Wednesday, August 27, 2008

पाकिस्तान: लोकतंत्र पर फिर खतरा

जजों की बहाली एक ऐसा मुद्दा है जिस पर दोनों पक्षों की राय अलग-अलग है और
यही अलगाव का कारण भी बना। यह मुद्दा हल हुए बिना समझौते की कोई गुंजाइश नहीं लगती।


राजेंद्र श्रीवास्तव

पाकिस्तान के सियासी परदे से परवेज मुशर्रफ के हटते ही सत्तारूढ़ गठबंधन में टूट की आशंकाओं को पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने सच साबित कर दिया। यह एक
तरह से आसिफ अली जरदारी और शरीफ के बीच वर्चस्व की लड़ाई है। शरीफ ने जजों की बहाली को अपनी इज्जत का सवाल बना लिया है इसी मुद्दे पर उन्होंने पहले गठबंधन सरकार से अपने मंत्रियों को हटाया और अब अपनी पार्टी को गठबंधन से अलग कर लिया। यही नहीं उन्होंने जरदारी के खिलाफ अपनी पार्टी पीएमएल-न की ओर से पाकिस्तान के पूर्व मुख्य न्यायाधीश सईदुज्जमां सिद्दीकी को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार भी बना दिया। अब शरीफ खुलकर जरदारी की मुखालफत पर उतर आए हैं। वैसे असलियत यह है कि मुशर्रफ को हटाने में दोनों ने एक-दूसरे का इस्तेमाल किया और अब तलावारें खींच ली हैं। इसी के साथ पाकिस्तान में लोकतंत्र पर खतरे के बादल मंडराने लगे हैं।

सरकार के ऊपर अभी कोई खतरा नहीं है। पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी सबसे बड़ा दल है और चुनाव में तुरंत जाने का खतरा भी सभी दल नहीं उठाना चाहेंगे, इसलिए छोटे-छोटे बहुत से दल सरकार का समर्थन करने के लिए राजी हो जाएंगे लेकिन दीर्घकाल मुश्किलें पैदा हो सकती हैं।

वैसे शरीफ ने यह भी कहा है कि उनकी पार्टी रचनात्मक विपक्ष की भूमिका निभाएगी और पाकिस्तान में वास्तविक लोकतंत्र लाने में मदद करेगी। उनका यह बयान भरोसे वाला है या नहीं, कहा नहीं जा सकता। शरीफ का जरदारी पर वादाखिलाफी का आरोप अगर जायज मान भी लिया जाए तो यह भी देखना होगा कि जरदारी मुख्य न्यायाधीश और अन्य जजों की बहाली से कन्नी क्यों काट रहे हैं।

असल में उन्हें इस बात का खतरा महसूस हो रहा है कि जजो की बहाली के बाद उनके खिलाफ मामले फिर खुल सकते है क्योंकि जिस आदेश के तहत मुशर्रफ ने उनके सारे 'पापोंज् को माफ किया था उसे चुनौती दी जाएगी और न्यायालय उसे रद्द कर देगा। ऐसे में जरदारी की मुसीबतें ज्यादा बढ़ सकती हैं। तब सरकार भी डांवाडोल हो जाएगी। जरदारी के मन में मुशर्रफ के प्रति अभी नरम कोना है और उन्होंने कह दिया है कि मुशर्रफ पाकिस्तान में रह सकते हैं और नेशनल असेम्बली उन्हें माफी देने पर भी विचार कर सकती है।

जरदारी का यह कथन नवाज शरीफ के गले के नीचे नहीं उतर रहा था क्योंकि वे 1999 की बेइज्जती का बदला मुशर्रफ से लेने पर आमादा हैं और चाहते हैं कि पूर्व राष्ट्रपति के खिलाफ मुकदमा चले तथा सजा के तौर पर उन्हें देश से निर्वासित कर दिया जाए।
शरीफ भी इस बात को अच्छी तरह समझाते हैं कि सेना मुशर्रफ का हर हाल में समर्थन करेगी और अपने पूर्व जनरल की बेइज्जती बर्दाश्त नहीं करेगी, इसलिए पूर्व जजों की बहाली की जिद से सिर्फ टकराव बढ़ेगा, क्योंकि अब सब कुछ नेशनल असेम्बली के माध्यम से होना है और जरदारी की पार्टी जब तक नहीं चाहेगी तब तक कोई भी प्रस्ताव पारित नहीं हो पाएगा। इस असलियत को समझने के बाद ही शरीफ ने गठबंधन से नाता तोड़ा है।

अभी तक वे जरदारी के साथ इसीलिए लगे हुए थे कि बात बन जाने की उम्मीद थी। पाकिस्तान की सियासत का रुख छह सितंबर को होने वाले राष्ट्रपति के चुनाव के बाद तय होगा। वैसे जरदारी की जीत की पूरी उम्मीद है, लेकिन शरीफ ने पूर्व न्यायाधीश सईदज्जुमां सिद्दीकी उम्मीदवार बनाकर कुछ मुश्किलें पैदा करने की कोशिश है। जोड़-तोड़ में माहिर शरीफ भी पूरी कोशिश करेंगे कि जरदारी राष्ट्रपति न बनने पाएं।
अगर थोड़ी देर के लिए अन्य विकल्पों को छोड़ दिया जाए तो जरदारी की जीत के पूरे आसार हैं। एेसे में पीपीपी का शासन तो चलता रहेगा लेकिन संविधान में किसी भी तरह के संशोधन के लिए दो-तिहाई बहुमत जुटाना जरदारी के लिए मुश्किल

शरीफ भी जजों की बहाली के मुद्दे पर खामोश बैठने वाले नहीं हैं। हो सकता है कि उनकी पार्टी इसके लिए आंदोलन भी चलाए। एेसे में टकराव बढ़ेगा और
राजनीतिक माहौल भी बिगड़ेगा और सरकार तालिबान तथा अल-कायदा के इस्लामी उग्रवादियों पर भी नियंत्रण करने में कामयाब नहीं होगी। पाकिस्तानी तालिबान ने
सेना द्वारा चलाए गए अभियान के जवाब में पिछले सप्ताह जो आत्मघाती हमले किए उसमें एक सौ से अधिक लोग मारे गए।

सरकार ने तहरीक-ए-तालिबान पर प्रतिबंध लगा दिया और उसके बैंक खाते सील कर दिए हैं। मुल्लाओं और कट्टरपंथियों का एक तरह से तालिबान को समर्थन प्राप्त है। इसी के साथ वकीलों ने भी जजों की बहाली के लिए आंदोलन शुरू करने की घोषणा कर दी है। कुल मिलाकर माहौल बिगड़ने की आशंका ज्यादा है और एेसे में ही सेना का हस्तक्षेप होना लाजिमी हो जाएगा। हालांकि सेनाध्यक्ष जनरल कियानी सेना को राजनीति से दूर रखने की बात कह चुके हैं लेकिन संभावना बनी रहेगी। अगर पाकिस्तान में फिर सेना का दखल होता है और लोकतंत्र का गला घोंटा जाता
है तो उसके लिए शरीफ, जरदारी और अन्य तमाम नेता दोषी करार दिए जाएंगे, जिन्होंने लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए मिले खूबसूरत मौके को निजी स्वार्थो के चलते गंवा दिया।

Wednesday, August 20, 2008

दोराहे पर पाकिस्तान..

मुशर्रफ के पद छोड़ने के बाद लोग भले ही खुशियां मना रहे हों लेकिन वे अभी यह नहीं समझ पा रहे हैं कि आगे की तस्वीर क्या होगी।

सविता पांडे

पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ का जाना तय था। नवाज शरीफ और जरदारी की आमद के बाद उनका राष्ट्रपति बना रहना लगातार मुश्किल होता जा रहा था। सवाल सिर्फ इतना था कि वह अपने पद से कब इस्तीफा देंगे और इस्तीफा देने के बाद कहां रहेंगे। मुशर्रफ के नजदीकी लोग आखिरी दम तक कहते रहे कि राष्ट्रपति इस्तीफा नहीं देंगे, महाभियोग का मुकाबला करेंगे और पाकिस्तान में ही रहेंगे लेकिन उनकी बात पर भरोसा करने वाले कम ही थे।

पाकिस्तान में और खासकर उसकी राजनीति में कभी भी और कुछ भी हो सकता है। यह देखते हुए कि मुशर्रफ के महाभियोग में जीतने के आसार लगातार कम होते जा रहे थे, उनका यह फैसला हैरान नहीं करता। भले ही मुशर्रफ यह तर्क दे रहे हैं कि उन्होंने 'अपने मुल्क और कौम की खातिरज् पद छोड़ने का अहम फैसला किया।


नौ साल तक मुल्क पर हुकूमत करने वाले तानाशाह राष्ट्रपति के जाने पर देश में जश्न का माहौल है। लोग खुशियां मना रहे हैं। सड़कों पर नाच रहे हैं। ढोल, नगाड़े बज रहे हैं। पाकिस्तान की मानवाधिकार कार्यकर्ता अस्मां जहांगीर कहती हैं कि लोग अब आगे की भी सोच रहे हैं। उनके लिए यह वक्त खुशियां मनाने से ज्यादा यह समझने का है कि उनका मुस्तकबिल क्या होगा। पाकिस्तान किस दिशा में जाएगा। अमेरिका से उसके रिश्ते कैसे रहेंगे। पड़ोसी भारत के साथ संबंधों का क्या हश्र होगा, जिसमें कश्मीर के मसले पर हालिया बयानों की वजह से काफी तल्खी आ गई है।

दरअसल पाकिस्तान की असली समस्या हमेशा से विपक्ष की भूमिका रही है। विपक्षी दल किसी के खिलाफ एकजुट हो जाते हैं और उसे बेदखल करने की कोशिश में अपने विरोध कुछ वक्त के लिए दफन कर देते हैं। लेकिन यह एकता और एकजुटता तभी तक रहती है जब तक उनका साझा दुश्मन बना रहता है। पाकिस्तानी सियासत ने यह मंजर कई बार देखा है और एक बार फिर वही कहानी दोहराई जा रही है। इस समय देखना यह है कि सत्ता पर काबिज नवाज-जरदारी की सियासी जमातों के पास आगे के लिए क्या रणनीति है। वे मुल्क के लिए कैसी तस्वीर सामने रखना चाहते हैं। मुशर्रफ विरोध की वजह से इन जमातों ने अब तक अपनी साझा रणनीति का खुलासा नहीं किया है और न मुल्क के आवाम को, और न ही दुनिया को इसकी कोई भनक है। हिंदुस्तान के साथ रिश्ते पर भी उन्होंने साफ तौर पर कुछ नहीं कहा है।

हालांकि भारत के विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी ने पाकिस्तान के घटना क्रम पर फौरी प्रतिक्रिया में कहा कि पाकिस्तान के साथ उसके रिश्ते व्यक्ति कें्िरत नहीं हैं। इससे दोनों देशों के संबंधों पर कोई असर नहीं पड़ेगा और शांति वार्ता जारी रहेगी। मुखर्जी ने यह भी उम्मीद जताई कि पाकिस्तान की घरेलू सियासत में आया तूफानजल्दी शांत हो जाएगा।


मुशर्रफ की मुल्क के नाम आखिरी तकरीर खासी मानीखेज थी लेकिन उसका अंदाज एक पराजित योद्धा का था। कई जगह तो ऐसा लगा जसे राष्ट्रपति मुशर्रफ किसी स्कूली बच्चे की तरह अपना रिपोर्ट कार्ड पढ़ कर सुना रहे हों कि मैंने नौ साल में क्या किया। सड़कें बनाईं, बिजली उत्पादन बढ़ाया, अमन कायम किया, विकास दर सात फीसदी पहुंचा दी, विदेशी म्रुा भंडार बढ़ा और पूरे नौ साल अमेरिका के मुकाबले पाकिस्तानी रुपए की विनिमय दर साठ के आसपास बनी रही। इसी के साथ उन्होंने कहा कि नई सरकार बनने के बाद के आठ महीने में यह सब उलट गया। देश, जो ऊपर जा रहा था, नीचे आने लगा। मुशर्रफ का दावा था कि ब्रिक देशों (ब्राजील, रूस, भारत और चीन) के बाद दुनिया ने पाकिस्तान को एन-ग्यारह में रखा था। यानी कि पाकिस्तान उन देशों में शामिल था जिनसे भविष्य में बहुत उम्मीदें थीं। एक घंटे के भाषण में पौन घंटा मुशर्रफ ने रिपोर्ट कार्ड पढ़ा। पांच मिनट यह बताने में लगाया कि वह डरे हुए नहीं हैं, उनके खिलाफ महाभियोग विफल होगा और वह इसका सामना करेंगे।


लेकिन अंत के दस मिनट में एक पराजित राष्ट्राध्यक्ष बोल रहा था। मुशर्रफ ने बहुत भावुक होकर कहा 'मैं मुल्क और कौम की खातिर इस्तीफा दे रहा हूं। आज ही मेरा इस्तीफा पहुंच जाएगा। मुङो किसी से कुछ नहीं चाहिए। मैं सबकुछ अवाम और कौम पर छोड़ता हूं। मेरे भविष्य का फैसला वही करेगी। मुङो उनसे न्याय की उम्मीद है।ज् मुशर्रफ ने अपनी तकरीर के अंत में कहा, 'खुदा हाफिज, पाकिस्तान।ज् एक तरह से मुशर्रफ इशारतन कह रहे थे कि पाकिस्तान अब अल्लाह के भरोसे है। अवाम को यह जताने की कोशिश कर रहे थे कि अब वह सत्ता में नहीं हैं और अब खुदा ही पाकिस्तान की हिफाजत करेगा। उसकी अंदरूनी सियासत के बारे में बहुत भरोसे के साथ कोई टिप्पणी नहीं की जा सकती है। खासकर उस वक्त तक जब तक नई सत्तारूढ़ सियासी जमातें भविष्य की अपनी योजना और रणनीति मुल्क के सामने न रखें।

खतरों में और खतरनाक

सीतेश द्विवेदी

क्या पाकिस्तान से मुशर्रफ की विदाई का वक्त आ गया है। दशक भर तक ठसक से राज करने के बाद उनपर महाभियोग लगाये जाने की तैयारी हो रही है। उन्हीं के सताए दो राजनीतिज्ञों नवाज शरीफ और आसिफ अली जरदारी उन्हें हटाने के लिए कमर कस चुके हैं। इनका कहना है कि उनकी जरूरत अब नहीं रही। जनता और न्यापालिका पहले से ही उनके खिलाफ है। अब आगे क्या? क्या वे फिर कोई करिश्मा करेंगे। क्या सेना और उसके प्रमुख कियानी सेना सहित उनकी लामबंदी में तो नहीं उतरेंगे?
राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ खतरों को भांप लेते हैं। सेना में सीखे हुनर जंग के मैदान में कितने काम आये यह थोड़ा मुश्किल सवाल है, लेकिन पाकिस्तान के राष्ट्रपति की कुर्सी पर पहुंचने के बाद मुशर्रफ ने अपनी ट्रेनिंग का पूरा फायदा उठाया।

खतरे को पहले से भांप लेने के उनके हुनर ने नौ साल पहले के इतिहास की पुनरावृत्ति नहीं होने दी। दरअसल नवाज शरीफ का तख्ता पलट कर पाकिस्तान की सत्ता हथियाने वाले जनरल को हटाने का मंसूबा बना रहे नवाज शरीफ को उनके बीजिंग न जाने गहरा झटका लगा है। आसानी से हो जाने काम के लिए अब शरीफ को ज्यादा मेहनत करनी पड़ेगी। वैसे यह शरीफ ही थे जिन्होंने कई वरिष्ठ अधिकारियों को दरकिनार कर सेना के सबसे बड़े ओहदे पर मुशर्रफ को बैठाया था। लेकिन अपने इस जरनल से उनके मतभेद तब गहरे हो गए जब आईएसआई की शह पर मुशर्रफ ने प्रधानमंत्री शरीफ को विश्वास में लिए बगैर कारगिल में सेना को उतार दिया। इस आपरेशन में पाक सेना की शर्मनाक हार के बाद दोनों के बीच दूरियां काफी बढ़ गईं।

अमेरिकी दबाव के कारण शरीफ को सेना हटानी पड़ी, और नाराज शरीफ ने उनके श्रीलंका दौरे पर जाते ही उनका पत्ता साफ करने के लिए मुशर्रफ को बर्खास्त करने का फरमान दे दिया। यही नहीं उनके विमान को कराची हवाई अड्डे पर उतरने की अनुमति तक नहीं दी गई। लेकिन सेना में मजबूत पकड़ रखने वाले मुशर्रफ ने शरीफ की इस योजना पर पानी फेर दिया। और शरीफ को मुशर्रफ ने दस साल का देश निकाला देते हुए सऊदी अरब भेज दिया। इसके बाद से एक दशक से पाकिस्तान पर मुशर्रफ की हुकूमत कायम है। लेकिन एक बार फिर इतिहास अपने को दोहराने को तैयार है। तुर्की में बचपन बिताने वाले मुशर्रफ के एक बार फिर वहीं का मेहमान बनने की अटकलें लगाई जा रही
है। शरीफ को हटाने के बाद देश को भ्रष्टाचार मुक्त शासन देने की बात करने वाले मुशर्रफ ने हर वो काम किया जो उनके पूर्ववर्ती राजनेता करते रहे थे। उनकी परेशानियां 11 सितंबर, 2001 को वर्ल्ड ट्रेड टावर पर हमले के बाद शुरू हुई।

अचानक बनी परिस्थतियों में उन्होंने अमेरिका के साथ जाने का फैसला किया। और वे 'आतंक के खिलाफ लड़ाईज् में अमेरिका के विश्वसनीय सहयोगी बन गए। अमेरिका से यह नजदीकी जेहाद का नारा बुलंद करने वालों को पसंद नहीं आयी और पाकिस्तान में इसका विरोध होने लगा। आतंकवाद का जनक पाकिस्तान खुद इसका शिकार हो गया। लाल मस्जिद कांड के बाद देश में आए दिन धमाके होने लगे। वर्ष 2007 मुशर्रफ के लिए और मुश्किलें लेकर आया। देश के मुख्य न्यायाधीश इफ्तिखार मोहम्मद चौधरी की बर्खास्तगी से नाराज जनता और वकीलों ने एक बड़ा आंदोलन खड़ा कर दिया। जो जल्द ही जनआंदोलन में बदल गया। आखिरकार जुलाई में चौधरी फिर बहाल हो गए। यह जनरल की पहली हार थी। बाद में बेनजीर की वतन वापसी हुई। हालांकि वापसी के दिन ही उन्हें जान से मारने की असफल कोशिश हुई और इसके बाद शरीफ की वतन वापसी को रोकते हुए उन्हें कराची हवाई अड्डे से ही बैरंग लौटा दिया।


अक्टूबर में मुशर्रफ सेना प्रमुख रहते हुए राष्ट्रपति के लिए चुने गए। वकील उन्हें हटाने के लिए पहले से ही आंदोलनरत थे। उनके चुनाव को अदालत में चुनौती दी गई। नाराज मुशर्रफ ने देश में आपातकाल लगा कर प्रमुख जजों को नजरबंद कर दिया।

सुप्रीम कोर्ट में बहाल किए गए नए जजों ने मुशर्रफ के चुनाव को वैध ठहराया। लेकिन अंतरराष्ट्रीय दबाव के बाद उन्हें कुछ दिनों बाद इमरजेंसी हटानी पड़ी और 28 नवंबर, 2007 को सेना प्रमुख का पद भी छोड़ना पड़ा। बाद में चुनावों की घोषणा हुई और प्रचार के दौरान एक आतंकी हमले में बेनजीर भुट्टो की हत्या कर दी गयी। अब जब पाकिस्तान में सत्तासीन गठबंधन मुशर्रफ को महाभियोग के जरिए हटाना चाहती है। इसके लिए 11 अगस्त की तारीख मुकर्रर की गई है। हालांकि वे चुनी हुई सरकार को बर्खास्त कर अपनी कुर्सी बचा सकते हैं।

सेना भी मुशर्रफ को बचा सकती है। और आखिरकार इस समय वहां मौजूद जनरल कियानी को उन्होंने ही वरिष्ठता को नजरअंदाज करते हुए इस पद पर बैठाया था।

Tuesday, August 19, 2008

मुश्किल चीज हैं मुशर्रफ

मुशर्रफ पर महाभियोग को लेकर बड़ी अटकलें हैं। खुद मुशर्रफ निश्िंचत और बेखौफ नजर आ रहे हैं। वे जायेंगे या रहेंगे कहना कठिन है। मुशर्रफ के बाद क्या, की अटकलों में पड़े लोगों को समझना चाहिए कि उनका जाना इतना आसान नहीं है। वे दस साल से सत्ता शीर्ष पर है और कुछ भी उलटफेर का माद्दा रखते हैं। फिर सवाल सिर्फ मुशर्रफ का नहीं है। उनका रहना -जाना दूसरी कई बातें तय करेंगी। अमेरिका क्या चाहता है? आईएसआई क्या चाहती है? और सबसे अहम कियानी क्या चाहते हैं, जिनके हाथों में वरिष्ठता को ताक पर रखकर मुशर्रफ ने सेना की कमान सौंप दी थी। अभी कियानी जो कह रहे हैं उस पर आंख मूंद कर भरोसा नहीं किया जा सकता।


वीपी मलिक

शर्रफ जाएंगे भी इसको लेकर दुनिया भर में संदेह है। पाकिस्तान में होने वाले नाटकीय सत्तपरिवर्तनों की लम्बी फेहरिस्त को देखते हुए बदलाव होने तक कुछ भी कहना अटकलबाजी ही होगी। पाकिस्तान के चरित्र को केवल सैनिक शासन से ही जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए। अफगानिस्तान
के राष्ट्रपति हामिद करजई के शब्दों में 'दुनिया का सबसे बड़ा आतंकवादीज् पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई के पाकिस्तान की राजनीति में दबदबे के मद्देनजर सब कुछ उतना आसान नहीं होने वाला जितना लग रहा है। इस पूरे मामले में कई ऐसी बाते हैं जिनका जवाब आना अभी बाकी
है। अभी तो यह जानना बाकी है कि नौ साल तक देश की कमान संभालने के बाद मुशर्रफ ने जिन अशफाक कियानी के हाथों में 'बेटनज् सौपा है वे क्या चाहते है? आईएसआई क्या चाहती है? मुशर्रफ के बाद पाकिस्तान का क्या होगा? क्या आपस में बिल्कुल भी इत्तफाक न रखने वाले जरदारी और शरीफ, सेना और आईएसआई की समांतर सत्ता के मद्देनजर अमेरिका के हितों को उस ढंग से सुरक्षित रख पाएंगे जसा मुशर्रफ कर रहे थे।

क्या अमेरिका, जो कि पाकिस्तान के भीतर और अफगानिस्तान में आईएसआई समíथत जेहादियों से लड़ रहा है, के पास आगे की योजना का खाका तैयार है? मुशर्रफ कि सस्मान विदाई कैसे होगी जबकि उन पर महाभियोग और अन्य कई मामले चलाए जाने की योजना बनाई जा रही है। और सबसे बड़ा सवाल, मुशर्रफ के बाद क्या? यह एक ऐसा सवाल है जिसके बल बूते पर तमाम खामियों के
बावजूद जनरल दशक भर से सत्ता शीर्ष पर कायम हैं।


एशिया के सबसे महत्वपूर्ण भाग में सत्ता परिवर्तन का आपेरशन कैसे अंजाम तक पहुंचेगा
इसमें सबसे बड़ी भूमिका अमेरिका और आईएसआई की होने वाली है। दरअसल नौ नवंबर के बाद पाकिस्तान ने विशेषकर वहां की सेना ने वैश्विक परिदृश्य में बदलती परिस्थितियों का आंकलन ठीक ढंग से नहीं किया। यह इस बात से नजरें फेरे रही कि इस घटना के बाद 'तालिबान और कट्टरपंथज् जसी चीजों के लिए दुनिया में अब कोई जगह नहीं बची है। इस गफलत में पाकिस्तानी सत्ता के समांतर सत्ता चलाने वाली आईएसआई की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। यह आईएसआई ही थी जिसके निर्देशों पर मुशर्रफ ने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को दरकिनार कर कारगिल को अंजाम दिया। यह अलग बात है कि करगिल पाकिस्तान के लिए वाटरलू साबित हुआ और इस घटना ने पाकिस्तानी सेना के बारे में विश्व बिरादरी मेंएक संदेह की छवि बनाने में बड़ी भूमिका निभाई। इस घटना के बाद दुनिया को लगा कि 'बेलगाम सेनाज् वाले इस देश के हाथों में परमाणु हथियार कितने खतरनाक हो सकते हैं। हालांकि 9/11 के बाद मुशर्रफ ने अमेरिका के आतंकवाद विरोधी गठजोड़ में शामिल होकर कुछ विश्वास जमाने की कोशिश की लेकिन अमेरिका से यह ज्यादा दिन छिपा नहीं रह सका कि उसके सबसे महत्वपूर्ण सहयोगी बने पाकिस्तान में एक समांतर सत्ता है जो नहीं चाहती कि दुनिया भर में फैली आतंकवाद की उसकी दुकानें खत्म हों। इस सत्य से साबका होने के बाद अमेरिका ने पाकिस्तान में
राजनीतिक प्रक्रिया की वापसी को संभव बनाने का प्रयास शुरू किया। यह प्रक्रिया अंजाम तक पहुंचती इससे पहले बेनजीर भुट्टो की मौत से इसे बड़ा झटका लगा।

बीबी की हत्या के पीछे भी आईएसआई की भूमिका रही जो नहीं चाहती थी कि पाकिस्तान में लोकतंत्र लौटे। जिहादी और उनके सरपरस्त चुनावों के बाद भी देश में जनतांत्रिक शक्तियों को सत्ता से दूर रखने का षड़यंत्र बनाते रहे। इस बीच अमेरिका को भी आंतक विरोधी लड़ाई में काफी नुकसान उठाना पड़ा। बीते जून माह में ही उसे 28 सैनिकों को गवाना पड़ा जो कि पिछले आठ साल में उसकी सबसे
बड़ी क्षति है। इसने भी अमेरिका को मुशर्रफ की विदाई का रास्ता बनाने में अपनी भूमिका अदा की।

लेकिन मुशर्रफ का जाना उतना आसान नहीं। जिस तरह की नाटकीय परिस्थतियों में सत्ता शीर्ष पर पहुंचे हैं और जसा कि उनका स्वाभाव रहा है, वे उलटफेर कर सकते है। भारत के मौजूदा हालात भी इसमें अहम भूमिका निभा सकते हैं। विशेषकर जम्मू कश्मीर। जहां पिछले कई सालों से चल रहे भारतीय सेना के विश्वास बहाली के कार्यक्रम को गहरा धक्का लगा है। पाकिस्तानी सैनिक हुक्मरां इस माहौल को बहाना बना कर एक बार फिर सुरक्षित समय निकाल सकते हैं। दरअसल आंतरिक गृहयुद्ध जसी स्थितियों और आíथक मोर्चे पर विफल रहने के बावजूद पाकिस्तानी हुक्मरां भारत का हौव्वा खड़ा कर जनतंत्र को पनपने का अवसर ही नहीं देते हैं। भारत को पाकिस्तान की सुरक्षा के लिए खतरा बताकर जनता को बरगलाने का खेल तो आजादी के बाद ही शुरू हो गया था, लेकिन जनरल जिया ने इसे व्यवस्था जसा बना दिया। सेना और मुशर्रफ एक बार फिर इसका फायदा उठा सकते हैं। पाकिस्तान के गठन के बाद से लगातार सैनिक शासन का इतिहास रखने वाले पाकिस्तान में सेना ने कितनी गहरी जड़े जमा ली है इसका खुलासा पाकिस्तानी पत्रकार आयशा सिद्दीकी ने हाल ही में प्रकाशित अपनी किताब में किया है। उनके आंकलन के मुताबिक पाकितानी सेना का अर्थतंत्र 20.7 बिलियन डालर के
करीब पहुंच गया है। इसमें रियल स्टेट औद्योगिक इकाइयों के रूप में एक बड़ा साम्राज्य उसके लिए काम करता है। जाहिर है कि इसे बरकरार रखने के लिए शासन तंत्र का हाथ में होना जरूरी है। जिस तरह से वरिष्ठता की परवाह किए बिना जनरल कियानी के जिम्मे सेना की कमान मुशर्रफ ने सौपी थी उसे देखते हुए कियानी के इस बयान पर कि 'सेना सीमाओं की सुरक्षा का काम करेज् पर आंख मूंद
कर विश्वास नहीं किया जा सकता।


(जनरल वीपी मलिक पूर्व थल सेनाध्यक्ष की सीतेश द्विवेदी से बातचीत पर आधारित)

Monday, August 18, 2008

आप देखतें रहें लॊकशाही

पाकिस्तान और परवेज मुशर्रफ पर लॊकशाही में विशेषआप देखतें रहें लॊकशाही

अस्थिरता फैलाने की हरकतें

खुफिया एजेंसियां और देशवासी इस बात से पूरी तरह वाकिफ हो चुके हैं कि आज देश में जहां कहीं भी धमाके हो रहे हैं, वह आईएसआई की ही देन है। और ऐसा वह भारत को अस्थिर करने की साजिश के तहत कर रही है।

अंशुमान शुक्ला

पाकिस्तान भारत को अस्थिर करने की साजिश रच रहा है। इस साजिश को अंजाम तक पहुंचाने की जिम्मेदारी उसने अपनी खुफिया एजेंसी आईएसआई को दे रखी है। भारत में होने वाला हर धमाका सिर्फ और सिर्फ आईएसआई की ही देन है। केन्द्रीय गृह मंत्रालय, देश की खुफिया एजेंसियां और देशवासी इस बात से बखूबी वाकिफ हैं। हिन्दुस्तान में अस्थिरता फैलाने के लिए आईएसआई ने अपनी रणनीति में परिवर्तन किया है।

चार बरस पहले तक देश में बम धमाकों को अंजाम देने के लिए पाकिस्तान अपने प्रशिक्षित नागरिकों को भारत भेजता था लेकिन अब उसने यह जिम्मेदारी सिमी को दे दी है। आईएसआई द्वारा सिमी को तवज्जो देने का ही नतीजा है कि उसने बनारस बम विस्फोट, हैदराबाद धमाकों, लखनऊ, फैजाबाद और बनारस के न्यायालय परिसर में विस्फोट, जयपुर धमाकों, बेंगलुरू और अहमदाबाद में हुए सिलसिलेवार बम विस्फोटों में अहम भूमिका निभाई।

केन्द्रीय खुफिया एजेंसियों के पास आईएसआई से जुड़े जो ताजातरीन आंकड़े हैं उसमें इस बात का जिक्र है कि आईएसआई ने भारत में अस्थिरता फैलाने के लिए जिन आतंकवादी संगठनों लश्कर-ए-तैयबा, हरकत-उल-अंसार-उल-जेहादी, जश-ए-मोहम्मद को एक साथ सिमी की मदद से धमाकों को अंजाम देने को कहा है। खुफिया विभाग के पास मौजूद रिपोर्ट के मुताबिक सिमी के दो खेमे हो चुके हैं। पहले खेमे का नेतृत्व आजमगढ़ निवासी शाहिद बद्र फलाही के हाथों में है। वह सिमी को समाज की मुख्यधारा से जोड़ने और फिरकापरस्त ताकतों की मुखालफत का पक्षधर है जबकि दूसरे खेमे का नेतृत्व उज्जन निवासी सफदर हुसैन नागौरी के हाथों में है।

नागौरी फिरकापरस्त ताकतों को मदद पहुंचाने के लिए अपने खेमे के लोगों को समय-समय पर निर्देश देता रहा है। उसने देश के दस राज्यों में सिमी के 24 आतंकवादियों को सक्रिय कर रखा है जो फिलहाल पुलिस पकड़ से दूर है। सिमी की साजिश को संज्ञान में लेते हुए केन्द्र सरकार ने विधि विरुद्ध क्रियाकलाप निवारण अधिनियम 1967-37 की धारा तीन की उपधारा के तहत पहली बार 2001 को प्रतिबंध लगाया था। उसके बाद इसी धारा के तहत वर्ष 2003 और वर्ष 2008 में इस प्रतिबंध को लगाया गया। बावजूद इसके केन्द्र सरकार की यह पहल कागजी कार्रवाई ही बन कर रह गई। देश के ज्यादातर राज्यों में सिमी आज भी सक्रिय है। यह बात अब साफ हो चुकी है।

अब आईएसआई ने आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देने के लिए लगने वाले धन की व्यवस्था करने के लिए भारत में नकली नोटों का व्यापार शुरू कर दिया है। सेन्ट्रल डिपार्टमेंट इंटेलीजेंस ब्यूरो की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हर वर्ष पांच से सात करोड़ रुपए की नकली मुद्रा बरामद की जाती है। अक्टूबर 2007 में ऐसे नोटों की बरामदगी की संख्या दस करोड़ के करीब पहुंच गई थी। इन दस करोड़ नकली नोटों में से दो करोड़ 31 लाख रुपए देश के विभिन्न बैंकों से बरामद हुए थे। दस्तावेजों में इस बात का जिक्र किया गया है कि आईएसआई नकली नोट कराची, पेशावर, लाहौर और क्वेटा से छपवाती है, जिसमें मलीर कैंट कराची के छापेखाने में छपने वाले नकली नोटों की गुणवत्ता सबसे अच्छी है।

रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि आईएसआई पाकिस्तान में नकली भारतीय नोट छापकर उसे काठमाण्डू, ढाका, बैंकाक, क्वालालाम्पुर और सिंगापुर के रास्ते भारत में भेजती है। इन नोटों को पाकिस्तान से ले जाने के लिए तस्कर कराची, काठमाण्डू सेक्टर में कतर एयरवेज, दुबई-काठमाण्डू सेक्टर में रायल नेपाल एयरवेज, बैंकाक-काठमाण्डू सेक्टर और कराची-ढाका काठमाण्डू सेक्टर के लिए रायल नेपाल और विमान एयरलाइन्स का सहारा लेते हैं। साथ ही समझौता एक्सप्रेस, थार एक्सप्रेस व दिल्ली लाहौर बस सेवा से भी कभी-कभार नकली नोटों की खेप भारत लाई जाती है। हमारे पैसों और हमारे ही आदमियों के बल पर देश के विभिन्न प्रदेशों में बम धमाकों को अंजाम दे रही आईएसआई की इस साजिश की जानकारी होने के बाद भी देश की खुफिया एजेंसियां उससे निपट पाने में पूरी तरह नाकाम साबित हो रही हैं।

खुफिया एजेंसियों की ये नाकामी धमाकों की शक्ल में सामने आ रही है। आतंकवादियों के बारूद के ढेर पर बैठे देश के ज्यादातर प्रदेशों में वहीं के लोग सिमी के कार्यकर्ताओं की शक्ल में बम रख रहे हैं। हर धमाके के कुछ दिनों के बाद उसे भूला देने की सुस्ती अगले धमाकों में मारे गए लोगों के परिजनों की चीख-पुकार के साथ टूटती है और उनके रोने की आवाज मंद पड़ने के साथ ही जांच की सुस्त रफ्तार के साथ थम जाती है। क्योंकि बिना नाम और पते के दावे के साथ स्लीपर सेल की संख्या की बात नहीं की जा सकती। और यदि ऐसा है तो उन्हें गिरफ्तार कर देश में फैलाए गए आईएसआई के संजाल को तोड़ने की कोशिश क्यों नहीं की जा रही है? यह आम हिन्दुस्तानी की समझ से परे है।

Friday, August 15, 2008

आसान नहीं मुशर्रफ का जाना!

राजनीतिक उठापटक और गोटियां बैठाने में माहिर मुशर्रफ को पाकिस्तान की राजनीति से दरकिनार करना एक मुश्किल काम होगा।

राजेंद्र श्रीवास्तव

पाकिस्तान में तेजी से बदलते घटनाक्रम ने सियासी माहौल को फिर गर्म कर दिया है। गठबंधन सरकार के सबसे बड़े दल पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के सहअध्यक्ष आसिफ अली जरदारी और पाकिस्तान मुस्लिम लीग (एन) के नेता नवाज शरीफ के बीच तालमेल बैठ गया है। दोनों नेताओं ने राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ के खिलाफ महाभियोग लाने का ऐलान किया है। इसी वजह से राष्ट्रपति मुशर्रफ ने आनन-फानन में अपना चीन जाने का कार्यक्रम रद्द किया और जुट गए नई स्थिति से निपटने की रणनीति बनाने में।

पहले मुशर्रफ ने महाभियोग की स्थिति में इस्तीफा देने का मन बनाया था लेकिन अब वे उसका सामना करने के लिए तैयार हो गए हैं। ऐसे में दो विकल्प उनके सामने हैं-पहला नेशनल असेम्बली में प्रस्ताव आने पर अपना पक्ष रखें और सरकार को दो-तिहाई बहुमत जुटाने की कोशिशों को नाकाम कर दें। आईएसआई को लेकर जिस तरह उठापटक हुई और मुशर्रफ ने उसे जिस तरह सरकार के नियंत्रण में जाने से रोका है, यह उस बात का संकेत है कि सेना और मुशर्रफ में अभी तालमेल है। और आईएसआई दो-तिहाई बहुमत जुटाने की कोशिशों को नाकाम करने में पूरा जोर लगा देगी।

पाकिस्तान की सेना भी नहीं चाहेगी कि उसके एक पूर्व जनरल को उस तरह बेआबरू करके हटाया जाए। इस सिलसिले में पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष जनरल असफाक परवेज कियानी की अन्य कमांडरों के साथ रावलपिंडी में हुई बैठक को राजनीतिक क्षेत्रों में बहुत महत्वपूर्ण माना जा रहा है। वैसे जनरल कियानी सेना को राजनीति से अलग रखने की बात कह चुके हैं लेकिन नई परिस्थिति में भूमिका बदल भी सकती है।

मुशर्रफ के सामने दूसरा विकल्प है राष्ट्रपति के रूप में अपने अधिकारों का उपयोग करते हुए संविधान के अनुच्छेद 5(2)(बी) के अंतर्गत नेशनल असेम्बली को भंग कर दे। लेकिन तब उसे सुप्रीम कोर्ट से मंजूरी दिलानी होगी जिसके तीन महीने के भीतर चुनाव कराने होंगे।

सबसे हैरत में डालने वाली बात है जरदारी के रुख में परिवर्तन। अभी तक जरदारी किसी भी कीमत पर मुशर्रफ से टकराव के लिए तैयार नहीं थे, इसीलिए वे राष्ट्रपति के प्रति नरमी बरत रहे थे और नवाज शरीफ से भी उनकी खटपट हुई थी लेकिन अब वे मुशर्रफ का सियासी रुतबा पूरी तरह से खत्म करने का मूड बना चुके हैं। इसके पीछे एक तर्क यह भी दिया जा रहा है कि जरदारी खुद राष्ट्रपति पद संभालना चाहते हैं। लेकिन यह बहुत दूर की बात है। इसी संदर्भ में जरदारी शरीफ के बीच तालमेल की बात भी जरूरी है। जजों की बहाली के मुद्दे पर सत्ता से अलग होने वाली शरीफ की पार्टी अब फिर सरकार में शामिल होने पर तैयार हो गई है।

महाभियोग प्रस्ताव पर सहमति के बाद दोनों नेताओं ने संयुक्त बयान में कहा-हम दोनों पाटियां इस प्रस्ताव पर पूरी तरह सहमत हैं। इसका एक-एक शब्द हमने साथ मिलकर लिखा है। पूरा देश इस फैसले से खुश है। इसी के साथ दोनों नेताओं ने मुशर्रफ द्वारा हटाए गए जजों की बहाली किए जाने पर सहमति जताई ।

जरदारी ने कहा लोकतंत्र के लिए स्वतंत्र न्यायपालिका जरूरी है और मुशर्रफ ने जिन जजों को हटाया था ,उन्हें बहाल करके ही लोकतंत्र आ सकता है। सदर को हटाना हमारा लोकतांत्रिक और संवैघानिक अधिकार है। पाकिस्तान की जनता ने हमें जनादेश दिया है।
महाभियोग प्रस्ताव के लिए दो-तिहाई बहुमत के बारे में पूछे जाने पर जरदारी ने जवाब दिया-हमारे पास वोट भी है और लोकतांत्रिक फैसला करने की हिम्मत भी।

मुशर्रफ के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव पारित हो या राष्ट्रपति नेशनल असेंबली भंग करें दोनों ही स्थितियों में पाकिस्तान में अराजकता पैदा होगी। सरकार का अभी भी देश की स्थिति पर पूरी तरह नियंत्रण नहीं है और तालिबान कभी भी करांची पर कब्जा करने की धमकी दे रहे हैं। राजनीतिक अस्थिरता पैदा होने पर लोकतंत्र विरोधी ताकतें फायदा उठा सकती हैं। लेकिन पाकिस्तान की राजनीति में सेना की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता है। आजादी के बाद से पाकिस्तान में अधिकतर समय सैनिक शासन ही रहा है। लोकतंत्र का दौर जो रहा भी, वह बहुत संक्षिप्त रहा और उसमें भी परोक्ष या अपरोक्ष रूप से, उसमें भी सेना का हस्तक्षेप रहा है।

मुशर्रफ ने अब सेना से संपर्क साधना शुरू कर दिया है। उन्होंने जनरल कियानी को सेनाध्यक्ष बनाया है और वे मुशर्रफ का पूरा सम्मान करते हैं। सेना में सीनियर और जूनियर का ध्यान बहुत रखा जाता है। माना जा रहा है कि मुशर्रफ के समर्थक दल और नेता भी उनके साथ खड़े हो गए हैं और एेसा लग रहा है कि इस लड़ाई में उसी की जीत होगी जो कूटनीति में माहिर होगा।

Wednesday, August 13, 2008

पहले राज्यपाल हटाएं, फिर आगे की बात

सीतेश द्विवेदी

अमरनाथ संघर्ष समिति और सरकार के बीच बात बनती नजर नहीं आ रही है। समिति के अध्यक्ष लीलाकरण शर्मा का कहना है कि सरकार हमारे पास बिना किसी तैयारी के आई, ऐसे में वार्ता से कोई उम्मीद बेमानी है। शर्मा ने कहा कि सरकार पहले कोई मसौदा रखे, जिस पर बात की जा सके।
उन्होंने कहा कि गृहमंत्री शिवराज पाटिल शांति और बातचीत की अपील कर रहें हैं लेकिन वह
किन मुद्दों पर होगी और सरकार हमारी मांगों के बारे में क्या सोचती है, इसे जाने बिना कुछ भी कह पाना मुमकिन नहीं है।

उन्होंने कहा कि सरकार से वार्ता को लेकर सोमवार को समिति की एक बैठक हो रही है। इसमें हम तय करेंगे कि आगे क्या करना है। शर्मा के मुताबिक समिति ने अपना पक्ष और अपनी मांग सरकार के सामने रख दिया है। उन्हें अब सरकार की पहल का इंतजार है। उन्होंने पीडीपी और कश्मीर के नेताओं के उस बयान को भ्रामक बताया जिसमें कहा गया है कि जम्मू में आंदोलन के चलते घाटी की रसद आपूíत रुक गई है। वे कहते हैं कि राष्ट्रीय राजमार्ग खुला हुआ है और आवश्यक वस्तुओं की आवाजाही निर्बाध रूप से जारी है।

पाटिल के दोनों पक्ष को स्वीकार्य प्रस्ताव रखने और पहले के फैसलों को खारिज करने वाले बयान के बारे में शर्मा ने कहा कि उन्हें ऐसी जानकारी नहीं है और जब तक समिति को लिखित प्रस्ताव नहीं मिलता, वे आधिकारिक रूप से कुछ कहने में असमर्थ हैं। उन्होंने कहा कि हमारी पहली मांग राज्यपाल को हटाने की है। वे कहते हैं, दरअसल सारी स्थितियों को बदतर बनाने में राज्यपाल की अहम भूमिका है। अमरनाथ श्राइन बोर्ड से जमीन वापस लेने के बाद जब जम्मू में शांतिपूर्ण विरोध शुरू हुआ तो उन्होंने पुलिस दमन का सहारा लिया। इससे पहले से आहत लोगों का गुस्सा और भड़क गया।

शर्मा कहते हैं कि एनएन वोहरा राज्य के पहले ऐसे राज्यपाल हैं जिनके खिलाफ जम्मू में इतना विरोध हुआ है। इससे पहले जब भी राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा, जम्मू में कभी ऐसी प्रतिक्रिया नहीं हुई।
शर्मा आरोप लगाते हैं कि केंद्र सरकार और राज्यपाल ने अलगाववादियों के सामने समर्पण कर दिया है। आंदोलन के पीछे भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का हाथ होने वाले पीडीपी और कांग्रेस के
बयानों को शर्मा ने आंदोलन को बदनाम करने की साजिश करार दिया। उन्होंने सवालिया लहजे में पूछा कि क्या राज्य के सारे सरकारी संगठन, चिकित्सा संगठन और आंदोलन का समर्थन कर रहे कांग्रेसी विधायक भी आरएसएस के लोग हैं?


उन्होंने कहा कि यह आंदोलन जम्मू के लोगों का है और इसे राज्य के तमाम सरकारी-गैर सरकारी संगठनों का समर्थन प्राप्त है। पीडीपी और घाटी के अलगाववादी नेताओं के नेतृत्व में फल
के व्यापारियों के मुजफ्फराबाद कूच को उन्होंने 'ब्लेकमेलिंगज् की राजनीति करार दिया और कहा कि वे न तो वहां जा सकते हैं, न जाएंगे। शर्मा कहते हैं, 'वैसे अगर उनकी खुशी है तो उन्हें जाना चाहिए, मुजफ्फराबाद वैसे भी हमारा ही इलाका है।

Tuesday, August 12, 2008

विवाद के पीछे राजनीति

जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद की मानें तो इस सारे विवाद के पीछे राजनीति है। वे अमरनाथ श्राइन बोर्ड के जमीन विवाद पर अपनी सरकार की नीयत साफ बताते हुए आरोप लगाते हैं कि श्रीनगर में पीडीपी और जम्मू में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ व भाजपा ने जनता की भावनाओं को भड़काया।

गुलाम नबी आजाद

मेरी नजर में श्राइन बोर्ड को जमीन दिया जाना विवाद की वजह नहीं है। न ही इसमें कुछ ऐसा हो गया था जो अपराध जसा हो। इस सारे विवाद के पीछे राजनीति है। जम्मू-कश्मीर की 80 से 90 फीसदी जमीन जंगलात की है, और राज्य में रोड बनाने, कृषि कार्यो, अस्पताल व अन्य निर्माण कार्यो के लिए इसी भूमि का उपयोग किया जाता है। राज्य की तकरीबन हर मंत्रिमंडलीय बैठक में दर्जन भर मामले भूमि उपयोग के बदले जाने से जुड़े हुए होते हैं। जिस दिन अमरनाथ श्राइन बोर्ड को जमीन आवंटित किए जाने का फैसला किया गया, उस दिन भी (मई-20,2008) चार और मामलों में भूमि उपयोग को बदले जाने का िंनर्णय लिया गया था। दरअसल श्राइन बोर्ड की जमीन दिए जाने के साथ ही,बड़े पैमाने पर अफवाहों का दौर शुरु हो गया। स्थानीय पार्टियों के इशारे पर राज्य की मीडिया और राज्य की राजनीतिक पार्टियों नें लोगों को गुमराह किया। सोची समझी राजनीति के तहत अवाम के एक तबके में यह बात फैलायी गयी कि आजाद सरकार ने जमीन का टुकड़ा श्राइन वोर्ड को पक्की रिहाइश बनाने के लिए दे दिया ।

इसके बाद कश्मीर घाटी में असामान्य होती स्थितियों के मद्देनजर सरकार ने इस निर्णय को वापस लेने का फैसला किया। इसके बाद हमने एक और निर्णय लिया कि पवित्र गुफा से यात्रा के प्रारम्भ बिन्दु तक यात्रियों के लिए सुविधाएं जुटाने का काम जम्मू कश्मीर पर्यटन विभाग के जिम्में सौप दिया जाए और इसके लिए यात्रा मार्ग के दोनों ओर स्थिति पर्यटन विभाग की जमीन का उपयोग किया जाए । हमारी मंशा साफ थी। हम किसी भी रूप में हिन्दू भावनाओं का अनादर नहीं करना चाहते थे। लेकिन दुर्भाग्य से राजनीतिक पार्टियों विशेष कर भारतीय जनता पार्टी ने इस मुद्दे को अपने लाभ के लिए इस्तेमाल करने का मन बना लिया।

इस मामले में जनरल सिन्हा को घसीटना उचित नहीं है। मैं उनका सम्मान करता हूं । श्राइन बोर्ड के अध्यक्ष होने के नाते उन्होंने जमीन के लिए प्रयास किया। लेकिन इसके लिए दबाव बनाने जसे पीडीपी के आरोप निराधार और बेबुनियाद है। यह प्रक्रिया एक दो महीनों से नहीं बल्कि पिछले तीन सालों से चल रही थी। पीडीपी को अगर इसमें आपत्ति थी तो वे पहले विरोध कर सकते थे । उन्होंने .यह सब राजनीतिक लाभ के लिए किया गया है। इन लोगों ने घूम-घूम कर इस बात का प्रचार करना शुरु कर दिया कि भारत सरकार राज्य के जनसंख्या अनुपात को बदलने का प्रयास कर रही है और इस जमीन पर होने वाले निर्माण में हजारों लोग स्थायी रूप से रहने लगेंगे।

इस मिथ्या प्रचार में संचार माध्यमों (एसएमएस) का सहारा भी लिया गया। नतीजे में लाखों कश्मीरी इसके खिलाफ सड़कों पर उतर आए । दरअसल इन सारे मामले में राजनीतिक पार्टियां खास कर पीडीपी ने बेहद क्ष्रु रवैया अपनाया। कैबिनेट ने बालटाल से उक्त स्थान की नजदीकी का ध्यान रखते हुए जमीन आंवटित की थी। आवंटित भूमि स्थल पवित्र गुफा से 20 किमी की दूरी पर स्थित है। सरकार की मंशा वहां के मौसम को देखते हुए यात्रियों के लिए कम से कम दूरी पर अधिक से अधिक सुविधाएं प्रदान करने की थी, ताकि दर्शन करने वाले यात्रियों को कष्ट न हो।

मंत्रिमंडल ने यह जमीन श्राइन बोर्ड को अस्थाई निर्माण के लिए ही दी थी जिसमें जमीन के उपभोग को न बदलने की शर्त भी शामिल थी। कश्मीर में जो कुछ पीडीपी ने किया जम्मू में भाजपा भी वही कर रही है। जम्मू के पूरे आंदोलन के पीछे भाजपा और उसके सहयोगी संगठनों का हाथ है। वे संघर्ष समिति की आर्थिक मदद दे रहे है। मैं खुद जम्मू का हूं । मुङो लोगों की भावनाओं की क्र है। हम इसे मिल बैठ कर तय कर सकते है। लेकिन यह तब संभव होगा जब बाहरी लोग खासकर दिल्ली में बैठे भाजपा और आरएसएस के लोग वहां के लोगों की भावनाओं से न खेलें। लड़ाई से कभी कोई फैसला नहीं हुआ।

जम्मू के आंदोलन से घाटी की ओर रसद ले जाने में मुश्किलात आ रही है। वहां के मौसम के मद्देनजर यही समय है जब रसद आपूíत की जाती है। यह नहीं भूलना चाहिए की कश्मीर देश का सबसे संवेदनशील सीमांत प्रदेश है। फौज की आवाजाही में रुकावट आने से इसके गंभीर परिणाम भी हो सकते हैं। पिछले दो महीनों से चल रहे इस आन्दोलन से राज्य को गहरी आर्थिक क्षति भी हुई है। जिसका खामियाजा अन्तत: राज्यवासियों को ही भुगतना होगा। इन प्र्दशनों ने वैष्णों देवी व अमरनाथ यात्रा के लिए आने वाले यात्रियों की सख्यां को भी खासा प्रभावित किया है।
हमें उम्मीद है कि संघर्ष समिति के लोग वार्ता के रास्ते पर आगे आएंगे और हम जल्द ही मामले का माकूल हल निकलने में कामयाब हो जाएंगे।

Monday, August 11, 2008

देखते रहें लॊकशाही

कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद और अमरनाथ स्राइन बॊर्ड के लीलाशरण शर्मा से बातचीत के लिए देखते रहें लॊकशाही

करार से मची थी पार्टी में रार

परमाणु करार पर पार्टी में पहले से ही मतभेद थे, लेकिन यह मतभेद खुलकर सामने नहीं आए।

राजीव पांडे

भारत अमेरिका असैनिक परमाणु करार ने न केवल कभी नजदीकी सहयोगी रहे कांग्रेस और वामपंथी दलों को एक-दूसरे का धुर विरोधी बना दिया और भारतीय जनता पार्टी के अंदर भी रार पैदा कर दी थी। हालांकि यह मतभेद खुलकर कम ही सामने आये लेकिन कांग्रेस सांसद और महासचिव राहुल गांधी ने जब यह कहा कि भाजपा के कई युवा नेता करार के पक्ष में हैं तो वह सच से बहुत दूर नही थे ।

यह वर्ग पूरी तरह से करार के प्रावधानों से खुश नही था उसका मानना था कि पार्टी को इस करार का अंध विरोध करने की बजाय यह कहना चाहिये कि करार बराबरी के आधार पर किया जाये और यह बात साफ होनी चाहिये कि इस करार की जितनी जरूरत भारत को है उतनी ही अमेरिका को भी है। अंतत पार्टी की भी यही राय बनी जब विपक्ष के नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने लोकसभा में कहा कि उनकी पार्टी की सरकार आने के बाद इस करार पर फिर से बातचीत की जायेगी।

ऐसा नजर आता है कि पार्टी इस करार को लेकर शुरू से ही दिग्भ्रमित रही। पार्टी के कुछ नेताओं ने करार पर पार्टी का आधिकारिक रुख सामने आने से पहले ही लाठी भांजनी शुरू कर दी। इन नेताओं ने जिनमे यशवंत सिन्हा और अरुण शौरी प्रमुख थे इस करार का खुलकर विरोध शुरू कर दिया । कुछ अन्य नेता जो इनके साथ थे, इस करार का साथ देने वालों को अमेरिकी दलाल तक कहने लग गये थे।
करार का सशर्त समर्थन करने वाले पार्टी के इस वर्ग को इस बात पर और अधिक नाराजगी थी कि ये नेता इस बात को भूल गये कि करार का अंध विरोध पार्टी की इस पुरानी लाइन के साथ किसी तरह से भी मेल नही खाता था कि चीन की तुलना में अमेरिका के साथ संबंधों को बेहतर बनाये जाने की कोशिश की जानी चाहिये।

पार्टी का यह वही वर्ग था जो अटल बिहारी वाजपेयी की चीन के प्रति नरम नीति से भी खुाश नही था । यह वर्ग वाजपेयी सरकार द्वारा तिब्बत पर चीन की संप्रभुता स्वीकार कर लिये जाने से काफी नाराज था क्योंकि इसका कहना था कि चीन की साम्राज्यवादी लिप्साओं का पहला निशाना भारत ही होगा । ये लॊग हमेशा से यह कहते आये हैं कि चीन हमारा दुश्मन नंबर एक है और वह भारत के हितों के खिलाफ हमेशा काम करता रहेगा ।

इसी संदर्भ में वह चीन की तथाकथित पशुपति से तिरुपति तक के लाल गलियारे की योजना के प्रति समय-समय पर चेतावनी भी देता रहता है। उसका कहना है कि पशुपतिनाथ यानी नेपाल में माओवादी शासन लाकर चीन ने सफलतापूर्वक पहला कदम उठा लिया है ।

इन्हीं नेताओं ने पार्टी के अंदर ही करार विरोधियो के खिलाफ अभियान शुरू किया। उनका कहना था कि करार को एकदम ठुकराया नही जाये क्योंकि यह भारत और अमेरिका के बीच दीर्धकालिक सामरिक साङोदारी मे नींव का पहला पत्थर होगा। लेकिन वह करार को बराबरी के आधार पर किये जाने का पक्षधर था । यह वर्ग इस बात से नाखुश था कि करार पर ढुलमुल रुख के चलते वामपंथियों को निशाना बनाने की जगह उनकी पार्टी उसके साथ चलती दिखायी दी जो राजनीतिक दृष्टि से किसी तरह से भी सही नही ठहराया जा सकता ।

इस मामले पर पार्टी अपना अलग पक्ष रखकर लीड ले सकती थी लेकिन उसने यह मौका खो दिया। हालांकि यह मुद्दा महंगाई जसा मुद्दा नहीं है जो आम आदमी से जुड़ा है और चुनाव में जिसका लाभ मिल सकता है। लेकिन प्रबुद्ध नागरिकों के लिये यह एक प्रमुख मुददा है और पार्टी इस मामले पर पूरी तरह दिग्भ्रमित नजर आयी। आडवाणी ने हालांकि इस करार पर पुन बातचीत की बात कह कर पार्टी की छवि को बचाने की कोशिश की लेकिन तब तक काफी नुक्सान हो चुका था।

मार्क्‍सवादी पार्टी के एक नेता तथा मायावती ने करार को मुस्लिम विरोधी बता कर इस करार से जुडे विवाद को एक नया आयाम दे दिया। यह एक विडंबना ही थी कि मुस्ल्मि समर्थक समङो जानी वाली कांग्रेस तथा समाजवादी पार्टी करार के समर्थन में थी तो मार्क्‍सवादी नीत वाम मोर्चा इसके खिलाफ। भारतीय जनता पार्टी के वामपंथियों के साथ चलने के कारण लगा कि धर्मनिरपेक्ष दल और सांप्रदायिक दल जसी अगर कोई बात है तो वह राजनीतिक लक्ष्यों के सामने गौण होती दिखायी दी और यही बात भारतीय जनता पार्टी को भाविष्य मे लाभ पहंचा सकती है।

आस्था का अलगाव

आस्था के अमरनाथ को लेकर भयावह अशांति और आतंक का माहौल है। जम्मू-कश्मीर का उग्रवाद के घोर त्रासद दिनों में जिस संकट से सामना नहीं हुआ वह एकाएक मुंह बाये खड़ा हो गया है। राजनीतिक अदूदर्शिता और फिर राजनीतिक मौकापरस्ती ने शांति की ओर लौटते जम्मू-कश्मीर को अलगाव की आग में झोक दिया है। अमरनाथ श्राइन बोर्ड का विवाद भी अगर हमारे राजनेताओं को कोई सबक नहीं सिखाता तो फिर वही कहा जा सकता है जो सुप्रंीम कोर्ट ने कुछ दिन पहले कहा था 'इस देश को भगवान भी नहीं बचा सकते।

सीतेश द्विवेदी

पिछले 40 दिनों से जम्मू-कश्मीर में अशांति है। पहले कश्मीर सुलगा अब जम्मू जल रहा है। इस आग के लपेट में राज्य सरकार जा चुकी है और केंद्र सरकार किंकर्तव्यविमूढ़ है। आजादी के बाद से राजनीतिज्ञों की दोमुंहे पन से कश्मीर सुलग रहा है। जहांगीर आज होते तो धरती के स्वर्ग के बारे में अपनी राय अवश्य बदलते। बीते पांच सालों में पहली बार ऐसा लग रहा था कि अब सब कुछ ठीक हो जाएगा। राज्य में पर्यटक आ रहे थे। लोग मुख्यधारा से जुड़ रहे थे। अलगाववादियों की हताशा भरी कायराना हरकतों को छोड़ दे तो कश्मीर शांति के रास्ते पर था लेकिन इसी समय राजनीतिज्ञों के एक फैसले कश्मीर को वहीं छोड़ दिया जहां यह सन् 47 में खड़ा था। महबूबा मुफ्ती और अलगाववादी जम्मू के लोगों घाटी की आपूíत बाधित किए जाने को लेकर मुजफ्फराबाद का रास्ता खोलने की बात कह रहे हैं तो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को यही समय अपने इस राज्य को तीन भागों में बांटने वाले सपने के लिए मुफीद लग रहा है।

कश्मीर में लोगों के सड़कों पर उतरने का लम्बा इतिहास रहा है लेकिन जम्मू के लिए यह मंजर नया है। खुद जम्मू वालों के शब्दों में यह 60 साल के अन्याय के विरोध में है। निषेधाज्ञा का उल्लघंन कर लोग सड़कों पर है, पुलों पर है, नदी में है। इस आक्रोश को राजनीतिक चश्मे से देखने वाले कांग्रेस सरीखे कुछ राजनीतिक दल इसे अन्य पाíटयों की वोट बढ़ाने वाली चाल कहकर खारिज करने का प्रयास भले ही करें, लेकिन हकीकत यह है कि यह स्वत:स्फूर्त विरोध है और अगर ऐसा न होता तो जम्मू के कांग्रेसी विधायक, पूर्व सदर-ए-रियासत कर्ण सिंह के साथ आंदोलकारियों की (जमीन वापस देने को छोड़कर) मांग ना दोहरा रहे होते।

ताजा विवाद की वजह जम्मू कश्मीर सरकार का वह फैसला है जिसमें अमरनाथ यात्रियों के लिए पवित्र गुफा से 22 किलोमीटर पहले बालटाल में आठ सौ कैनाल (लगभग चालीस एकड़) जमीन अमरनाथ श्राइन बोर्ड को दिए जाने की बात कही गई थी। सरकार के इस फैसले के बाद सरकार में शामिल रही पीडीपी की और अलगाववादियों की शह पर कश्मीर में व्यापक पैमाने पर प्रदर्शन हुए। पीडीपी ने सरकार से समर्थन वापस लेने का फैसला लिया और विश्वासमत से पहले बहुमत का दावा कर रही आजाद सरकार ने मत विभाजन से पहले इस्तीफा दे दिया। दरअसल यह सारा मामला कांग्रेस की उन्हीं राजनीतिक भूलों की एक कड़ी है जसा कि वह शाहबानों से लेकर ताला खुलवाने तक अंजाम देती आयी है। राजनीतिक तिकड़मों के माहिर माने जाने गुलाम नबी आजाद ने इस पूरे मामले को बेहद सतही ढंग से अंजाम दिया। विधानसभा चुनावों से ऐन पहले जम्मू के लोगों की सहानुभूति बटोरने के लिए आजाद सरकार का यह फैसला घाटी में वोटों की फसल काटने की ललक में खड़ी पीडीपी ने लपक लिया और कांग्रेस की हालत 'माया मिली न रामज् वाली हो गई।

सरकार के इस रवैये ने दम तोड़ रहे अलगाववादियों को खड़े होने के लिए एक बार फिर जमीन दे दी जहां से वे कश्मीरियों को केंद्र द्धारा राज्य के जनसंख्या अनुपात के बदले जाने का षडयंत्र करने का आरोप लगा कर अपनी दुकानें चला सकते थे। उन्होंने इसका फायदा उठाया और घाटी में एक बार फिर भारत विरोधी माहौल को खुलकर हवा दी। विभिन्न चैनलों पर देश के हजारों लोगों ने प्र्दशनकारियों को पकिस्तानी झंडा लहराते और भारत विरोधी नारे लगाते देखा व सुना। आंदोलन से सकते में आई राज्य सरकार ने बिना इस बात पर विचार किए आगे क्या होगा जमीन वापस लेने का फैसला कर लिया। अब जम्मू की बारी थी। सरकार के इस फैसले की वही प्रतिक्रिया जम्मू में हुई जो जमीन दिए जाने पर घाटी में हो रही थी। बहुसंख्यक डोगरा आबादी वाले जम्मूवासियों में अमरनाथ गुफा और यात्रा को लेकर गहरा भावनात्मक लगाव है। आजादी के बाद से सरकारों का ध्यान अशांत रहने वाले कश्मीर के मुकाबले शांत रहने वाले जम्मू की ओर कम ही गया है।

जम्मू वासियों ने कभी विरोध भी नहीं किया। यही नहीं जब कश्मीर में पाक प्रायोजित आतंकवाद चरम पर था और घाटी से तीन लाख से अधिक कश्मीरी पंडितों ने जान बचाने के लिए घाटी को छोड़ा तो इन्हीं जम्मू वासियों ने उनके लिए अपने घरों को खोल दिया। लेकिन सरकार के इस देकर वापस लेने वाले फैसले ने लोगों की संवेदनाएं झकझोर दी, लोग इसके विरोध में सड़को पर उतर आए जगह-जगह तोड़फोड़ की रास्ते रोके और घाटी की ओर जाने वाली रसद आपूíत को रोकने की कोशिश की। मजबूरन सरकार को सेना बुलानी पड़ी। लेकिन आंदोलनकारियों को इससे भी फर्क नहीं पड़ा और कई जगह उनकी तीखी झड़पें हुईं जिनमें कई आंदोलकारी मारे गए। एक सवाल यह भी उटता है कि हर मामले में सेना को बुलाने और नागरिकों के साथ होने वाले उनके इन टकरावों का क्या प्रभाव पड़ेगा। जम्मू के इस गुस्से को राज्य में जमीन तलाश रही भाजपा ने हवा दी। सियासत के इस झगड़े में देश की चिंता किसी को नहीं हुई।


इस पूरे घटना क्रम में केंद्रीय भूमिका निभाने वाले तत्कालीन मुख्यमंत्री गुलामनबी आजाद ने परिस्थतियों का आंकलन ठीक से नहीं किया यह बात तो दबी जुबान से वरिष्ठ कांग्रेसी नेता भी स्वीकार करते है। खुद आजाद के शब्दों में पीडीपी के समर्थन वापस लेने के बाद बहुमत सबित करने का उनका दांव इसलिए विफल हो गया क्योंकि विधानसभा चुनावों के बेहद करीब होने की वजह से विधायकों ने उनका साथ देने की बजाय कट्टरपंथियों की करीब मानी जानी वाली पीडीपी के साथ जाने में खुद को सुरक्षित माना। दरअसल घाटी से आने वाले ज्यादातर पीडीपी विधायक जमीन देने का विरोध कर रहे स्थानीय लोगों की मंशा के खिलाफ नहीं जा सकते थे। बात यहीं तक नहीं ठहरी जम्मू का गुस्सा शांत करने के लिए तर्क दिया जा रहा है कि जमीन कोई मुद्दा नहीं है और अमरनाथ यात्रियों के लिए पूरे यात्रा मार्ग में कही भी सुविधा पूर्वक ठहरने वाले टेंट, लंगर जसी सुविधाएं जुटाई जा सकती है। अगर बात इतनी ही थी तो फिर यह जमीन का नाटक क्यों खेला गया? इसका जवाब तो कांग्रेस पार्टी को ही देना होगा। जम्मू के आंदोलन की प्रतिक्रिया में कश्मीर घाटी में भी प्रतिक्रिया हो रही है। इतना सब होने के बवजूद राजनीतिक पार्टियां इसको अपने

Sunday, August 10, 2008

बंटवारे की ओर ले जाएगा जम्मू का रास्ता

महबूबा मुफ्ती


पीडीपी नेता महबूबा मुफ्ती मानती है कि जमीन के विवाद कहां नहीं है। लेकिन अमरनाथ यात्रा के मामले में कुछ नहीं बदला है। सिर्फ यह बदलाव हुआ है कि जो सुविधाएं श्राइन बोर्ड जुटाता था। वह अब सरकार जुटाएगी। इससे कोई पहाड़ नहीं टूट पड़ा है।

देश को इस मुद्दे पर गुमराह किया जा रहा है। एक गुलाम नबी जब से आए स्थितियां बिगड़ती गयीं। और फिर गर्वनर सिन्हा साहब आग लगाकर चले गए। जम्मू में जो हो रहा है वह खतरनाक है। हमारे लिए सामान आने का रास्ता रोक दिया है। फिर हमारे पास दूसरा रास्ता खोलने के सिवा क्या विकल्प बचता है। याद रखिए यह रास्ता एक और बंठवारे की ओर जा रहा है। जम्मू-कश्मीर बंटा तो देश के बंटने में समय नहीं लगेगा।


जसा कि राज्य के पूर्व राज्पाल जनरल सिन्हा ने कहा मुफ्ती साहब श्राइन बोर्ड के खिलाफ है। ठीक नहीं है। पीडीपी पहले दिन से श्राइन बोर्ड को जमीन देने के खिलाफ थी। लेकिन गुलाम नबी आजाद सरकार ने श्राइन बोर्ड को जमीन देने का फैसला किया। नतीजन आज जम्मू जल रहा है, कश्मीर जल रहा है और उस आग ने समूचे मुल्क को चपेट में ले लिया है। हम श्राइन बोर्ड के खिलाफ नहीं है, हम यात्रियों के खिलाफ नहीं हैं। हम उनके द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाली जमीन का विरोध भी नहीं करते।

यात्रा के मार्ग में वे जहां चाहें लगंर लगा सकते हैं। पड़ाव बना सकते हैं। हमारे विरोध की दो वजहें हैं। एक तो अमरनाथ यात्रियों की भारी तादात की वजह से पार्यावरण को होने वाले नुकसान को लेकर, दूसरी वजह राजनीतिक वजह थी, जो अब लोगों की समझ में आ रही है और जिसने एक बटवारे जसी स्थिति पैदा कर दी है।


हकीकत में पूरे देश को इस मुद्दे पर गुमराह किया जा रहा है। मैं कहती हूं कि पूरे देश से लोग मेरे साथ चल कर देख लें वहां क्या बदला है। शेल्टर वही है, लंगर वहीं है, यात्रियों को वो सारी सुविधाएं वैसे ही मिल रही हैं, जसी कि पहले मिलती रही हैं। अगर कुछ बदला है तो सिर्फ इतना ही कि पहले यह सुविधाएं श्राइन बोर्ड जुटाता था अब सरकार एेसा कर रही है। इसमें कोई पहाड़ टूटने वाली बात मुङो नार नहीं आती।


यह सही है कि जम्मू-कश्मीर सरकार में हम शामिल थे, लेकिन यह पूरी तरह से तत्कालीन मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद और उनकी सरकार का फैसला था हमें जसे ही लगा कि यह फैसला लिया गया है। हमने उन्हें कहा कि यह गलत फैसला है इसके नतीो ठीक नहीं होंगे, इसे वापस लीजिए, क्योंकि इसके खिलाफ घाटी में विरोध शुरू हो गया है। लेकिन वे इसे टालते रहे बाद में उन्होंने इसे वापस लिया लेकिन यह बहुत देर से उठाया गया कदम था।

इसके बाद जम्मू में जिस तरह से कश्मीर की ओर जाने वाली रसद को रोका जा रहा है. जिस तरह से दवाइ्यों और अन्य जरूरी चीाों को घाटी में नहीं आने दिया जा रहा है. वह ठीक नहीं है। जम्मू-कश्मीर एक आजाद मुल्क था। भारत, पाकिस्तान के बनने से पहले हमारी रियासत से चीन की ओर रास्ता जाता था, हम रूस, ईरान, पाकिस्तान, अफगानिस्तान से जुड़े थे। इसे एशिया का गेट-वे कहा जाता था। लेकिन कश्मीरियों ने इन सारे रास्तों सारी संभावनाओं को कुर्बान करके एक रास्ता चुना वह था ‘टनल का रास्ताज् एक जम्हूरी मुल्क के साथ राब्ता कायम करने का रास्ता। आज जब वह रास्ता बंद कर दिया गया है तो सारा मुल्क तमाशा देख रहा है।

हम कहना चाहते हैं कि अगर यह रास्ता बंद किया गया तो हमें मजबूरन 1947 वाले रास्ते चुनने पड़ेंगे और अगर ऐसा हुआ तो इसका परिणाम एक और बंटवारे के रूप में सामने आएगा। आज अगर यह देश मजहब के नाम पर बंटेगा तो कल यह, भाषा के नाम पर और आने वाले दिनों में जात-पात के नाम पर बटेगा। फिर बचेगा क्या?


हमारा मानना है कि आंदोलनकारियों से बात होनी चाहिए। आखिर एेसा तो कुछ भी नहीं हुआ है, जो अस्वीकार हो। क्या भोलेनाथ सिर्फ श्राइन बोर्ड के हैं। श्राइन बोर्ड भोलेनाथ से बड़ा तो नहीं है। दसअसल यह सारा फजाद पूर्व राज्यपाल सिन्हा साहब का फैलाया हुआ है। वह तो जम्मू में आग लगाकर चले गए।


आखिर फसाद है किस बात का? जिस जमीन की बात हो रही है वह जंगल की है। कानूनन उसका स्थानांतरण हो ही नहीं सकता। किराए पर देने की बात हुई थी। ढ़ाई करोड़ किराया था। वह भी नहीं लिया गया। अब ्अगर सरकार यह कह रही कि वह बिना इन सब मामलों में पड़े यात्रियों को सहूलियत देगी, चाहें जो भी खर्च आए तो समस्या कहां है, हम चाहते हैं कि लोग आकर वस्तुस्थिति को देखे। अगर उन्हें लगता है कि पूजा में या दर्शन में कोई विघ्न पड़ा है तो हम अपनी गलती मान लेंगे।
दरअसल आजाद सरकार ने कभी हमारी सुनी ही नहीं।

हम सेना को कश्मीर से बाहर करना चाहते थे, लेकिन उन्होंने इस पर मंत्रिमंडलीय बैठकों में कभी बात ही नहीं होने दी। वे चाहते थे कि जमीन दी जाए। उनके ऊपर राज्यपाल का दबाव था। जिसके कारण उन्होंने यह फैसला लिया। लेकिन बदकिस्मती से वे इसके परिणामों का सही आंकलन नहीं कर पाए और यह सारा बवाल हो गया।


जमीन का झगड़ा कहां नहीं है। नन्दीग्राम, सिंगूर, उड़ीसा अगर कश्मीर के लोगों ने एेसा फैसला किया तो क्या गलत हो गया। आखिर उत्तरांचल भाजपा सरकार ने भी गंगोत्री की यात्रा करने वालों की संख्या सीमित करने की बात कही है। हम श्राइन बोर्ड को इसलिए जमीन नहीं देना चाहते क्योंकि इससे पर्यावरण को नुकसान होता। आखिर हमारे पास पर्यटन के अलावा है क्या। जम्मू-कश्मीर में, कोयला खानें नहीं हैं, उद्योग नहीं और सुविधाएं नहीं हैं। केवल देखने की खूबसूरती ही है। अगर यह भी नहीं रही तो?


हमारी सरकार आने के बाद स्थितियां सुधरी थीं लेकिन जब से आजाद साहब आए वे चीज़ों की संभाल नहीं पाए। वे एक को खुश करने में दूसरे को नाराज करते रहें। इस समय तो मेरी सबसे यह विनती है कि लोग सामने आएं। मैं फिर कह रही हूं कि अगर जम्मू-कश्मीर बंटेगा तो देश को बंटने में समय नहीं लगेगा। अगर आप हमारा एकमात्र रास्ता बंद करेंगे तो कल यह सवाल खड़ा होगा कि फिर इस देश से जुड़े रहने का क्या औचित्य है। लोग कहेंगे कि उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया जाए।

Saturday, August 9, 2008

आप देखते रहें लॊकशाही

अमरनाथा मामले पर लॊकशाही में आगे गुलाम नबी आजाद महबूबा मुफ्ती का इंटरव्यू प्रकाशित किया जाएगा। तब तक के लिए आप देखते रहें लॊकशाही

कब सुलझेगा अमरनाथ का सवाल

अमरनाथ श्राइन बोर्ड मामले में प्रदर्शनकारियॊं के लिए आज का दिन काफी अच्छा रहा। इनकी मांगॊं कॊ मानते हुए केंद्र सरकार ने वॊहरा मुफ्ती फारूख कॊ वार्ता से बाहर कर दिया। इसे वे अपनी पहली जीत के रूप में देख रहे हैं। दरअसल इस मामले कॊ सिर्फ अमरनाथ से जॊड़कर देखना गलत है यह मामला कई सालॊं से घाटी में दबी हिंदूऒं की आवाज है जॊ आज बुलंद हुई है।

अमरनाथ श्राइन बोर्ड से जमीन वापस लेने का मामला जम्मू में तूल पकड़ता जा रहा था। इसने जम्मू में इतना तूल पकड़ा कि वहाँ एक महीने से कर्फ्यू लगा हुआ है। जम्मू में लोग कर्फ्यू और सेना के फ्लेग मार्च की पहवाह किए बिना ही सड़कों पर आ रहे हैं और पुलिस के साथ पत्थरबाजी कर रहे हैं।हिंदुओं में इस बात को लेकर रोष है कि हिन्दुस्तान में रहते हुए चंद मुसलमानों के द्वारा किए गए हंगामे के बाद कांग्रेसी सरकार ने श्राइन बोर्ड से जमीन वापस ले ली जो निहायत ही गलत बात है। यह बहुसंख्यक समुदाय की भावनाओं के साथ खिलवाड़ है। उस समुदाय के साथ जो अभी तक शांत बना हुआ था।

जानकार बता रहे हैं कि जम्मू में ऐसा पहली बार हो रहा है और यह रोष इस बार धार्मिक के साथ-साथ राजनीतिक भी है। क्योंकि श्राइन बोर्ड भूमि को वापस लेने के फैसले को जिस कांग्रेसी मुख्यमंत्री ने लिया है वो जम्मू के लोगों की मदद के बूते पर ही मुख्यमंत्री बने थे या कहें कि वे जम्मू के ही थे और उन्हें वहाँ के हिंदुओं ने ही वोट देकर जिताया था।

गुलाम नबी आजाद ने यह फैसला लेकर ना सिर्फ जम्मू के लोगों को नाराज किया है वरन उन्होंने अपने लिए आगे के भी रास्ते बंद कर लिए हैं। जम्मू इस समय आजाद को दोगला करार दे रहा है और स्वतः व्यापार व्यवसाय बंद कर आंदोलन में कूद गया है।

भारत, इंडोनेशिया के बाद संसार का दूसरा सबसे बड़ा मुस्लिम देश है। यहाँ से मक्का जाने वाले हज यात्रियों को विशेष रियायतें दी जाती हैं। मस्जिदों को बनाने के लिए भी केन्द्र, शासन और प्रशासन विशेष सुविधाएं और रियायतें प्रदान करता है। लेकिन अमरनाथ श्राइन बोर्ड मामले ने देश कॊ दॊ भागॊं में बांटने का काम किया है। इसकी आग में कई लॊग बली चढ़ चुके हैं।

ऐसा नहीं है कि आंदॊलन का असर केवल हिंदूऒं पर पड़ रहा है। यात्रा में आने वाले हिंदू उन हजारॊं मुसलमानॊं कॊ रॊजगार देतें हैं जॊ रास्तॊं में दुकान लगाए बैठे हैं। वहाँ के मुस्लिम भी अभी तक सौहदार्यपूर्वक ही पेश आते रहे हैं और कुछ आतंकी गतिविधियों को छोड़ दिया जाए तो कभी वहाँ के लोगों से तीर्थयात्रियों को परेशानी या शिकायत नहीं रही।

आखिर पहाड़ के ऊपर मिलने वाली उस जमीन से कश्मीर के निवासियों का ऐसा क्या बिगड़ा जा रहा था कि उन्हें उसके लिए आंदोलन करना पड़ा और ये भी कि अब उन्हें क्या मिल गया जब जम्मू के लोगों ने उस पैदा हुई दरार को खाई जितना चौड़ा कर दिया है।जहां कांग्रेस कश्मीर में वोटों की रोटी सेंकने के चक्कर में तो पीडीपी कश्मीर को स्वायत्तशासी घोषित करवाने के चक्कर में एक ऐसी चाल चल गए हैं जिसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं क्योंकि अमरनाथ से पूरे देश के हिंदुओं की भावनाएँ जुड़ी हैं।

धर्म और लॊगॊं की भावनाऒं कॊ भड़काकर तनाव पैदा करने वाले राजनेताऒ से हम यह उम्मीद कैसे कर सकते हैं कि वे लॊगॊं के मरने के बाद उस पर राजनीति नहीं करेंगे। भाजपा और उसके सहयॊग संगठन पूरी तैयारी में बैठे हैं और अगर मामले कॊ जल्द न सुलझाया गया तॊ अयॊध्या जैसे कारनामें करने में वे चुकने वाले नहीं हैं। इसकी हुंकार लालकृष्ण आडवाणी और राजनाथ दे आज की युवा क्रांति रैली में दे चुकें हैं।

इन नेताऒं की घिनौनी साजिशॊं से बचना है तॊ हम लॊगॊं कॊ खुद ही अमरनाथ मामले का सही और सटीक उपाय खॊजना हॊगा।

सदमें में माया के सर्वजन

माया के ताजा बयान से सवर्ण कार्यकर्ता सदमें में हैं। उन्हें लगने लगा है कि क्या माया उनका भी इस्तेमाल कर रहीं हैं दलित वॊटॊं की तरह। अगर इनकॊ इसका आभास हुआ तॊ यह मायावती के लिए खतरनाक हॊ सकता है।

मायावती ने आज ये कहकर सबको चौंका दिया कि उन्होंने अपना उत्तराधिकारी चुन लिया है। मायावती ने ये भी कहा कि उनका उत्तराधिकारी दूसरी पार्टियों की तरह उनके ही परिवार का नहीं होगा। उसकी उम्र १८ साल है और वह उनकी ही जाति का है। माया की यह घॊषणा एक तरह से कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी पर सीधी चोट है।


मायावती ने दहाड़कर कहा कि उनका राजनीतिक उत्तराधिकारी एक सामान्य दलित परिवार से होगा। उसमें भी वो चमार जाति से है। उसे वो पिछले कुछ सालों से तैयार कर रही हैं लेकिन उसका नाम उनके मरने या गंभीर रूप से बीमार होने की स्थिति में ही पता चलेगा। साथ ही उन्होंने ये भी कहा कि उसका नाम उनके अलावा पार्टी के सिर्फ दो लोगों को पता है।


अब मायावती से 18 साल छोटा उनका ये राजनीतिक उत्तराधिकारी सचमुच कहीं है या फिर वो सिर्फ शगूफा छोड़ रही हैं। इसकॊ लेकर राजनीतिक हलकॊ में चर्चा जॊरॊं पर है। क्योंकि वो अभी नाम किसी को नहीं बताने जा रहीं। लेकिन इतना तो तय है कि बसपा के आंख बंदकर हाथी पर ठप्पा मारने वाले कार्यकर्ताओं को इतना संबल तो बहनजी ने दे ही दिया है कि बहनजी पर कोई विपदा आई भी तो, दलित समाज का एक नया भाईजी उनकी अगुवाई के लिए तैयार है।


जानकारॊं की माने तॊ माया की यह घॊषणा लखनऊ से दिल्ली पहुंचाने के लिए कार्यकर्ताओं कॊ जॊश में लाने का संकेत हॊ सकती है। लेकिन इन सब के बीच वे कार्यकर्ता जॊ सवर्ण समुदाय से आते हैं उनके लिए निराशाजनक है। उन्हे अगर यह लगने लगे की माया के बाद उनका पार्टी में कॊइ रखवाला नहीं रहेगा तॊ इसका असर विपरित पड़ सकता है और इसका फायदा सपा कांग्रेस और भाजपा जैसी पार्टियां उठा सकती है।

Wednesday, August 6, 2008

सपा का ब्राह्मण तुष्टीकरण...

देश की राजनीति में कभी किनारे कर दिए गए ब्राह्मण नेताओं की पूछ अचानक बढ़ गई है. ऐसे में उन ब्राह्मण नेताओं के जन्मदिन भी मनाए जा रहे हैं जिनको कुछ दिनों पहले तक उनकी पार्टी के लोग पूछते भी नहीं थे. राजनीति इस कदर करवट बदलेगी, शायद उन राजनेताओं को भी यह नहीं पता है जो काफी लंबे समय से हासिए पर हैं.
 
समाजवादी पार्टी में अनजाना चेहरा बन चुके जनेश्वर मिश्र का चेहरा अचानक मीडिया की रौनक बना. कारण था उनका जन्मदिन. लोगों को याद दिलाया गया कि ये वही शख्स हैं जिन्हें लोग कभी छोटे लोहिया के नाम से जानते थे. अचानक जनेश्वर मिश्र को लगा कि वे पुराने दिनों में लौट आए हैं. वही जोश, वहीं रुतबा, वही रौनक. मौके की नजाकत को भांपकर छोटे लोहिया ने बयान भी दे दिया कि सपा सरकार में शामिल नहीं होगी.
 
छोटे लोहिया का इस तरह का बयान हाल-फिलहाल के वर्षों में नहीं आया. फिर अचानक ऐसा क्या हो गया कि समाजवादी पार्टी के चेहरे रहे मुलायम और अमर सिंह की तरफ से मीडिया का कैमरा मुड़कर ज्ञानेश्वर की ओर पहुंच गया.
 
दरअसल, जनेश्वर का जन्मदिन मनाना तो एक बहाना है. जानकारों की मानें तो यह सपा का मायावती से लड़ने का एक हथियार है. मायावती की सोशल इंजीनियरिंग का जवाब सपा ने जनेश्वर मिश्र के रूप में खोजने की कोशिश की है. इसका परिणाम रहा कि मिश्र के जन्मदिन पर कैसरबाग कार्यालय से लेकर कानपुर, बनारस, इलाहाबाद, मिर्जापुर, झांसी सहित कई जिलों में कार्यक्रमों का आयोजन किया गया.
 
दरअसल, मामला ब्राह्मणों के तुष्टीकरण का है. मुलायम को लगने लगा है कि प्रदेश में यादव+मुसलमान गठजोड़ से 39 सीटें निकाली जा सकती हैं और इसमें ब्राह्मण का तड़का लग जाए तो मायावती के प्रधानमंत्री बनने के सपनों को तोड़ा जा सकता है. इसके लिए वो कोई भी हथियार आजमाने को तैयार भी नजर आ रहे हैं.
 
मुलायम जनेश्वर को मायावती के सतीश मिश्र की काट के रूप में देख रहे हैं लेकिन यह तो समय और उत्तर प्रदेश की जनता ही बताएगी कि सपा की ब्राह्मणों को रिझाने की कोशिश कितनी सफल साबित होती है.