Wednesday, June 25, 2008

एक तोहफा, एक तड़प...

क्रिकेट और क्रिकेटरों की लोकप्रियता हमेशा आसमानी बुलंदियों वाली रही है. सीके नायडू को ही लीजिये. उनके क्रिकेटीय आंकड़े बेहद साधारण थे. पर कहते हैं कि, 'महानता पर नजर रखनी चाहिए न कि आंकड़ेबाजी पर डा. राधाकृष्णन अपने काम को नागा कर 1932 में आक्सफोर्ड से लंदन की यात्रा कर उनका खेल देखने पहुंचे थे. कम्युनिस्ट सांसद हीरेन मुकर्जी ने उन्हें सबसे पहले ईडन गार्डन में खेलते देखा जहां उन्होंने सिर्फ नौ रन बनाए, लेकिन, 'इस संक्षिप्त पारी में उनके द्वारा ग्लांस की गयी एक बॉल एक क्षणांश चमककर मेरी स्मृति में अमिट हो गयी।'

ब्रैडमैन से तुलना करते हुए क्रिकेट समीक्षक नेविल कार्डस ने लिखा- 'नायडू में फुर्ती, चपलता और कलाई का कमाल था। ब्रैडमैन में दृढ़ता और एकाग्रता तो थी लेकिन वह दुर्लभ कविताई उनके खेल में नहीं थी जिसे संवेदना कहा जाता है. नायडू अत्यधिक संवेदनशील बल्लेबाज थे. ब्रैडमैन का खेल मशीनी था, जबकि नायडू में अद्भुत प्रतिभा होते हुए भी चूक की गुंजाइश थी. वे गेंदबाजों, दर्शकों दोनों को आकर्षित करते थे क्योंकि क्रिकेट की महिमामयी अनिश्चितता नायडू के कारण कभी खतरे में नहीं पड़ी.


सीके के बारे में पढ़कर ही जाना. उनके बाद भी एक से एक धुरंधर खिलाड़ी हुए जिन्होंने इस लाजवाब खेल को इस देश में रचा-बसा दिया. जहां तक किसी एक खिलाड़ी की बात करें जिसने क्रिकेट को बेतहाशा लोकप्रिय बनाने का काम लिया तो शायद वे सुनील गावसकर होंगे. उनकी नायाब कलात्मकता और रिकार्डों ने लोगों को इस खेल का गजब का दीवाना बना दिया. जो कुछ कोर कसर थी वह सचिन की जादुई प्रतिभा ने पूरी की. समय, उसके स्वभाव, बाजार और उसकी मांगों से खेल बदलता रहा लेकिन असली जवाबदेही तो खिलाड़ियों की थी.


सुनील, सचिन, सौरव, राहुल, सहवाग से धोनी तक और मशहूर फिरकी-तिकड़ी से लेकर कपिल, कुंबले-पठान तक एक से एक चमकती प्रतिभाओं के कारण क्रिकेट आज राष्ट्रीय जुनून बना हुआ है. ऐसे नैसर्गिक खिलाड़ियों के कारण ही आशीष नंदी कहते हैं कि यह है भारतीय खेल जो दुर्घटनावश इंग्लैंड में जन्मा. शशि थुरूर भारत को क्रिकेट का आध्यात्मिक घर कहते हैं. लेकिन अभी जब तिरासी का पचीसा जश्न मनाने विजेता टीम के लगभग सारे देव दिल्ली में जमा हुए तो उनकी तस्वीरें देख एक मित्र ने सटीक टिप्पणी की कि पूरे टूर्नामेंट में कोई खास योगदान न करने पर एक महान खिलाड़ी भी कैसा बौना हो जाता है.


वाकई उस जश्न के दिन कपिलदेव विराट थे. आईपीएल-आईसीएल की तमाम कटुता के बावजूद वहां कपिल ही कपिल थे. गावस्कर सहित तिरासी के सभी खिलाड़ी उनके कसीदे पढ़ने की होड़ में थे. जिम्बाब्बे के खिलाफ 175 की सनाकेदार पारी और फाइनल में किंग रिचर्ड्स का हैरतअंगेज कैच. कपिल ही उस अद्वितीय और सनसनीखेज जीत के महादेव थे.


यह एक जीत थी जिसका देश को और क्रिकेट को इंतजार था. इस एक जीत की बदौलत सीके जैसी अपार लोकप्रियता कपिल के नसीब में आयी. लोकचेतना में छिपा-दबा क्रिकेट प्रेम इस जीत से बेधड़क बाहर आ गया. मैदानों से गली-कूचे तक क्रिकेट फैल गयी. टीवी स्क्रीन, मैदान और ड्राइंगरूम दर्शक दीर्घाओं में बदल गए. इस एक बड़ी जीत से तमाम खेलों के बीच क्रिकेट की स्थिति वही कपिल-गावसकर वाली हो गयी. आसानी से कहा जा सकता है कि इसके बाद क्रिकेट में जो कुछ भी उम्दा और खराब हुआ उसमें तिरासी बराबर का भागीदार है. आज क्रिकेट में बेतहाशा पैसा और शोहरत है. मुंबई-दिल्ली से अलग छोटे-छोटे शहर-कस्बों के मध्य और निम्न मध्यवर्गो से आई होनहार प्रतिभाएं हैं. पर तिरासी के तोहफे के बाद आई पूंजी ने खेल के प्रति ललक तो बढ़ायी पर वह तड़प नहीं जो दूसरा विश्वकप दिला दे.


टी-20 में हम विश्व विजेता हैं लेकिन तिरासी की तरस अभी कायम है. तिरासी के बाद दुनिया बदल चुकी है, क्रिकेट भी. उसकी आड़ में कोला और पेप्सी जैसी कई अनिर्णीत जंग जारी हैं. भ्रदजनों का खेल भर नहीं रह गया है क्रिकेट. ग्यारह खिलाड़ियों पर सब कुछ जैसे दांव पर लग गया है। तेजतर्रारी और युद्ध उसके सबसे सटीक रूपक हैं. जैसा कि एक लेखक ने लिखा- 'उकसाने की रोटी खाने वाली राजनीति, लेखकों और मीडिया की पौ बारह है.' क्रिकेट को कभी राष्ट्रवाद तो कभी साम्प्रदायिक भावनाओं तक से जोड़ दिया जाता है. 25 जून की याद करते हुए क्रिकेट के इस विचारहीन आपातकाल पर चिंतित हुआ जा सकता है. वेस्टइंडीज या ऑस्ट्रेलिया जैसे अपर्याप्त इतिहास-संस्कृति और नायकविहीन राष्ट्रों के लिए क्रिकेट राष्ट्रवाद और क्रिकेटर महानायक हो सकते हैं. ऑस्ट्रेलिया में तो कहते हैं कि घुड़दौड़ के घोड़े भी राजनेताओं से ज्यादा प्रतिष्ठित हो जाते हैं.


उम्मीद करनी चाहिए कि अनगिनत महानायकों वाले इस देश में क्रिकेट को एक सुंदर खेल ही रहने दिया जाएगा. समृद्ध और शक्तिशाली हमारी संस्कृति उसे उसकी खूबसूरत पनाहों में ही रखेगी.




मनोहर नायक

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