Monday, January 12, 2009

इसमें दिखता लाल गलियारा

नेपाल के पशुपतिनाथ मंदिर में पीढ़ियों से भारतीय पुजारी है। इस पर कोई विवाद होना ही नहीं चाहिये। यह विवाद दरअसल माओवादियों की लाल गलियारा योजना का एक हिस्सा भर है। चीन की शह उनके पीछे है। यह मंदिर आस्था का केंद्र है। इस पर कोई प्रतीकात्मक हमला भी भारत और नेपाल के लोगो की मानसिकता पर आक्रमण की तरह है।


अमिताभ सिंहा

पशुपतिनाथ मंदिर के पुजारियों को लेकर कोई विवाद होना ही नहीं चाहिए, क्योंकि वे कई पीढ़ियों से वहां पर है। केवल इसलिए कि वे भारतीय है, उन्हें हटाया जाए या दंडित किया जाए यह मानवाधिकारों का भी खुला उल्लंघन है। नागरिकता को लेकर उठे इस विवाद को एक तरह से नेपाल के माओवादी सरकार द्वारा 1950 की संधि के निरस्तीकरण की एक-तरफा घोषणा भी माना जा सकता है। इसमें धारा-7 के माध्यम से दोनों देशों के नागरिकों को पूरी स्वतंत्रता दी गई है कि वे दोनों देशों में बेरोक-टोक कहीं आ-जा सकते हैं। व्यवसाय कर सकते है। रह सकते है। जब ये विवाद उठा तो लाजिमी है कि भारत की सेना में शामिल गोरखा बटालियन तथा यहां जीविकोपार्जन करते लाखों नेपालियों की उपस्थिति पर भी सवाल खड़े किए जा सकते है?

यह विवाद चीन की उसी महत्वकांक्षी विस्तारवादी नीति लाल गलियारा (रेड कारिडोर) का एक हिस्सा भर है। माओवादियों ने इस लाल गलियारे को ‘पशुपति से तिरूपति तकज् का नाम दिया है। उन्होंने धार्मिक स्थान को आक्रमण के लिए सिर्फ इसलिए चुना क्योंकि यह सिर्फ धार्मिक भावनाओं पर कुठाराघात नहीं होता, बल्कि पूरे समाज की मानसिकता को पंगु और असहाय करने जसी स्थिति होती है। पशुपति नाथ मंदिर न सिर्फ नेपाल बल्कि करोड़ों लोगों के आस्था का केंद्र है। इस पर कोई हिसात्मक या प्रतीकात्मक हमला भारत और नेपाल के लोगों की मानसिकता पर भी आक्रमण है।
इसलिए मात्र इसे ‘मंदिरज् विवाद के रूप में देखना गलत होगा। इसे भारतीय पुजारियों या हिन्दू भावना के अनादर के रूप में देखना भी गलत है। ‘नागरिकताज् को लेकर उठाया गया यह विवाद नेपाल सरकार के हाथों चीन के कम्यूनिस्ट शासन का वह प्रतीकात्मक हमला है जिसे गंभीरता से नहीं लिया गया तो भारत के दीर्घकालिक सामरिक-आर्थिक हितों का नुकसान होगा ही, यह नेपाल के सार्वभौमिक सत्ता तथा हितों के भी प्रतिकूल होगा। दक्षिण एशिया की सामरिक स्थिति में व्यापक बदलाव का कारण भी यह बन सकता है।

दरअसल, 1949 में चीन में माओत्से तुंग के नेतृत्व में बनी कम्यूनिस्ट सरकार के विस्तारवादी नीतियों के दायरे में नेपाल प्रमुखता से था। अपनी इसी महत्वकांक्षा के तहत चीन ने 1952 में नेपाली कम्यूनिस्ट पार्टी के साथ मिलकर नेपाल में तख्ता पलट की कोशिश भी की। जब वह इसमें असफल रहा तो अस्थाई रूप से नेपाल से अपना ध्यान हटाकर तिब्बत की तरफ केंद्रित किया। आखिरकार 1960 में वो भारत के कमजोर व असफल विरोध के बावजूद तिब्बत को अपने भू-भाग में मिलाने में सफल रहा। बाद में फिर नेपाल पर अपना ध्यान केंद्रित किया और नेपाली माओवादियों को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष मदद कर उसे जीवन नाल देता रहा। यह स्थिति को कई दशको तक बनी रही। जबकि नेपाल प्रारंभ से ही चीन के बजाय भारत को अपने ज्यादा निकट मानता रहा चाहे वह सांस्कृतिक-सामाजिक स्तर पर हो या फिर आर्थिक स्तर। दोनों देशों के बीच अच्छे संबंधों को लेकर अच्छा प्रयास होता रहा।

इसका परिणाम 1950 में दोनों के बीच ‘सहयोग व मित्रता संधिज् के रूप में निकलकर सामने आया। इसके पूर्व, औपनिवेशिक काल में भी इंग्लैड ने भारत और नेपाल के बीच बेहतर संबंधों पर जोर दिया। इसका कारण भोगौलिक कारणों से इग्लैंड का चीन पर कब्जा नहीं कर पाना भी था। ऐसे में उसने सामरिक व भौगोलिक दृष्टि से नेपाल को प्रतिरोधक राज्य के रूप में रखा। उसने नेपाल के साथ 1825 में इसी योजना के तहत सुगौली संधि की। कुल मिलाकर इसका सकारात्मक पहलू यह रहा कि नेपाल की सार्वभौमिकता बनी रही और वह अपनी सत्ता-प्रभुसत्ता को अक्षुण्ण बनाए रखा। 1947 में आजादी के बाद चीन के परिप्रेक्ष में नेपाल की महत्ता को समझते हुए भारत ने अंग्रेजों की नीति को ही चलाना उपयोगी माना।

संबंधों में यह प्रगाढ़ता दोनों तरफों से रही। इसके पीछे 1949 में चीन में हुआ एक बड़ा बदलाव भी कारण था। चूंकि उस समय माओत्से तुंग के नेतृत्व में वहां कम्युनिस्टों की सरकार बनी और उसके प्रसारवादी नीतियों और दृष्टिकोण का खुालासा तब तक होने लगा था। लेकिन वर्ष 2004 में भारत में सत्ता परिवर्तन के साथ नेपाल के लिए भारत की नीति में व्यापक बदलाव आया और सत्ता का वामपंथी राजनीतिक पार्टियों पर पूरी तरह से निर्भर हो जाने से वामपंथियों ने भारत सरकार से नेपाली कम्युनिस्टों को परोक्ष रूप से समर्थन दिलाना शुरू किया। 2004 के बाद जो स्थितियां बदली उसकी परिणति यह रही कि भारत और चीन से समर्थन मिलने के बाद वहां अराजकतत्वों का माओवादियों के रूप में सरकार में प्रवेश हो गया। ध्यान देने वाली बात है कि हथियार और हिंसा के बल पर सत्ता प्राप्त की उनकी कोशिश को नेपाली जनता ने पूरा समर्थन नहीं दिया।

अब भी भारत यह समझने में नाकाम रहा कि इस बदलाव के बड़े व्यापक परिणाम निकलने वाले है। सत्ता संभालते के तत्काल बाद प्रचंड के आए पहले बयान से यह साफ भी हो गया कि अब उनका दोस्त भारत की बजाए चीन होगा। प्रचंड ने ‘सहयोग व मित्रता संधिज् के पुनर्समीक्षा की बात कही। कहा कि भारत-नेपाल सीमा विवाद है जबकि अरूणाचल तथा हिमाचल प्रदेश का कुछ भू-भाग चीन का हिस्स्सा है। पहला दौरा भी उन्होंने चीन का किया और वहां वे चीन के दिग्गज कम्यूनिस्ट नेताओं से मिले।

अगर चीन इसी तरह से नेपाल में धार्मिक और राजनीतिक स्थिति पर अपनी दादागिरी कायम रखने में सफल होता है तो इससे पूरे दक्षिण एशिया का सामरिक-आर्थिक संतुलन बिगड़ने का भी खतरा है। इसलिए भारत सरकार को चाहिए कि वह हर संभव कदम उठाए जिससे कि भारत की नेपाल के साथ मैत्री सहयोग व सौहार्दता दुबारा बन सके।

प्रस्तुति: नेमिष हेमंत

गोपनीय जानकारियां पहुंची पाकिस्तान

अमीर अहमद से पूछताछ के बाद हुआ खुलासा

पूछताछ में उसने बताया कि भारतीय सेना की एंटी टैंक गाइडेड मिसाइल, रेडियो कम्युनिकेशन ब्रिगेड मोर्टार और इंफै्रंट्री दस्ते से जुड़े कई गोपनीय और प्रतिबंधित सैन्य दस्तावेज वह पाकिस्तान भेज चुका है।

अंशुमान शुक्ल

भारतीय सेना से जुड़ी गोपनीय जानकारियां पाकिस्तान पहुंच रही हैं। लगभग एक दशक से भारतीय सेना से जुड़ी जानकारियां जुटाने में लगी पाक खुफिया एजेंसी ‘आईएसआईज् के एजेंट अमीर अहमद ने यह बात स्वीकार की है। पूछताछ में उसने केंद्रीय खुफिया एजेंसियों के अधिकारियों को बताया है कि भारतीय सेना की एंटी टैंक गाइडेड मिसाइल, रेडियो कम्युनिकेशन ब्रिगेड मोर्टार शूट और इंफै्रंट्री दस्ते से जुड़े कई गोपनीय और प्रतिबंधित सैन्य दस्तावेज वह पाकिस्तान भेज चुका है। उसके पास से इनकी प्रतियां भी बरामद हुई हैं।

अमीर के पास से बरामद सैन्य ठिकानों के नक्शे हाथ से तैयार किए गए हैं। यह बेहद स्पष्ट हैं। ब्लू प्रिंट जसे। नक्शों को देखने के बाद केंद्रीय जांच एजेंसियों के अधिकारियों ने अमीर से पूछताछ की तो उसने बताया कि लाहौर और कराची में उसे इसका प्रशिक्षण मिला था। प्रशिक्षण के दौरान उससे कहा गया था कि नक्शा बनाने से पूर्व वह उक्त स्थान का ऊंचाई से भी निरीक्षण करे ताकि चीजें अधिक स्पष्ट हो सकें। इस निर्देश को ध्यान में रखकर उसने सैन्य ठिकानों का बारीक निरीक्षण किया और फोन व ई-मेल के जरिए ज्यादातर जानकारियां आईएसआई के आकाओं तक भेजीं। टेलीफोन कॉल डिटेल के मुताबिक उसने 41 बार लाहौर, कराची और इंग्लैंड में बात की। ये सभी बातचीत उसने कोडवर्ड में की, जिसे डिकोड करने के लिए उससे गहन पूछताछ जारी है।


केंद्रीय जांच एजेंसी के एक उच्चपदस्थ सूत्र ने ‘आज समाजज् को बताया कि देश में पकड़ा गया अमीर अहमद आईएसआई का पहला एजेंट है, जो मूल रूप से भारतीय है और सहारनपुर का रहने वाला है। उसके मुताबिक अब आईएसआई ने खुफिया जानकारियां हासिल करने के लिए पाकिस्तान से जासूस भेजने बंद कर दिए हैं। अमीर ने पूछताछ में यह जानकारी भी दी है कि भारत में बेरोजगारी से तंग कई युवाओं को आईएसआई अपना एजेंट बना चुकी है। लेकिन ये देश के किन-किन हिस्सों में सक्रिय हैं इसका पता नहीं चल पाया है।

Sunday, January 4, 2009

जोगी की सक्रियता ले डूबी

छत्तीसगढ़ में कांग्रेस अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। जनता ने एक बार फिर कांग्रेस को सत्ता में भागीदार नहीं बनाया। प्रदेश में कांग्रेस की करारी हार के पीछे टिकट के बंटवारे में हुई बंदरबांट, नेता पुत्रों की बड़ी संख्या में हार और भाजपा सरकार की नाकामियों को ठीक तरीके न भुना पाने को माना जा रहा है। लेकिन यह कहना गलत नहीं होगा कि इस हार के लिए अजीत जोगी की अतिसक्रियता भी उतनी ही जिम्मेदार है। प्रदेश के बड़े नेताओं को दरकिनार कर जोगी और आलाकमना ने जो भी निर्णय लिए वह कांग्रेस के लिए ही घातक रहे।

मृगेंद्र पांडेय

चुनाव से कुछ महीने पहले प्रदेश में चरण दास महंत को पार्टी ने धीरे से दरकिनार करने की कोशिश की। यही कारण है कि प्रदेश की कमान एक ऐसे नेता को सौंप दी गई, जिसका न तो प्रदेश में कोई खासा जनाधार था, न ही वह लोकप्रिय थे। यह तो चरण दास महंत और उन जसे कई वरिष्ठ नेताओं को दरकिनार करने की महज एक बानगी थी। पार्टी के इस निर्णय की पोल खुलने में भी ज्यादा समय नहीं लगा। लोकतंत्र में तो जनता सभी को सच्चाई से अवगत करार ही देती है। यही धनेंद्र साहू के साथ भी हुआ। पार्टी ने प्रदेश में सरकार बनाने का उनको जो जिम्मा सौंपा था, वह तो दूर वे अपनी सीट बचाने में भी सफल नहीं हो पाए। यही हाल कार्यकारी अध्यक्ष सत्यनारायण शर्मा का हुआ। जोगी सरकार में शिक्षा मंत्री रहे सत्यनारायण भी इस बार रायपुर ग्रामीण से चुनाव हार गए।

चरणदास महंत के पास पार्टी की कमान लगभग ढाई साल रही, लेकिन अजीत जोगी की अड़गेबाजी के कारण न तो उनको कार्यकारिणी बनाने का मौका मिल पाया और न ही वह प्रदेश में पार्टी के लिए कुछ खास कर पाए। यही कारण है कि पांच साल प्रदेश में भाजपा की सरकार में रहने के बावजूद कांग्रेस को न तो उनके खिलाफ कोई मुद्दा मिला, न ही वह किसी भी मोर्चे पर भाजपा सरकार का विरोध ही कर पाई। सरकार के कई मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के आरोप भी लगे, लेकिन कमजोर संगठन के कारण कांग्रेस इसे भुनाने में सफल नहीं हो पाई। आदिवासी क्षेत्रों में भाजपा के सलवा जुडूम को भी कांग्रेस भूनाने में सफल नहीं रही। अजीत जोगी ने विरोध किया, लेकिन आदिवासी नेता महेंद्र कर्मा ने उसका समर्थन कर इस मुद्दे पर पार्टी को ही दो भागों में बांट दिया।

टिकटों के बंटवारे में भी आलाकमान के साथ मिलकर अजीत जोगी बड़ी संख्या में अपने समर्थकों को टिकट तो दिला दिया, लेकिन उसमें से अधिकांश को हार का सामना करना पड़ा। अजीत जोगी के खास माने जाने वाले युवक कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष से लेकर कई दिग्गजों को हार का मुंह देखना पड़ा। पार्टी ने भले ही अजीत जोगी को मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित न किया हो, लेकिन मरवाही से उनको चुनाव मैदान में उतारना पार्टी के लिए घातक सिद्ध हुआ। ऐसा इसलिए क्योंकि चरण दास महंत हों या फिर विद्याचरण शुक्ल सभी को यह लगने लगा की पार्टी अगर सरकार बनाने की स्थिति में आती है, तो विधायक होने के नाते अजीत जोगी की दावेदारी सबसे मजबूत है। इसी का नतीजा रहा कि अंतिम समय में सभी आला नेता की सक्रियता कम हो गई।

प्रदेश के वरिष्ठ नेताओं का तो यह भी मानना है कि अजीत जोगी के आक्रामक चुनाव प्रचार से भी पार्टी के प्रति जनता में नकारात्मक संकेत गया है। जनता ने विकास और विकास के दावों में बखुबी अंतर किया और अजीत जोगी के तीन साल के कार्यकाल की तुलना रमन सिंह के पांच साल से किया। दरअसल रमन सिंह को बढ़त तीन रुपए किलो चावल को करने से मिली। लेकिन जब चुनाव घोषणा पत्र की बात आई तो अजीत जोगी ने सरकार आने पर दो रुपए किलो चावल देने की बात कह डाली, जिसे भाजपा ने खुब भूनाया। उनका कहना था कि जोगी और कांग्रेस के पास अपनी कोई खासी सोच नहीं है। वह भाजपा की ही बातों को आगे बढ़ रही है। जोगी भले ही खुद और अपनी पत्नी रेणू जोगी को कोटा से चुनाव जीताने में सफल रहे हों लेकिन उन नेताओं के बेटे-बेटियों को करारी हार का सामना करना पड़ा, जो जीत का दंभ भरते नजर आ रहे थे। जनता ने मोतीलाल वोरा के बेटे अरुण वोरा और अरविंद नेताम की बेटी प्रीति नेता को नकार दिया।

यही कारण है कि आलाकमान का विश्वास अब अजीत जोगी से उठता नजर आ रहा है। पार्टी ने इसकी पहल भी कर दी है। प्रदेश में कांग्रेस विधायक दल का नेता रविंद्र चौबे को बनाया गया है, जो जोगी सरकार में मंत्री थे। पार्टी जल्द ही अजीत जोगी के प्रभाव को और कम करने के लिए किसी युवा को प्रदेश अध्यक्ष की कमान सौंपने की भी फिराक में है। ऐसे में इस बार पार्टी वह गलती नहीं करेगी जो विधानसभा चुनाव में टिकटों के बंटवारे के दौरान की गई। यही कारण है कि प्रदेश के वरिष्ठ नेताओं को पार्टी एकजुट करने के प्रयास में है और उनकी सहमति से ही अगला युवा प्रदेश अध्यक्ष चुनने की दिशा में आगे बढ़ेगी। दरअसल पार्टी भी यह सोचने लगी है कि प्रदेश में युवा नेतृत्व को आगे लाया जाए। यह कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी की उस सोच का नतीजा है जो उन्होंने वर्ष 2009 में केंद्र में सरकार बनाने और सत्ता में युवाओं की भागीदारी को बढ़ाने के लिए उठाया।