Wednesday, June 11, 2008

सरकार को मंजूर नहीं थे दूसरे विकल्प...

आम आदमी के हितों का ख्याल रखने के वायदे के साथ सत्ता में आई यूपीए सरकार ने एक बार फिर जब चुनने का मौका आया तो महंगाई की मार से त्रस्त आम आदमी के बजाय तेल कंपनियों के मुनाफे को प्राथमिकता दी. पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में एक झटके में इतनी बढ़ोतरी के पीछे न तो कोई आर्थिक तर्क है और न ही राजनीतिक बुद्धिमता. लेकिन ऐसा लगता है कि यूपीए सरकार ने नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के प्रति अपनी अंधभक्ति में आर्थिक तर्क और राजनीतिक बुद्धिमता दोनों को ताक पर रख दिया है.

पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा सहित प्रधानमंत्री और यूपीए सरकार का यह तर्क गले से नहीं उतरता है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में भारी उछाल के कारण घरेलू बाजार में पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में बढ़ोतरी के अलावा और कोई विकल्प नहीं रह गया था. यह सच नहीं है. असल में, यूपीए सरकार कीमतों में भारी बढ़ोतरी के अलावा किसी और विकल्प पर विचार के उत्सुक ही नहीं थी. यही कारण है कि पिछले एक महीने खासकर कर्नाटक चुनाव के नतीजों के बाद से मनमोहन सिंह सरकार और गुलाबी मीडिया ने ऐसा माहौल बनाया, जैसे कीमतें तत्काल नहीं बढ़ीं तो सरकारी तेल कंपनियों के साथ-साथ अर्थव्यवस्था भी दिवालिया हो जाएंगी.

खुद प्रधानमंत्री ने एसोचैम के सम्मेलन में हाथ खड़े करते हुए कहा कि अब सरकार पेट्रोलियम सब्सिडी का बोझ उठाने के लिए तैयार नहीं है और लोगों को इसका कुछ भार उठाने के लिए तैयार हो जाना चाहिए. गुलाबी अखबारों के जरिए यह सूचना देते हुए एक भयावह तस्वीर खींचने और कीमतों में बढ़ोतरी के पक्ष में जनमत बनाने की कोशिश की गई कि अगर पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में भारी बढ़ोतरी नहीं हुई तो तेल कंपनियों को इस साल 2.46 लाख करोड़ रुपए का घाटा हो सकता है. इस तरह की खबरें जान-बूझकर 'लीक
' की गईं कि कीमतों में पेट्रोल पर 15 रुपए प्रति लीटर, डीजल पर 10 रुपए प्रति लीटर और एलपीजी पर 250 रुपए प्रति सिलेंडर की वृद्धि जरूरी हो गई है.

ऐसा बहुत योजनाबद्ध तरीके से किया गया ताकि जब आज कीमतों में बढ़ोतरी की घोषणा की गई तो आम लोगों को यह लगे कि वे सस्ते में छूट गए. इसके साथ ही, यूपीए और कांग्रेस लगा फाड़कर खुद को 'आम आदमी' का हितैषी साबित करने में जुट गए हैं कि देखो सरकार ने लोगों पर कितना कम बोझ डाला है ? लेकिन सच यह है कि मनमोहन सिंह सरकार ने जान-बूझकर ऐसा डरावना माहौल बनाया ताकि पेट्रोलियम उत्पादों में बढ़ोतरी को 'मजबूरी में उठाया कदम' और उचित ठहराया जा सके. इसके लिए न सिर्फ उसने तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश किया बल्कि लोगों की आंख में धूल झोंकने की कोशिश की है.

सच यह है कि तेल कंपनियों को 2.46 लाख करोड़ रुपए के घाटे का अनुमान इस गणित पर आधारित है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें 135 डॉलर प्रति बैरल पहुंच गई है. लेकिन ऐसा नहीं है कि देशी तेल कंपनियां हर दिन अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल खरीदती हैं और भारतीय बाजार में बेचती हैं. अधिकांश सौदे महीनों पहले और आज की तुलना में कम कीमत पर हुए हैं. यही नहीं, किसी एक दिन बाजार में कच्चे तेल की कीमत 135 डॉलर प्रति बैरल पहुंच जाए, इसका अर्थ यह नहीं है कि आने वाले सप्ताहों और महीनों में भी यही कीमत बनी रहेगी. जैसे फिलहाल, अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत गिरकर 124 डॉलर प्रति बैरल पर पहुंच गई है. यही नहीं, अंतरराष्ट्रीय बाजार की कीमतों के आधार पर घरेलू तेल उत्पादक और शोधन कंपनियों को तेल बेचने की इजाजत देने का भी कोई तुक नहीं है. कहने की जरूरत नहीं है कि इस स्थिति का लाभ उठाकर ओएनजीसी से लेकर रिलायंस तक जबर्दस्त मुनाफा कमा रहे हैं. आखिर सरकार गेहूं उत्पादक किसानों को भी यह अधिकार क्यों नहीं देती है कि वे अपना उत्पाद अंतरराष्ट्रीय कीमतों पर बेचें, भले उनकी उत्पादन लागत अंतरराष्ट्रीय बाजार की कीमतों से काफी कम क्यों नहीं हो
?

सवाल यह भी है कि पेट्रोलियम उत्पादों पर इतना अधिक टैक्स क्यों है ? क्या यह सच नहीं है कि केंद्र और राज्य सरकारों ने पेट्रोलियम उत्पादों को दुधारू गाय की तरह टैक्स उगाहने का आसान माध्यम बना दिया है ? उदाहरण के लिए दिल्ली में पेट्रोल की वास्तविक कीमत 21.93 रुपए प्रति लीटर और डीजल की 22.45 रुपए प्रति लीटर है, जबकि उनकी खुदरा कीमत 45.52 रुपए और 31.76 रुपए प्रति लीटर है. तथ्य यह है कि पेट्रोल की खुदरा कीमत का 49 प्रतिशत यानी लगभग आधा और डीजल की खुदरा कीमत का 26 प्रतिशत केंद्रीय उत्पाद कर और वैट के बतौर जाता है. कोई भी वित्तमंत्री पेट्रोलियम उत्पादों से होने वाली राजस्व आय छोड़ना नहीं चाहता है. यही कारण है कि पेट्रोलियम उत्पादों पर करों के जरिए केंद्र और राज्य सरकारों ने जहां 2003-04 में 1,04,375 करोड़ रुपए का राजस्व कमाया, वह यूपीए सरकार के तीसरे वर्ष में उछलकर 1,64,000 करोड़ तक पहुंच गई है. इसके अलावा, केंद्र सरकार तेल उत्पादक कंपनियों पर सेस के जरिए 7,500 करोड़ रुपए कमा रही है. जाहिर है, यह पैसा आम आदमी की जेब से ही जा रहा है.

यह ठीक है कि काफी दबाव और हो-हंगामे के कारण यूपीए सरकार खासकर वित्तमंत्री ने पेट्रोलियम उत्पादों पर आयात शुल्क और अन्य करों में टोकन कटौती का ऐलान किया है. लेकिन यह कटौती कीमतों में हुई बढ़ोतरी की तुलना में काफी कम है. यही नहीं, इस कटौती का फायदा भी तेल कंपनियों को होगा. कहने की जरूरत नहीं है कि मनमोहन सिंह सरकार ने पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में बढ़ोतरी का फैसला करते हुए तेल कंपनियों के मुनाफे का ध्यान ज्यादा रखा है.

यह फैसला आर्थिक और राजनीतिक रूप से सरकार पर बहुत भारी पड़ेगा. जाहिर है, इसका सीधा असर महंगाई की आग पर पड़ेगा जो और भभक उठेगी. मुद्रास्फीति की दर बढ़ने से आर्थिक विकास को धक्का लगना तय है. इस तरह सरकार को न माया मिलेगी और न राम. महंगाई की बेकाबू सुरसा यूपीए सरकार को जरूर लील जाएगी लेकिन इसके लिए कांग्रेस किसी और को नहीं, खुद को ही कटघरे में पाएगी.

आनंद प्रधान

1 comment:

Neeraj Rohilla said...

आपने लिखा, "पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में एक झटके में इतनी बढ़ोतरी के पीछे न तो कोई आर्थिक तर्क है और न ही राजनीतिक बुद्धिमता"

पेट्रोल के दाम १०-१५% प्रतिशत बढाये गये हैं, जबकि कच्चे तेल के दाम पिछ्ले एक साल मे ही दूने हो गये हैं ।

"यही नहीं, किसी एक दिन बाजार में कच्चे तेल की कीमत 135 डॉलर प्रति बैरल पहुंच जाए, इसका अर्थ यह नहीं है कि आने वाले सप्ताहों और महीनों में भी यही कीमत बनी रहेगी. जैसे फिलहाल, अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत गिरकर 124 डॉलर प्रति बैरल पर पहुंच गई है."

हुजूर-ए-आला,
आपके लेख लिखने से ही कुछ दिन पहले एक बार फ़िर तेल १३९ डालर प्रति बैरल पर गया था । फ़िलहाल तेल के गिरने की कोई आशा नजर नहीं आ रही है और अगले १-१.५ साल में २०० डालर प्रति बैरल भी कुछ असंभव सा नहीं लगता है ।

ये भी गलत है कि तेल के सौदे महीनो पुरानी कीमतों पर चलते हैं । तेल का बाजार बहुत वोलेटाईल होता है और ऐसा सम्भव ही नहीं है ।