Friday, June 26, 2009

भाजपा का अंतर्द्वद्व

अफरातफरी और अनिश्चितता के माहौल का फायदा उठाकर पार्टी के कई नेताओं ने अपने ही साथियों को नीचा दिखाने तथा पुरानी खुन्नसें निकालने का काम शुरू कर दिया।

राजीव पांडे

लोकसभा चुनावों में पराजय का मुंह देखने के बाद से ही भारतीय जनता पार्टी में कुछ ठीक नहीं होता दिखाई दे रहा है। होना तो यह चाहिए था कि पार्टी के वरिष्ठ नेता एक साथ बैठकर आत्मविश्लेषण करते और हार के कारणों का पता लगाते तथा उसके बाद उन कारणों को दूर करने और पार्टी को मजबूत बनाने में जुट जाते। यह सही है कि पार्टी सत्ता से दूर रह गई और लालकृष्ण आडवाणी का प्रधानमंत्री बनने का सपना पूरा नहीं हो पाया। पार्टी की इतनी दुर्गति भी नहीं हुई थी कि उसके नेता सिर पकड़ कर बैठ जाते। पार्टीजनों में तो इतनी हताशा छा गई, जसे कि सब कुछ खत्म हो गया।

जब अटल बिहारी वाजपेयी ने सक्रिय राजनीति से अलग होने का ऐलान किया था तो सब जानते थे कि अब पार्टी के नेता आडवाणी ही होंगे। लेकिन अब आडवाणी के बाद कौन? जब यह सवाल सामने आया तो सबके स्वार्थ सामने आने लगे। बहुत मनाने के बाद आडवाणी फिलहाल विपक्ष के नेता बने रहने को तैयार हो गए हैं, लेकिन उन्होंने जब अपने ही गुट के माने जाने वाले अरुण जेटली को राज्यसभा में पार्टी का नेता और सुषमा स्वराज को लोकसभा में उपनेता नियुक्त किया तो उसने आग में घी डालने जसा काम किया। आडवाणी की पीढ़ी के नेता इस बात से इतने नाराज हुए कि उन्होंने इन नियुक्यिों को एक तरह से साफ चुनौती दे डाली। यह सीधे आडवाणी की सर्वोच्चता को चुनौती देना था। इससे यह भी साफ हो गया कि आडवाणी अब उतने मजबूत नहीं रहे। उनकी मौजूदगी मे जब यह कलह शुरू हो गई है तो उनके पद से हट जाने के बाद तो पार्टी में बाकायदा युद्ध ही छिड़ जाएगा।

इस अफरातफरी और अनिश्चितता के माहौल का फायदा उठाकर पार्टी के कई नेताओं ने अपने ही साथियों को नीचा दिखाने तथा पुरानी खुन्नसें निकालने का काम शुरू कर दिया। कुछ ने पार्टी को अपने पुराने एजेंडा में वापस चलने की वकालत की तो कुछ उसे समय के अनुसार बदलने की बात कह कर विकास को एजेंडा बनाने की बात करने लगे। इन नेताओं को लगा कि उन्हें इससे अच्छा अवसर मिल नहीं सकता। वह एक तीर से दो निशाने साधना चाहते थे। उन्हें लगा कि वह अपने दुश्मनों पर हार का ठीकरा फोड़ उन्हें पार्टी में किनारे लगाने के साथ ही अपना स्वार्थ सिद्ध करने में सफल हो जाएंगे। उन्हें इससे कोई सरोकार नहीं था कि उनका यह अभियान पार्टी को कहां ले जाएगा।

इस अंदरूनी कलह का कार्यकर्ताओं के मनोबल पर कितना खराब असर पड़ेगा। ये नेता पार्टी के हितों को पूरी तरह नजरअंदाज कर रहे थे लेकिन नेतृत्व ने चुप्पी साधी हुई थी। यह सिलसिला पार्टी के सर्वमान्य नेता लालकृष्ण आडवाणी और पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह की नाक के नीचे शुरू हुआ लेकिन उन्होंने इस पर तुरंत रोक लगाने के लिए कोई प्रभावी कार्रवाई नहीं की। जब यह मामला गर्म होने लगा तो हाईकमान ने हाथ-पैर मारने शुरू किए लेकिन तब तक इसकी आंच राज्यों में भी फैल गई थी।
उत्तराखंड, कर्नाटक और हरियाणा उन राज्यों में से थे, जहां असंतुष्ट खुल कर सक्रिय हो गए। असंतुष्टों की इस मुहिम को अपनी पहली सफलता मिल भी गई, जब उत्तराखंड के मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूरी ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। अब इनके मुंह में खून लग गया है और ये भविष्य में और सक्रिय ही होंगे और न तो अन्य राज्य और न ही केंद्रीय हाईकमान ही इससे बच पाएगा।

इन असंतुष्टों की सक्रियता का एक और कारण यह भी है कि इन्हें पार्टी का कोई न कोई दिग्गज नेता हवा दे रहा है। पार्टी अध्यक्ष स्वयं इस स्थिति में नहीं हैं कि वह किसी बड़े नेता को नाराज कर सकें क्योंकि उनके अध्यक्ष पद के इस कार्यकाल के कुछ ही महीने रह गए हैं। यह भी एक वजह है कि असंतुष्टों में हाईकमान का उतना डर नहीं रह गया दिखता है।

दो साल पहले जब आडवाणी ने खंडूरी को उत्तराखंड का मुख्यमंत्री बनाया तो, उस समय राज्य के अनेक पार्टी नेताओं ने उनकी मुखालफत की। लेकिन तब उनकी एक नहीं चली क्योंकि पार्टी का केंद्रीय नेतत्व मजबूत था। इन चुनावों में पार्टी को राज्य की पांच सीटों में से एक भी सीट नही मिली तो ये नेता, जो उनकी कार्यशैली से भी प्रसन्न नहीं थे, उनके पीछे पड़ गए।
प्रदेश से राज्यसभा के सांसद ने तो अपने पद से ही त्यागपत्र दे दिया। लेकिन उस सांसद के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई। उनसे केवल अपना इस्तीफा वापस लेने को कह दिया गया। उत्तराखंड की घटना महज एक शुरुआत है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में पार्टी के भविष्य को लेकर आशंकाएं ही पैदा होती हैं क्योंकि आडवाणी के बाद कोई ऐसा नेता नहीं है, जो सबको एक साथ लेकर चल सके। पंक्ति के जो नेता हैं उनमें अहं का जबरदस्त टकराव है, जो बिखराव का कारण भी बन सकता है।

Wednesday, June 17, 2009

यूपीए सरकार की भाषाई अक्षमता

मुंबई हमले के बाद सरकार के गरम तेवर अब नरम पड़ चुके हैं। जमात उद दावा हाफिज मोहम्मद सईद की रिहाई के बाद मनमोहन सिंह का लोकसभा में यह कहना कि हमारे पास बातचीत के अलावा विकल्प नहीं है, इस ओर इशारा भी करते हैं। चुनाव जीतने के बाद सरकार द्वारा मुंबई हमले पर अपनाया गया लचर रवैया बताता है कि ‘तेवरों में वह गर्मी चुनावों तक के लिए ही थी। बहरहाल सरकार को यह सोचना होगा कि रिहाई के बाद हाफिज सईद मस्जिद में नमाज तो नहीं पड़ेगा। अब भारत एक और मुंबई हमला ङोलने के लिए तैयार रहे।

महेंद्र सिंह

आम चुनाव में अप्रत्याशित रूप से मजबूत जनादेश पाकर आत्ममुग्ध हो चुकी कांग्रेस नीत यूपीए सरकार आने वाले पांच सालों में देश को कैसी सरकार देने जा रही है। इस पर लोग अपने अपने-अपने तरीके से विचार प्रकट कर रहे हैं। लेकिन विदेश नीति के मोर्चे पर यूपीए सरकार अपनी भाषाई अक्षमता स्पष्ट कर चुकी है। हाल में पाकिस्तान की अदालत ने मुंबई हमले के सूत्रधार हाफिज सईद को यह कहते हुए रिहा कर दिया कि सरकार आरोपी के खिलाफ कोई ऐसा सबूत या दस्तावेज पेश करने में विफल रही है जिससे मुंबई हमले में उसकी संलिप्तता का पता चलता हो। खर भारतीय सरजमीं पर आतंक का नंगा नाच प्रायोजित करने वाले मसूद अजहर और हाफिज सईद के खिलाफ पाकिस्तान सरकार के सख्त रुख अख्तियार करने की उम्मीद मनमोहन सिंह और कुछ कथित बुद्धिजीवी स्तंभकार ही कर सकते हैं जो चौबीसों घंटे पाकिस्तान से बातचीत की वकालत करते रहते हैं।

दिलचस्प है कि हाफिज सईद की गिरफ्तारी के बाद भारत सरकार की प्रतिक्रया सिर्फ ‘दुर्भाग्यपूर्णज् पर सीमित होकर रह गई। गरिमा के मानस अवतार शालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को उस रात को नींद आई कि नहीं आई। ये तो वही जानें। लेकिन मुंबई हमले में अपने परिजनों को खोने वाले भारतीय, शहीद पुलिस अधिकारियों, सुरक्षा बलों की विधवाओं और बच्चों के साथ हर उस भारतीय को बैचैनी जरूर हुई होगी जिसने 72 घंटे तक मुंबई के जनजीवन को थमते देखा और महसूस किया। सरकार भी वही है। प्रधानमंत्री भी मनमोहन सिंह हैं। फिर अचानक भारतीय नेतृत्व के तेवर इतने नरम क्यों हो गए। ऐसा लगा कि भारत से बहुत दूर कहीं कोई घटना घट गई हो और भारत सरकार को राजनयिक शिष्टाचार के नाते कोई प्रतिक्रया देनी थी। हमारे विदेश मंत्री ने यह कहकर रस्म अदायगी कर दी कि हाफिज सईद की रिहाई दुर्भाग्यपूर्ण है। सही है। हम इससे ज्यादा कर भी क्या सकते हैं। पाकिस्तान के पास परमाणु बम है।

वैसे भी पाकिस्तान आजकल स्वात और वजीरिस्तान में आतंकवादियों के खिलाफ अमेरिका के पैसे से लड़ाई लड़ रहा है। हमें शिकायत पाकिस्तान से नहीं है। हमें भारत सरकार से भी शिकायत नहीं होती अगर उसने चीख चीख कर मुंबई हमले के लिए जिम्मेदार लोगों को हर हाल में न्याय के कटघरे में खड़ा करने की बात न की होती। मनमोहन सिंह जी ने इसके बाद संसद में एक और धमाका कर दिया। उन्होंने कहा कि हमारे पास पाकिस्तान से बाचचीत करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। आम भारतीय को यह बात समझ में नहीं आई कि मुंबई हमले से लेकर आम चुनाव के दौरान मनमोहन सिंह ने पाकिस्तान के लिए इतनी उदारता क्यों नहीं दिखाई। क्या यह महज संयोग है कि प्रधानमंत्री संसद में पाकिस्तान के साथ बातचीत का संकेत देते हैं और दो चार दिन बाद ही ओबामा के दूत बिलियम बर्न्‍स भारत आकर मनमोहन सिंह को ओबामा के नाम की पाती देते हैं। लगे हाथ बर्न्‍स यह भी कह देते हैं कि कश्मीर के मामले में वहां के लोगों की बात सुनी जानी चाहिए। अब बर्न्‍स को कौन बताए कि कश्मीर में अभी कुछ माह पहले अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों की मौजूदगी में विधानसभा चुनाव हुए हैं और जनता ने अपने प्रतिनिधियों को चुनकर भारतीय लोकतंत्र में आस्था व्यक्त की है।

हां अगर बर्न्‍स आईएसआई के पैसे पर पेट पालने वाले हुर्रियत के नेताओं को ही कश्मीरियों की आकांक्षाओं का प्रतीक मानती है तो ये उनकी समस्या है। एक और दिलचस्प बात है कि जब भी कश्मीरी अवाम की आकांक्षाओं की बात होती है तो अमेरिका, ब्रिटेन और भारतीय नेतृत्व को भी पाकिस्तान के अवैध कब्जे वाले कश्मीर की याद नहीं आती जहां के लोग यह भी नहीं जानते कि लोकतंत्र किस चिड़िया का नाम है। इसके लिए हमारे देश का धर्मनिरपेक्ष मीडिया भी उतना ही जिम्मेदार है जितना भारतीय नेतृत्व। हमारे देश के पत्रकार किसी बर्न्‍स या मिलीबैंड से क्यों नहीं पूंछते कि कश्मीरी अवाम की आकांक्षा क्या भारतीय कश्मीर तक ही सीमित है। सवाल तो अरुंधती राय से भी पूछा जा सकता है कि कश्मीर में मानवाधिकार के उल्लंघन को लेकर सेना पर आरोप लगाने से पहले उन्हें मुजफ्फराबाद में पिछले सात दशकों से लोकतंत्र के साथ हो रहा बलात्कार क्यों नहीं दिखता। क्या हम मान लें कि विलियम बर्न्‍स ओबामा के उस प्लान को आगे बढ़ाने के लिए आए थे जो उन्होंने कश्मीर विवाद को हल करने के लिए अमेरिकी मतदाताओं के समक्ष प्रस्तुत किया था। यह महज संयोग नहीं हो सकता है कि बर्न्‍स के बाद अगले महीने जुलाई में अमेरिकी की विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन भारत आ रहीं हैं।

कश्मीर जसे पुराने अंतरराष्ट्रीय विवाद को सुलझाने के लिए बातचीत ही एक मात्र विकल्प है इससे शायद ही कोई इनकार करे लेकिन बातचीत की मेज पर जाने के पहले बातचीत का माहौल तो बने। कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार को अपने हनीमून पीरियड में सब कुछ अच्छा लग रहा होगा लेकिन ऐसा हर भारतीय के साथ नहीं है। कांग्रेस नेतृत्व को यह बात समझ लेनी चाहिए कि खुली हवा में सांस ले रहा हाफिज सईद मस्जिद में जाकर इबादत नहीं कर रहा होगा बल्कि वह भारत में एक और आतंकी मंजर की पटकथा लिखने में जी जान से जुट गया हो गया क्योंकि उसकी दुकान इसी से चलती है। मनमोहन जी मुंबई हमले के बाद उभरे आम जनता के आक्रोश को याद करिए और हनीमून सिंड्रोम से जल्दी निकलिए।

Tuesday, June 9, 2009

तैयार हो रहा है विपक्ष

मृगेंद्र पांडेय

लोकसभा चुनाव में हार के बाद भाजपा की चुप्पी ने लोगों को यह सोचने के लिए मजबूर कर दिया था कि अब विपक्ष की भूमिका कौन निभाएगा। पिछली सरकार में वाम दल भले ही सरकार को बाहर से समर्थन दे रहे थे, लेकिन विपक्ष की भूमिका में भी वही थे। यही कारण है कि लोकसभा चुनाव में भाजपा को हार का सामना करना पड़ा। अब करारे तरीके से विपक्ष की भूमिका नहीं निभा पाने के बाद इस बात की कयास लगाई जाने लगी थी कि अब विपक्ष समाप्त हो गया।

लोकसभा में कार्यवाही के दौरान जिस तरह से भाजपा नेता सुषमा स्वराज ने न केवल पार्टी का पक्ष रखा, बल्कि सरकार पर धावा बोला, इससे पहली बार लगा कि अब विपक्ष तैयार हो रहा है। महिला आरक्षण हो या फिर देश में एम्स बनाने का मामला सुषमा ने अपनी बात जमकर रखी। महिला आरक्षण के मुद्दे पर सुषमा ने कहा कि जब वह संसदीय कार्यमंत्री थीं, तो उन्होंने बिल को बहस के लिए लगा दिया था। लेकिन सरकार सौ दिन में जिस महिला आरक्षण की बात कह रही है, दरअसल वह छलावा है। सुषमा ने कहा कि सरकार ने सौ दिन में महिला आरक्षण का कोई वादा नहीं किया है। सरकार ने तो सिर्फ यह कहा है कि महिला आरक्षण लाना उनकी प्राथमिकता है। अगर उस मुद्दे पर एक भी बहस हो जाती है तो उनके सौ दिन के एजेंडा में शामिल महिला आरक्षण का वादा पूरा हो जाता है।
केंद्र-राज्य के संबंधों के बारे में सुषमा ने केंद्र की कांग्रेस सरकार पर पक्षपात का आरोप लगाया।

सुषमा ने कहा कि जब वह मंत्री थीं, उन्होंने चिकित्सा की दृष्टि से पिछड़े छह राज्यों में एम्स के निर्माण का प्रस्ताव रखा था। उसमें पांच राज्य कांग्रेस शासित थे और एक उड़ीसा एनडीए शासित। लेकिन सरकार ने उस एम्स के निर्माण के बारे में एक भी लाइन अपने सौ दिन की कार्ययोजना में शामिल नहीं किया है। मध्यप्रदेश के साथ हो रहे भेदभाव पर सुषमा ने कहा कि प्रदेश बिजली संकट से जूझ रहा है। प्रदेश के मुखिया केंद्र से मदद की गुहार लगा रहे हैं, लेकिन केंद्र सहयोग को तैयार नहीं हो रहा है। मध्यप्रदेश का कोयला व्यापारियों को बेचा जा रहा है और प्रदेश सरकार को केंद्र सरकार बाहर से कोयला मंगाने की बात कह रही है।

सुषमा ने सरकार को कई और मुद्दों पर घेरा। इसे विपक्ष के तैयार होने के रूप में देखा जा सकता है। अगर विपक्ष आठ दिन चले संसद सत्र को तैयार होने में लगा भी देता है तो उसे देर नहीं मानी जाएगी। लेकिन भाजापा अगर संसद की अगली बैठक में खुद को तैयार करने में समय काटेगी तो यह जनता न तो बर्दाश्त करेगी, न ही भाजपा को माफ।

Monday, June 1, 2009

पत्रकार का दाम एक सौ एक

पत्रकार बहुत सस्ते हो गए हैं। अब महज एक सौ एक रुपए में भी काम कर जाते हैं। इसलिए तो कांग्रेस की एक प्रदेश महासचिव ने संवाददाता सम्मेलन समाप्त होने के बाद पत्रकारों को प्रेस नोट के साथ लिफाफे में एक सौ एक रुपए थमा दिए।
दरअसल कांग्रेस कार्यकर्ता जाहरा खान उत्तर प्रदेश महिला कांग्रेस कमेटी का महासचिव मनोनीत की गई। इस अवसर पर उन्होंने पार्टी सुप्रीमो सोनिया गांधी को धन्यवाद देने के लिए पूर्व सांसद और कांग्रेस के लोकसभा प्रत्याशी रहे रमेश चंद तोमर के साथ एक मंच पर आईं।

पत्रकार सम्मेलन जब समाप्त हुआ तो जाहरा खान ने सभी पत्रकारों को एक लिफाफे में रखकर प्रेस विज्ञप्ति दी। पत्रकारों ने जब से खोलकर देखा तो उसमें विज्ञप्ति के साथ 101 रुपए भी मौजूद थे। जब पत्रकारों ने उनसे रुपए के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि यह उन्होंने पत्रकारों को उनके कार्यालय आने का किराया दिया है। यह सुनकर सभी पत्रकार भड़क गए। सभी पत्रकारों ने पैसे वापस कर दिए और विज्ञप्ति लेकर वहां से जाने लगे।

उन्होंने सम्मेलन के बाद आयोजित भोज के निमंत्रण को भी नामंजूर कर दिया। इसके बाद काग्रेस कार्यकर्ता मांफी मांगने लगे। जाहरा खान पत्रकारों के आगे हाथ जोड़कर खड़ी हो गई और अपने किए पर शर्मिदा होकर मांफी मांगने लगी। पैसों के संबंध में जब रमेश चंद तोमर से पूछा गया तो उन्होंने लिफाफे में पैसे रखने के मामले पर अनभिज्ञता जाहिर कर दी। उनका कहना था कि उन्हें नहीं पता कि लिफाफे में पैसे किसने रखे।