सामरिक हितों को पूरा करती है. असल में, उसे अपने फायदे के अलावा कुछ नहीं दिखता है. भारत में भी अमेरिकी दिलचस्पी की वजहें स्पष्ट हैं. अमेरिका भारत को अपने अपने उद्योगों और सेवाओं के लिए आकर्षक बाजार के रूप में देखता है. उसे मालूम है कि मरते अमेरिकी परमाणु रिएक्टर उद्योग और अन्य साजो-सामानों के साथ-साथ रक्षा उपकरणों के लिए भारत बहुत बड़ा बाजार है. दूसरी ओर, वह रणनीतिक तौर पर चीन के खिलाफ भारत के कंधे पर रखकर बंदूक चलाना चाहता है.

कहने की जरूरत नहीं है कि इन उद्देश्यों को हासिल करने के लिए ही अमेरिका उच्च तकनीकी निर्यात सम्बन्धी प्रतिबंधों को हटाने, परमाणु रिएक्टरों की आपूर्ति आदि भारत अनुकूल दिखनेवाले फैसले कर रहा है या करने को तैयार है. साफ है कि अमेरिका के लिए यह ‘दोस्ती’ किसी भावना या आदर्श के आधार पर नहीं बल्कि ठोस राजनीतिक, वैचारिक, आर्थिक और रणनीतिक हितों पर आधारित है. इस मामले में वह किसी मुगालते में नहीं है. ऐसे में, भारत को सोचना है कि उसके हित इस ‘दोस्ती’ में कहां तक सध रहे हैं? देखने होगा कि ओबामा भारत से जो मांग रहे हैं, उसके बदले दे क्या रहे हैं?


इस सवाल पर विचार करना इसलिए जरूरी है कि अमेरिका भारत को दोस्त की तरह कम और अपने एक ‘क्लाइंट स्टेट’ की तरह अधिक देखता है. यही कारण है कि अमेरिकी कंपनियां न सिर्फ परमाणु उत्तरदायित्व कानून की जवाबदेही स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं बल्कि अमेरिका अपनी ‘दोस्ती’ की कीमत भारत को अपनी स्वतंत्र विदेश नीति छोड़कर अमेरिकी विदेश नीति के साथ नत्थी करने के रूप में मांग रहा है. सवाल है कि वह ‘दोस्ती’ की जो ‘कीमत’ मांग रहा है, क्या भारत वह कीमत चुकाने को तैयार है?

('राष्ट्रीय सहारा' में २७ अक्तूबर को प्रकाशित आलेख का विस्तारित रूप)

1 comment:

Mansoor Naqvi said...

Yaksha Prashna..
lekh vastavikta se samruddha hai..
badhaiii.
Mrigendra ji ko cartoon lagane ke liye dhanyawad.