संदीप कुमार
झारखंड के एक निपट देहात (गिरिडीह ज़िले के बगोदर से) से दिल्ली पहुंचा था आईआईएमसी में पत्रकारिता की पढ़ाई करने। ये अगस्त 2005 था। हमारे टीचर हेमंत जोशी ने शायद अपनी पहली ही क्लास में हमें एक गज़ब का एसाइनमेंट दे डाला। प्रभाष जी के लेखन पर एक पन्ने में टिप्पणी करके लाने को कहा गया। मैं हैरान… परेशान। आखिर प्रभाष जी को कभी पढ़ा नहीं, तो फिर उन पर लिखूंगा क्या और कैसे? मेरे कस्बे में रांची के अखबार समय पर पहुंच जाएं, यही गनीमत थी, तो ऐसे में जनसत्ता दिल्ली या कोलकाता से चल कर कैसे पहुंचता! खैर, दिल्ली में आकर जनसत्ता से मुलाकात तो हुई लेकिन सच कहूं तो रंग-बिरंगे अखबारों के बीच जनसत्ता पर पूरी ईमानदारी से नज़र नहीं मार पाता था और अभी दिल्ली आये ज़्यादा दिन हुए भी नहीं थे, सो प्रभाष जी का कुछ लिखा पढ़ भी नहीं पाया था। धर्मसंकट की ऐसी स्थिति से खुद उबारा हेमंत जोशी जी ने और उन्होंने कहा कि बीते रविवार को छपे प्रभाष जी के ‘कागद-कारे’ पर ही टिप्पणी करके लाएं।
क्लास के ही एक इंदौरी मित्र पुनीत के सौजन्य से रविवार का जनसत्ता मिला और फिर ‘कागद-कारे’ की फोटोकॉपी करवायी। पहले तो इतना बड़ा आलेख देखकर ही पसीना छूट गया। पढ़ा और कई बार पढ़ा। सच कहूं तो ठीक से पल्ले कुछ भी नहीं पड़ रहा था लेकिन पढ़ने में मज़ा खूब आ रहा था। आखिरकार एसाइनमेंट मैंने पूरा किया और जमा भी कर दिया। हर एसाइनमेंट जमा करने से पहले उसकी एक फोटोकॉपी मैं अपने पास रख लेता था। और उस एसाइनमेंट की एक कॉपी आज भी मेरे पास मौजूद है। शुक्रवार को मेरा हैप्पी वीकली ऑफ हुआ करता है इसलिए देर सुबह तक बिस्तर पर अलसाया पड़ा था। तभी मेरे एक साथी सत्यकाम ने प्रभाष जी के गुज़र जाने की खबर दी। नींद काफूर हो गयी और तुरंत ही मैं अपनी पुरानी फाइलों को उलटने-पलटने लगा। वो फाइल, जिसमें मैंने आईआईएमसी की अपनी पुरानी यादों को सहेज रखा है। आखिरकार एसाइनमेंट की वो कॉपी मिल गयी। कई बार उसे निहारा-निरखा। प्रभाष जी के साथ ‘वर्चुअल मुलाकात’ का वो साथ आज भी मेरे पास ज़िंदा है। दिल्ली में तीन बरस गुज़ार लेने के बाद भी मैं प्रभाष जी से आमने-सामने कभी मिल नहीं पाया था। हां, टीवी पर उन्हें खूब देख-सुन लेता था और जनसत्ता-तहलका के मार्फत पढ़ भी लिया करता था। खैर, बात मैं उस एसाइनमेंट की कर रहा था, जो कुछ यूं है -(इसे इस रूप में पढ़ा जाए, मानो आपने पहली बार प्रभाष जोशी को पढ़ कर खुद ही लिखा हो… मेरी तब की स्थिति को समझिएगा… एक निपट देहाती का प्रभाष जोशी जी के लेख के साथ ये पहला एनकाउंटर जो था…)
प्रभाष जोशी का लेखन
28 अगस्त 2005 के अपने ‘कागद कारे’ स्तंभ में वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी ने इतिहास, धर्म, दर्शन, राजनीति, राष्ट्रवाद, संप्रदायवाद और समकालीन स्थितियों का बेहतरीन संयोजन पेश किया है। कराची में आडवाणी की जिन्ना-स्तुति के बाद वाजपेयी द्वारा भी जिन्ना-गान गाये जाने को प्रभाष जोशी ने अपने स्तंभ का विषयवस्तु बनाया है। दो हज़ार से ज़्यादा शब्दों की अपनी प्रस्तुति में ‘उनने’ (‘उनने’ शब्द से सामना पहली बार मुझे प्रभाष जी के आलेख से ही हुआ है इसलिए इस शब्द का इस्तेमाल करने का मैंने दुस्साहस भी किया है) अंतर्वस्तु को काफी विस्तार दिया है।
प्रभाष जी के आलेख से स्पष्ट होता है कि वे एकबारगी कोई राय थोपना नहीं चाहते बल्कि इसके लिए वे बहुत पीछे जाते हुए पूरे संदर्भ की पड़ताल करते हैं। जैसे कि जिन्ना प्रसंग के लिए वे सिर्फ भारत-विभाजन और 1947 की ही चर्चा नहीं करते बल्कि और भी पीछे जाकर 1920 के असहयोग आंदोलन और खिलाफत आंदोलन में भी झांकते हैं।
कह सकते हैं कि प्रभाष जी का यह ‘मील भरा लंबा’ आलेख ‘मील का पत्थर’ साबित होगा, यदि धैर्य से इसे पढ़ा जाए। पर एक आम पाठक के नज़रिये से कहें तो प्रभाष जी कुछ ज़्यादती कर देते हैं। हालांकि शब्द बोझिल नहीं पर बेहिसाब ज़रूर हैं। अंतर्वस्तु कई विषयों/संदर्भों से परिमार्जित होने के कारण कुछ मौकों पर यह सर से ऊपर ‘बाउंस’ भी कर जाता है।
हम प्रभाष जी से शब्दों की ऐसी ‘गोलंदाजी’ रोकने की अपील तो नहीं कर सकते पर अपना स्तर ऊपर उठाने की खुद से अपेक्षा ज़रूर कर सकते हैं।
गुस्ताखी माफ़ हो!
(लेखक आईआईएमसी के 2005-06 बैच के पासआउट हैं और इन दिनों टीवी पत्रकारिता में हैं।)
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