Monday, November 30, 2009

ये कैसा समाजवाद

फोर्ब्स ने अपनी एक विशेष रिपोर्ट में यह खुलासा किया है कि कि भारत में सिर्फ 100 धनकुबेरों की कुल हैसियत 276 अरब डॉलर के बराबर है, जो देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का करीब एक चौथाई है। 100 करोड़ से अधिक की आबादी वाले देश में धनकुबेरों की बढ़ती संख्या और उनमें ज्यादा से ज्यादा धन संग्रहण करने की लिप्सा चिंता का विषय है। यह कतई गर्व करने का विषय नहीं है। हमारे देश के बारे में यह भी सत्य है कि यहां 70 प्रतिशत आबादी गांवों में रहती है और उनका जीवन स्तर में अभी पर्याप्त सुधार आना बाकी है, ऐसे समय में मात्र 100 उद्योगपतियों द्वारा देश की अर्थव्यवस्था में बढ़ती दखलंदाजी, कहीं देश के लिए घातक न हो जाए। सरकार को ऐसी चीजों को रोकने के लिए किस तरह के कदम उठाने चाहिए।

सदस्यों से अनुरोध है कि उद्योगपतियों की धनसंग्रहण और उनके नागरिक एवं सामाजिक उत्तरदायित्व अपने विचार व्यक्त करें।

सचिन जैन
भोपाल

आश्चर्यजनक है कि हम यह याद नहीं रख रहे हैं कि ये तमाम सज्जन पूंजीपति कैसे बने? ये सभी सामाजिक संसाधनों का अनैतिक निजीकरण करके, राज्य को भ्रष्ट बनाकर, और सामाजिक ज्ञान-विज्ञान के ढाँचे को तहस नहस करके पूंजीपति बने हैं. समाज में गरीबी, असामनता, हिंसा और भ्रस्टाचार बढाकर, अब यही समूह समाज कि उन्नति करने, गरीबी दूर करने और भुखमरी को ख़त्म करने की प्रतिबद्धता दिखा रहे हैं.

इनका सबसे पहला सामाजिक उत्तरदायित्व यही है कि ये समाज से चीनी गई पूँजी समाज को लौटाएं. समाज से समाज की संपत्ति चीन कर समाज को दान देने के ढोंग का नाम ही सी एस आर या कहने कि सोशियो - कारपोरेट रेस्पोंसिबिलिटी है.

और सरकार को तत्काल यह जांचना चाहिए कि यह धन आया कहाँ से और कैसे?


Rusen Kumar
आदरणीय सचिन जैन जी ने सही बात उठाई है। इसी संदर्भ में आज इकनामिक टाइम्स- 24 नवंबर 2009 - इंटरनेट संस्करण में सौविक सान्याल ने एक खबर दी है जिसमें यह कहा गया है कि कंपनी मामलों का मंत्रालय एक ऐसे कोड पर विचार कर रहा है। इसमें मुनाफा कमाने वाली सभी कंपनियों के लिए एक निर्धारित रकम कंपनी की सामाजिक जिम्मेदारी (सीएसआर)(कारपोरेट सोशियल रिस्पांसिबिलिटी) से संबंधित गतिविधियों पर खर्च करना अनिवार्य कर दिया जाएगा।

इस विषय को और ज्यादा गहराई से समझने के लिए यह खबर मददगार साबित हो सकती है। सदस्यों से अनुरोध है कि इस विषय पर अपने विचार लिखें। ताकि इस विषय ज्यादा जानकारी संग्रहित हो सके। इकनामिक टाइम्स के अनुसार, एक सरकारी अधिकारी ने बताया कि सीएसआर पर खर्च की जाने वाली यह रकम कंपनियों के कुल कारोबार या उनके शुद्ध मुनाफे के हिसाब से तय की जा सकती है। प्रस्तावित कोड में सरकार यह भी प्रावधान कर सकती है कि अगर कोई कंपनी एक सीमा से अधिक सीएसआर गतिविधियों पर खर्च करती है तो उसे इंसेंटिव दिया जाए।

अखबार ने लिखा है, सरकार की योजना यह है कि सीएसआर से संबंधित इस खर्च के प्रस्ताव को सिफारिश की जगह सुझाव के तौर पर जारी किया जाए। नाम नहीं जाहिर करने की शर्त पर अधिकारी ने बताया कि इससे कंपनियों को सीएसआर संबंधी गतिविधियों को पूरा करने में मदद मिलेगी। इस समय एक संयुक्त संसदीय समिति इस मामले पर विचार कर रही है और कोई फैसला होने के बाद सरकार फंड के इस प्रस्ताव को कंपनी विधेयक 2009 में जोड़ देगी। इस समय के प्रावधानों के अनुसार देश में कंपनियों को अपनी आय का एक निर्धारित हिस्सा सीएसआर गतिविधियों पर खर्च करना पड़ता है।

अखबार ने लिखा है, अगर यह प्रस्ताव लागू हुआ तो देश की निजी कंपनियां सीएसआर गतिविधियों में बढ़-चढ़कर भाग ले सकेंगी। इस समय तकरीबन हर क्षेत्र की सार्वजनिक कंपनियां अपने शुद्ध मुनाफे की करीब दो फीसदी रकम सीएसआर गतिविधियों पर खर्च करती हैं। अखबार लिखता है, प्रस्तावित कोड में सरकार यह भी प्रावधान कर सकती है कि अगर कोई कंपनी एक सीमा से अधिक सीएसआर गतिविधियों पर खर्च करती है तो उसे इंसेंटिव दिया जाए। सरकार ने एक ड्राफ्ट पेपर तैयार कराने के लिए औद्योगिक संस्था फिक्की की मदद ली है। फिक्की अगले कुछ दिनों में एक ड्राफ्ट पेपर तैयार कर सरकार को पेश करेगा जिससे उन कंपनियों को इंसेंटिव देने के बारे में विचार किया जाएगा जो सीएसआर के लिए योगदान कर रही हैं।

अगले महीने होने वाले कॉरपोरेट वीक में इस आशय से संबंधित विवरण पेश कर दिया जाएगा। कॉरपोरेट वीक में सरकार और उद्योग जगत के प्रतिनिधियों के बीच सीधी बातचीत होती है। इसमें समग्र वृद्धि और सतत विकास के लिए इंडिया इंक की प्रतिबद्धता को मजबूत बनाने के बारे में चर्चा की जाती है। कंपनी मामलों के मंत्री सलमान खुर्शीद ने हाल में कहा था कि सीएसआर गतिविधियों में शामिल होने के लिए इंडिया इंक को राजकोषीय राहत दी जा सकती है। इस कोड से जुड़े एक व्यक्ति ने बताया, 'उद्योग जगत में सीएसआर गतिविधियों में संलिप्तता बढ़ाने को लेकर सकारात्मक राय है क्योंकि इसका संबंध उनके कारोबार से भी है।'

अखबार ने लिखा है, कंपनियों द्वारा सामाजिक जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए आगे आने के बाद अब सरकार ने भी उनकी मदद करने के लिए कदम उठाए हैं। नाम नहीं जाहिर करने की शर्त पर उस व्यक्ति ने बताया कि अब चूंकि सरकार कंपनियों को राजकोषीय प्रावधान के जरिए मदद देने की तैयारी कर रही है, कंपनियों को इसका फायदा उठाने के लिए आगे आना चाहिए।

इकनामिक टाइम्स के अनुसार, कंपनी मामलों के मंत्री खुर्शीद ने पहले कहा था कि कंपनियों को सीएसआर गतिविधियों के लिए आकर्षित करने के लिए सीएसआर क्रेडिट विकसित करना एक महत्वपूर्ण कदम है। यह उसी कार्बन क्रेडिट की तर्ज पर होगा जिसमें कंपनियों को ऊर्जा संरक्षण के लिए क्रेडिट दिए जाते हैं। कंपनियों को इंसेंटिव देने की प्रक्रिया पर अभी फैसला नहीं लिया गया है, लेकिन इस प्रक्रिया से जुड़े लोगों के अनुसार यह कंपनियों द्वारा कमाए गए क्रेडिट प्वाइंट्स के हिसाब से राजकोषीय प्रावधान के अनुरूप हो सकता है।

Wednesday, November 25, 2009

मीडिया के एजेंडे से बाहर खेती किसानी

आनंद प्रधान
ऐसा बहुत वर्षों बाद हुआ कि गन्ने की कीमतों में वृद्धि और इस बाबत केंद्र सरकार के एक विवादास्पद अध्यादेश को वापस लेने की मांग को लेकर हजारों की संख्या में गन्ना किसान दिल्ली पहुंचे. जंतर-मंतर पर धरना और रैली हुई, जिसमें किसान नेताओं के साथ लगभग पूरा विपक्ष मौजूद था. लेकिन दिल्ली के राष्ट्रीय मीडिया खासकर दो सबसे बड़े अंग्रेजी अखबारों के लिए खबर यह नहीं थी बल्कि अगले दिन के अखबार में पहले पेज पर खबर यह छपी कि कैसे किसानो ने पूरी दिल्ली को बंधक बना लिया. यह भी कि कैसे किसानो ने दिल्ली में उत्पात, लूटपाट,तोड़फोड़ और लोगों के साथ बदसलूकी की. दिल्ली को जाम कर दिया जिससे दिल्लीवालों को बहुत तकलीफ हुई. यही नहीं, किसानो की शराब पीते, तोड़फोड़ करते और जंतर-मंतर जैसे ऐतिहासिक स्थल को गन्दा करते तस्वीरें भी छपीं.

लेकिन ये किसान दिल्ली क्यों आये थे और उनकी मांगे क्या थी और स्थिति यहां तक क्यों पहुंची - यानि असली खबर को कोई खास तव्वजो नहीं दी गई. किसानो के साथ सहानुभूति की तो बात ही दूर है, दिल्ली के अंग्रेजी मीडिया ने उन्हें अराजक और खलनायक की तरह पेश करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. कहने की जरूरत नहीं है कि किसानो की इस रैली को कवर करते हुए दिल्ली के मीडिया ने पत्रकारिता के बुनियादी उसूलों- वस्तुनिष्ठता, संतुलन, निष्पक्षता और तथ्यपरकता को ताक पर रख दिया. इस कवरेज पर बारीकी से ध्यान दीजिये तो साफ हो जायेगा कि दिल्ली के तथाकथित "राष्ट्रीय मीडिया" को असल में, गन्ना किसानो ही नहीं, बल्कि खेती-किसानी में कोई दिलचस्पी नहीं है. आश्चर्य नहीं कि गन्ने को लेकर यह विवाद पिछले 25 दिनों से जारी था और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान सडकों पर थे लेकिन दिल्ली के राष्ट्रीय मीडिया को कोई खास खबर नहीं थी. खबर हो भी तो कम-से-कम उन्होंने अपने पाठकों और दर्शकों को इस बाबत बताना जरूरी नहीं समझा. हिंदी के कुछ अखबारों को छोड़कर अधिकांश अंगरेजी अखबारों और चैनलों में इसे नोटिस करने लायक भी नहीं समझा गया.

हालांकि यह मुद्दा और गन्ना किसानो का आन्दोलन हर लिहाज से एक बड़ी खबर थी. दिल्ली के मध्यमवर्गीय पाठकों और दर्शको के साथ भी इस खबर का सीधा रिश्ता जुड़ता है. चीनी की लगातार बढ़ती कीमतों के बीच गन्ना किसानो के आन्दोलन का सीधा असर आम पाठकों-दर्शकों पर पड़ रहा है. ऐसे में, मीडिया से यह स्वाभाविक अपेक्षा थी कि वह इस मुद्दे पर अपने पाठकों-दर्शकों को जागरूक बनाये लेकिन इसके बजाय मीडिया ने इस आन्दोलन के खिलाफ एक मुहिम सी छेड़ दी है. जाहिर है कि यह पहला मामला नहीं है. इसके पहले भी दिल्ली में देश के अलग-अलग इलाकों से आनेवाले गरीबों, किसानो, मजदूरों, आदिवासियों और विस्थापितों की रैली/प्रदर्शनों को लेकर भी राष्ट्रीय मीडिया का यही रूख रहा है. इस मीडिया के लिए देश की सीमाएं दिल्ली तक सीमित हैं. उसकी चिंताओं की सूची में कृषि और किसानो की हालत सबसे निचले पायदान पर है. हैरत की बात नहीं है कि दिल्ली के अधिकांश राष्ट्रीय अखबारों और चैनलों में कृषि और खेती-किसानी कवर करने के लिए अलग से कोई संवाददाता नहीं है.क्या यह दिल्ली के अभिजात्य शहरी कार्पोरेट मीडिया का स्वाभाविक वर्गीय पूर्वाग्रह नहीं है जो गन्ना किसानो के कवरेज में खुलकर दिख रहा है?

Saturday, November 21, 2009

सरकार हमारी तो आरोप हटेंगे ही

आखिर अजहरुद्दीन से बैन हटाने की जरूरत क्यों?

मृगेंद्र पांडेय

अब सरकार हमारी है। सांसद भी बन गए हैं। तो आरोपों को भी लगे हाथ हटा ही लें। अगर यही होता रहा तो देश के सारे अपराधी पहले सांसद बनेंगे फिर अपने आरोपों को खत्म कराने के लिए पार्टी के सांसदों को दबाव बनाने के लिए भेज देंगे। कांग्रेस के उत्तर प्रदेश के सांसदों ने शरद पवार से मिलकर अहजहरुद्दीन पर मैच फिक्सिंग के लगे आरोपों को हटाने की मांग की है। जितिन प्रसाद, राज बब्बर, संजय सिंह और क्रिकेट के नेता राजीव शुक्ला जैसे नेताओं को अब आरोपी अजहरुद्दीन सही लगने लगे हैं। हो भी क्यों न, उत्तर प्रदेश में मृत पड़ी कांग्रेस ने अचानक वहां से 21 लोकसभा सीट जीत ली। अजहरुद्दीन जो हैदराबाद के हैं, उन्होंने मुरादाबार में कांग्रेस का परचम लहराया। जो कांग्रेस के लिए किसी उपलब्धि से कम नहीं था। कुछ दिनों पहले तक जिस अजहर को पूरा देश पैसे लेकर देश को क्रिकेट में हरानेवाला मानती थी, अचानक ऐसा कौन सा बदला आ गया कि उन पर से बैन हटाने की बात की जाने लगी। क्या लोकसभा में पहुंचने पर सारे आरोप धूल जाते हैं। अगर ऐसा है तो फिर शाहबुद्दीन से लेकर सूरजभान तक सभी के आरोपों को क्यॊं नहीं खत्म कर दिए गए।

क्या सरकार में आने के बाद कांग्रेस महंगाई बढ़ाने के साथ-साथ अब आरोपियों पर लगे अपराध को भी हटाने का काम करने लगी है। अगर ऐसा नहीं है तो फिर माडल जेसिका लाल की हत्या के आरोप में सजा काट रहे हरियाणा के वरिष्ठ कांग्रेसी नेता विनॊद शर्मा के बेटे मनू शर्मा की पैरोल के लिए कांग्रेस की सीएम शीला दीक्षित ने सिफारिश कर दी। मनू की पैरोल पर मात्र 20 दिन में फैसला कर दिया गया। यही नहीं लंबे समय से दिल्ली सरकार के पास 98 याचिका पैरोल के लिए पड़ी है, लेकिन उस पर कोई फैसला नहीं किया गया। हाईकोर्ट ने कल ही दिल्ली सरकार को लताड़ लगाई है। जब हाईकोर्ट सरकार को लताड़ लगा रही थी, उसी समय कांग्रेस का प्रतिनिधिमंडल आईसीसी के उपाध्यक्ष शरद पवार के पास अजहर से बैन हटाने की गुहार लेकर पहुंचा था। कांग्रेस के नेता पवार पर यह दबाव बना रहे थे कि सांसद बनने के बाद अजहर के दाग धो दिए जाने चाहिए। यह ठीक वैसा ही है जैसा गांव की कहावत, जिसकी लाठी उसकी भैंस। अब जब कांग्रेस की केंद्र में दोबारा सरकार बन गई है। उसे लग रहा है कि उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में कुछ अच्छा किया जा सकता था, ऐसे में लगे हाथ अजहर का भी भला हो जाए। क्योंकि स्टार प्रचारक तो वे ही होंगे। ऐसे में दागी और स्टार प्रचारक दोनों जमेगा नहीं।

दरअसल, अजहरुद्दीन जब चुनाव लड़ने की योजना बना रहे थे, तब भी उनके जेहन में कुछ ऐसा ही करने का ख्याल रहा होगा। यही कारण था कि वे लगातार कहते थे कि पार्टी जहां से भी टिकट देगी, वे चुनाव लड़ लेंगे। ऐसा इसलिए क्योंकि उनको तो मात्र संसद में पहुंचना था। उनके लिए मुरादाबाद हो या हैदराबद सभी जगह की जनता समान थी। क्योंकि उनका जनता के साथ तो कोई सरोकार था नहीं, तो चुनाव क्षेत्र कुछ भी हो। कांग्रेस को तो इस बात की उम्मीद ही नहीं थी कि लोकसभा चुनाव में अजहरवाली सीट निकल जाएगी। ऐसे में पार्टी ने उन पर आसानी से दांव लगा दिया। अब वही अजहर कांग्रेस पार्टी से दांव लगाने की कीमत मांग रहे हैं। उनकी दांव की कीमत जितिन प्रसाद और संजय सिंह जैसे नेताओं को भी चुकानी पड़ रही है, जो राहुल गांधी के करीबी माने जाते हैं, यह कुछ अटपटा जरूर लग रहा है क्यॊंकि दागी के समर्थन में उनकॊ सफाई देनी पड रही है। सवाल यह भी है कि अगर यह सब राहुल गांधी की शह पर हो रहा है तो क्या यह जायज है।

उत्तर प्रदेश से ही लोकसभा में सोनिया गांधी जी और कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी आते हैं। शरद पवार को इस बात की भनक भी लग जाए कि दोनों में से कोई एक भी अजहर से बैन हटाने के बारे में सोच भी रहा है, तो वे बिना किसी से पूछे ही इस कारनामे को अंजाम दे देंगे। लेकिन खुशी की बात है कि दोनों में से किसी ने भी फिलहाल ऐसी कोई मंशा जाहिर नहीं की है। अगर भविष्य में ऐसा करते हैं तो हाल के कांग्रेस के राजनीतिक इतिहास में इससे दुखद और कुछ नहीं होगा।

Friday, November 20, 2009

किसे डर लग रहा है सूचना के अधिकार कानून से?

आनंद प्रधान
ऐसा लगता है कि जाने-माने बुद्धिजीवियों और सूचना के अधिकार के आन्दोलन से जुड़े कार्यकर्ताओं की अपील को नज़रंदाज़ करते हुए यू पी ए सरकार ने सूचना के अधिकार कानून'2005 में संशोधन का मन बना लिया है. सरकार इस संशोधन के जरिये सूचना के अधिकार कानून से "फाइल नोटिंग" दिखाने का हक वापस लेने के अलावा जन सूचना अधिकारियों को "फालतू और तंग करनेवाले" सवालों को खारिज करने का अधिकार देना चाहती है. हालांकि इस फैसले का विरोध कर रहे बुद्धिजीवियों और नागरिक संगठनो के एक प्रतिनिधिमंडल से केंद्र सरकार के कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग के सचिव ने वायदा किया है कि इस मुद्दे पर अंतिम फैसला करने से पहले सरकार सबसे बात करेगी और सबकी आपत्तियों को सुनेगी लेकिन सरकार के रवैये से नहीं लगता है कि वह वास्तव में किसी को खासकर विरोधी स्वरों को सुनने के मूड में है. उसने मन बना लिया है और अब केवल दिखावे की मजबूरी में संशोधन की प्रक्रिया को पारदर्शी दिखाने का कोरम पूरा करना चाहती है.

ऐसा मानने के पीछे ठोस वजहें हैं. असल में, जब से सूचना के अधिकार का कानून बना है, सत्तानशीं नेता और नौकरशाही उसके साथ सहज नहीं रहे हैं. इस कानून के बनने से पहले तक गोपनीयता के माहौल में काम करने के आदी अफसरों और नेताओं को शुरू से यह बहुत "परेशान और तंग" करनेवाला कानून लगता रहा है. कहने की जरूरत नहीं है कि इसके पीछे वही औपनिवेशिक गोपनीयता की संस्कृति और मानसिकता जिम्मेदार रही है जो आज़ादी के 62 सालों बाद भी तनिक भी नहीं बदली है. यह मानसिकता सूचना का अधिकार कानून बनने के बावजूद यह स्वीकार नहीं कर पा रही है कि अब एक आम आदमी भी उनसे न सिर्फ उनके कामकाज का ब्यौरा और हिसाब मांग सकता है बल्कि परदे के पीछे और चुपचाप फैसला करने का जमाना गया. उनसे उस फैसले तक पहुँचने की पूरी प्रक्रिया यानि फाइल नोटिंग दिखाने के लिए कहा जा सकता है जिसके जरिये एक-एक अधिकारी की जिम्मेदारी तय की जा सकती है.

दोहराने की जरूरत नहीं है कि नेता-नौकरशाही सूचना के अधिकार कानून और खासकर इस प्रावधान को अपने विशेषाधिकारों और अभी तक हासिल असीमित शक्तियों में कटौती के रूप में देखते रहे हैं. यही कारण है कि जन दबावों के बाद और खुद को प्रगतिशील दिखाने के लिए यू पी ए सरकार ने यह कानून तो बना दिया लेकिन कानून को ईमानदारी और उसकी सच्ची भावना के साथ लागू करने के बजाय उसकी राह में रोड़े अटकाने में लगी रही है. यहां तक कि कानून के लागू होने के दो सालों के अन्दर ही सरकार ने उसके दायरे से फाइल नोटिंग दिखाने के अधिकार को वापस लेने के लिए कानून में संशोधन करने की कोशिश की थी लेकिन जन संगठनो और बुद्धिजीवियों के भारी विरोध के बाद उसे अपने कदम वापस खीचने पड़े थे. इस मायने में, इस कानून में संशोधन के नए प्रयास को पिछले प्रयासों की निरंतरता में ही देखना चाहिए.

सवाल यह है कि केंद्र सरकार को सूचना के अधिकार कानून से क्या शिकायतें हैं? जिस कानून को लागू हुए अभी सिर्फ चार साल हुए हैं, उससे सरकार को ऐसी क्या दिक्कत हो रही है कि वह इस कानून के रचनाकारों और समर्थकों के विरोधों को अनदेखा करते हुए उसमे संशोधन के लिए उतारू है? दरअसल, नौकरशाही को घोषित तौर पर इस कानून से दो शिकायतें हैं. पहला, इस कानून का "दुरुपयोग" किया जा रहा है. कुछ निहित स्वार्थी तत्त्व इस कानून का सहारा लेकर फालतू, परेशान और तंग करनेवाले सवाल पूछ रहे हैं जिससे अधिकारियों को काम करने में बहुत दिक्कत हो रही है, उनका काफी समय ऐसे फालतू और बेकार सवालों का जवाब बनने में चला जा रहा है. यही नहीं, इसे विभागीय राजनीति में किसी अधिकारी के साथ हिसाब-किताब चुकता करने या बदला लेने के लिए भी इस्तेमाल किया जा रहा है.

दूसरी शिकायत यह है कि फाइल नोटिंग दिखाने का अधिकार देने से अधिकारियों को ईमानदारी से और बिना किसी भय के निर्णय लेने में मुश्किल हो रही है क्योंकि उन्हें लगता है कि उनके द्वारा फाइल पर की गई नोटिंग सार्वजनिक होने पर उन्हें निहित स्वार्थी तत्वों और बेईमानों का कोपभाजन बनना पड़ सकता है. कहने की जरूरत नहीं है कि ये दोनों शिकायतें बहुत कमजोर, तथ्यहीन, एक तरह की बहानेबाजी और गोपनीयता की संस्कृति को बनाये रखने की मांग हैं. जैसेकि खुद सूचना के अधिकार के लिए लड़नेवाली अरुणा रॉय और दूसरे बुद्धिजीवियों-कार्यकर्ताओं ने इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री को लिखी चिट्ठी में भी स्पष्ट किया है कि इस बात के कोई ठोस सबूत नहीं हैं कि इस कानून का इस्तेमाल जानबूझकर "फालतू और तंग" करनेवाले सवाल पूछने के लिए किया जा रहा है और न ही इस बात के कोई प्रमाण हैं कि फाइल नोटिंग दिखाने के अधिकार के कारण ईमानदार और निर्भीक अफसरों को काम करने में दिक्कत हो रही है.

उल्टे सच्चाई यह है कि इस अधिकार के कारण ईमानदार और निर्भीक अफसरों को बिना किसी अवांछित दबाव और भय के फैसला करने में सहूलियत हो रही है. वे उन नेताओं-मंत्रियों-अफसरों को इस कानून और खासकर इस प्रावधान का हवाला देकर उनकी इच्छा के अनुसार नोटिंग करने के दबाव से इंकार कर पा रहे हैं. यह प्रावधान ईमानदार और निर्भीक अफसरों के लिए बडी सुरक्षा साबित हो रहा है जबकि इसके कारण बेईमान और मनमानी करनेवाले अफसरों-नेताओं को मनमाने फैसले करने में जरूर परेशानी हो रही है क्योंकि अब कोई भी फाइल नोटिंग सार्वजनिक करके मनमाने-अवैधानिक-अनुचित फैसलों की जवाबदेही तय करवा सकता है. कहने की जरूरत नहीं है कि इस प्रावधान से नौकरशाही को जिम्मेदार और जवाबदेह बनने के साथ निर्णय लेने की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाया जा सकता है.

रही बात "फालतू और तंग" करनेवाले सवालों को खारिज का अधिकार देने की तो इतना कहना ही काफी है कि अगर इस संशोधन को स्वीकार कर लिया गया तो इस कानून की मूल आत्मा की हत्या हो जायेगी क्योंकि इस प्रावधान का सहारा लेकर कोई भी जन सूचना अधिकारी किसी भी सवाल को "फालतू और तंग" करनेवाले बताकर खारिज कर सकता है. आखिर यह कौन, कैसे और किस आधार पर तय करेगा कि कौन सा सवाल "फालतू और तंग" करनेवाला है? जाहिर है कि इस कानून के तहत पूछे जानेवाले सवालों से अपने भ्रष्टाचार, मनमानेपन, निक्कमेपन और गडबडियों की पोल खुलने के डर से घबराई नौकरशाही ऐसे हर सवाल को "फालतू और तंग" करनेवाला बताकर खारिज करने से नहीं चूकेगी, जिससे उसकी पोल खुलती हो. इसके बाद सूचना के अधिकार कानून में क्या बचेगा? क्या यू पी ए सरकार प्रस्तावित संशोधनों के जरिये इस कानून को ख़त्म करना और एक शोपीस भर बनाना चाहती है?

वाम मोर्चा की राह कठिन

आनंद प्रधान

हाल में संपन्न हुए उपचुनावों के नतीजों से एक बार फिर यह साफ हो गया है कि माकपा के नेतृत्व वाले सरकारी वामपंथ की राजनीतिक ढलान न सिर्फ जारी है बल्कि उसकी रफ्तार और तेज होती जा रही है। इस कारण अधिकांश राजनीतिक विश्लेषकों ने यह भविष्यवाणी करनी शुरू कर दी है कि जिस तरह से केरल और खासकर पश्चिम बंगाल में वामपंथी पार्टियों विशेषकर माकपा के जनाधार में छीजन और बिखराव की प्रक्रिया तेज होती जा रही है, उसे देखते हुए माकपा के लिए अपने इन राजनीतिक किलों को बचा पाना मुश्किल होगा. हालांकि केरल और पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव 2011 में होने हैं और राजनीति में डेढ़ साल का वक्त काफी लम्बा होता है लेकिन केरल और पश्चिम बंगाल में एक के बाद दूसरी चुनावी हारों और गंभीर राजनीतिक, सांगठनिक और वैचारिक समस्याओं और विचलनों के कारण वाम मोर्चा और खासकर उसकी नेता माकपा एक ऐसी वैचारिक और राजनीतिक लकवे की स्थिति में पहुँच गई है कि वह मुकाबले से बाहर होती दिख रही है.

माकपा की मौजूदा लकवाग्रस्त स्थिति का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि वह जो कुछ भी कर रही है, उसका दांव उल्टा पड़ रहा है. उदाहरण के लिए माकपा ने इन उपचुनावों के दौरान बाजी हाथ से निकलते देख अपने रिटायर और वयोवृद्ध नेता ज्योति बसु को को आगे करके कांग्रेसी वोटरों के नाम एक अपील जारी करवाई कि राज्य में शांति, विकास और सुरक्षा के लिए वे वाम मोर्चे को वोट करें. लेकिन माकपा का यह 'ट्रंप कार्ड' भी नहीं चला, ज्योति बसु की फजीहत हुई सो अलग. कहने की जरुरत नहीं है कि यह अपील माकपा के बढ़ते राजनीतिक दिवालियेपन का ही एक और नमूना थी. साथ ही, इससे यह भी पता चलता है कि राज्य में वाम मोर्चा खासकर माकपा सत्ता हाथ से निकालता देख किस हद तक बदहवास हो गई है कि ज्योति बसु को भी कांग्रेसी वोटरों से वोट की भीख मांगने के लिए मैदान में उतार दिया।

दरअसल, माकपा की राजनीति की सबसे बड़ी समस्या भी यही है। केरल, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल की सत्ता ही उसके गले का फांस बन गई है. ऐसा लगता है कि वह इन तीनो राज्यों की सत्ता खासकर पश्चिम बंगाल की सरकार के बिना नहीं रह सकती है. इसकी वजह यह है कि केरल में हर पांच साल में सरकार बदलती रहती है और त्रिपुरा राजनीतिक रूप से महत्वहीन है लेकिन पश्चिम बंगाल की बात ही अलग है जहाँ पिछले 32 वर्षों से वाम मोर्चा सत्ता में बना हुआ है. माकपा में पश्चिम बंगाल की सत्ता को लेकर इस कदर मोह है कि उसकी पूरी राजनीति इस बात से तय होती रही है कि राज्य में इस सत्ता को किस तरह से सुरक्षित रखा जाए. इसके लिए वह हर तरह के समझौते के लिए यहां तक कि अपने राजनीतिक-वैचारिक मुद्दों को भी कुर्बान करती रही है.

सत्ता के प्रति इस व्यामोह और समझौते की राजनीति का ही नतीजा है कि माकपा जिन आर्थिक नीतियों खासकर उदारीकरण-भूमंडलीकरण-निजीकरण का राष्ट्रीय स्तर पर विरोध करती रही है, उन्हीं नीतियों को पश्चिम बंगाल समेत अन्य वाम मोर्चा शासित राज्यों में जोरशोर से लागू करने में उसे कोई शर्म नहीं महसूस होती है। इसका परिणाम सबके सामने है. सिंगुर से लेकर नंदीग्राम तक और अब लालगढ़ में माकपा की राजनीति का यही दोहरापन खुलकर सामने आया है. माकपा का यह वैचारिक-राजनीतिक स्खलन बढ़ते-बढ़ते यहां तक पहुँच गया कि पार्टी कांग्रेस को बुर्जुआ-सामंती पार्टी मानते हुए भी केंद्र में भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के नाम पर कांग्रेस को यू पी ए गठबंधन की सरकार साढ़े चार साल तक चलाने में न सिर्फ मदद करती रही बल्कि गठबंधन सरकार की संकटमोचक की भूमिका निभाती रही.

असल में, माकपा की राजनीति की सबसे बड़ी सीमा यही सत्ता की राजनीति बन गई है। सत्ता के साथ अनिवार्य रूप से जो बुराइयां आती हैं, वह माकपा में भी सहज ही देखी जा सकती हैं. यही कारण है कि पश्चिम बंगाल में 32 सालों तक सत्ता में रहने के बाद माकपा का जो राजनीतिक-वैचारिक रूपांतरण हुआ है, उसमे वह वास्तव में एक कम्युनिस्ट पार्टी तो दूर, एक सच्ची वामपंथी पार्टी भी नहीं रह गई है. आश्चर्य नहीं कि माकपा चाहे पश्चिम बंगाल हो या केरल- हर जगह किसी भी बुर्जुआ पार्टी की तरह ही तमाम राजनीतिक स्खलनों जैसे भ्रष्टाचार, सार्वजनिक धन की लूट, भाई-भतीजावाद, गुंडागर्दी, ठेकेदारी आदि में आकंठ डूबी हुई दिखाई पड़ती है. इससे बचने का एक ही तरीका हो सकता था और वह यह कि पार्टी अपनी राज्य सरकारों की परवाह किये बगैर जनता खासकर हाशिये पर पड़े गरीबों-मजदूरों-दलितों-आदिवासियों के हक-हुकूक की लडाई को आगे बढाती.

इससे माकपा और वाम मोर्चा खुद को संसदीय राजनीति की सीमाओं में बांधने और उसके स्खलनों में फिसलने से बचा सकते थे। जनांदोलनों से न सिर्फ राज्य सरकारों को पूरी तरह से नौकरशाही के हाथ में जाने से रोका जा सकता था बल्कि उसे वास्तव में जनता के प्रति जवाबदेह बनाया जा सकता था. यही नहीं, जनान्दोलनों के जरिये उन अवसरवादी-भ्रष्ट और ठेकेदार-गुंडा तत्वों को भी पार्टी से दूर रखा जा सकता था, जो आज पार्टी की पहचान बन गए हैं. माकपा इस सच्चाई से मुंह कैसे चुरा सकती है कि पार्टी आज पश्चिम बंगाल में सत्ता इसलिए गंवाने जा रही है कि क्योंकि उसका अपने मूल जनाधार ग्रामीण गरीबों-खेतिहर मजदूरों-आदिवासियों-अल्पसंख्यकों से सम्बन्ध टूट चुका है. क्योंकि राज्य में विकास के नाम पर कुछ नहीं हुआ है, यहां तक कि नरेगा जैसी योजनाओं को लागू करने के मामले में लापरवाही और सुस्ती दिखाई गई. पी डी एस राशन भी के लिए भी राज्य में दंगे हुए.

लेकिन माकपा पर सत्ता का मोह और उसका नशा इस कदर चढ़ा हुआ है कि वह लोकसभा चुनावों और उसके बाद अब नगरपालिकाओं और विधानसभा उपचुनावों की हार से कोई सबक सिखाने के लिए तैयार नहीं है. हालांकि वह पार्टी में "शुद्धिकरण अभियान" चलाने की बात कर रही है लेकिन मुश्किल यह है कि सत्ता से चिपके रहने की ऐसी लत लग गई है कि न सिर्फ इस अभियान की सफलता पर संदेह है बल्कि पार्टी जल्दबाजी में एक बार फिर उन्हीं बुर्जुआ पार्टियों के साथ जोड़तोड़ करके राजनीति में खड़े होने का ख्वाब देख रही है. यहां तक कि वह पश्चिम बंगाल में तृणमूल-कांग्रेस के गठबंधन में दरार डालने और कांग्रेस से गलबहियां करने की हास्यास्पद कोशिश कर रही है. दूसरी ओर, राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष के नाम पर एक बार फिर वह सपा,बसपा,टीडीपी और अन्ना द्रमुक के पीछे लटकने की तैयारी कर रही है. जाहिर है कि इन आजमाए हुए फ्लॉप टोटकों से माकपा की मुश्किलें खत्म होनेवाली नहीं हैं.

Friday, November 13, 2009

माओवाद को कितना जानता है समाचार मीडिया?

आनंद प्रधान
जब से यू पी ए सरकार ने माओवाद/नक्सलवाद के खिलाफ बड़ी सैन्य कार्रवाई का ऐलान किया है, अंग्रेजी समाचार चैनलों पर रोज़ शाम को होनेवाली चर्चाओं में भी नक्सलवाद/माओवाद एक प्रिय विषय बन गया है। इसमे कोई बुराई नहीं है लेकिन सरकार की घोषणा के बाद चैनलों की इस अतिसक्रियता से यह तो पता चलता ही है कि उनका अजेंडा कौन तय कर रहा है. यही नहीं, लगभग हर दूसरे-तीसरे दिन होनेवाली इन चर्चाओं में कुछ खास बातें गौर करनेवाली हैं. पहली बात तो ये कि बिना किसी अपवाद के सभी चैनलों पर एंकर सहित उन पत्रकारों/नेताओं/पुलिस अफसरों की भरमार होती है जो नक्सलवाद/माओवाद को न सिर्फ देश के लिए बड़ा खतरा मानते हैं बल्कि उससे निपटने के लिए सैन्य कार्रवाई को ही एकमात्र विकल्प मानते और उसका समर्थन करते हैं.

हालांकि ऐसी सभी चर्चाएं आमतौर पर एकतरफा होती हैं लेकिन उनपर यह आरोप न लग जाए, इसलिए एकाध मानवाधिकारवादी या बुद्धिजीवी को भी कोरम पूरा करने के वास्ते बुला लिया जाता है। फिर उसपर सवालों की बौछार शुरू कर दी जाती है लेकिन उसे जवाब देने का मौका नहीं दिया जाता है. चूंकि सवाल पूछने का हक एंकर के पास होता है, इसलिए चर्चा का एजेंडा भी वही तय करता है. वह कुछ सवालों को ही घुमा-फिराकर बार-बार पूछता है जैसे मानवाधिकारवादी माओवादी हिंसा की निंदा क्यों नहीं करते या क्या पुलिस का मानवाधिकार नहीं है या माओवादी न संविधान मानते हैं न सरकार और न ही हथियार डालने के लिए तैयार हैं तो उनसे बातचीत कैसे हो सकती है या क्या माओवादियों के लिए बातचीत अपनी ताक़त बढाने का सिर्फ एक बहाना नहीं है?

यही नहीं, उन बुद्धिजीवियों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के "खलनायकीकरण" की हरसंभव कोशिश होती है जो माओवादियों के खिलाफ सैन्य अभियान का न सिर्फ विरोध करते हैं बल्कि सरकार के इरादों पर सवाल भी उठाने की कोशिश करते हैं। आश्चर्य की बात यह है कि खुद को स्वतंत्र बतानेवाले मीडिया ने एक बार भी प्रधानमंत्री या गृहमंत्री के इन बयानों पर सवाल नहीं उठाया कि कैसे माओवाद "आतंरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा है?" क्या यह सच नहीं है कि टी वी चैनलों की न तो यह जानने में कोई दिलचस्पी है कि देश के इतने बड़े हिस्से में गरीब-आदिवासी और दलितों ने हथियार क्यों उठा लिया है और न ही दर्शकों को ये बताने की मंशा है कि सरकार झारखण्ड और छत्तीसगढ़ को माओवादियों से मुक्त कराने के लिए इतनी बेचैन क्यों है?

समाचार मीडिया की अगर इन सवालों और मुद्दों में इतनी ही दिलचस्पी होती तो क्या वे झारखण्ड, उड़ीसा और छत्तीसगढ़ में अपने पूर्णकालिक संवाददाता नहीं नियुक्त करते? विडम्बना यह है कि अगर कीमती खनिज न होते तो देश के इन सुदूर वन-प्रांतरों में सरकारों की कोई दिलचस्पी नहीं होती. इसी तरह कारपोरेट मीडिया की रांची या रायपुर में कोई रूचि नहीं है और न ही इन इलाकों की खबरें मीडिया में जगह बना पाती हैं. सच पूछिये तो पूरे पूर्वी भारत को मीडिया में कितनी जगह मिलती है? क्या ये सच नहीं है कि मुंह नोचने को तैयार एंकरों में से अधिकांश ने कभी भी इन इलाकों में घूमने की जहमत नहीं उठाई है? उनके "वी द पीपुल" या (फेस द) "नेशन" की सीमाएं दिल्ली और मुंबई जैसे टी आर पी महानगरों तक सीमित हैं और उनके "फ्रैंकली स्पीकिंग" की हद "बुश-चिदंबरम स्पीक" से तय होती है.

Thursday, November 12, 2009

सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की वैश्विक रैकिंग में पिछड़ने के मायने

आनंद प्रधान

पिछले सप्ताह जब से ’द टाइम्स-क्यूएस’ की दुनिया के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की वैश्विक रैकिंग जारी हुई है, देश में अपने विश्वविद्यालयों की दशा को लेकर हंगामा मचा हुआ है। वजह यह कि दुनिया के सर्वश्रेष्ठ पहले 10 या 50 या 100 या फिर 150 विश्वविद्यालयों की सूची में भारत का कोई विश्वविद्यालय जगह नही बना पाया है। यही नहीं, सर्वश्रेष्ठ 200 विश्वविद्यालयों की सूची में 163वें स्थान पर आईआईटी,मुंबई और 181वें स्थान पर आईआईटी, दिल्ली को जगह मिल सकी है जबकि लोकप्रिय और वास्तविक अर्थो में आईआईटी को विश्वविद्यालय नही माना जाता है।

यह सचमुच चिंता और अफसोस की बात है कि दुनिया के सर्वश्रेष्ठ 200 विश्वविद्यालयों की सूची में दो आईआईटी को छोड़कर देश का कोई विश्वविद्यालय जगह बना पाने में कामयाब नही हुआ है। इससे देश में उच्च शिक्षा की मौजूदा स्थिति का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। लेकिन इसमें हैरानी की कोई बात नही है। ऐसा नही है कि यह सच्चाई सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की वैश्विक रैकिंग जारी होने के बाद पहली बार सामने आई है। यह एक तथ्य है कि पिछले कई वर्षों से जारी हो रही इस वैश्विक रैकिंग में भारत के विश्वविद्यालय अपनी जगह बना पाने में लगातार नाकामयाब रहे हैं।

सवाल है कि इस वैश्विक रैकिंग को कितना महत्त्व दिया जाए? यह भी एक तथ्य है कि ’द टाइम्स-क्यूएस’ की विश्वविद्यालयों की सालाना वैश्विक रैकिंग रिपोर्ट और ऐसी अन्य कई रिपोर्टों की प्रविधि और चयन प्रक्रिया पर सवाल उठते रहे हैं। इस रैकिंग में विकसित और पश्चिमी देशों के विश्वविद्यालयों के प्रति झुकाव और आत्मगत मूल्यांकन की छाप को साफ देखा जा सकता है। लेकिन इस सबके बावजूद दुनिया भर के ‘शैक्षणिक समुदाय में ’ द टाइम्स-क्यूएस ’ की वैश्विक विश्वविद्यालय रैकिंग की मान्यता और स्वीकार्यता बढ़ती ही जा रही है। उसकी अपनी ही एक करेंसी हो गयी है।

दरअसल, इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि पिछले दो दशकों में उच्च शिक्षा का एक जो वैश्विक बाजार बना है, उसके लिए विश्वविद्यालयों की इस तरह की रैकिंग एक अनिवार्य ‘शर्त है। यह रैकिंग वैश्विक शिक्षा बाजार के उन उपभोक्ताओं के लिए है जो बेहतर अवसरों के लिए विश्वविद्यालय चुनते हुए इस तरह की रैकिंग को ध्यान में रखते हैं। निश्चय ही, इस तरह की रैकिंग से सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों को न सिर्फ संसाधन जुटाने में आसानी हो जाती है बल्कि वे दुनिया भर से बेहतर छात्रों और अध्यापकों को भी आक्रर्षित करने में कामयाब होते हैं।

इस अर्थ में, सर्वश्रेष्ठ 200 विश्वविद्यालयों की सूची में आईआईटी को छोड़कर एक भी भारतीय विश्वविद्यालय के न होने से साफ है कि भारत उच्च शिक्षा के वैश्विक बाजार में अभी भी आपूर्तिकर्ता नहीं बल्कि उपभोक्ता ही बना हुआ है। आश्चर्य नही कि सरकार के तमाम दावों के बावजूद अभी भी देश से हर साल लाखों छात्र उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका से लेकर आस्ट्रेलिया के विश्वविद्यालयों का रूख कर रहे हैं। यही नहीं, ’ब्रेन ड्रेन’ रोकने और ’ब्रेन गेन’ के दावों के बीच अभी भी सैकड़ों प्रतिभाशाली शिक्षक और ‘शोधकर्ता विदेशों का रूख कर रहे हैं।

इस मायने में, वैश्विक विश्वविद्यालयों की यह रैकिंग उच्च शिक्षा के कर्ता-धर्ताओं को न सिर्फ वास्तविकता का सामना करने का एक मौका देती है बल्कि एक तरह से चेतावनी की घंटी है। वह इसलिए कि दोहा दौर की व्यापार वार्ताओं के तहत सेवा क्षेत्र को व्यापार के लिए खोलने की जो बातचीत चल रही है, उसमें भारत अपने उच्च शिक्षा क्षेत्र को खोलने के लिए तत्पर दिख रहा है। इस तत्परता का अनुमान इस बात से भी लगाया जा सकता है कि मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल विदेशी विश्वविद्यालयों को देश में बुलाने के लिए कुछ ज्यादा ही उत्साहित दिख रहे हैं।

लेकिन सवाल यह है कि जब भारत और उसके विश्वविद्यालय वैश्विक शिक्षा बाजार में कहीं नहीं हैं तो उच्च शिक्षा का घरेलू बाजार विदेशी शिक्षा सेवा प्रदाताओं या विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए खोलने के परिणामों के बारे में क्या यूपीए सरकार ने विचार कर लिया है? क्या ऐसे समय में, जब भारतीय विश्वविद्यालय विकास और गुणवत्ता के मामले में विकसित और पश्चिमी देशों के विश्वविद्यालयों से काफी पीछे हैं, उस समय विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए देश के दरवाजे खोलने का अर्थ उन्हें एक असमान प्रतियोगिता में ढकेलना नही होगा? क्या इससे देशी विश्वविद्यालयों के विकास पर असर नहीं पड़ेगा?

निश्चय ही, इन सवालों पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। लेकिन ऐसा लगता है कि यूपीए सरकार उच्च शिक्षा में बुनियादी सुधार और बेहतरी के लिए देशी विश्वविद्यालयों की गुणवत्ता बढ़ाने के वास्ते उन्हें जरूरी संसाधन और संरक्षण मुहैया कराने के बजाय गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का जिम्मा विदेशी विश्वविद्यालयों को सौंपकर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होना चाहती है। हालांकि कपिल सिब्बल उच्च शिक्षा में सुधार के बड़े-बड़े दावे कर रहे हैं लेकिन सच्चाई यही है कि वे उच्च शिक्षा क्षेत्र में बुनियादी सुधार के बजाय जहां-तहां पैबंद लगाने की कोशिश कर रहे हैं।

हकीकत यह है कि यूपीए सरकार को उच्च शिक्षा में पैबंद लगाने और पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप और निजी क्षेत्र को बढ़ाने जैसे पिटे-पिटाए फार्मूलों को फिर से आजमाने के बजाय उन बुनियादी सवालों और समस्याओं से निपटने की ईमानदार कोशिश करनी चाहिए जिनके कारण उच्च शिक्षा एक शैक्षणिक जड़ता से जूझ रही है। आज वास्तव में जरूरत यह है कि इस शैक्षणिक जड़ता को तोड़ने के लिए उच्च शिक्षा और विश्वविद्यालयों में शैक्षणिक पुनर्जागरण के लिए उपयुक्त माहौल बनाया जाए। इसके लिए विश्वविद्यालयों के व्यापक जनतांत्रिक पुनर्गठन के साथ-साथ उन्हें वास्तविक स्वायत्तता और शैक्षणिक स्वतंत्रता उपलब्ध कराना जरूरी है। इसके बिना विश्वविद्यालयों का कायाकल्प मुश्किल है।

असल में, आज देश में उच्च शिक्षा के सामने तीन बुनियादी चुनौतियां हैं-उच्च शिक्षा के विस्तार की , उसमें देश के सभी वर्गों के समावेश और उसकी गुणवत्ता सुनिश्चित करने की। इसके लिए सबसे ज्यादा जरूरी यह है कि सरकार उच्च शिक्षा के लिए पर्याप्त संसाधन और वित्तीय मदद मुहैया कराए। लेकिन अफसोस की बात यह है कि आर्थिक सुधारों की शुरूआत के बाद 90 के दशक में उच्च शिक्षा के बजट में लगातार कटौती हुई जिसका नतीजा यह हुआ कि अधिकांश विश्वविद्यालयों में न सिर्फ पठन-पाठन पर असर पड़ा बल्कि वे छोटी-छोटी शैक्षणिक जरूरतों और संसाधनों से भी महरूम हो गये।

एक अंतर्राष्ट्रीय ‘शोध रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के विकसित देशों की तो बात ही छोड़ दीजिए, ब्रिक (ब्राजील,रूस,भारत और चीन) देशों में उच्च शिक्षा में प्रति छात्र सबसे कम व्यय भारत में होता है। आश्चर्य नही कि वैश्विक विश्वविद्यालयों की रैकिंग में पहले 200 विश्वविद्यालयों की सूची में चीन के कई विश्वविद्यालयों के नाम हैं लेकिन भारत के विश्वविद्यालय उस सूची में जगह नही बना पाए। उपर से तुर्रा यह कि यूपीए सरकार अब विश्वविद्यालयों को अपने बजट का कम से कम 20 प्रतिशत खुद जु गाड़ने के लिए कह रही है।

यही नही, इस समय उच्च शिक्षा पर बजट बढ़ाने और 11 वीं पंचवर्षीय योजना में शिक्षा को सबसे अधिक महत्त्व देने के यूपीए सरकार के तमाम बड़े-बड़े दावों के बावजूद सच यह है कि सरकार उच्च शिक्षा पर जीडीपी का मात्र 0।39 प्रतिशत से भी कम खर्च कर रही है। इसकी तुलना में, चीन उच्च शिक्षा पर इसके तीन गुने से भी अधिक खर्च कर रहा है।

असल में, वैश्विक रैकिंग में जगह न बना पाने से अधिक चिंता की बात यह है कि आजादी के 60 सालों बाद भी उच्च शिक्षा के विस्तार की हालत यह है कि देश में विश्वविद्यालय जाने की उम्र के सिर्फ दस फीसदी छात्र ही कालेज या विश्वविद्यालय तक पहुंच पाते हैं जबकि विकसित पश्चिमी देशों में 35 से 50 फीसदी छात्र विश्वविद्यालयों में पहुंचते हैं। आश्चर्य नही कि मानव विकास सूचकांक में भी भारत 183 देशों की सूची में 134वें स्थान पर है। आखिर मानव विकास में फीसड्डी होकर कोई देश सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की वैश्विक रैकिंग में जगह कैसे बना सकता है?

Saturday, November 7, 2009

मैं इसलिए घूमता रहता हूं कि यमराज आए और मैं घर में न मिलूं

राजस्थान में प्रभाष जोशी की अंतिम यात्रा, भीलवाड़ा के गांवॊं में नरेगा की सोशल आडिटिंग के दौरान लिया था गांवॊं का जायजा

धर्मेद्र मीणा
यह मैं पूरे दो के साथ तो नहीं कह सकता, लेकिन मेरे ध्यान में वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी अपनी अंतिम राजस्थान यात्रा पर भीलवाड़ा आए थे। दिन 11-12 अक्टूबर का रहा होगा। मैं पहली बार प्रभाष जोशी को अपने सामने पा रहा था। जनसत्ता के लेख में तो कई बार उनको पढ़ा। खासतौर पर क्रिकेट में सचिन के शतक पर पहले पन्ने की एंकर में। सचिन के शतक की तरह कुछ अलग ही होता था प्रभाष जी का लेख। भीलवाड़ा में भी प्रभाष जी अपने लेख की तरह अलग अंदाज में नजर आए।

देश में नरेगा के अब तक के सबसे बड़े सोशल आडिट में भाग लेने के लिए प्रभाष जी भीलवाड़ा आए। एक मित्र ने उनसे सवाल किया कि आप इतनी ज्यादा उम्र होने के बावजूद कैसे घूमते रहते हैं। तपाक से प्रभाष जी ने कहा कि मैं घूमूंगा नहीं तो यमराज पकड़ लेंगे। यमराज मेरे घर के पते पर मेरा वारंट लेकर आते हैं मैं उनको मिलता ही नहीं। जब वे मेरे घर पहुंचते हैं तो उस समय मैं भोपाल में रहता हूं। जब भोपाल पहुंचते हैं तो मैं इंदौर में होता हूं और यमराज लौटकर वापस चले जाते हैं।

उम्र के इस पड़ा पर भी उन्हे इस बात का दुख था कि वह सोशल आडिटिंग के समय भीलवाड़ा के गांवॊं में नहीं जा सके। इस दौरान उन्होंने राजस्थान में नरेगा को रोल माडल बनाने की बात कही। यह तो रही प्रभाष जी की राजस्थान यात्रा की। जिस दिन प्रभाष जी ने अंतिम सांसे ली, उस दिन भारत और आस्ट्रेलिया के बीच क्रिकेट मैच हो रहा था। जिस समय सचिन ने शतक मारा, उस समय मैं और मेरे दोस्त कह रहे थे कि जनसत्ता की एंकर तो फिक्स हो गई। लेकिन सुबह ही भड़ास फार मीडिया की मैसेज सेवा ने बताया कि प्रभाष जी नहीं रहे।

पत्रकारिता में हिंदी का मान बढ़ाने वाले प्रभाष जी को शत-शत नमन

आईआईएमसी में पहला असाइनमेंट और प्रभाष जी!

संदीप कुमार

झारखंड के एक निपट देहात (गिरिडीह ज़िले के बगोदर से) से दिल्ली पहुंचा था आईआईएमसी में पत्रकारिता की पढ़ाई करने। ये अगस्त 2005 था। हमारे टीचर हेमंत जोशी ने शायद अपनी पहली ही क्लास में हमें एक गज़ब का एसाइनमेंट दे डाला। प्रभाष जी के लेखन पर एक पन्ने में टिप्पणी करके लाने को कहा गया। मैं हैरान… परेशान। आखिर प्रभाष जी को कभी पढ़ा नहीं, तो फिर उन पर लिखूंगा क्या और कैसे? मेरे कस्बे में रांची के अखबार समय पर पहुंच जाएं, यही गनीमत थी, तो ऐसे में जनसत्ता दिल्ली या कोलकाता से चल कर कैसे पहुंचता! खैर, दिल्ली में आकर जनसत्ता से मुलाकात तो हुई लेकिन सच कहूं तो रंग-बिरंगे अखबारों के बीच जनसत्ता पर पूरी ईमानदारी से नज़र नहीं मार पाता था और अभी दिल्ली आये ज़्यादा दिन हुए भी नहीं थे, सो प्रभाष जी का कुछ लिखा पढ़ भी नहीं पाया था। धर्मसंकट की ऐसी स्थिति से खुद उबारा हेमंत जोशी जी ने और उन्होंने कहा कि बीते रविवार को छपे प्रभाष जी के ‘कागद-कारे’ पर ही टिप्पणी करके लाएं।

क्लास के ही एक इंदौरी मित्र पुनीत के सौजन्य से रविवार का जनसत्ता मिला और फिर ‘कागद-कारे’ की फोटोकॉपी करवायी। पहले तो इतना बड़ा आलेख देखकर ही पसीना छूट गया। पढ़ा और कई बार पढ़ा। सच कहूं तो ठीक से पल्ले कुछ भी नहीं पड़ रहा था लेकिन पढ़ने में मज़ा खूब आ रहा था। आखिरकार एसाइनमेंट मैंने पूरा किया और जमा भी कर दिया। हर एसाइनमेंट जमा करने से पहले उसकी एक फोटोकॉपी मैं अपने पास रख लेता था। और उस एसाइनमेंट की एक कॉपी आज भी मेरे पास मौजूद है। शुक्रवार को मेरा हैप्पी वीकली ऑफ हुआ करता है इसलिए देर सुबह तक बिस्तर पर अलसाया पड़ा था। तभी मेरे एक साथी सत्यकाम ने प्रभाष जी के गुज़र जाने की खबर दी। नींद काफूर हो गयी और तुरंत ही मैं अपनी पुरानी फाइलों को उलटने-पलटने लगा। वो फाइल, जिसमें मैंने आईआईएमसी की अपनी पुरानी यादों को सहेज रखा है। आखिरकार एसाइनमेंट की वो कॉपी मिल गयी। कई बार उसे निहारा-निरखा। प्रभाष जी के साथ ‘वर्चुअल मुलाकात’ का वो साथ आज भी मेरे पास ज़िंदा है। दिल्ली में तीन बरस गुज़ार लेने के बाद भी मैं प्रभाष जी से आमने-सामने कभी मिल नहीं पाया था। हां, टीवी पर उन्हें खूब देख-सुन लेता था और जनसत्ता-तहलका के मार्फत पढ़ भी लिया करता था। खैर, बात मैं उस एसाइनमेंट की कर रहा था, जो कुछ यूं है -(इसे इस रूप में पढ़ा जाए, मानो आपने पहली बार प्रभाष जोशी को पढ़ कर खुद ही लिखा हो… मेरी तब की स्थिति को समझिएगा… एक निपट देहाती का प्रभाष जोशी जी के लेख के साथ ये पहला एनकाउंटर जो था…)

प्रभाष जोशी का लेखन

28 अगस्त 2005 के अपने ‘कागद कारे’ स्तंभ में वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी ने इतिहास, धर्म, दर्शन, राजनीति, राष्ट्रवाद, संप्रदायवाद और समकालीन स्थितियों का बेहतरीन संयोजन पेश किया है। कराची में आडवाणी की जिन्ना-स्तुति के बाद वाजपेयी द्वारा भी जिन्ना-गान गाये जाने को प्रभाष जोशी ने अपने स्तंभ का विषयवस्तु बनाया है। दो हज़ार से ज़्यादा शब्दों की अपनी प्रस्तुति में ‘उनने’ (‘उनने’ शब्द से सामना पहली बार मुझे प्रभाष जी के आलेख से ही हुआ है इसलिए इस शब्द का इस्तेमाल करने का मैंने दुस्साहस भी किया है) अंतर्वस्तु को काफी विस्तार दिया है।

प्रभाष जी के आलेख से स्पष्ट होता है कि वे एकबारगी कोई राय थोपना नहीं चाहते बल्कि इसके लिए वे बहुत पीछे जाते हुए पूरे संदर्भ की पड़ताल करते हैं। जैसे कि जिन्ना प्रसंग के लिए वे सिर्फ भारत-विभाजन और 1947 की ही चर्चा नहीं करते बल्कि और भी पीछे जाकर 1920 के असहयोग आंदोलन और खिलाफत आंदोलन में भी झांकते हैं।

कह सकते हैं कि प्रभाष जी का यह ‘मील भरा लंबा’ आलेख ‘मील का पत्थर’ साबित होगा, यदि धैर्य से इसे पढ़ा जाए। पर एक आम पाठक के नज़रिये से कहें तो प्रभाष जी कुछ ज़्यादती कर देते हैं। हालांकि शब्द बोझिल नहीं पर बेहिसाब ज़रूर हैं। अंतर्वस्तु कई विषयों/संदर्भों से परिमार्जित होने के कारण कुछ मौकों पर यह सर से ऊपर ‘बाउंस’ भी कर जाता है।

हम प्रभाष जी से शब्दों की ऐसी ‘गोलंदाजी’ रोकने की अपील तो नहीं कर सकते पर अपना स्तर ऊपर उठाने की खुद से अपेक्षा ज़रूर कर सकते हैं।

गुस्ताखी माफ़ हो!

(लेखक आईआईएमसी के 2005-06 बैच के पासआउट हैं और इन दिनों टीवी पत्रकारिता में हैं।)

Thursday, November 5, 2009

अपने दामन में झांकें कोड़ा पर कोड़ा चलाने वाले

आनंद प्रधान

झारखण्ड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा को देश का पहला ऐसा पूर्व मुख्यमंत्री होने का 'गौरव' हासिल हो गया है जिसके खिलाफ प्रवर्तन निदेशालय और सी बी आइ ने न सिर्फ आय से अधिक संपत्ति जुटाने बल्कि हवाला के जरिये उसे देश से बाहर भेजने के आरोप में मामला दर्ज किया है। पिछले दो दिनों में देशभर के आठ शहरों में कोड़ा और उनके करीबी सहयोगियों के 70 से अधिक ठिकानो पर आयकर विभाग और प्रवर्तन निदेशालय के छापों में कोई 2000 करोड़ रुपये से अधिक की नामी-बेनामी संपत्ति का पता चला है. इसमे लाइबेरिया से लेकर दुबई, मलेशिया, लाओस, थाईलैंड और सिंगापुर जैसे देशों में संपत्ति खरीदने से लेकर कोयला और स्टील कंपनियों में निवेश तक की सूचना है. हालांकि अभी पूरे तथ्यों और जानकारियों का सामने आना बाकी है लेकिन इतना साफ हो चुका है कि यह अभी भ्रष्टाचार के हिमशैल(आइसबर्ग) का उपरी सिरा भर है और सतह के नीचे न जाने कितना कुछ छुपा हुआ है.

कहने की जरुरत नहीं है कि देश के सबसे गरीब और पिछड़े राज्य में कोड़ा और उनके राजनीतिक साथियों और करीबी सहयोगियों ने सिर्फ कुछ वर्षों में भ्रष्टाचार के नए कीर्तिमान बना दिए हैं। यह सचमुच कितनी बड़ी विडम्बना है कि जिस राज्य का गठन देश के इस सबसे पिछड़े इलाके को विकास की मुख्यधारा में लाने और उसका हक दिलाने के लिए किया गया था, वह राज्य भ्रष्टाचार के मामले में कीर्तिमान बना रहा है. उससे कम बड़ी त्रासदी यह नहीं है कि जिस राज्य के गठन की लडाई का सबसे अहम मुद्दा यह था कि इस आदिवासी बहुल राज्य का शासन यहीं के लोगों के हाथ में होना चाहिए क्योंकि इस जमीन से पैदा लोग बाहरी लोगों की तरह लूटने-खसोटने के बजाय यहां का दर्द समझेंगे और राज्य के विकास के लिए काम करेंगे, वो लूटने-खसोटने में बाहरी लोगों से भी आगे निकलते हुए दिखाई दे रहे हैं. इस मायने में, कोड़ा और उनके मंत्रिमंडल के कई आदिवासी साथियों ने सबसे अधिक धोखा अपने राज्य और उसके गठन के लिए कुर्बानी देनेवाले लाखों नागरिकों के साथ किया है.

निश्चय ही, कोड़ा और उनके साथियों को इसके लिए माफ़ नहीं किया जा सकता है। वे माफ़ी के काबिल इसलिए भी नहीं हैं कि उन्होंने एक अत्यंत निर्धन राज्य के संसाधनों की न सिर्फ बेशर्मी खुली लूट की है बल्कि उस राज्य के गरीबों के साथ छल किया है जो इस तरह की लूट को बर्दाश्त करने की स्थिति में नहीं हैं. लेकिन कोड़ा कोई अपवाद नहीं हैं. यहाँ तो पूरे कुएं में ही भंग पड़ी है. क्या कोड़ा के भ्रष्टाचार में खुले-छिपे शामिल उन महान 'राजनीतिक दलों' और उनके 'पवित्र नेताओं' की कोई भूमिका नहीं है जो कल तक साथ-साथ सत्ता की मलाई चाट रहे थे लेकिन अब पाकसाफ होने का दावा कर रहे हैं ? क्या यह सच नहीं है कि कोड़ा और उनके निर्दलीय साथियों को सत्ता और सम्मान देने के मामले में कांग्रेस या भाजपा में कोई पीछे नहीं था? याद रहे कि कोड़ा संघ परिवार की ट्रेनिंग और भाजपा की छत्रछाया में राजनीति में आये. तथ्य यह भी है कि कोड़ा का खनन मंत्रालय से रिश्ता भाजपा की मरांडी और मुंडा सरकारों के दौरान बना और कांग्रेस और राजद के सहयोग से वे निर्दलीय होते हुए भी मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुँच गए. आखिर इससे बड़ा राजनीतिक मजाक और क्या हो सकता है कि यू पी ए खासकर कांग्रेस ने झारखण्ड जैसे राज्य का मुख्यमंत्री एक निर्दलीय को बनवा दिया.

असल में, जब से झारखण्ड बना है, कांग्रेस और भाजपा जैसी दोनों राष्ट्रीय पार्टियों ने न सिर्फ उसके साथ राजनीतिक खिलवाड़ किया है बल्कि वहां के स्थानीय आदिवासी नेतृत्व और राजनीतिक दलों को भ्रष्ट बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है. यह कहने का अर्थ यह नहीं है कि कोड़ा या सोरेन जैसे आदिवासी नेताओं की कोई गलती नहीं है और उन्हें कांग्रेस या भाजपा के नेताओं ने बहला-फुसलाकर भ्रष्ट बना दिया लेकिन इस सच्चाई को अनदेखा कैसे किया जा सकता है कि झारखंड की पिछले तीन दशकों की राजनीति में सोरेन जैसे लड़ाकू नेताओं और झारखंड मुक्ति मोर्चा जैसे दलों को कांग्रेस ने कैसे भ्रष्ट बनाया? क्या नरसिम्हा राव की सरकार को बचाने में झामुमो के सांसदों को दी गई रिश्वत के लिए केवल रिश्वत लेनेवाले ही जिम्मेदार हैं या देनेवालों की भी कोई जिम्मेदारी बनती है? यहीं नहीं, यह कहना भी गलत नहीं होगा कि बहुत योजनाबद्ध तरीके से यहां के स्थानीय आदिवासी नेतृत्व को भ्रष्ट बनाया गया है ताकि झारखंड जैसे संसाधन संपन्न राज्य के साधनों की लूट में कोई अड़चन नहीं आये.

इसका नतीजा कोड़ा और सोरेन जैसे नेताओं के रूप में हमारे सामने है। लेकिन आश्चर्य नहीं कि झारखण्ड जैसे निर्धन राज्य में भ्रष्टाचार कोई मुद्दा नहीं नहीं बन पा रहा है. वजह साफ है. असल में, लोगों को पता है कि कोड़ा किसकी शह और आर्शीवाद से लूट का साम्राज्य खडा करने में जुटे हुए थे. यही नहीं, लोगों को यह भी पता है कि कोड़ा अब एक सिर्फ नाम भर नहीं हैं बल्कि एक प्रवृत्ति के उदाहरण बन चुके हैं. न जाने कितने कोड़ा इस या उस पार्टी में अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं या बिना किसी रोक-टोक या भय के लूट-खसोट का कारोबार जारी रखे हुए हैं. आप माने या न मानें, लेकिन इस तथ्य को अनदेखा करना मुश्किल है कि स्थानीय आदिवासी नेतृत्व के भ्रष्ट होने के कारण ही माओवाद को वह राजनीतिक जमीन मिली है जिसपर कल तक सोरेन और कोड़ा जैसे नेता खड़े थे.

साफ है कि झारखण्ड में कितना खतरनाक खेल खेला जा रहा है. यह सिर्फ एक और भ्रष्टाचार का मामला भर नहीं है बल्कि इसमें पूरी जनतांत्रिक प्रक्रिया दांव पर लगी हुई है. यहां यह भी कहना जरुरी है कि एक कोड़ा या सुखराम को पकड़ने से कुछ नहीं बदलनेवाला क्योंकि वह भ्रष्ट व्यवस्था ज्यों-की-त्यों बनी हुई है. आश्चर्य नहीं कि इस देश में भ्रष्टाचार खासकर उच्च पदों का भ्रष्टाचार अब कोई बड़ा राजनीतिक मुद्दा नहीं रह गया है, कम से कम राजनीतिक दलों के लिए तो यह कोई मुद्दा नहीं रह गया है. जब भ्रष्टाचार शासन व्यवस्था का इस तरह से हिस्सा बन जाए कि प्रशासन का कोई पुर्जा और पूरी मशीन बिना रिश्वत के 'ग्रीज' के चलने में अक्षम हो गई हो तो वह कोड़ा जैसों को ही पैदा कर सकती है. आखिर इसकी जिम्मेदारी किसकी है? क्या किसी के पास कोई जवाब है कि पिछले तीन दशकों से अधिक समय से वायदे के बावजूद आजतक लोकपाल कानून क्यों नहीं बना? क्या कारण है कि अभी चार साल भी नहीं हुए और नौकरशाही-नेताशाही आर टी आइ कानून को बदलने पर तुल गई है? कोड़ा पर कोड़ा चलानेवाले क्या अपने दामन में झांकेंगे?

Tuesday, November 3, 2009

हम भट्ठी, तुम आग

नवनीत गुर्जर

पांच दिन में जयपुर ने अच्छी तरह जान लिया है कि आईओसी टर्मिनल में लगी आग के दो ही पक्ष हैं। एक भट्ठी। दूसरा आग। भट्ठी जयपुर शहर है। ..और आग तो समर्थ है ही। जिसके सामने किसी का वश नहीं चला। न राज्य सरकार का। न आईओसी का। न केंद्र सरकार का। सबने हाथ खड़े कर दिए। कह दिया-हम कुछ नहीं कर सकते। आग तो खुद ही बुझेगी।

जिन उद्योगपतियों की फैक्ट्रियां तबाह हो गईं, वे आत्मदाह को उतारू हैं। इनमें काम करने वाले लोग, यहां रहने वाले नागरिक और आस-पास के ग्रामीणों की जिंदगी दूभर हो गई है। उनके सूरज की किरणों धुआं फांक रही हैं। साये पिंड छुड़ाकर भाग रहे हैं। उनके घर जैसे अपना ही पता पूछ रहे हों, बिस्तरों पर सन्नाटा पड़ा सो रहा है। उनका चांद पीपल का सूखा पत्ता, उनकी रातें सांय-सांय, जैसे अपने ही पहलू में बैठकर रो रही हों। ..और चेहरा जैसे चेहरा नहीं, उसका एहसास भर रह गया है।

मजाल है कोई सरकार, कोई विपक्ष या कोई अन्य जिम्मेदार जाकर अपने ही शहर में परदेशी हुए इन लोगों से बात भर कर ले, कि उनका दुख हल्का हो जाए! हां, बयानबाजी पूरी है-इतने दिन में सर्वे, इतने दिन में मुआवजा, इतने दिन की वसूली स्थगित। इतनी बड़ी तबाही, इतना बड़ा अपराध! फिर भी वसूली स्थगित। रद्द क्यों नहीं? बल्कि रद्द करने पर भी भरपाई तो नहीं ही होगी। जिंदा कौम के जिंदा रहनुमाओ, जरा पथराए गालों से आंसू तो पोंछो! भटकते लोगों को कोई जगह तो दो। सौ इस फैक्ट्री में पड़े आंसू बहा रहे हैं। दो सौ उस फुटपाथ पर सूनी आंखों से ऊपर देख रहे हैं। हालात यह हैं कि भूख चांद को चांद भी नहीं कहने देती। उसमें भी रोटी नजर आती है।

हैरत इस बात की है कि अकेले जयपुर ही नहीं, प्रदेश के सभी प्रमुख शहरों में ये तेल डिपो आबादी के बीच शान से खड़े हैं। कोई यह तक कहने को तैयार नहीं कि कितने समय में ये सभी डिपो शहर से दूर भेज दिए जाएंगे। हो सकता है पांच दिन की लाचारगी पर एक आंसू तक न बहाने वाली केंद्र और राज्य सरकार को जिस्मों की बजाय रूहों तक के जलने का इंतजार हो। गुलजार ने इन हालात पर लिखा है-

जिस्म सौ बार जले, तब भी वही मिट्टी का ढेला।
रूह इक बार जलेगी, तो वो कुंदन होगी।।

लेखक दैनिक भास्कर राजस्थान के स्टेट हेड हैं।

Sunday, November 1, 2009

8 से 20 होने के अर्थ

सुभाष धूलिया

दुनिया का आर्थिक मानचित्र बदल रहा है. विश्व अर्थव्यवस्था पर लम्बे समय तक के उन्नत आद्योगिक देशों के प्रभुत्व का लगभग अंत आ गया है और एक नए प्रभुत्वकारी गुट का उदय हुआ है जिनमें भारत, चीन, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका जैसी उभरती आर्थिक ताकतें शामिल हैं. एशिया के 1999 के वित्तीय भूचाल ने मलेशिया जैसे एशियायी टाइगर्स को हिला कर रख दिया था और अगर और गहरा होता तो पूरे विश्व को ही संकट के दलदल में फँस सकता था. इस संकट के उपरांत सात औदौगिक देशों का गुट बना था जिसमें अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस , जर्मनी, इटली, कनाडा और जापान शामिल थे और बाद मैं इसमें रूस को भी शामिल कर इसे आठ का गुट बना दिया गया था. इस बार जब 2008 में और भी बड़ा वित्तीय संकट आया तो आठ के गुट को लगा की दुनिया की अर्थव्यस्था को संभाले रखना इस गुट के बस में नहीं रह गया है इसलिए भारत और चीन जैसी उभरती आर्थिक ताकतों को भी शामिल कर अब बीस देशों का गुट बना दिया गया है और इस गुट के देशों मैं दुनिया के दो तिहाई लोग बसतें हैं, 80 प्रतिशित विश्व व्यापर पर इनका नियंत्रण है और लगभग 85 प्रतशित सकल घरलू उत्पादन इन्ही देशों का है - इसका मतलब ये भी है की नयी व्यवस्था मैं भले ही उभरती ताकतों को शामिल कर दिया गया है पर मानव सभ्यता के एक बड़े हिस्से को बहार भी रख दिया गया है.

जाहिर है की इस मंदी के महामंदी में बदलने से रोकने के लिए ही इन उभरती आर्थिक ताकतों को साथ लिया गया है. बूढे शेर ने जवान चीत्ते को साथ लेकर आर्थिक जंगल मैं अपना राज कायम रखने का रास्ता अपनाया है. पर इस रूप में यह एक बड़ा परिवर्तन है की अब दुनिया का आर्थिक शक्ति संतुलन बदल गया है और विश्व आर्थिक व्यवस्था के प्रबंध और संचालन का जिम्मा बीस के गुट के हाथ मैं आ गया है और आठ का गुट अब गैर-आर्थिक मुद्दों तक ही सिमित रहेगा यानि गपशप का काफीहाउस बन कर रह जायेगा . इसी के अनुरूप अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष मैं भी अब नयी आर्थिक ताकतों को अधिक हिस्सा दे दिया गया है जो एक नहीं विश्व आर्थिक व्यवस्था के उदय को प्रतिबिंबित करता है.

लेकिन बुनियादी सवाल यह उठता है की क्या आठ को बीस कर देने से बार बार आने वाले वित्तीय संकटों पर काबू पाया जा सकता है. दुनिया के अनेक प्रमुख अर्थशास्त्रियों ने कहा है की मंदी पर अभी एक नियंत्रण भर किया गया है और अभी वे कारण ज्यों के त्यों बने हुए हैं जिनसे मंदी आई थी. यहं तक कहा गया है की आज भी हालत वैसे ही हैं जैसे मंदी से पहले 2007 में थे . बार बार यह सवाल उठ रहा ही की मौजदा आर्थिक व्यवस्था मैं मौलिक परिवर्तन किये बिना किसी तरह का स्थायित्व हासिल नहीं किया जा सकता है. दरअसल मुक्त अर्थ व्यवस्था की पूरी तरह बाज़ार की शक्तिओं के हवाले के देने से वित्तीय अर्थव्यवस्था का उदय हुआ है और ये एक एस व्यवस्था है कोई उत्पादन नहीं करती बस यहाँ का पैसा वहां डालकर अरबों-खरबों का मुनाफा बटोरती है. यह पूँजी एक तूफ़ान की तरह दुनिए मैं दौड़ पड़ती है औए अपने पीछे आर्थिक विनाश के अवशेष छोड़ती चली जाती है. एशियायी टाइगर्स के आर्थिक संकट के बाद मलेशिया के तत्कालिन प्रधानमंत्री महातिर ने कहा था की जिस अर्थ व्यवस्था की बनाने मैं हमें 40 वर्ष लगे , एक सट्टेबाज आया और 40 घंटों मैं इसे तबाह कर चला गया. उनका एब कथन वित्तीय अर्थ व्यवस्था में निहित कमजोरिओं का साफ तौर से व्यक्त करता है . 2008 के संकट पर काबू पाने के लिए खुद मुक्त व्यवस्था के सबमे बड़े झंडाबरदार अमेरिका में सरकार को हस्तक्षेप करना पड़ा था और अरबों डॉलर का पैकेज देकर संकट को काबू मैं किया था. ये एक ऐसी स्थति थी की वित्तीय संस्थाओं ने सट्टेबाजी की और तुरत मुनाफा कामने के लिए खुल कर कर्जे दिया और जब संकट आया तो जनता के पैसे से इन्हें संकट से उभरा गया. अमेरिका की एक बड़ी और पुरानी विनिवेश कंपनी लहमान्न ब्रदर्स के दिवालिया होने पर नोबल पुरस्कार से समान्नित अर्थिशास्त्री जोसेफ स्तिग्लित्ज़ ने कहा था की यह उसी तरह पूंजीवाद का अंत है जिस तरह 1989 में बर्लिन की दीवार के ढहने से सोवियत समाजवाद का अंत हुआ था. इस संदर्भ में सवाल पैदा होता है की कहीं ऐसा तो नहीं की बीस का गुट बनाकर इस बात की अनदेखी की जा रही है की मौजूदा विश्व आर्थिक वस्थ्वा में कहीं कोई बुनियादी खोट है और इसे सम्बोधित किये बिना बार बार आने वाले आर्थिक संकटों से मुक्ति पाने का कोई वास्तविक प्रयास से बचा जा रहा है . ये भी सच है की हल की मंदी का जितना असर विकसित मुक्त अर्थव्यवस्था वाले देशों पर पड़ा था उसकी तुलना मैं भारत और चीन जैसे मिश्रित अर्थव्यवस्था वाले देश इस पर जल्द काबू पाने में सफल रहे और अगर ये मंदी एक महामंदी मैं तब्दील होती तो भी ये कहा जा सकता है की ये देश उस तरह के आर्थिक विनाश के शिकार नहीं होते जिस तरह इसका असर पशिमी देशों पर होता.

8 के 20 होने से निश्चय ही दुनिया मैं एक नयी आर्थिक व्यवस्था कायम हो गयी है और एक नया आर्थिक संतुलन पैदा हो गया है और विश्व अर्थतंत्र पर पश्चिमी देशों का एकाधिकार खत्म हो गया है लेकिन अभी यह देखा जाना बाकि है की 20 का गुट कैसे 8 के गुट से अलग विश्व की आर्थिक व्यवस्था का प्रबंध और संचालन करता है और आने वाले समय किस तरह के परिवर्तनों का रास्ता तैयार करता है . एक नए रास्ते के निर्माण के अभी कोई संकेत नहीं हैं और अभी तो एक नयी साझदारी भर पैदा हुयी है. 8 के गुट ने 12 के साथ हाथ तो मिला लिया है लेकिन अभी यह देखा जाना बाकि है की इन्हें आर्थिक मंदी के नकारात्मक परिणामों को झेलने के लिए साथ लिया गया है या फिर ऐसा कुछ होने जा रहा ही की विश्व अर्थव्यवस्था में निर्णय लेने में भी इन्हें प्राप्त रूप से साझीदार बनाया जाता है ताकि ये बीस का गुट कुछ बुनियादी परिवर्तनों का मार्ग प्रसस्थ कर सके.

अघोषित आपातकाल की आहट

आनंद प्रधान

यू पी ए सरकार विधानसभा चुनावों के बाद माओवादियों के खिलाफ अब तक का सबसे बड़ा सैन्य अभियान- ग्रीन हंट/ आपरेशन आल आउट - शुरू करने जा रही है. इस सैन्य अभियान से पहले केंद्र सरकार ने नक्सलवादियों / माओवादियों के खिलाफ एक मनोवैज्ञानिक युद्घ छेड़ दिया है. इस अभियान का निशाना बुद्धिजीवियों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के साथ-साथ वे पत्रकार भी हैं जिनके बारे में सत्ता प्रतिष्ठान का आरोप है कि वे नक्सलियों के प्रति सहानुभूति या उनके साथ सम्बन्ध रखते हैं. केंद्रीय गृह मंत्री पी चिदंबरम ने बिलकुल पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बुश की तर्ज़ पर चेतावनी देते हुए कहा है कि या तो आप हमारे साथ हैं या फिर माओवादियों के साथ. केंद्रीय गृह मंत्री से इशारा मिलते ही कई राज्य सरकारों ने बुद्धिजीवियों और पत्रकारों को धमकाना, गिरफ्तार करना और नोटिस देना शुरू कर दिया है.

कहने की जरुरत नहीं है कि इस अभियान के जरिये केंद्र सरकार न सिर्फ माओवादियों के खिलाफ शुरू होने जा रहे सैन्य अभियान के पक्ष में जनमत तैयार करने की कोशिश कर रही है बल्कि उन बुद्धिजीवियों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और पत्रकारों का मुंह भी बंद करना चाहती है जो सरकार के इरादों पर सवाल उठाने से लेकर से लेकर सैन्य अभियान में होने वाली ज्यादतियों की पोल खोल सकते हैं. असल में, सरकार को भी ये अच्छी तरह से पता है कि माओवादियों के खिलाफ प्रस्तावित सैन्य अभियान में सबसे ज्यादा निर्दोष लोग खासकर गरीब आदिवासी मारे जायेंगे और वो कतई नहीं चाहती है कि ये सच्चाई बाहर आये. वो ये भी नहीं चाहती है कि माओवादियों से निपटने में उसकी वैचारिक, राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक विफलताओं पर कोई उंगली उठाये और ऐसे सैन्य अभियानो की निरर्थकता को मुद्दा बनाये.

साफ है कि सरकार नहीं चाहती है कि बुद्धिजीवी, पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता अपना काम भयमुक्त होकर करें. कहने की जरुरत नहीं है कि एक जीवंत लोकतंत्र में मीडिया, बुद्धिजीवियों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की भूमिका सरकार का गुणगान करना नहीं बल्कि उसकी कमियों-गलतियों पर उंगली उठाना है. लेकिन यू पी ए सरकार एक चापलूस और सरकारी भोंपू की तरह व्यव्हार करनेवाला मीडिया और बुद्धिजीवी समुदाय चाहती है. इसीलिए वो भय और चुप्पी का एक ऐसा वातावरण बनाने की कोशिश कर रही है जिसमें कोई बोलने की हिम्मत न कर सके. इस कारण, एक अघोषित आपातकाल का माहौल बनता जा रहा है. अभिव्यक्ति की आज़ादी दांव पर लगती हुई दिख रही है.

हो सकता है कि कुछ लोगों को ये बढा-चढाकर दिखाया जा रहा खतरा लगे लेकिन सच ये है कि ये एक वास्तविक खतरा है. सरकार आज माओवादियों से सहानुभूति रखनेवाले बुद्धिजीवियों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को निशाना बना रही है और उन्हें चुप करने में सफल रहने के बाद कल वो विकास में रोड़ा अटकाने या राष्ट्रीय एकता और अखंडता को चोट पहुंचाने या फिर ऐसे ही किसी और बहाने पत्रकारों और बुद्धिजीवियों का मुंह बंद करने की कोशिश करने से नहीं चूकेगी. याद रखिये हिटलर और नाजियों ने भी पहले यहूदियों, फिर कम्युनिस्टों , उसके बाद ट्रेड यूनियन कार्यकर्ताओं, फिर मानवाधिकारवादी कार्यकर्ताओं को निशाना बनाया और बाकी उनसे मुंह मोडे रहे क्योंकि वो इनमें से कोई नहीं थे लेकिन जब वो आम लोगों को मारने लगे तो उनके लिए बोलने वाला कोई नहीं बचा था.

हालांकि ये कोई नई बात नहीं है. देश कांग्रेस के नेतृत्व में पहले भी आपातकाल भुगत चुका है. लेकिन अब से पहले समाज के तमाम वर्गों की ओर से ऐसे प्रयासों का कड़ा विरोध हुआ. इस बार सबसे अधिक चिंता और अफसोस की बात ये है कि कारपोरेट मीडिया भी सरकार के भोंपू की तरह न सिर्फ माओवादियों बल्कि उन बुद्धिजीवियों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के खिलाफ भी आग उगल रहा है जो इस मुद्दे पर सरकार की हां में हां मिलाने के लिए तैयार नहीं हैं और अपना धर्म निभा रहे हैं. ऐसा करते हुए अभिव्यक्ति की आज़ादी की कसमें खानेवाला कारपोरेट मीडिया अपनी आज़ादी खुद ही गिरवी रखने पर तुल गया है. खतरे की घंटी बज चुकी है.