नेपाल के पशुपतिनाथ मंदिर में पीढ़ियों से भारतीय पुजारी है। इस पर कोई विवाद होना ही नहीं चाहिये। यह विवाद दरअसल माओवादियों की लाल गलियारा योजना का एक हिस्सा भर है। चीन की शह उनके पीछे है। यह मंदिर आस्था का केंद्र है। इस पर कोई प्रतीकात्मक हमला भी भारत और नेपाल के लोगो की मानसिकता पर आक्रमण की तरह है।
अमिताभ सिंहा
पशुपतिनाथ मंदिर के पुजारियों को लेकर कोई विवाद होना ही नहीं चाहिए, क्योंकि वे कई पीढ़ियों से वहां पर है। केवल इसलिए कि वे भारतीय है, उन्हें हटाया जाए या दंडित किया जाए यह मानवाधिकारों का भी खुला उल्लंघन है। नागरिकता को लेकर उठे इस विवाद को एक तरह से नेपाल के माओवादी सरकार द्वारा 1950 की संधि के निरस्तीकरण की एक-तरफा घोषणा भी माना जा सकता है। इसमें धारा-7 के माध्यम से दोनों देशों के नागरिकों को पूरी स्वतंत्रता दी गई है कि वे दोनों देशों में बेरोक-टोक कहीं आ-जा सकते हैं। व्यवसाय कर सकते है। रह सकते है। जब ये विवाद उठा तो लाजिमी है कि भारत की सेना में शामिल गोरखा बटालियन तथा यहां जीविकोपार्जन करते लाखों नेपालियों की उपस्थिति पर भी सवाल खड़े किए जा सकते है?
यह विवाद चीन की उसी महत्वकांक्षी विस्तारवादी नीति लाल गलियारा (रेड कारिडोर) का एक हिस्सा भर है। माओवादियों ने इस लाल गलियारे को ‘पशुपति से तिरूपति तकज् का नाम दिया है। उन्होंने धार्मिक स्थान को आक्रमण के लिए सिर्फ इसलिए चुना क्योंकि यह सिर्फ धार्मिक भावनाओं पर कुठाराघात नहीं होता, बल्कि पूरे समाज की मानसिकता को पंगु और असहाय करने जसी स्थिति होती है। पशुपति नाथ मंदिर न सिर्फ नेपाल बल्कि करोड़ों लोगों के आस्था का केंद्र है। इस पर कोई हिसात्मक या प्रतीकात्मक हमला भारत और नेपाल के लोगों की मानसिकता पर भी आक्रमण है।
इसलिए मात्र इसे ‘मंदिरज् विवाद के रूप में देखना गलत होगा। इसे भारतीय पुजारियों या हिन्दू भावना के अनादर के रूप में देखना भी गलत है। ‘नागरिकताज् को लेकर उठाया गया यह विवाद नेपाल सरकार के हाथों चीन के कम्यूनिस्ट शासन का वह प्रतीकात्मक हमला है जिसे गंभीरता से नहीं लिया गया तो भारत के दीर्घकालिक सामरिक-आर्थिक हितों का नुकसान होगा ही, यह नेपाल के सार्वभौमिक सत्ता तथा हितों के भी प्रतिकूल होगा। दक्षिण एशिया की सामरिक स्थिति में व्यापक बदलाव का कारण भी यह बन सकता है।
दरअसल, 1949 में चीन में माओत्से तुंग के नेतृत्व में बनी कम्यूनिस्ट सरकार के विस्तारवादी नीतियों के दायरे में नेपाल प्रमुखता से था। अपनी इसी महत्वकांक्षा के तहत चीन ने 1952 में नेपाली कम्यूनिस्ट पार्टी के साथ मिलकर नेपाल में तख्ता पलट की कोशिश भी की। जब वह इसमें असफल रहा तो अस्थाई रूप से नेपाल से अपना ध्यान हटाकर तिब्बत की तरफ केंद्रित किया। आखिरकार 1960 में वो भारत के कमजोर व असफल विरोध के बावजूद तिब्बत को अपने भू-भाग में मिलाने में सफल रहा। बाद में फिर नेपाल पर अपना ध्यान केंद्रित किया और नेपाली माओवादियों को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष मदद कर उसे जीवन नाल देता रहा। यह स्थिति को कई दशको तक बनी रही। जबकि नेपाल प्रारंभ से ही चीन के बजाय भारत को अपने ज्यादा निकट मानता रहा चाहे वह सांस्कृतिक-सामाजिक स्तर पर हो या फिर आर्थिक स्तर। दोनों देशों के बीच अच्छे संबंधों को लेकर अच्छा प्रयास होता रहा।
इसका परिणाम 1950 में दोनों के बीच ‘सहयोग व मित्रता संधिज् के रूप में निकलकर सामने आया। इसके पूर्व, औपनिवेशिक काल में भी इंग्लैड ने भारत और नेपाल के बीच बेहतर संबंधों पर जोर दिया। इसका कारण भोगौलिक कारणों से इग्लैंड का चीन पर कब्जा नहीं कर पाना भी था। ऐसे में उसने सामरिक व भौगोलिक दृष्टि से नेपाल को प्रतिरोधक राज्य के रूप में रखा। उसने नेपाल के साथ 1825 में इसी योजना के तहत सुगौली संधि की। कुल मिलाकर इसका सकारात्मक पहलू यह रहा कि नेपाल की सार्वभौमिकता बनी रही और वह अपनी सत्ता-प्रभुसत्ता को अक्षुण्ण बनाए रखा। 1947 में आजादी के बाद चीन के परिप्रेक्ष में नेपाल की महत्ता को समझते हुए भारत ने अंग्रेजों की नीति को ही चलाना उपयोगी माना।
संबंधों में यह प्रगाढ़ता दोनों तरफों से रही। इसके पीछे 1949 में चीन में हुआ एक बड़ा बदलाव भी कारण था। चूंकि उस समय माओत्से तुंग के नेतृत्व में वहां कम्युनिस्टों की सरकार बनी और उसके प्रसारवादी नीतियों और दृष्टिकोण का खुालासा तब तक होने लगा था। लेकिन वर्ष 2004 में भारत में सत्ता परिवर्तन के साथ नेपाल के लिए भारत की नीति में व्यापक बदलाव आया और सत्ता का वामपंथी राजनीतिक पार्टियों पर पूरी तरह से निर्भर हो जाने से वामपंथियों ने भारत सरकार से नेपाली कम्युनिस्टों को परोक्ष रूप से समर्थन दिलाना शुरू किया। 2004 के बाद जो स्थितियां बदली उसकी परिणति यह रही कि भारत और चीन से समर्थन मिलने के बाद वहां अराजकतत्वों का माओवादियों के रूप में सरकार में प्रवेश हो गया। ध्यान देने वाली बात है कि हथियार और हिंसा के बल पर सत्ता प्राप्त की उनकी कोशिश को नेपाली जनता ने पूरा समर्थन नहीं दिया।
अब भी भारत यह समझने में नाकाम रहा कि इस बदलाव के बड़े व्यापक परिणाम निकलने वाले है। सत्ता संभालते के तत्काल बाद प्रचंड के आए पहले बयान से यह साफ भी हो गया कि अब उनका दोस्त भारत की बजाए चीन होगा। प्रचंड ने ‘सहयोग व मित्रता संधिज् के पुनर्समीक्षा की बात कही। कहा कि भारत-नेपाल सीमा विवाद है जबकि अरूणाचल तथा हिमाचल प्रदेश का कुछ भू-भाग चीन का हिस्स्सा है। पहला दौरा भी उन्होंने चीन का किया और वहां वे चीन के दिग्गज कम्यूनिस्ट नेताओं से मिले।
अगर चीन इसी तरह से नेपाल में धार्मिक और राजनीतिक स्थिति पर अपनी दादागिरी कायम रखने में सफल होता है तो इससे पूरे दक्षिण एशिया का सामरिक-आर्थिक संतुलन बिगड़ने का भी खतरा है। इसलिए भारत सरकार को चाहिए कि वह हर संभव कदम उठाए जिससे कि भारत की नेपाल के साथ मैत्री सहयोग व सौहार्दता दुबारा बन सके।
प्रस्तुति: नेमिष हेमंत
No comments:
Post a Comment