Wednesday, June 25, 2008

एक तोहफा, एक तड़प...

क्रिकेट और क्रिकेटरों की लोकप्रियता हमेशा आसमानी बुलंदियों वाली रही है. सीके नायडू को ही लीजिये. उनके क्रिकेटीय आंकड़े बेहद साधारण थे. पर कहते हैं कि, 'महानता पर नजर रखनी चाहिए न कि आंकड़ेबाजी पर डा. राधाकृष्णन अपने काम को नागा कर 1932 में आक्सफोर्ड से लंदन की यात्रा कर उनका खेल देखने पहुंचे थे. कम्युनिस्ट सांसद हीरेन मुकर्जी ने उन्हें सबसे पहले ईडन गार्डन में खेलते देखा जहां उन्होंने सिर्फ नौ रन बनाए, लेकिन, 'इस संक्षिप्त पारी में उनके द्वारा ग्लांस की गयी एक बॉल एक क्षणांश चमककर मेरी स्मृति में अमिट हो गयी।'

ब्रैडमैन से तुलना करते हुए क्रिकेट समीक्षक नेविल कार्डस ने लिखा- 'नायडू में फुर्ती, चपलता और कलाई का कमाल था। ब्रैडमैन में दृढ़ता और एकाग्रता तो थी लेकिन वह दुर्लभ कविताई उनके खेल में नहीं थी जिसे संवेदना कहा जाता है. नायडू अत्यधिक संवेदनशील बल्लेबाज थे. ब्रैडमैन का खेल मशीनी था, जबकि नायडू में अद्भुत प्रतिभा होते हुए भी चूक की गुंजाइश थी. वे गेंदबाजों, दर्शकों दोनों को आकर्षित करते थे क्योंकि क्रिकेट की महिमामयी अनिश्चितता नायडू के कारण कभी खतरे में नहीं पड़ी.


सीके के बारे में पढ़कर ही जाना. उनके बाद भी एक से एक धुरंधर खिलाड़ी हुए जिन्होंने इस लाजवाब खेल को इस देश में रचा-बसा दिया. जहां तक किसी एक खिलाड़ी की बात करें जिसने क्रिकेट को बेतहाशा लोकप्रिय बनाने का काम लिया तो शायद वे सुनील गावसकर होंगे. उनकी नायाब कलात्मकता और रिकार्डों ने लोगों को इस खेल का गजब का दीवाना बना दिया. जो कुछ कोर कसर थी वह सचिन की जादुई प्रतिभा ने पूरी की. समय, उसके स्वभाव, बाजार और उसकी मांगों से खेल बदलता रहा लेकिन असली जवाबदेही तो खिलाड़ियों की थी.


सुनील, सचिन, सौरव, राहुल, सहवाग से धोनी तक और मशहूर फिरकी-तिकड़ी से लेकर कपिल, कुंबले-पठान तक एक से एक चमकती प्रतिभाओं के कारण क्रिकेट आज राष्ट्रीय जुनून बना हुआ है. ऐसे नैसर्गिक खिलाड़ियों के कारण ही आशीष नंदी कहते हैं कि यह है भारतीय खेल जो दुर्घटनावश इंग्लैंड में जन्मा. शशि थुरूर भारत को क्रिकेट का आध्यात्मिक घर कहते हैं. लेकिन अभी जब तिरासी का पचीसा जश्न मनाने विजेता टीम के लगभग सारे देव दिल्ली में जमा हुए तो उनकी तस्वीरें देख एक मित्र ने सटीक टिप्पणी की कि पूरे टूर्नामेंट में कोई खास योगदान न करने पर एक महान खिलाड़ी भी कैसा बौना हो जाता है.


वाकई उस जश्न के दिन कपिलदेव विराट थे. आईपीएल-आईसीएल की तमाम कटुता के बावजूद वहां कपिल ही कपिल थे. गावस्कर सहित तिरासी के सभी खिलाड़ी उनके कसीदे पढ़ने की होड़ में थे. जिम्बाब्बे के खिलाफ 175 की सनाकेदार पारी और फाइनल में किंग रिचर्ड्स का हैरतअंगेज कैच. कपिल ही उस अद्वितीय और सनसनीखेज जीत के महादेव थे.


यह एक जीत थी जिसका देश को और क्रिकेट को इंतजार था. इस एक जीत की बदौलत सीके जैसी अपार लोकप्रियता कपिल के नसीब में आयी. लोकचेतना में छिपा-दबा क्रिकेट प्रेम इस जीत से बेधड़क बाहर आ गया. मैदानों से गली-कूचे तक क्रिकेट फैल गयी. टीवी स्क्रीन, मैदान और ड्राइंगरूम दर्शक दीर्घाओं में बदल गए. इस एक बड़ी जीत से तमाम खेलों के बीच क्रिकेट की स्थिति वही कपिल-गावसकर वाली हो गयी. आसानी से कहा जा सकता है कि इसके बाद क्रिकेट में जो कुछ भी उम्दा और खराब हुआ उसमें तिरासी बराबर का भागीदार है. आज क्रिकेट में बेतहाशा पैसा और शोहरत है. मुंबई-दिल्ली से अलग छोटे-छोटे शहर-कस्बों के मध्य और निम्न मध्यवर्गो से आई होनहार प्रतिभाएं हैं. पर तिरासी के तोहफे के बाद आई पूंजी ने खेल के प्रति ललक तो बढ़ायी पर वह तड़प नहीं जो दूसरा विश्वकप दिला दे.


टी-20 में हम विश्व विजेता हैं लेकिन तिरासी की तरस अभी कायम है. तिरासी के बाद दुनिया बदल चुकी है, क्रिकेट भी. उसकी आड़ में कोला और पेप्सी जैसी कई अनिर्णीत जंग जारी हैं. भ्रदजनों का खेल भर नहीं रह गया है क्रिकेट. ग्यारह खिलाड़ियों पर सब कुछ जैसे दांव पर लग गया है। तेजतर्रारी और युद्ध उसके सबसे सटीक रूपक हैं. जैसा कि एक लेखक ने लिखा- 'उकसाने की रोटी खाने वाली राजनीति, लेखकों और मीडिया की पौ बारह है.' क्रिकेट को कभी राष्ट्रवाद तो कभी साम्प्रदायिक भावनाओं तक से जोड़ दिया जाता है. 25 जून की याद करते हुए क्रिकेट के इस विचारहीन आपातकाल पर चिंतित हुआ जा सकता है. वेस्टइंडीज या ऑस्ट्रेलिया जैसे अपर्याप्त इतिहास-संस्कृति और नायकविहीन राष्ट्रों के लिए क्रिकेट राष्ट्रवाद और क्रिकेटर महानायक हो सकते हैं. ऑस्ट्रेलिया में तो कहते हैं कि घुड़दौड़ के घोड़े भी राजनेताओं से ज्यादा प्रतिष्ठित हो जाते हैं.


उम्मीद करनी चाहिए कि अनगिनत महानायकों वाले इस देश में क्रिकेट को एक सुंदर खेल ही रहने दिया जाएगा. समृद्ध और शक्तिशाली हमारी संस्कृति उसे उसकी खूबसूरत पनाहों में ही रखेगी.




मनोहर नायक

Wednesday, June 11, 2008

सरकार को मंजूर नहीं थे दूसरे विकल्प...

आम आदमी के हितों का ख्याल रखने के वायदे के साथ सत्ता में आई यूपीए सरकार ने एक बार फिर जब चुनने का मौका आया तो महंगाई की मार से त्रस्त आम आदमी के बजाय तेल कंपनियों के मुनाफे को प्राथमिकता दी. पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में एक झटके में इतनी बढ़ोतरी के पीछे न तो कोई आर्थिक तर्क है और न ही राजनीतिक बुद्धिमता. लेकिन ऐसा लगता है कि यूपीए सरकार ने नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के प्रति अपनी अंधभक्ति में आर्थिक तर्क और राजनीतिक बुद्धिमता दोनों को ताक पर रख दिया है.

पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा सहित प्रधानमंत्री और यूपीए सरकार का यह तर्क गले से नहीं उतरता है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में भारी उछाल के कारण घरेलू बाजार में पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में बढ़ोतरी के अलावा और कोई विकल्प नहीं रह गया था. यह सच नहीं है. असल में, यूपीए सरकार कीमतों में भारी बढ़ोतरी के अलावा किसी और विकल्प पर विचार के उत्सुक ही नहीं थी. यही कारण है कि पिछले एक महीने खासकर कर्नाटक चुनाव के नतीजों के बाद से मनमोहन सिंह सरकार और गुलाबी मीडिया ने ऐसा माहौल बनाया, जैसे कीमतें तत्काल नहीं बढ़ीं तो सरकारी तेल कंपनियों के साथ-साथ अर्थव्यवस्था भी दिवालिया हो जाएंगी.

खुद प्रधानमंत्री ने एसोचैम के सम्मेलन में हाथ खड़े करते हुए कहा कि अब सरकार पेट्रोलियम सब्सिडी का बोझ उठाने के लिए तैयार नहीं है और लोगों को इसका कुछ भार उठाने के लिए तैयार हो जाना चाहिए. गुलाबी अखबारों के जरिए यह सूचना देते हुए एक भयावह तस्वीर खींचने और कीमतों में बढ़ोतरी के पक्ष में जनमत बनाने की कोशिश की गई कि अगर पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में भारी बढ़ोतरी नहीं हुई तो तेल कंपनियों को इस साल 2.46 लाख करोड़ रुपए का घाटा हो सकता है. इस तरह की खबरें जान-बूझकर 'लीक
' की गईं कि कीमतों में पेट्रोल पर 15 रुपए प्रति लीटर, डीजल पर 10 रुपए प्रति लीटर और एलपीजी पर 250 रुपए प्रति सिलेंडर की वृद्धि जरूरी हो गई है.

ऐसा बहुत योजनाबद्ध तरीके से किया गया ताकि जब आज कीमतों में बढ़ोतरी की घोषणा की गई तो आम लोगों को यह लगे कि वे सस्ते में छूट गए. इसके साथ ही, यूपीए और कांग्रेस लगा फाड़कर खुद को 'आम आदमी' का हितैषी साबित करने में जुट गए हैं कि देखो सरकार ने लोगों पर कितना कम बोझ डाला है ? लेकिन सच यह है कि मनमोहन सिंह सरकार ने जान-बूझकर ऐसा डरावना माहौल बनाया ताकि पेट्रोलियम उत्पादों में बढ़ोतरी को 'मजबूरी में उठाया कदम' और उचित ठहराया जा सके. इसके लिए न सिर्फ उसने तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश किया बल्कि लोगों की आंख में धूल झोंकने की कोशिश की है.

सच यह है कि तेल कंपनियों को 2.46 लाख करोड़ रुपए के घाटे का अनुमान इस गणित पर आधारित है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें 135 डॉलर प्रति बैरल पहुंच गई है. लेकिन ऐसा नहीं है कि देशी तेल कंपनियां हर दिन अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल खरीदती हैं और भारतीय बाजार में बेचती हैं. अधिकांश सौदे महीनों पहले और आज की तुलना में कम कीमत पर हुए हैं. यही नहीं, किसी एक दिन बाजार में कच्चे तेल की कीमत 135 डॉलर प्रति बैरल पहुंच जाए, इसका अर्थ यह नहीं है कि आने वाले सप्ताहों और महीनों में भी यही कीमत बनी रहेगी. जैसे फिलहाल, अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत गिरकर 124 डॉलर प्रति बैरल पर पहुंच गई है. यही नहीं, अंतरराष्ट्रीय बाजार की कीमतों के आधार पर घरेलू तेल उत्पादक और शोधन कंपनियों को तेल बेचने की इजाजत देने का भी कोई तुक नहीं है. कहने की जरूरत नहीं है कि इस स्थिति का लाभ उठाकर ओएनजीसी से लेकर रिलायंस तक जबर्दस्त मुनाफा कमा रहे हैं. आखिर सरकार गेहूं उत्पादक किसानों को भी यह अधिकार क्यों नहीं देती है कि वे अपना उत्पाद अंतरराष्ट्रीय कीमतों पर बेचें, भले उनकी उत्पादन लागत अंतरराष्ट्रीय बाजार की कीमतों से काफी कम क्यों नहीं हो
?

सवाल यह भी है कि पेट्रोलियम उत्पादों पर इतना अधिक टैक्स क्यों है ? क्या यह सच नहीं है कि केंद्र और राज्य सरकारों ने पेट्रोलियम उत्पादों को दुधारू गाय की तरह टैक्स उगाहने का आसान माध्यम बना दिया है ? उदाहरण के लिए दिल्ली में पेट्रोल की वास्तविक कीमत 21.93 रुपए प्रति लीटर और डीजल की 22.45 रुपए प्रति लीटर है, जबकि उनकी खुदरा कीमत 45.52 रुपए और 31.76 रुपए प्रति लीटर है. तथ्य यह है कि पेट्रोल की खुदरा कीमत का 49 प्रतिशत यानी लगभग आधा और डीजल की खुदरा कीमत का 26 प्रतिशत केंद्रीय उत्पाद कर और वैट के बतौर जाता है. कोई भी वित्तमंत्री पेट्रोलियम उत्पादों से होने वाली राजस्व आय छोड़ना नहीं चाहता है. यही कारण है कि पेट्रोलियम उत्पादों पर करों के जरिए केंद्र और राज्य सरकारों ने जहां 2003-04 में 1,04,375 करोड़ रुपए का राजस्व कमाया, वह यूपीए सरकार के तीसरे वर्ष में उछलकर 1,64,000 करोड़ तक पहुंच गई है. इसके अलावा, केंद्र सरकार तेल उत्पादक कंपनियों पर सेस के जरिए 7,500 करोड़ रुपए कमा रही है. जाहिर है, यह पैसा आम आदमी की जेब से ही जा रहा है.

यह ठीक है कि काफी दबाव और हो-हंगामे के कारण यूपीए सरकार खासकर वित्तमंत्री ने पेट्रोलियम उत्पादों पर आयात शुल्क और अन्य करों में टोकन कटौती का ऐलान किया है. लेकिन यह कटौती कीमतों में हुई बढ़ोतरी की तुलना में काफी कम है. यही नहीं, इस कटौती का फायदा भी तेल कंपनियों को होगा. कहने की जरूरत नहीं है कि मनमोहन सिंह सरकार ने पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में बढ़ोतरी का फैसला करते हुए तेल कंपनियों के मुनाफे का ध्यान ज्यादा रखा है.

यह फैसला आर्थिक और राजनीतिक रूप से सरकार पर बहुत भारी पड़ेगा. जाहिर है, इसका सीधा असर महंगाई की आग पर पड़ेगा जो और भभक उठेगी. मुद्रास्फीति की दर बढ़ने से आर्थिक विकास को धक्का लगना तय है. इस तरह सरकार को न माया मिलेगी और न राम. महंगाई की बेकाबू सुरसा यूपीए सरकार को जरूर लील जाएगी लेकिन इसके लिए कांग्रेस किसी और को नहीं, खुद को ही कटघरे में पाएगी.

आनंद प्रधान

Tuesday, June 10, 2008

खु्शहाली

जनता

महंगाई की मार से

कराह रही है

सरकार

आम आदमी की

सहिष्णुता कॊ

सराह रही है

राजेंद्र श्रीवास्तव

ओबामा की जीत का अर्थ...

अमेरिका के सत्ता प्रतिष्ठान का चरित्र कुछ ऐसा रहा है कि वहां यह धारणा रही है कि कोई अश्वेत या महिला अमेरिका का राष्ट्रपति निर्वाचित नहीं हो सकता. लेकिन पिछले पांच महीने में डेमोक्रेटिक पार्टी की उम्मीदवारी के लिए एक अश्वेत और महिला के बीच कांटे की टक्कर चली और अब जाकर अश्वेत के सर विजय का सेहरा बंधा है. एक अश्वेत अगर डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार का चुनाव जीत सकता है तो कल अमेरिकी राष्ट्र उसे राष्ट्रपति भी निर्वाचित कर सकता है.


अमेरिका के राजनीतिक और सामाजिक जीवन में यह एक बड़ा परिवर्तन है. प्रतीकात्मक परिवर्तन के अपने ही कुछ और महत्व होते हैं. यह निश्चय ही अमेरिका के बदलते राजनीतिक और सामाजिक मानचित्र को प्रतिबिंबित करता है. अभी अश्वेत बराक ओबामा ने महिला हिलेरी क्लिंटन को पराजित कर डेमोक्रेटिक पार्टी की उम्मीदवारी जीती है. दूसरी परीक्षा नवंबर में होगी जब वे रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार सेनेटर जॉन मैक्केन से टक्कर लेंगे और तभी तय होगा कि दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश की कमान किसके हाथ जाती है.


निश्चय ही दुनिया के किसी भी विकसित लोकतंत्र की दो सबसे बड़ी पार्टियों के बीच कोई बुनियादी अंतर नहीं होता. एक लंबी राजनीतिक प्रक्रिया के तहत ये व्यवस्था के अंग बन जते हैं. एक ही विचारधारा के स्वरूप में ढल जाते हैं. इसलिए ऐसा नहीं है कि ओबामा के राष्ट्रपति बन जाने पर अमेरिका में कोई बहुत बड़ा परिवर्तन आने वाला है. लेकिन फिर भी इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि ओबामा का पूरा चुनाव अभियान ही परिवर्तन पर केंद्रित था.


वे परिवर्तन–परिवर्तन कहते रहे और एक स्थिति में तो हिलेरी को यह साबित करने की जरूरत पड़ी कि ओबामा के परिवर्तन के दावे खोखले हैं. ओबामा अमेरिकियों की अपरिभाषित परिवर्तन की आकांक्षा के प्रतीक बन गए हैं. लेकिन वे कैसे और क्या परिवर्तन लाएंगे, यह अभी स्पष्ट नहीं है. उन्होंने इराक युद्ध का विरोध किया. उन्होंने कहा है कि इराक युद्ध छेड़ने में लापरवाही बरती गई लेकिन अब वापसी में लापरवाही नहीं बरती जा सकती. उन्होंने यह जरूर कहा है कि सैनिक शक्ति के स्थान पर वे डिप्लोमेसी का सहारा लेंगे लेकिन यह भी नहीं भूला जा सकता है कि इन्हीं ओबामा ने एक बार ईरान के नाभिकीय कार्यक्रम को रोकने के लिए मिसाइलों से आक्रमण की पैरवी की थी.


ओबामा ने इस्राइल का भी शत–प्रतिशत समर्थन किया है और कहा है कि वे ऐसे किसी भी संगठन से बात तक नहीं करेंगे जो इस्राइल को मान्यता न देता हो. मध्य–पूर्व की समस्या का समाधान इस तरह की नीति से नहीं निकल सकता और यह समस्या कई मायनों में विश्व राजनीति के प्रमुख केंद्रों में से है. अफगानिस्तान में उन्होंने युद्ध को फिर से संगठित करने की बात की है.


आज अमेरिका इराक और अफगानिस्तान में ऐसे युद्ध लड़ रहा है जिसे जीता नहीं जा सकता या इन युद्धों के संदर्भ में जीत को नए सिरे से परिभाषित करना होगा. क्या कोई भी अमेरिकी राष्ट्रपति इराक और अफगानिस्तान से सैनिक वापस बुलाकर विश्व भर में कोई बुनियादी परिवर्तन ला सकता है, इस सवाल का उत्तर कठिन और जटिल है लेकिन एक न एक दिन किसी भी अमेरिकी राष्ट्रपति को इसका उत्तर ढूंढना ही होगा. पर आज अगर ओबामा परिवर्तन के प्रतीक बने तो मैक्केन परंपरा के साथ दिखते नजर आए. ओबामा अमेरिकियों की अपरिभाषित परिवर्तन की आकांक्षा को छूने में सफल रहे हैं.


46 वर्षीय अश्वेत ओबामा ने अपना सार्वजनिक जीवन किसी स्वयंसेवी संगठन से शुरू किया तो 71 वर्षीय मैक्केन वियतनाम युद्ध के नायक रहे हैं. अब ओबामा को राष्ट्रपति के चुनाव के लिए अपने अभियान के मुद्दों को परिष्कृत करना होगा. इन्हें ठोस नीतिगत ढांचों में बदलना होगा और तब ही यह देखा जाएगा कि अंतिम विश्लेषण में वे अमेरिकियों पर कितना प्रभाव छोड़ पाते हैं. निश्चय ही वे विदेश और आर्थिक नीतियों को अभियान के केंद्र में लाना चाहेंगे– इन दोनों ही मामलों में अमेरिका गहरे संकट में फंसा हुआ है.


रिपब्लिकन पार्टी रंग–नस्ल को मुद्दा नहीं बनाएगी, यह उम्मीद भी नहीं की जा सकती है. ओबामा आर्थिक संकट के माध्यम से अमेरिका के श्वेत श्रमिक वर्ग में पैठ बनाना चाहेंगे जो रिपब्लिकन उम्मीदवार मैक्केन के प्रबल समर्थक माने जाते हैं. 27 प्रतिशत कैथोलिक और 11 प्रतिशत अश्वेतों का रूझान पहले से ही डेमोक्रेटिक पार्टी की ओर रहा है. ओबामा के अभियान संचालक शायद श्वेत नस्लवादी मतदाताओं को यह भी संदेश देना चाहें कि अश्वेत ओबामा के राष्ट्रपति बनने से कोई भूचाल नहीं आने वाला है. इससे पहले अब्राहम लिंकन, थामस जैफरसन, वारेन हार्डिंग और कोलिन कूलिड्ज भी राष्ट्रपति रह चुके हैं जिनके पूर्वज अश्वेत थे.


यह भी सच है कि ओबामा के राष्ट्रपति बन जाने से अमेरिका में कोई क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं होने जा रहा है. चाहे ओबामा हों या हिलेरी या मैक्केन, सभी एक ही विचारधारा के हैं, एक ही व्यवस्था के वफादार हैं. आखिर अमेरिका के सबसे धनी वारेन वफ्फेट ऐसे ही तो ओबामा का समर्थन नहीं कर रहे हैं. लेकिन इन तमाम सच्चाइयों के बावजूद अगर अमेरिकी नीतियों में थोड़ा तालमेल का अंतर भी आता है तो पूरी दुनिया पर इसका असर पड़ेगा और छोटा परिवर्तन भी परिवर्तनों की एक श्रृंखला को जन्म दे सकता है.


विकासशील देशों में साम्राज्यवाद के कारण 'गोरी चमड़ी' के प्रति एक दुराव का भाव रहा है. ओबामा दुनिया में अमेरिका को एक नई छवि दे सकते हैं– अमेरिका के बहुनस्लीय समाज के संदेश का दुनिया पर एक अलग तरह का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है. अमेरिकी राजनीति पर हमेशा से ही श्वेतों का वर्चस्व रहा है. भले ही अमेरिका के बहुरंगी और बहुनस्लीय समाज का लगातार विस्तार होता ही रहा है.
ओबामा का डेमोक्रेटिक उम्मीदवार बनना और अगर वे राष्ट्रपति भी बन जाते हैं तो यह निश्चय ही अमेरिका के विविध सामाजिक समीकरणों को प्रतिबिंबित करेगा. दुनिया भर में अमेरिकी अपील और 'सॉफ्ट पावर' पर नए आयाम जुड़ जाएंगे. बराक ओबामा अमेरिका की नई पीढ़ी के नेता हैं. वे अमेरिका की नई पहचान हैं. यह 21वीं सदी का अमेरिका है जो एक ओर गहरे संकट में फंसा है और दूसरी ओर नए प्रतीकों का सृजन कर रहा है.

सुभाष धूलिया

Saturday, June 7, 2008

राजनीति में दूसरा कार्य हॊता है लेकिन दूसरा स्थान नहीं

अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में इस बार जॊ भी हॊगा पहली बार हॊगा। मसलन अगर ओबामा राष्ट्रपति चुने जाते हैं तॊ वह पहले अश्वेत और सबसे छॊटी उम्र के हॊंगे। वैसे इसकी कॊई गुंजाइश तॊ नहीं बची है लेकिन अगर हिलेरी राष्ट्रपति बनती हैं तॊ वह अमेरिका के इतिहास में राष्ट्रपति बनने वाली पहली महिला हॊंगी।


बहरहाल आज हम बात ओबामा की करने जा रहे हैं। ओबामा ने अपनी किताब एडॊसिटी आफ हॊप में अपने सिद्धांतॊं के बारे में बताया है।


आत्मनिर्भरता और आजादी कभी कभी खुदगर्जी में बदल सकती है। महत्वाकांक्षा लालच में। ऐसा लालच जॊ किसी भी कीमत पर कामयाबी हासिल करना चाहता है।


राजनीति बमुश्किल एक विग्यान है। यह कभी कभी तर्क पर आधारित हॊता है। लेकिन एक बहुलतावादी समाज और लॊकतंत्र में यह विशेषता विग्यान की तरह लागू हॊती है। विग्यान की तरह राजनीति हमारी उन क्षमताओं पर निर्भर करती है कि कैसे कम समान तथ्यॊं पर आधारित समान लक्ष्यॊं के लिए एक दूसरे कॊ मनाते हैं। बहरहाल राजनीति विग्यान से अलग है। इसमें समझौता शामिल हॊता है। साथ ही कुछ भी संभव कर सकने की कला। कुछ मौलिक स्तरॊं पर धर्म समझौते की अनुमति नहीं देता। वह असंभव पर जॊर देता है।


ऐसा कही नहीं दिखता कि इतिहास एक सीधी लकीर पर चलता है। आर्थिक संकट के समय यह संभव है कि नस्लीय समानता के जरूरी तत्वॊं कॊ दरकिनार कर दिया जाए।


आस्था की ताकत कॊ पहचानने में नाकामयाब रहकर हम गलती करते हैं। यह खराब राजनीति है। जब हम धार्मिक उपदेशॊं का साथ छॊड़ देते हैं तॊ इस खाली जगह कॊ कई और चीजें भर देती हैं। ऐसे लॊग आ जाते हैं जॊ सनकियॊं की तरह धर्म का इस्तेमाल अलगाव के लिए करते हैं।


अमेरिका व्यापार बंधन खड़े करके और न्यूनतम मेहनताने में बढ़ॊतरी के साथ प्रतियॊगी विश्व से मुकाबला नहीं कर सकता। यह तभी संभव है जब दुनिया के सारे कंप्यूटर जब्त कर लिए जाएं।


अगर तथ्यॊं पर मॊटे तौर पर पर साहमति न हॊ तॊ हर राय कॊ बराबरी का दर्जा मिल जाएगा। इससे सॊंच विचार कर किए गए समझौते की जगह ही नहीं बचेगी। इसका फायदा उन्हें नहीं हॊगा जॊ सही हैं बल्कि उन्हें हॊगा जॊ अपनी बात ऊंचे स्वर में और चिल्लाकर कह सकते हैं। ऐसी जगहॊं से जिसकी पृष्ठभूमि में सत्ता के प्रतीक हॊं।


राजनीति में शायद दूसरा कार्य हॊता है लेकिन दूसरा स्थान नहीं।


व्यक्तिगत सफलता और सामाजिक जुड़ाव के लिए मैं निश्चत रूप से संस्कृति की ताकत में विश्वास करता हूं। मुझे लगता है कि हम सांस्कृतिक कारकॊं कॊ नजर अंदाज करके अपनी तबाही का जॊखिम उठाते हैं।


मूल्य तथ्यॊं पर आधारित हॊते हैं। जबकि विचारधारा उन तथ्यॊं से ऊपर हॊती है। ज्यादातर सिद्धांत सिमित तथ्यॊं पर आधारित हॊते हैं।


जब हम बंदूक की नली के बल पर लॊकतंत्र थॊपने की कॊशिश करते हैं और अपने मित्र देशॊं आर दलॊं कॊ पैसा देते हैं और निर्वासित व्यक्तियॊं के प्रभाव में आ जाते हैं तब हम असफलता की सीढ़ियां चढ़ रहे हॊते हैं।


हर सनकी मतदाता एक आत्मकेंद्रीत मतदाता हॊता है।


मेरी इच्छा है कि देश में वकील कम और इंजीनियर ज्यादा हॊं।


मेरे हिसाब में संस्कृति में बिखराव ही समाज कॊ बीमार बनाता है। इसे महज पैसॊं से ठीक नहीं किया जा सकता। जीडीपी के मुकाबले हमारा आध्यात्मिक जीवन और मूल्य ज्यादा मायने रखाते हैं।

Wednesday, June 4, 2008

राजशाही से प्रचंडशाही की ओर..

नेपाल में बुधवार को संविधान सभा की बहुप्रतीक्षित बैठक होने जा रही है. क्या यह सभा देश को स्थिरता के दौर की ओर ले जाएगी. यह एक ऐसा सवाल है जिसका जवाब शायद किसी के पास नहीं है. राजनीतिक प्रेक्षक भी इस बात पर एकमत नहीं हो पा रहे हैं कि इससे देश की राजनीतिक स्थिरता और अर्थिक संपन्नता का सपना पूरा हो सकेगा या नहीं.

बुधवार को संविधान सभा के सदस्यों को शपथ दिलाई जाएगी और उसी दिन राजशाही को खत्म कर देश को गणतंत्र घोषित किया जाना भी तय है. लेकिन इसके बाद क्या होगा कुछ साफ नहीं है.

सभा को दो साल में नया संविधान बनाना है लेकिन जिस तरह का टकराव माओवादियो और अन्य दलों में दिखाई दे रहा है, उसे देखते हुए यह काम बहुत आसान नहीं लगता है.

संविधान सभा के गठन के साथ ही प्रधानमंत्री गिरिजा प्रसाद कोइराला सरकार के प्रमुख नहीं रहेंगे. लेकिन उनकी जगह नई सरकार कैसे और किसकी आएगी, इस पर अभी तक सवालिया निशान लगा हुआ है.

माओवादी नेता प्रचंड अपने को राष्ट्रपति बनाने की बात कहते रहे हैं लेकिन अंतरिम सरकार में इसका कोई प्रावधान ही नहीं है. यही नहीं सभा की विधायी ताकतों के बारे में कुछ भी कहीं भी स्पष्ट नहीं है.

संविधान सभा के चुनावों में माओवादी सबसे बड़े दल के रूप में उभरे लेकिन उन्हें भी दो तिहाई बहुमत नहीं मिला है. नेपाल के अंतरिम संविधान के मुताबिक किसी को भी प्रधानमंत्री बनने या प्रधानमंत्री को हटाने के लिए दो तिहाई बहुमत जरूरी है. अब सवाल यह उठता है कि ऐसी स्थिति में माओवादी सरकार कैसे बनाएंगे क्योंकि अब तक कोई भी दल समर्थन देने के लिए सामने नहीं आया है.

माओवादी, नेपाली कांग्रेस और नेपाली कम्युनिट पार्टी जो कभी एक मंच पर साथ आए थे, आज एक दूसरे का विरोध कर रहे हैं. ये सभी दल केवल एक बात पर राजी हैं कि नेपाल नरेश ज्ञानेंद्र को हटाया जाए. जिस तरह अर्जुन का निशाना मछली की आंख थी, उसी तरह माओवादी का भी एकमात्र निशाना राजशाही का खात्मा था.

हालांकि नेपाली कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी इससे सहमत थे लेकिन इन दलों के प्रमुख नेता जिसमें प्रधानमंत्री गिरिजा प्रसाद कोइराला की पुत्री सुजाता कोईराला और कम्युनिट नेता मोदनाथ प्रोश्रित शामिल हैं, राजशाही को बनाए रखने की वकालत कर रहे हैं. इन नेताओं का कहना है कि राजशाही को पूरी तरह से खत्म करना देश की स्थिरता को खतरे में डालना है.

हालांकि इन दलों का निशाना नेपाल नरेश थे लेकिन यह कहीं भी साफ नहीं है कि राजा को आखिर हटाया कैसे जाए. उन्हें हटाने के लिए प्रस्ताव कौन लाएगा. यदि प्रस्ताव लाने पर सहमति हो जाती है तो उनकी जगह कौन लेगा क्योंकि अंतरिम संविधान में राष्ट्रपति पद के लिए प्रावधान नहीं है. इस गतिरोध को दूर कैसे किया जाएगा, यह साफ नहीं है. यह सब शंकाएं इसलिए हैं क्योंकि अंतरिम संविधान के मुताबिक नई सरकार बनाना आसान नहीं है. प्रधानमंत्री ने माओवादी नेता प्रचंड को सरकार बनाने की संभावनाओं का पता लगाने के लिए आमंत्रित किया है.

माओवादियों के छह सौ एक सदस्यीय संविधान सभा में दो सौ बीस सदस्य हैं. उन्हें सरकार बनाने के लिए दो तिहाई बहुमत की जरूरत है और इसके लिए उन्हें 180 और सदस्यों का समर्थन चाहिए.

कोईराला जब तक आश्वस्त नहीं होंगे कि प्रचंड के पास सरकार बनाने के लिए आवश्यक बहुमत है, तब तक उन्हें सरकार बनाने के लिए बुलाने के प्रति बाध्य नहीं है.

माओवादी यह पहले ही साफ कर चुके हैं कि वे राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री जैसे पद किसी दूसरी पार्टी को देने वाले नहीं हैं. नेपाली कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी माओवादियों को समर्थन देने के लिए अपनी शर्तें पहले ही बता चुके हैं और माओवादी इस पर अपनी असहमति भी जता चुके हैं. अब देखना यह है कि माओवादी यह समर्थन किस तरह जुटाएंगे.

यदि नहीं जुटा जाए तो क्या प्रचंड अपनी धमकियों के अनुरूप जबर्दस्ती सत्ता पर कब्जा करेंगे. एक राजनीतिक प्रेक्षक का कहना है कि नेपाल की स्थिति बहुत अजीबोगरीब है. यहां कदम-कदम पर गतिरोध है. उन्होंने कहा कि हम यह भी नहीं कह सकते कि देश संवैधानिक संकट की ओर बढ़ रहा है क्योंकि अभी देश में कोई संविधान नहीं है.

कहीं ऐसा न हो कि निरंकुश राजशाही का तो खात्मा हो जाए लेकिन उसकी जगह कोई और निरंकुश ताकत आ जाए.

गणतंत्र की कगार पर पहुंचे नेपाल के सामने अनिश्चितता मुंह बाए खड़ी है. प्रेक्षक तो यह मानते हैं कि इस समय प्राथमिकता देश की आर्थिक स्थिति को सुधारने की होनी चाहिए.

राजीव पांडे