सीतेश द्विवेदी
क्या पाकिस्तान से मुशर्रफ की विदाई का वक्त आ गया है। दशक भर तक ठसक से राज करने के बाद उनपर महाभियोग लगाये जाने की तैयारी हो रही है। उन्हीं के सताए दो राजनीतिज्ञों नवाज शरीफ और आसिफ अली जरदारी उन्हें हटाने के लिए कमर कस चुके हैं। इनका कहना है कि उनकी जरूरत अब नहीं रही। जनता और न्यापालिका पहले से ही उनके खिलाफ है। अब आगे क्या? क्या वे फिर कोई करिश्मा करेंगे। क्या सेना और उसके प्रमुख कियानी सेना सहित उनकी लामबंदी में तो नहीं उतरेंगे?
राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ खतरों को भांप लेते हैं। सेना में सीखे हुनर जंग के मैदान में कितने काम आये यह थोड़ा मुश्किल सवाल है, लेकिन पाकिस्तान के राष्ट्रपति की कुर्सी पर पहुंचने के बाद मुशर्रफ ने अपनी ट्रेनिंग का पूरा फायदा उठाया।
खतरे को पहले से भांप लेने के उनके हुनर ने नौ साल पहले के इतिहास की पुनरावृत्ति नहीं होने दी। दरअसल नवाज शरीफ का तख्ता पलट कर पाकिस्तान की सत्ता हथियाने वाले जनरल को हटाने का मंसूबा बना रहे नवाज शरीफ को उनके बीजिंग न जाने गहरा झटका लगा है। आसानी से हो जाने काम के लिए अब शरीफ को ज्यादा मेहनत करनी पड़ेगी। वैसे यह शरीफ ही थे जिन्होंने कई वरिष्ठ अधिकारियों को दरकिनार कर सेना के सबसे बड़े ओहदे पर मुशर्रफ को बैठाया था। लेकिन अपने इस जरनल से उनके मतभेद तब गहरे हो गए जब आईएसआई की शह पर मुशर्रफ ने प्रधानमंत्री शरीफ को विश्वास में लिए बगैर कारगिल में सेना को उतार दिया। इस आपरेशन में पाक सेना की शर्मनाक हार के बाद दोनों के बीच दूरियां काफी बढ़ गईं।
अमेरिकी दबाव के कारण शरीफ को सेना हटानी पड़ी, और नाराज शरीफ ने उनके श्रीलंका दौरे पर जाते ही उनका पत्ता साफ करने के लिए मुशर्रफ को बर्खास्त करने का फरमान दे दिया। यही नहीं उनके विमान को कराची हवाई अड्डे पर उतरने की अनुमति तक नहीं दी गई। लेकिन सेना में मजबूत पकड़ रखने वाले मुशर्रफ ने शरीफ की इस योजना पर पानी फेर दिया। और शरीफ को मुशर्रफ ने दस साल का देश निकाला देते हुए सऊदी अरब भेज दिया। इसके बाद से एक दशक से पाकिस्तान पर मुशर्रफ की हुकूमत कायम है। लेकिन एक बार फिर इतिहास अपने को दोहराने को तैयार है। तुर्की में बचपन बिताने वाले मुशर्रफ के एक बार फिर वहीं का मेहमान बनने की अटकलें लगाई जा रही
है। शरीफ को हटाने के बाद देश को भ्रष्टाचार मुक्त शासन देने की बात करने वाले मुशर्रफ ने हर वो काम किया जो उनके पूर्ववर्ती राजनेता करते रहे थे। उनकी परेशानियां 11 सितंबर, 2001 को वर्ल्ड ट्रेड टावर पर हमले के बाद शुरू हुई।
अचानक बनी परिस्थतियों में उन्होंने अमेरिका के साथ जाने का फैसला किया। और वे 'आतंक के खिलाफ लड़ाईज् में अमेरिका के विश्वसनीय सहयोगी बन गए। अमेरिका से यह नजदीकी जेहाद का नारा बुलंद करने वालों को पसंद नहीं आयी और पाकिस्तान में इसका विरोध होने लगा। आतंकवाद का जनक पाकिस्तान खुद इसका शिकार हो गया। लाल मस्जिद कांड के बाद देश में आए दिन धमाके होने लगे। वर्ष 2007 मुशर्रफ के लिए और मुश्किलें लेकर आया। देश के मुख्य न्यायाधीश इफ्तिखार मोहम्मद चौधरी की बर्खास्तगी से नाराज जनता और वकीलों ने एक बड़ा आंदोलन खड़ा कर दिया। जो जल्द ही जनआंदोलन में बदल गया। आखिरकार जुलाई में चौधरी फिर बहाल हो गए। यह जनरल की पहली हार थी। बाद में बेनजीर की वतन वापसी हुई। हालांकि वापसी के दिन ही उन्हें जान से मारने की असफल कोशिश हुई और इसके बाद शरीफ की वतन वापसी को रोकते हुए उन्हें कराची हवाई अड्डे से ही बैरंग लौटा दिया।
अक्टूबर में मुशर्रफ सेना प्रमुख रहते हुए राष्ट्रपति के लिए चुने गए। वकील उन्हें हटाने के लिए पहले से ही आंदोलनरत थे। उनके चुनाव को अदालत में चुनौती दी गई। नाराज मुशर्रफ ने देश में आपातकाल लगा कर प्रमुख जजों को नजरबंद कर दिया।
सुप्रीम कोर्ट में बहाल किए गए नए जजों ने मुशर्रफ के चुनाव को वैध ठहराया। लेकिन अंतरराष्ट्रीय दबाव के बाद उन्हें कुछ दिनों बाद इमरजेंसी हटानी पड़ी और 28 नवंबर, 2007 को सेना प्रमुख का पद भी छोड़ना पड़ा। बाद में चुनावों की घोषणा हुई और प्रचार के दौरान एक आतंकी हमले में बेनजीर भुट्टो की हत्या कर दी गयी। अब जब पाकिस्तान में सत्तासीन गठबंधन मुशर्रफ को महाभियोग के जरिए हटाना चाहती है। इसके लिए 11 अगस्त की तारीख मुकर्रर की गई है। हालांकि वे चुनी हुई सरकार को बर्खास्त कर अपनी कुर्सी बचा सकते हैं।
सेना भी मुशर्रफ को बचा सकती है। और आखिरकार इस समय वहां मौजूद जनरल कियानी को उन्होंने ही वरिष्ठता को नजरअंदाज करते हुए इस पद पर बैठाया था।
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