Wednesday, August 26, 2009

भाजपा ने दी सजा, कांग्रेस ने दिया पुरस्कार

कांग्रेस में क्या भाजपा से भी ज्यादा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है? यह सवाल अब इसलिए महत्वपूर्ण हो गया है क्योंकि जहां जसवंत सिंह की किताब ‘जिन्ना: इंडिया, पार्टिशन, इंडिपेंडेंस’ को लेकर भाजपा में तूफान मचा हुआ है वहीं शशि थरूर की पुस्तक ‘इंडिया: फ्राम मिडनाइट टु द मिलेनियम ऐंड बियान्ड’ को लेकर कांग्रेस में कोई हलचल नहीं है।

इन दोनों ही पुस्तकों में दरअसल एक बात समान है और वह है गांधी-नेहरू परिवार की आलोचना। शशि थरूर की पुस्तक जहां इंदिरा से लेकर राहुल गांधी तक को कटघरे में खड़ा करती है वहीं जसवंत सिंह की किताब में जिन्ना के साथ ही नेहरू, गांधी और पटेल को भी विभाजन के लिए समान रूप से जिम्मेदार माना गया है। फर्क अब सिर्फ इतना है कि भाजपा ने जसवंत सिंह को पार्टी से बाहर कर दिया है, वहीं कांग्रेस ने थरूर को विदेश राज्यमंत्री जैसी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंप रखी है। थरूर ने पुस्तक 1997 में लिखी थी और तब वे कांग्रेस के सदस्य नहीं थे।

क्या लिखा है शशि थरूर ने

इंदिरा गांधी :‘इंदिरा गांधी बिना विजन वाली, बिना सोचे-समझे फैसले करती थीं। गरीबी हटाओ का उनका मंत्र बिना सिद्धांत वाला था। उन्होंने बिना सोचे-समझे देश में आपातकाल लगाने, प्रेस पर प्रतिबंध और विरोधियों को जेल भेजने का काम किया।

राजीव गांधी : थरूर ने किताब में लिखा है, राजीव ईमानदारी की बात कहते थे, लेकिन उन पर बोफोर्स मामले में धांधली का आरोप भी लगा। छोटे बच्चे तब कहते थे कि गली-गली में शोर है..।’

सोनिया गांधी : सोनिया गांधी के बारे में तो थरूर ने लिखा है कि, ‘एक बिल्डर की बेटी, बिना कालेज की डिग्री लिए, भारत की सभ्यता को जाने बिना, चेहरे पर गंभीरता का लबादा ओढ़े, भारत का भविष्य बन गई है।

और क्या लिख दिया जसवंत सिंह ने

नेहरू-पटेल : जसवंत सिंह ने अपनी पुस्तक लिखा है ‘सरदार पटेल ने पंजाब और बंगाल के विभाजन की शर्त पर बंटवारे को स्वीकारा था। जसवंत लिखते हैं- लार्ड माउंटबेटन के भारत आने के एक माह के अंदर ही वर्षो तक विभाजन के मुखर विरोधी नेहरू मुल्क के बंटवारे के समर्थक बन गए।

गांधी के बारे में : पुस्तक में जिक्र है कि 1920 तक गांधीजी पूरी तरह अपनी रौ में आ गए थे। इसके बाद जिन्ना कांग्रेस से किनारे किए जाते रहे। उनका मुसलमान होना ही उनके लिए नुकसान बन गया था।

क्यों बन गए जिन्ना भस्मासुर : जिन्ना को ‘उदार, सर्वधर्मग्राही और सेक्युलर’ माना जाता रहा था। जिन्ना को वायसरॉय लॉर्ड लिनलिथगो ने ‘कांग्रेस से भी ज्यादा कांग्रेसी’ समझा था।

Friday, August 7, 2009

गुफ्तगू बंद न हो, बात से बात चले

सुभाष धूलिया


दक्षिण एशिया पर हिंसक धार्मिक कट्टरपंथ के बादल गहरे होते जा रहे हैं। यह सकंट इसलिए भी गंभीर हो जाता है कि दक्षिण एशिया के दो सबसे बड़े देश नाभिकीय हथियारों से लैस हैं। पाकिस्तान में तो हिंसक धार्मिक कट्टरपंथ और इस्लामी उग्रवाद की ताकत अनेक कारणों से बढ़ रही है और स्वयं पाकिस्तान के राजनीतिक और सैनिक प्रतिष्ठान में इस तरह के तत्वों की कमी नहीं है। ऐसे में नाभिकीय पाकिस्तान केवल भारत के या समूचे विश्व के लिए नहीं बल्कि पूरी मानवता के लिए गंभीर चिंता का विषय है। यह चिंता इस कारण भी और गहरी हो जाती है कि पाकिस्तान का लोकतंत्र और लोकतांत्रिक संस्थाएं इस कदर कमजोर हैं कि बार-बार आशंकाएं पैदा होती है कि क्या ये सरकार हिंसक इस्लामी कट्टरपंथ और धार्मिक उग्रवाद से प्रभावशाली ढंग से लड़ पा रही है। पाकिस्तानी सैनिक शासन भी इस तरह के उग्रवाद को ताकत के बस पर दबाने में सफल रहे हैं और अपने इतिहास में अधिकांश समय तक सैनिक तानाशाहियों से शासित पाकिस्तान की समस्याओं का हल नहीं हुआ बल्कि ये गहराती चली गयीं और नई नई समस्याएं पैदा होती चली गयीं।

अस्तित्व में आने बाद से ही पाकिस्तान के पूरे राजनीतिक जीवन की धुरी भारत-विरोधी रही और इसी के समांतर भारत में भी पाकिस्तान विरोध प्रबल रहा और दोनों देश एक-दूसरे को अस्थिर करने में ही केन्द्रित रहे। कश्मीर पाकिस्तान की नकारात्मक राजनीति का केन्द्र बना रहा और इस सवाल पर पाकिस्तान के शासकों ने व्यावहारिक रुख अपनाने और वास्तविक राष्ट्रीय हितों को संबोधित करने के बजाय छद्म राष्ट्रवाद का सहारा लिया। भारत में भी पाकिस्तान विरोधी राष्ट्रवाद का अस्तित्व बना रहा। इस तरह राष्ट्रवाद के अस्तित्व में रहने से कभी भी दोनों देशों के बीच ऐसी कोई वार्ता नहीं हो पायी जो दीर्घकाल में सैनिक होड़ और एक-दूसरे को नीचा दिखाने की राजनीति से ऊपर उठकर वास्तविक रुप से अच्छे संबंधों का मार्ग प्रशस्त करती। दोनों देशों के बीच अब तक के इतिहास में जितनी भी वार्ताएं हुई, जितने भी शिखर सम्मेलन हुए वे किसी तात्कालिक संकट के समाधान के लिए ही हुए। जब कोई संकट या तकरार पैदा हुई तो वार्ता हुई, शिखर सम्मेलन हुए। ऐसा कभी नहीं हुआ कि संकट या टकराव की स्थिति ना होने पर कोई वार्ता या शिखर सम्मेलन हुआ हो जिसका मकसद वास्तविक रूप से अच्छे संबंध कायम करना और इस क्षेत्र को तनाव और युद्ध से मुक्त करना रहा हो।

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की पहल का इस पृष्ठभूमि और संदर्भ में मूल्यांकन किया जाना चाहिए। प्रधानमंत्री ने सही ही कहा है कि अगर दुनिया बदल गयी है तो नई परिस्थितियों को अब पुराने चश्मे से नहीं देखा जाना चाहिए। दरअसल मनमोहन सिंह की इस पहल का जितना भी विरोध हो रहा है तो इसका आधार कहीं ना कहीं पाकिस्तान-विरोधी राष्ट्रवाद ही है। लेकिन आज इस बात का मूल्यांकन करना भी जरूरी हो जाता है कि क्या आज पाकिस्तान भारत के लिए उस तरह का खतरा है जितना कि अस्तित्व में आने से लेकर अमेरिका पर आतंकवादी हमलों तक बना रहा? अमेरिका पर आतंकवादी हमलो के उपरांत पाकिस्तान उन देशों में अफगानिस्तान के बाद दूसरे नंबर पर था जिन पर अमेरिकी आक्रमण के बारे में सोचा गया था। अफगानिस्तान पर तो आक्रमण होना ही था लेकिन क्योंकि अफगानिस्तान की इस्लामी सत्ता का सबसे बड़ा संरक्षक पाकिस्तान था इसलिए पाकिस्तान को चेतावनी नहीं बल्कि धमकी दी गयी थी कि अमेरिका के साथ आओ, मदद लो या अमेरिका के विनाशकारी आक्रमण के लिए तैयार हो जाओ। पाकिस्तान के दृष्टिकोण से जनरल मुशर्रफ को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि उन्होंने 180 डिग्री की पलटी खाकर पाकिस्तान अमेरिकी हमले से बचा लिया।

अफगानिस्तान में मौजूद हिंसक इस्लामी कट्टरपंथ और धार्मिक उग्रवाद के खिलाफ पाकिस्तान ने जिस दिन अमेरिका के साथ हाथ मिलाया उसी दिन दक्षिण एशिया का वह शक्ति संतुलन बदल गया जो पाकिस्तान के अस्तित्व में आने से बना हुआ था। अब पाकिस्तान इस्लामी उग्रवाद के खिलाफ अमेरिकी वैश्विक युद्ध में साझीदार था और भारत को वह चुनौती देने में समर्थ नहीं रह गया था जो अबतक देता आया था। कश्मीर में इस्लामी उग्रवाद को सैनिक और राजनीतिक मदद देने के सवाल पर भी पाकिस्तान काफी दह तक विकल्पहीन हो गया। अमेरिकी दवाब और पाकिस्तानी भूमि पर सीधे सैनिक कार्रवाई की चेतावनी के कारण पाकिस्तान को अफगान सीमा से लगे इलाकों और खासतौर पर स्वात घाटी में बड़ा सैनिक अभियान चलाने के लिए मजबूर होना पड़ा है।

अब सवाल यह पैदा होता है कि इस तरह के पाकिस्तान से भारत कैसे निबटे? प्रधानमंत्री की पहल को इस रूप में क्यों देखा जा रहा है कि यह पाकिस्तान स्थिति आतंकवाद को कई रियायत है? प्रधानमंत्री ने स्वयं कहा है कि पाकिस्तान को आतंकवाद के खिलाफ प्रभावी कार्रवाई करनी होगी वरना एक संपूर्ण संवाद की प्रक्रिया को शुरु करना संभव नहीं हो पाएगा। लेकिन प्रधानमंत्री ने बार-बार ये भी कहा कि अगर भारत कोई बातचीत ना करे तो क्या करे? युद्ध? पाकिस्तान के साथ बातचीत न करने का विकल्प क्या है? 26/11 के आतंकवादी हमलों को देश कभी नहीं भूल सकता लेकिन कम से कम अब जाकर तो यह मानना ही होगा कि इस हमले में पाकिस्तान स्थित आतंकवादी तत्वों का हाथ था जिन्हें आईएसआई के तत्वों का संरक्षण प्राप्त था लेकिन इन हमलों में पाकिस्तान सरकार शामिल नहीं थी। निश्चित तौर पर इस मसले पर पाकिस्तान ने जो कुछ भी किया वह काफी अपर्याप्त रहा है लेकिन क्या बातचीत कर पाकिस्तान से यह नहीं कहना चाहिए कि वह आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई करे? बहुत लंबे समय तक पाकिस्तानी सरकार भारत के खिलाफ आतंकवादियों को पूरी सैनिक और राजनैतिक मदद देती रही है लेकिन आज का परिस्थितियों में पाकिस्तान के लिए यह आत्महत्या से कम नहीं होगा।

आज की परिस्थितियों का मूल्यांकन, पुराने पड़ चुके पैमानों से नहीं किया जा सकता। प्रधानमंत्री की पहल का जो भी विरोध संसद में हो रहा है, टेलीविजन के पर्दों पर विश्लेषण करने वाले रिटायर्ड राजनयिक और सैनिक जनरल पुराने पड़ चुके पैमानों से ही नई स्थिति का मूल्यांकन कर रहे हैं और ऐसा माहौल पैदा कर रहे हैं मानो भारत ने पाकिस्तान के सामने समर्पण ही कर डाला हो। एक समाचार पत्र के संपादकीय में कहा गया था कि "इस बयान से पाकिस्तान में खुशी की लहर दौड़ पड़ी है " । क्या दक्षिण एशिया की इस तरह की गंभीर राजनीतिक और सैनिक स्थिति का इस तरह का सतही मूल्यांकन किया जा सकता है? एक खास ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में भारत और पाकिस्तान के संबंधों पर घरेलू राजनीति का काफी प्रभाव होता है। कई मौकों पर राजनीतिक नेतृत्व की सोच और जनमत के बीच टकराव भी पैदा होता है। दोनों देशों के बीच जब कभी भी कोई वार्ता, कोई पहल होगी, इस पर राजनीतिक नेतृत्व की सोच एक हो सकती है लेकिन देश के भीतर जनमत के स्तर पर जो प्रतिक्रिया होगी उसकी दोनों देशों की कोई भी सरकार अनदेखी नहीं कर सकती। कई मौकों पर सरकारों को वैदेशिक मामलों में फैसले लेने में इस घरेलू जनमत का भी सामना करना होता है और इससे बड़ा फैसला लेने में अड़चनें भी पैदा होती हैं। फिर दोनों देशों में राजनीति का स्वरूप ऐसा रहा है कि जो भी विपक्ष में होता है वह राष्ट्रीय हितों की बजाय लोकप्रिय संवेदनाओं और कभी-कभी सस्ती लोकप्रियता को ही अधिक संबोधित करता नजर आता है। प्रधानमंत्री की पहल को लेकर कुछ विपक्षी दलों और खासतौर पर भाजपा ने जिस तरह की शब्दावली का प्रयोग किया है वह इस तरह की राजनीति की और ही इशारा करता है। निश्चय ही मिस्त्र में जारी किये गए संयुक्त बयान में बलूचिस्तान का उल्लेख एक राजनीतिक भूल है और इसे इसी रूप में लिया जाना चाहिए। इस राजनीतिक भूल से क्या वह सब कहा जा सकता है जो कहा जा रहा है और क्या इस भूल के आधार पर संयुक्त बयान के उन सारी बिंदुओं को नकारा जा सकता है जिनका संबध दक्षिण एशिया के भविष्य से है

आज की वैश्विक और दक्षिण एशिया की परिस्थितियां नई चुनौतियां पेश कर रही हैं और कुछ नए अवसर भी दे रही हैं। भारत की मौजूदा पहल इन चुनौतियों का सामना करने और इन अवसरों का लाभ उठाने की ओर उम्मुख है। अगर भारत और पाकिस्तान के बीच कभी कोई स्थायी शांति कायम हो सके तो इससे समूचे दक्षिण एशिया और यहां रहने वाले करोडो़-करोड़ो लोगों की तकदीर बदल जाएगी। और, अगर इस दिशा में एक बहुत छोटा सा कदम भी उठाना है तो बातचीत तो करनी ही होगी। मनमोहन सिंह भले ही इतिहास न रच पाएं पर यह छोटा सा कदम उन्होंने निश्चित रूप से उठाया है।