आनंद प्रधान
हाल में संपन्न हुए उपचुनावों के नतीजों से एक बार फिर यह साफ हो गया है कि माकपा के नेतृत्व वाले सरकारी वामपंथ की राजनीतिक ढलान न सिर्फ जारी है बल्कि उसकी रफ्तार और तेज होती जा रही है। इस कारण अधिकांश राजनीतिक विश्लेषकों ने यह भविष्यवाणी करनी शुरू कर दी है कि जिस तरह से केरल और खासकर पश्चिम बंगाल में वामपंथी पार्टियों विशेषकर माकपा के जनाधार में छीजन और बिखराव की प्रक्रिया तेज होती जा रही है, उसे देखते हुए माकपा के लिए अपने इन राजनीतिक किलों को बचा पाना मुश्किल होगा. हालांकि केरल और पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव 2011 में होने हैं और राजनीति में डेढ़ साल का वक्त काफी लम्बा होता है लेकिन केरल और पश्चिम बंगाल में एक के बाद दूसरी चुनावी हारों और गंभीर राजनीतिक, सांगठनिक और वैचारिक समस्याओं और विचलनों के कारण वाम मोर्चा और खासकर उसकी नेता माकपा एक ऐसी वैचारिक और राजनीतिक लकवे की स्थिति में पहुँच गई है कि वह मुकाबले से बाहर होती दिख रही है.
माकपा की मौजूदा लकवाग्रस्त स्थिति का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि वह जो कुछ भी कर रही है, उसका दांव उल्टा पड़ रहा है. उदाहरण के लिए माकपा ने इन उपचुनावों के दौरान बाजी हाथ से निकलते देख अपने रिटायर और वयोवृद्ध नेता ज्योति बसु को को आगे करके कांग्रेसी वोटरों के नाम एक अपील जारी करवाई कि राज्य में शांति, विकास और सुरक्षा के लिए वे वाम मोर्चे को वोट करें. लेकिन माकपा का यह 'ट्रंप कार्ड' भी नहीं चला, ज्योति बसु की फजीहत हुई सो अलग. कहने की जरुरत नहीं है कि यह अपील माकपा के बढ़ते राजनीतिक दिवालियेपन का ही एक और नमूना थी. साथ ही, इससे यह भी पता चलता है कि राज्य में वाम मोर्चा खासकर माकपा सत्ता हाथ से निकालता देख किस हद तक बदहवास हो गई है कि ज्योति बसु को भी कांग्रेसी वोटरों से वोट की भीख मांगने के लिए मैदान में उतार दिया।
दरअसल, माकपा की राजनीति की सबसे बड़ी समस्या भी यही है। केरल, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल की सत्ता ही उसके गले का फांस बन गई है. ऐसा लगता है कि वह इन तीनो राज्यों की सत्ता खासकर पश्चिम बंगाल की सरकार के बिना नहीं रह सकती है. इसकी वजह यह है कि केरल में हर पांच साल में सरकार बदलती रहती है और त्रिपुरा राजनीतिक रूप से महत्वहीन है लेकिन पश्चिम बंगाल की बात ही अलग है जहाँ पिछले 32 वर्षों से वाम मोर्चा सत्ता में बना हुआ है. माकपा में पश्चिम बंगाल की सत्ता को लेकर इस कदर मोह है कि उसकी पूरी राजनीति इस बात से तय होती रही है कि राज्य में इस सत्ता को किस तरह से सुरक्षित रखा जाए. इसके लिए वह हर तरह के समझौते के लिए यहां तक कि अपने राजनीतिक-वैचारिक मुद्दों को भी कुर्बान करती रही है.
सत्ता के प्रति इस व्यामोह और समझौते की राजनीति का ही नतीजा है कि माकपा जिन आर्थिक नीतियों खासकर उदारीकरण-भूमंडलीकरण-निजीकरण का राष्ट्रीय स्तर पर विरोध करती रही है, उन्हीं नीतियों को पश्चिम बंगाल समेत अन्य वाम मोर्चा शासित राज्यों में जोरशोर से लागू करने में उसे कोई शर्म नहीं महसूस होती है। इसका परिणाम सबके सामने है. सिंगुर से लेकर नंदीग्राम तक और अब लालगढ़ में माकपा की राजनीति का यही दोहरापन खुलकर सामने आया है. माकपा का यह वैचारिक-राजनीतिक स्खलन बढ़ते-बढ़ते यहां तक पहुँच गया कि पार्टी कांग्रेस को बुर्जुआ-सामंती पार्टी मानते हुए भी केंद्र में भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के नाम पर कांग्रेस को यू पी ए गठबंधन की सरकार साढ़े चार साल तक चलाने में न सिर्फ मदद करती रही बल्कि गठबंधन सरकार की संकटमोचक की भूमिका निभाती रही.
असल में, माकपा की राजनीति की सबसे बड़ी सीमा यही सत्ता की राजनीति बन गई है। सत्ता के साथ अनिवार्य रूप से जो बुराइयां आती हैं, वह माकपा में भी सहज ही देखी जा सकती हैं. यही कारण है कि पश्चिम बंगाल में 32 सालों तक सत्ता में रहने के बाद माकपा का जो राजनीतिक-वैचारिक रूपांतरण हुआ है, उसमे वह वास्तव में एक कम्युनिस्ट पार्टी तो दूर, एक सच्ची वामपंथी पार्टी भी नहीं रह गई है. आश्चर्य नहीं कि माकपा चाहे पश्चिम बंगाल हो या केरल- हर जगह किसी भी बुर्जुआ पार्टी की तरह ही तमाम राजनीतिक स्खलनों जैसे भ्रष्टाचार, सार्वजनिक धन की लूट, भाई-भतीजावाद, गुंडागर्दी, ठेकेदारी आदि में आकंठ डूबी हुई दिखाई पड़ती है. इससे बचने का एक ही तरीका हो सकता था और वह यह कि पार्टी अपनी राज्य सरकारों की परवाह किये बगैर जनता खासकर हाशिये पर पड़े गरीबों-मजदूरों-दलितों-आदिवासियों के हक-हुकूक की लडाई को आगे बढाती.
इससे माकपा और वाम मोर्चा खुद को संसदीय राजनीति की सीमाओं में बांधने और उसके स्खलनों में फिसलने से बचा सकते थे। जनांदोलनों से न सिर्फ राज्य सरकारों को पूरी तरह से नौकरशाही के हाथ में जाने से रोका जा सकता था बल्कि उसे वास्तव में जनता के प्रति जवाबदेह बनाया जा सकता था. यही नहीं, जनान्दोलनों के जरिये उन अवसरवादी-भ्रष्ट और ठेकेदार-गुंडा तत्वों को भी पार्टी से दूर रखा जा सकता था, जो आज पार्टी की पहचान बन गए हैं. माकपा इस सच्चाई से मुंह कैसे चुरा सकती है कि पार्टी आज पश्चिम बंगाल में सत्ता इसलिए गंवाने जा रही है कि क्योंकि उसका अपने मूल जनाधार ग्रामीण गरीबों-खेतिहर मजदूरों-आदिवासियों-अल्पसंख्यकों से सम्बन्ध टूट चुका है. क्योंकि राज्य में विकास के नाम पर कुछ नहीं हुआ है, यहां तक कि नरेगा जैसी योजनाओं को लागू करने के मामले में लापरवाही और सुस्ती दिखाई गई. पी डी एस राशन भी के लिए भी राज्य में दंगे हुए.
लेकिन माकपा पर सत्ता का मोह और उसका नशा इस कदर चढ़ा हुआ है कि वह लोकसभा चुनावों और उसके बाद अब नगरपालिकाओं और विधानसभा उपचुनावों की हार से कोई सबक सिखाने के लिए तैयार नहीं है. हालांकि वह पार्टी में "शुद्धिकरण अभियान" चलाने की बात कर रही है लेकिन मुश्किल यह है कि सत्ता से चिपके रहने की ऐसी लत लग गई है कि न सिर्फ इस अभियान की सफलता पर संदेह है बल्कि पार्टी जल्दबाजी में एक बार फिर उन्हीं बुर्जुआ पार्टियों के साथ जोड़तोड़ करके राजनीति में खड़े होने का ख्वाब देख रही है. यहां तक कि वह पश्चिम बंगाल में तृणमूल-कांग्रेस के गठबंधन में दरार डालने और कांग्रेस से गलबहियां करने की हास्यास्पद कोशिश कर रही है. दूसरी ओर, राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष के नाम पर एक बार फिर वह सपा,बसपा,टीडीपी और अन्ना द्रमुक के पीछे लटकने की तैयारी कर रही है. जाहिर है कि इन आजमाए हुए फ्लॉप टोटकों से माकपा की मुश्किलें खत्म होनेवाली नहीं हैं.
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