Monday, August 11, 2008

करार से मची थी पार्टी में रार

परमाणु करार पर पार्टी में पहले से ही मतभेद थे, लेकिन यह मतभेद खुलकर सामने नहीं आए।

राजीव पांडे

भारत अमेरिका असैनिक परमाणु करार ने न केवल कभी नजदीकी सहयोगी रहे कांग्रेस और वामपंथी दलों को एक-दूसरे का धुर विरोधी बना दिया और भारतीय जनता पार्टी के अंदर भी रार पैदा कर दी थी। हालांकि यह मतभेद खुलकर कम ही सामने आये लेकिन कांग्रेस सांसद और महासचिव राहुल गांधी ने जब यह कहा कि भाजपा के कई युवा नेता करार के पक्ष में हैं तो वह सच से बहुत दूर नही थे ।

यह वर्ग पूरी तरह से करार के प्रावधानों से खुश नही था उसका मानना था कि पार्टी को इस करार का अंध विरोध करने की बजाय यह कहना चाहिये कि करार बराबरी के आधार पर किया जाये और यह बात साफ होनी चाहिये कि इस करार की जितनी जरूरत भारत को है उतनी ही अमेरिका को भी है। अंतत पार्टी की भी यही राय बनी जब विपक्ष के नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने लोकसभा में कहा कि उनकी पार्टी की सरकार आने के बाद इस करार पर फिर से बातचीत की जायेगी।

ऐसा नजर आता है कि पार्टी इस करार को लेकर शुरू से ही दिग्भ्रमित रही। पार्टी के कुछ नेताओं ने करार पर पार्टी का आधिकारिक रुख सामने आने से पहले ही लाठी भांजनी शुरू कर दी। इन नेताओं ने जिनमे यशवंत सिन्हा और अरुण शौरी प्रमुख थे इस करार का खुलकर विरोध शुरू कर दिया । कुछ अन्य नेता जो इनके साथ थे, इस करार का साथ देने वालों को अमेरिकी दलाल तक कहने लग गये थे।
करार का सशर्त समर्थन करने वाले पार्टी के इस वर्ग को इस बात पर और अधिक नाराजगी थी कि ये नेता इस बात को भूल गये कि करार का अंध विरोध पार्टी की इस पुरानी लाइन के साथ किसी तरह से भी मेल नही खाता था कि चीन की तुलना में अमेरिका के साथ संबंधों को बेहतर बनाये जाने की कोशिश की जानी चाहिये।

पार्टी का यह वही वर्ग था जो अटल बिहारी वाजपेयी की चीन के प्रति नरम नीति से भी खुाश नही था । यह वर्ग वाजपेयी सरकार द्वारा तिब्बत पर चीन की संप्रभुता स्वीकार कर लिये जाने से काफी नाराज था क्योंकि इसका कहना था कि चीन की साम्राज्यवादी लिप्साओं का पहला निशाना भारत ही होगा । ये लॊग हमेशा से यह कहते आये हैं कि चीन हमारा दुश्मन नंबर एक है और वह भारत के हितों के खिलाफ हमेशा काम करता रहेगा ।

इसी संदर्भ में वह चीन की तथाकथित पशुपति से तिरुपति तक के लाल गलियारे की योजना के प्रति समय-समय पर चेतावनी भी देता रहता है। उसका कहना है कि पशुपतिनाथ यानी नेपाल में माओवादी शासन लाकर चीन ने सफलतापूर्वक पहला कदम उठा लिया है ।

इन्हीं नेताओं ने पार्टी के अंदर ही करार विरोधियो के खिलाफ अभियान शुरू किया। उनका कहना था कि करार को एकदम ठुकराया नही जाये क्योंकि यह भारत और अमेरिका के बीच दीर्धकालिक सामरिक साङोदारी मे नींव का पहला पत्थर होगा। लेकिन वह करार को बराबरी के आधार पर किये जाने का पक्षधर था । यह वर्ग इस बात से नाखुश था कि करार पर ढुलमुल रुख के चलते वामपंथियों को निशाना बनाने की जगह उनकी पार्टी उसके साथ चलती दिखायी दी जो राजनीतिक दृष्टि से किसी तरह से भी सही नही ठहराया जा सकता ।

इस मामले पर पार्टी अपना अलग पक्ष रखकर लीड ले सकती थी लेकिन उसने यह मौका खो दिया। हालांकि यह मुद्दा महंगाई जसा मुद्दा नहीं है जो आम आदमी से जुड़ा है और चुनाव में जिसका लाभ मिल सकता है। लेकिन प्रबुद्ध नागरिकों के लिये यह एक प्रमुख मुददा है और पार्टी इस मामले पर पूरी तरह दिग्भ्रमित नजर आयी। आडवाणी ने हालांकि इस करार पर पुन बातचीत की बात कह कर पार्टी की छवि को बचाने की कोशिश की लेकिन तब तक काफी नुक्सान हो चुका था।

मार्क्‍सवादी पार्टी के एक नेता तथा मायावती ने करार को मुस्लिम विरोधी बता कर इस करार से जुडे विवाद को एक नया आयाम दे दिया। यह एक विडंबना ही थी कि मुस्ल्मि समर्थक समङो जानी वाली कांग्रेस तथा समाजवादी पार्टी करार के समर्थन में थी तो मार्क्‍सवादी नीत वाम मोर्चा इसके खिलाफ। भारतीय जनता पार्टी के वामपंथियों के साथ चलने के कारण लगा कि धर्मनिरपेक्ष दल और सांप्रदायिक दल जसी अगर कोई बात है तो वह राजनीतिक लक्ष्यों के सामने गौण होती दिखायी दी और यही बात भारतीय जनता पार्टी को भाविष्य मे लाभ पहंचा सकती है।

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