Monday, August 11, 2008

आस्था का अलगाव

आस्था के अमरनाथ को लेकर भयावह अशांति और आतंक का माहौल है। जम्मू-कश्मीर का उग्रवाद के घोर त्रासद दिनों में जिस संकट से सामना नहीं हुआ वह एकाएक मुंह बाये खड़ा हो गया है। राजनीतिक अदूदर्शिता और फिर राजनीतिक मौकापरस्ती ने शांति की ओर लौटते जम्मू-कश्मीर को अलगाव की आग में झोक दिया है। अमरनाथ श्राइन बोर्ड का विवाद भी अगर हमारे राजनेताओं को कोई सबक नहीं सिखाता तो फिर वही कहा जा सकता है जो सुप्रंीम कोर्ट ने कुछ दिन पहले कहा था 'इस देश को भगवान भी नहीं बचा सकते।

सीतेश द्विवेदी

पिछले 40 दिनों से जम्मू-कश्मीर में अशांति है। पहले कश्मीर सुलगा अब जम्मू जल रहा है। इस आग के लपेट में राज्य सरकार जा चुकी है और केंद्र सरकार किंकर्तव्यविमूढ़ है। आजादी के बाद से राजनीतिज्ञों की दोमुंहे पन से कश्मीर सुलग रहा है। जहांगीर आज होते तो धरती के स्वर्ग के बारे में अपनी राय अवश्य बदलते। बीते पांच सालों में पहली बार ऐसा लग रहा था कि अब सब कुछ ठीक हो जाएगा। राज्य में पर्यटक आ रहे थे। लोग मुख्यधारा से जुड़ रहे थे। अलगाववादियों की हताशा भरी कायराना हरकतों को छोड़ दे तो कश्मीर शांति के रास्ते पर था लेकिन इसी समय राजनीतिज्ञों के एक फैसले कश्मीर को वहीं छोड़ दिया जहां यह सन् 47 में खड़ा था। महबूबा मुफ्ती और अलगाववादी जम्मू के लोगों घाटी की आपूíत बाधित किए जाने को लेकर मुजफ्फराबाद का रास्ता खोलने की बात कह रहे हैं तो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को यही समय अपने इस राज्य को तीन भागों में बांटने वाले सपने के लिए मुफीद लग रहा है।

कश्मीर में लोगों के सड़कों पर उतरने का लम्बा इतिहास रहा है लेकिन जम्मू के लिए यह मंजर नया है। खुद जम्मू वालों के शब्दों में यह 60 साल के अन्याय के विरोध में है। निषेधाज्ञा का उल्लघंन कर लोग सड़कों पर है, पुलों पर है, नदी में है। इस आक्रोश को राजनीतिक चश्मे से देखने वाले कांग्रेस सरीखे कुछ राजनीतिक दल इसे अन्य पाíटयों की वोट बढ़ाने वाली चाल कहकर खारिज करने का प्रयास भले ही करें, लेकिन हकीकत यह है कि यह स्वत:स्फूर्त विरोध है और अगर ऐसा न होता तो जम्मू के कांग्रेसी विधायक, पूर्व सदर-ए-रियासत कर्ण सिंह के साथ आंदोलकारियों की (जमीन वापस देने को छोड़कर) मांग ना दोहरा रहे होते।

ताजा विवाद की वजह जम्मू कश्मीर सरकार का वह फैसला है जिसमें अमरनाथ यात्रियों के लिए पवित्र गुफा से 22 किलोमीटर पहले बालटाल में आठ सौ कैनाल (लगभग चालीस एकड़) जमीन अमरनाथ श्राइन बोर्ड को दिए जाने की बात कही गई थी। सरकार के इस फैसले के बाद सरकार में शामिल रही पीडीपी की और अलगाववादियों की शह पर कश्मीर में व्यापक पैमाने पर प्रदर्शन हुए। पीडीपी ने सरकार से समर्थन वापस लेने का फैसला लिया और विश्वासमत से पहले बहुमत का दावा कर रही आजाद सरकार ने मत विभाजन से पहले इस्तीफा दे दिया। दरअसल यह सारा मामला कांग्रेस की उन्हीं राजनीतिक भूलों की एक कड़ी है जसा कि वह शाहबानों से लेकर ताला खुलवाने तक अंजाम देती आयी है। राजनीतिक तिकड़मों के माहिर माने जाने गुलाम नबी आजाद ने इस पूरे मामले को बेहद सतही ढंग से अंजाम दिया। विधानसभा चुनावों से ऐन पहले जम्मू के लोगों की सहानुभूति बटोरने के लिए आजाद सरकार का यह फैसला घाटी में वोटों की फसल काटने की ललक में खड़ी पीडीपी ने लपक लिया और कांग्रेस की हालत 'माया मिली न रामज् वाली हो गई।

सरकार के इस रवैये ने दम तोड़ रहे अलगाववादियों को खड़े होने के लिए एक बार फिर जमीन दे दी जहां से वे कश्मीरियों को केंद्र द्धारा राज्य के जनसंख्या अनुपात के बदले जाने का षडयंत्र करने का आरोप लगा कर अपनी दुकानें चला सकते थे। उन्होंने इसका फायदा उठाया और घाटी में एक बार फिर भारत विरोधी माहौल को खुलकर हवा दी। विभिन्न चैनलों पर देश के हजारों लोगों ने प्र्दशनकारियों को पकिस्तानी झंडा लहराते और भारत विरोधी नारे लगाते देखा व सुना। आंदोलन से सकते में आई राज्य सरकार ने बिना इस बात पर विचार किए आगे क्या होगा जमीन वापस लेने का फैसला कर लिया। अब जम्मू की बारी थी। सरकार के इस फैसले की वही प्रतिक्रिया जम्मू में हुई जो जमीन दिए जाने पर घाटी में हो रही थी। बहुसंख्यक डोगरा आबादी वाले जम्मूवासियों में अमरनाथ गुफा और यात्रा को लेकर गहरा भावनात्मक लगाव है। आजादी के बाद से सरकारों का ध्यान अशांत रहने वाले कश्मीर के मुकाबले शांत रहने वाले जम्मू की ओर कम ही गया है।

जम्मू वासियों ने कभी विरोध भी नहीं किया। यही नहीं जब कश्मीर में पाक प्रायोजित आतंकवाद चरम पर था और घाटी से तीन लाख से अधिक कश्मीरी पंडितों ने जान बचाने के लिए घाटी को छोड़ा तो इन्हीं जम्मू वासियों ने उनके लिए अपने घरों को खोल दिया। लेकिन सरकार के इस देकर वापस लेने वाले फैसले ने लोगों की संवेदनाएं झकझोर दी, लोग इसके विरोध में सड़को पर उतर आए जगह-जगह तोड़फोड़ की रास्ते रोके और घाटी की ओर जाने वाली रसद आपूíत को रोकने की कोशिश की। मजबूरन सरकार को सेना बुलानी पड़ी। लेकिन आंदोलनकारियों को इससे भी फर्क नहीं पड़ा और कई जगह उनकी तीखी झड़पें हुईं जिनमें कई आंदोलकारी मारे गए। एक सवाल यह भी उटता है कि हर मामले में सेना को बुलाने और नागरिकों के साथ होने वाले उनके इन टकरावों का क्या प्रभाव पड़ेगा। जम्मू के इस गुस्से को राज्य में जमीन तलाश रही भाजपा ने हवा दी। सियासत के इस झगड़े में देश की चिंता किसी को नहीं हुई।


इस पूरे घटना क्रम में केंद्रीय भूमिका निभाने वाले तत्कालीन मुख्यमंत्री गुलामनबी आजाद ने परिस्थतियों का आंकलन ठीक से नहीं किया यह बात तो दबी जुबान से वरिष्ठ कांग्रेसी नेता भी स्वीकार करते है। खुद आजाद के शब्दों में पीडीपी के समर्थन वापस लेने के बाद बहुमत सबित करने का उनका दांव इसलिए विफल हो गया क्योंकि विधानसभा चुनावों के बेहद करीब होने की वजह से विधायकों ने उनका साथ देने की बजाय कट्टरपंथियों की करीब मानी जानी वाली पीडीपी के साथ जाने में खुद को सुरक्षित माना। दरअसल घाटी से आने वाले ज्यादातर पीडीपी विधायक जमीन देने का विरोध कर रहे स्थानीय लोगों की मंशा के खिलाफ नहीं जा सकते थे। बात यहीं तक नहीं ठहरी जम्मू का गुस्सा शांत करने के लिए तर्क दिया जा रहा है कि जमीन कोई मुद्दा नहीं है और अमरनाथ यात्रियों के लिए पूरे यात्रा मार्ग में कही भी सुविधा पूर्वक ठहरने वाले टेंट, लंगर जसी सुविधाएं जुटाई जा सकती है। अगर बात इतनी ही थी तो फिर यह जमीन का नाटक क्यों खेला गया? इसका जवाब तो कांग्रेस पार्टी को ही देना होगा। जम्मू के आंदोलन की प्रतिक्रिया में कश्मीर घाटी में भी प्रतिक्रिया हो रही है। इतना सब होने के बवजूद राजनीतिक पार्टियां इसको अपने

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