Saturday, May 30, 2009

एक संस्कृतिविहीन सरकार का सच

साहित्य संगीत कलाविहीन: साक्षात पशु पुच्छ विशाणहीन:

मंत्री पद के लिए घटक दलों की राजनीतिक खींचतान और कांग्रेस पार्टी के अंदर संतुलन बनाए रखने के प्रयास में मनमोहन सिंह सरकार ने पिछले दो दशक से काम कर रहे एक महत्वपूर्ण मंत्रालय की बलि दे दी, जिसकी वजह से अब देश में सरकारी स्तर पर संस्कृति और कला का कोई पुरसाहाल नहीं है।

राष्ट्रपति भवन से जारी मंत्रियों और उनके विभागों की आधिकारिक विस्तृत सूची में संस्कृति मंत्रालय का उल्लेख नहीं है, जबकि पिछली सरकार में इसे कैबिनेट स्तर का मंत्रालय माना गया था और अंबिका सोनी को इसकी जिम्मेदारी सौंपी गई थी। संस्कृति मंत्रालय के तहत पचास से अधिक संगठन काम करते हैं, जिनमें देश के सभी प्रमुख पुस्तकालय, गांधी स्मृति, नेहरू स्मारक, सालारजंग, रजा और खुदाबख्श लाइब्रेरी, राष्ट्रीय अभिलेखागार, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, राष्ट्रीय संग्रहालय और राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय शामिल हैं।

मनमोहन सिंह मंत्रिमंडल में कुल 79 सदस्य हैं, पर इस मंत्रालय का अतिरिक्त प्रभार भी किसी को नहीं सौंपा गया है। संस्कृति विभाग 1986 तक मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अंतर्गत था, पर तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने संस्कृति पर विशेष जोर देने के लिए इसे अलग मंत्रालय बनाया। उस समय पीवी नरसिंह राव मानव संसाधन विकास मंत्री थे और संस्कृति विभाग अलग होने के बाद भास्कर घोष पहले संस्कृति सचिव बने। इसी मंत्रालय ने दुनिया के कई देशों में भारत उत्सव का आयोजन किया। इसी के तहत सात क्षेत्रीय सांस्कृतिक कें्र बनाए गए ताकि देश में सांस्कृतिक एकता को बढ़ावा दिया जा सके।

कला और संस्कृति के हर स्वरूप और विधा प्रोत्साहित और प्रचारित करने की जिम्मेदारी संस्कृति मंत्रालय की है। इसके अंतर्गत एशियाटिक सोसायटी, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, ललित कला अकादमी और इंदिरा गांधी कला कें्र भी आते हैं, जो स्वायत्तशासी संगठन हैं। मंत्रालय से जुड़े एक अधिकारी ने कहा कि एक दिन पहले तक अंबिका सोनी उनकी मंत्री थीं, पर अब उन्हें इसकी कोई जानकारी नहीं है कि इसका काम कौन देखेगा।

यह पूछे जाने पर कि क्या यह राजनीतिक जोड़-तोड़ के बीच हुई चूक है, प्रधानमंत्री की सूचना सलाहकार दीपक संधू ने कहा कि मंत्रिपरिषद का गठन काफी सोच विचार के बाद किया जाता है, इसलिए ऐसी चूक नहीं हो सकती कि किसी मंत्रालय का नाम छूट जाए। उन्होंने कहा कि जो भी मंत्रालय या विभाग किसी को आवंटित नहीं है, उसे प्रधानमंत्री के अधीन माना जाता है।

आज समाज से सभार

वापस लौटे कांग्रेस के वोटर

दलितों के बसपा से और मुसलमानों के सपा से मोहभंग ने कांग्रेस की झोली भरी।
मृगेंद्र पांडेय

लोकसभा चुना परिणाम आने के बाद एक बात तो तय हो गई कि उत्तर प्रदेश के मतदाताओं ने इस चुना में जाति और धर्म के बंधनों से परे हटकर ोट डाले। कांग्रेस के पास उसके परंपरागत ोटर एक बार फिर लौट आए। क्षेत्रीय दलों के उभार के बाद दलित, मुस्लिम जो बड़ी संख्या में कांग्रेस का साथ छोड़कर चले गए थे, उन लोगों ने कांग्रेस के पक्ष में ोट दिया। दलित ोटर जो बसपा के साथ थे, उनके कांग्रेस में जाने का एक अहम कारण यह रहा कि मायाती ने बड़ी संख्या में सर्ण और दागी उम्मीदारों को मैदान में उतारा।

माया के इस कदम से दलित ोटरों को लगा कि उनके साथ मायाती भी अन्य राजनीतिक दलों की तरह ही बर्ता कर रहीं हैं। ोट तो उनके होंगे, लेकिन प्रतिनिधि सर्ण होगा, इसलिए बड़ी संख्या में दलित ोटर कांग्रेस के पाले में गए और माया का जादू महज 20 सीट पर ही चल पाया। बात अगर मुसलमानों की कि जाए तो बाबरी ध्िंस के बाद मुसलमानों की पहली पसंद समाजादी पार्टी हो गई थी। सपा की नीतियों में आए बदला और कल्याण सिंह को साथ लेने के बाद धीरे-धीरे मुसलमान भी नए समीकरण खोजने लगे। परूांचल में मुसलमानों ने कई पार्टियां बनाई और अपने उम्मीदार भी खड़े किए। भले ही इन्हें सफलता न मिली हो, लेकिन यह मुसलमान सपा से छिटक गए। यह कहना कि बड़ी संख्या में मुसलमान कांग्रेस के साथ गए, यह गलत होगा। क्योंकि मुस्लिम बहुल सीट पर कांग्रेस को जीत नसीब नहीं हो पाई है।

मुस्लिम ोटर कांग्रेस और बसपा दोनों मे गए, जिसके कारण कांग्रेस के तीन और बसपा के दो सांसद जीत दर्ज करने में सफल रहे। मुस्लिम बहुल मऊ, आजमगढ़ और घोसी में से किसी भी सीट पर कांग्रेस जीत दर्ज नहीं कर पाई। सर्ण मतदाता जो धिानसभा चुना में बसपा के साथ था, ह इस बार तीन भागों में बंट गया। बड़ी संख्या में ब्राह्मण ोट बसपा से छिटककर कांग्रेस और भाजपा के साथ गए। हालांकि भाजपा को इसका कोई खास फायदा नहीं हुआ, लेकिन कांग्रेस के लिए यह ोट संजीनी के रूप में काम कर गया। कल्याण सिंह के प्रभाोले इलाकों में लोध ोटर जो भाजपा के साथ थे, सपा के साथ हो लिए। अगर लोध ोटर सपा के साथ न आते और मुस्लिम ोटरों के छिटकने का असर यह होता कि समाजादी पार्टी 12 से 15 सीट पर सिमटकर रह जाती। शायद मुलायम सिंह को इस बात का अंदाजा था, इसलिए उन्होंने कल्याण को पहले ही अपने पाले में कर लिया और प्रदेश में हार की कड़ी घूंट पीने से बच गए।

संघ की गुलामी का भविष्य

भाजपा के पास भी एक गांधी है लेकिन उसने राजनीति की पारी जिस अंदाज से शुरू की है उससे उसकी उछाल सीमित हो गई है।


राजीव पांडे

भारतीय जनता पार्टी इन आम चुनावों में सबसे बड़े विपक्षी दल के रूप में उभरी है। हालांकि उसने सत्ता वापस पाने के लिए भरपूर प्रयास किए लेकिन वह इसमें कामयाब नहीं हो पाई। इसके कई कारण बताए जा रहे हैं लेकिन एक कारण जो सभी मान रहे हैं वह है कि जनता अब एक स्थिर और काम करने वाली सरकार चाहती थी। तो क्या यह समझा जाए कि मतदाता भाजपा को इस लायक नहीं समझते हैं कि वह देश को एक स्थिर सरकार दे सकती है)

भाजपा ने ही देश भर में कांग्रेस के प्रभुत्व को खत्म करने में सफलता पाई थी और आज भी वही एक दल है जो कांग्रेस के वर्चस्व को चुनौती देने में सक्षम है। लेकिन अब जब चुनावों की खुमारी उतरने लगी है तो इस बात पर संदेह होने लगा है कि क्या इस पार्टी का वही दमखम बना रहेगा। यह शक होने के कई कारण हैं। इस पार्टी के जो दो सबसे दिग्गज नेता थे- अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी-उनमें से वाजपेयी इस चुनाव से पहले ही सक्रिय राजनीति से अलग हो गए और अब आडवाणी भी सक्रिय राजनीति से अलग होना चाहते हैं। वैसे भी जब पांच साल बाद चुनाव होंगे तो आडवाणी की उम्र को देखते हुए उनसे इसी सक्रियता से काम करने की अपेक्षा करना सही नहीं होगा।

अभी तक आडवाणी ही थे जो पार्टी के आधार को व्यापक बनाने, संगठन को मजबूत करने और पार्टी में एकता बनाए रखने में मुख्य भूमिका निभाते रहे। अब पार्टी एक तरह से दोराहे पर खड़ी है। उसे अपना रास्ता एकबारगी तय करना है कि वह क्या चाहती है। क्या वह फिर से राम मंदिर जसे भावनात्मक मुद्दों को उठाने वाली पुरानी पार्टी बन जाए या फिर मुख्यधारा में शामिल हो विकास की बात करने वाली पार्टी बने। इस मामले में ध्यान देने वाली बात यह है कि अब वाजपेयी भारतीय जनता पार्टी के काम में कोई दिलचस्पी नहीं लेते। एक वही नेता थे जिन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी बात मनवाने के लिए बाध्य नहीं कर सकता था।

संघ ने जिन्ना के मुद्दे को लेकर किस तरह आडवाणी को पार्टी अध्यक्ष का पद छोड़ने के लिए बाध्य किया, वह किसी से छिपा नहीं है। इससे इन अंदेशों को बल मिलता है कि अब पार्टी के मामले में संघ का हस्तक्षेप बढ़ता ही जाएगा। संघ के साथ ही विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल जसे संगठन भी अब अपना खेल दूसरी तरह से खेलना शुरू करेंगे। अभी तक भाजपा उनकी हर बात का समर्थन नहीं करती थी जिससे परिषद और भाजपा के बीच कई बार तनातनी की स्थिति भी बन गई। आडवाणी की पार्टी मामलों में जब सक्रियता कम होने लगेगी तो क्या होगा, इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है।

अब कोई ऐसा नेता नजर नहीं आता जो संघ को अपनी जगह पर रखने के लिए उससे बात कर सके। इस परिदृश्य में मुरली मनोहर जोशी ही बचते हैं जो संघ से बात कर सकते हैं लेकिन उनकी स्वीकार्यता पार्टी में नजर नहीं आती। पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह, अरुण जेटली तथा सुषमा स्वराज सरीखे दूसरी पीढ़ी के नेताओं के पास संघ की बात सुनने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी प्रदेश में संघ से टकराव ले चुके हैं लेकिन अल्पसंख्यक विरोधी उनकी छवि राष्ट्रीय नेता बनने के उनके सपने में आड़े आएगी। दूसरी बात उनके राष्ट्रीय परिदृश्य में सक्रिय होने से राजग का बिखराव निश्चित हो जाएगा। जनता दल-यू ने तो मोदी को चुनावों में बिहार नहीं आने दिया और चुनाव परिणामों के बाद तो और तल्ख अंदाज में यह भी कहा कि मोदी और वरुण गांधी के कारण ही राजग को हार का सामना करना पड़ा।
यदि भाजपा ने विकास के रास्ते को नहीं चुना तो राजग को बांधे रहना मुश्किल हो जाएगा। उड़ीसा में बीजू जनता दल ने जिस तरह से भाजपा से संबंध तोड़ने के बाद उसका राज्य से सफाया कर दिया, वह बिहार में नीतीश कुमार भी कर सकते हैं। राजग का एक अन्य घटक अकाली दल भी साफ-साफ कह चुका है कि भाजपा सांप्रदायिक हो चुकी है इसलिए हमें हार का सामना करना पड़ा।

इसी राजग के दम पर भाजपा ने कांग्रेस को किनारे कर दिया था और अब यही राजग भाजपा को किनारे लगा सकता है। भाजपा को यह समझ लेना चाहिए कि अब घृणा की राजनीति के दिन लद गए हैं। किसी एक वर्ग, धर्म या जाति के लोगों को लेकर अब राजनीति नहीं की जा सकती। दूसरे उसे साफ छवि के युवा नेताओं को आगे कर पार्टी को एक नई छवि देनी चाहिए। उसके पास इस समय एक भी ऐसा नेता नहीं है जो कांग्रेस के राहुल गांधी की तोड़ रखता हो। हालांकि भाजपा के पास भी एक गांधी है लेकिन उसने राजनीति की पारी जिस अंदाज से शुरू की है उससे उसकी उछाल सीमित हो गई है।

Wednesday, May 27, 2009

‘एक आंधी आएगी, दीदी राइटर जाएगीज्

लोकसभा चुना की उपलब्धियों का जिक्र करें और ममता की बात न हो ऐसा नहीं हो सकता। मनमोहन सिंह की सरकार कैसे बनी और भाजपा कैसे हारी यह भले ही उन दोनों दलों के नेताओं और रणनीतिकारों की समझ में न आ रहा हो, लेकिन ममता से करिश्मे की उम्मीद सभी को थी। लोगों को या कहें कि पश्चिम बंगाल की जनता औरोम दलों को भी दीदी की आंधी का अंदाजा नहीं था।ोम दल लगातार कह रहे थे कि ह कें्र में गैर कांग्रेस गैर भाजपा सरकार बनाएंगे। इससे अलग दीदी ने बंगाल की फिजा में एक नया नारा दिया। ठीक उस तरह जसे आजादी के आंदोलन में क्रांतिकारियों और देशभक्तों ने दिया था।

ममता ने लोगों के सामनेोम दलों के 35 साल के शासन के सामने मां, माटी और मानुस का नारा दिया। इसका जनता में इतना असर हुआ कि ‘दो फूलज् एक से बढ़कर 19 सीट पर पहुंच गई। इसे ममता का ही करिश्मा कहेंगे, कि जब पूरे देश ने क्षेत्रीय दलों को जनता ने सिरे से नकाराना शुरू किया, उस समय तृणमूल कांग्रेस अपने शबाब पर है। उत्तर प्रदेश, पंजाब, महाराष्ट्र, केरल जसे प्रदेशों में जनता ने क्षेत्रीय दलों को सिरे से नकार दिया। बिहार के परिणाम तो अप्रत्याशित हैं। रामलिास और लालू के पैरों तले से जमीन ही खिसक गई। हालांकि नीतीश कुमार और नीन पटनायक की पार्टी ने जीत दर्ज की। बिहार में लंबे समय से व्याप्त अराजकता को कम करने और उड़ीसा की जनता में आत्मशिस पैदा करने के कारण जीत हुई।

ममता की जीत को इससे अलग करके नहीं देखा जा सकता। ममता ने लोगों में नई उम्मीद, नया जोश, नए जज्बात पैदा किया। उसने लोगों में आश जगाई किोम गढ़ में भी लाल झंडे को उखाड़ा जा सकता है। एक समय ऐसा था जबोम दलों के लिए झंडे बनानेोले लोग दूसरे दलों के झंडे तक नहीं बनाया करते थे।ोल पेंटिंग और पोस्टरों को लोग उखाड़ देते थे। दीदी ने उन लोगों में एक नया जोश भरा। उनको सपनों में लाल गढ़ से बाहर की दुनिया को दिखाई है। उम्मीद का दामन थामकर एक ऐसे आसमान में उड़ने के लिए प्रेरित किया जो पिछले 35 साल में कोई नहीं कर पाया था। यह काम केल ममता ही कर सकतीं थीं। क्योंकि ऐसा करने का माद्दा सिर्फ और सिर्फ उनमें ही है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि लोगों में उम्मीद और नए अरमान भरने के बाद दीदी की नजर राइटर बिल्डिंग पर टिक गई है। दीदी को उम्मीद है कि जनता अब प्रदेश के किास के लिए ‘लाल‘ नहीं ‘नीलेज् झंडे का साथ देगी।

ऐसा नहीं है कि राइटर बिल्डिंग पर नीला झंडा लगाना ममता के लिए काफी आसान होगा। पश्चिम बंगाल में धिानसभा चुना होने में अभी दो साल का समय है। हार के बादोम दलों में जिस प्रकार आत्ममंथन का दौर शुरू हुआ है, ैसा न तो भाजपा में देखने को मिला न ही किसी और दल में।ोम दलों ने स्ीकार किया कि उनके प्रचार का तरीका गलत था। ऐसे में इस बात का अंदाजा लगा पाना कितना सहज है किोम अपने गढ़ को खोने के बाद नई रणनीति बनाने और ममता की आंधी को रोकने के लिए े सारे प्रयास करेंगे। ममता के सामने भी चुनौतियां कम नहीं है। कें्र में दो साल मंत्री रहने के बाद उनको और उनके सांसदों को कम से कम इतना तो करना ही होगा कि जनता को लगे, कि ममता को जिताने का उनका निर्णय सही है। इसके लिए ममता को सेज और निेश जसे मामलों में कांग्रेस से दो चार होना पड़ सकता है।

ममता लगातार सेज और निेश का रिोध करतीं रहीं हैं, जबकि कांग्रेस उसकी पक्षधर रही है। ऐसे में ममता अगर कांग्रेस के साथ खड़ी नजर आतीं हैं तो मामला एकदम उलट हो सकता है।ोम दल भी इसी फिराक में बैठे हैं। दूसरी बात ममता अगर बुद्धदे के किास के माडल को गलत बतातीं हैं और जनता उनको उस रिोध के कारण पसंद करती है तो उनको प्रदेश के किास के लिएोम दलों से अलग एक माडल देना होगा। ममता का यह माडलोम दलों से अलग होगा तो जनता उनके साथ होगी। इसके लिए उनको प्रदेश में औद्योगीकरण करना होगा, लेकिन उन्होंने टाटा को प्रदेश से बाहर करने के लिए लंबा चौड़ा आंदोलन किया। ऐसे में जब वह फिर से औद्योगीकरण की बात करेंगी तो वाम दल उनको घेरने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ेंगे। अगर ममता विकास नहीं कर पातीं हैं तो इस बार जनता के सामने किन मुद्दों पर जाएंगी, क्योंकि लोकसभा तो सिंगुर और नंदीग्राम पर जीत लिया, लेकिन अब जब जनता यह कह रही है कि ‘एक आंधी आएगी, दीदी राइटर जाएगीज् उस समय राइटर बिल्डिंग पर कब्जा दीदी के लिए आसान नहीं होगा।

Thursday, May 21, 2009

इस जनादेश के सबक

आनंद प्रधान

मतदाताओं ने एक बार फिर राजनीतिक विश्लेषकों से लेकर चुनावी भविष्यवक्ताओं और यहां तक कि राजनीतिक दलों को भी चैका दिया है। किसी ने भी ऐसे परिणाम की उम्मीद नही की थी। ऐसे संकेत थे कि कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए सबसे बड़े गठबंधन के रूप में उभरकर सामने आएगा लेकिन वह अकेले सत्ता के इतने करीब पहंुच जाएगा, इसका एहसास किसी को नही था। खुद कांग्रेस को यह उम्मीद नहीं थी कि उसे 200 के आस-पास और यूपीए को 260 सीटों के करीब सीटें आ जाएंगी। इसीलिए चुनावों के दौरान और मतगणना से पहले सरकार बनाने के लिए जोड़तोड़ और सौदेबाजी की चर्चाएं खूब जोर-शोर से चलती रहीं।

लेकिन ऐसा लगता है कि मतदाताओं को यह सब पसंद नही आया। उसने साफ तौर पर जोड़तोड़ और सौदेबाजी की राजनीति को नकार दिया है। इसमे कोई दो राय नहीं है कि यह छोटी-छोटी क्षेत्रीय पार्टियों और सत्ता के भूखे नेताओं के अवसरवाद और निजी स्वार्थो की ‘सिनीकलश् राजनीति के खिलाफ जनादेश है। यह भाजपा की साम्प्रदायिक और बड़बोली राजनीति की भी हार है। इसके साथ ही यह माकपा की तथाकथित तीसरे मोर्चे की उस राजनीति के खिलाफ भी जनादेश है जिसने कांगे्रस और भाजपा का विकल्प देने के नाम पर एक ऐसा अवसरवादी और सत्तालोलुप गठजोड़ खड़ा करने की कोशिश की जिसका एक मात्र मकसद सत्ता की मलाई मे अपनी हिस्सेदारी हासिल करने के लिए मोलतोल की ताकत जुटाना था।
ऐसा कहने के पीछे कांग्रेस की जीत को कम करके आंकने की कोशिश नही है। निश्चय ही, इस जीत का श्रेय कांग्रेस को मिलना चाहिए। इसमे भी कोई ‘ाक नही है कि यह यूपीए से अधिक कांग्रेस की जीत है और कांग्रेस नेतृत्व को इसका श्रेय मिलना ही चाहिए। उसने अवसरवादी गठबंधनों और जोड़तोड़ की राजनीति के खिलाफ बह रही हवा के रूख को समय रहते भांप लिया। यही कारण है कि चुनावों से ठीक पहले कांग्रेस ने एक बड़ा राजनीतिक जोखिम लिया। उसने यह ऐलान कर दिया कि इन चुनावों में वह राष्ट्रीय स्तर पर यूपीए जैसे किसी गठबंधन के तहत किसी दल या दलों के साथ कोई गठबंधन करने के बजाय राज्य स्तर पर गठबंधन करेगी। इस फैसले के बाद कांग्रेस नेतृत्व ने यूपीए गठबंधन के कई घटक दलों की नाराजगी के बावजूद उत्तरप्रदेश और बिहार में अकेले चुनाव लड़ने का फैसला किया।

कांग्रेस को इसका फायदा भी मिला है। उत्तरप्रदेश और बिहार में मुलायम सिंह, मायावती, लालू प्रसाद और रामविलास पासवान की संकीर्ण और अवसरवादी राजनीति को तगड़ा झटका लगा है। खासकर उत्तरप्रदेश में मायावती और मुलायम सिंह की कीमत पर कांग्रेस को न सिर्फ अपना पैर जमाने की जगह मिल गयी है बल्कि वह एक बड़ी ताकत के रूप मे उभर कर सामने आ गयी है। यही नही, उसने महाराष्ट्र जैसे राज्य में गठबंधन के बावजूद ‘ारद पवार जैसे महत्वाकांक्षी राजनेता को काबू मे रखने मे कामयाबी हासिल की है।

यह किसी से छिपा नही है कि एक राष्ट्रीय दल के रूप में कांग्रेस कभी भी गठबंधन की राजनीति के साथ सहज महसूस नही करती है। हालांकि 2004 में उसे मजबूरी में यूपीए गठबंधन के तहत राज चलाना पड़ा लेकिन उसकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं और गठबंधन के दबावों के बीच एक घोषित-अघोषित संघर्ष लगातार जारी रहा। यह सच है कि गठबंधन राजनीति के प्रति भाजपा जितनी लचीली और समावेशी है, उतनी कांग्रेस नही हो सकती है। इसकी वजह यह है कि देश के उन सभी राज्यों में जहां क्षेत्रीय दलो का उभार हुआ है, वहां उनका सीधा मुकाबला कांग्रेस से है या किसी न किसी रूप में कांग्रेस के राजनीतिक हित जुड़े हुए है।

ऐसे में, कांग्रेस के लिए गठबंधन खासकर उन क्षेत्रीय दलों के साथ हमेशा से असहज रहा है जो कांग्रेस की कीमत पर उभर कर सामने आए हैं। यही कारण है कि उत्तर भारत के राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण दो राज्यों-उत्तरप्रदेश और बिहार में कभी मायावती और कभी मुलायम और लालू के साथ हेलमेल करने के बावजूद कांग्रेस अपने पुनरोदय के लिए हमेशा बेचैन रही है। राष्ट्रीय राजनीति मे अपनी कंेद्रीयता बनाये रखने के लिए भी यह जरूरी है कि कांग्रेस उत्तरप्रदेश और बिहार में अपनी खोई राजनीतिक जमीन हासिल करे। मुलायम सिंह, लालूप्रसाद, रामविलास पासवान और मायावती की संकीर्ण निजी स्वार्थो की सिनीकल राजनीति ने कांग्रेस को यह मौका दे भी दिया है।

कई राजनीतिक विश्लेषकों की यह राय काफी हद तक ठीक प्रतीत होती है कि यह क्षेत्रीय राजनीतिक दलों और उनके नेताओं की छुद्र व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं और ब्लैकमेल की राजनीति के खिलाफ एक स्थिर सरकार के पक्ष में जनादेश है। यही कारण है कि हारने के बावजूद भाजपा खुश है कि यह राष्ट्रीय दलों के पक्ष मे जनादेश है। निश्चय ही, यह जनादेश क्षेत्रीय दलों खासकर गैर कांग्रेस-गैर भाजपा दलों के लिए चेतावनी की घंटी है। उनकी नग्न अवसरवादी, सत्तालोलुप, स्वार्थी और भ्रष्ट राजनीति ने लोगों को सबसे अधिक निराश किया है। अपने राजनीतिक पतन के लिए वे खुद जिम्मेदार हैं।

लेकिन क्षेत्रीय दलों और उनके तथाकथित तीसरे मोर्चे के इस राजनीतिक पतन और कांग्रेस के उभार के आधार पर यह निष्कर्ष निकालना अभी जल्दबाजी होगी कि भारतीय राजनीति द्विदलीय होने की ओर बढ़ रही है और तीसरी राजनीति के लिए जगह खत्म हो रही है। सच यह है कि कांग्रेस का मुकाबला करने में भाजपा की नाकामयाबी ने एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि राष्ट्रीय राजनीति में एक तीसरी जगह की मांग मौजूद है। यही नही, इससे पहले कई भाजपा ‘ाासित राज्यों में भाजपा का मुकाबला करने में कांग्रेस की विफलता से भी यह स्पष्ट है कि राष्ट्रीय राजनीति में एक वास्तविक गैर कांग्रेस- गैर भाजपा विकल्प के लिए जगह मौजूद है।

ऐसे तीसरे विकल्प के लिए जगह इसलिए भी मौजूद है कि दोनों तथाकथित राष्ट्रीय दलों-कांग्रेस और भाजपा के बीच नीतियों और कार्यक्रमों के स्तर पर बहुत फर्क नही रह गया है। दोनों दलों की आर्थिक वैचारिकी और नीतियों में कोई बुनियादी फर्क नहीं है। दोनों नवउदारवादी आर्थिक नीतियों की खुली समर्थक हैं। विदेश नीति के मामले में भी दोनों में कोई खास फर्क नही है। दोनों अमेरिकी खेमे का हिस्सा बनने के लिए एक दूसरे से बढ़कर प्रयास करते रहे हैं। आंतरिक सुरक्षा के मामले में भी दोनों पार्टियां लगभग एक ही तरह से सोचती हैं। यही नहीं, उन दोनों के बीच साम्प्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता को लेकर जो फर्क दिखाई भी पड़ता है, वह दिखाने का फर्क अधिक है। सच यह है कि भाजपा कट्टर हिन्दुत्व और कांग्रेस नरम हिन्दुत्व की राजनीति करती रही है।

यही कारण है कि कांग्रेस, भाजपा का और भाजपा, कांग्रेस का वास्तविक विकल्प नहीं है। हालांकि ‘ाासक वर्ग की हरसंभव कोशिश यह है कि राष्ट्रीय और राज्यस्तरीय राजनीति को इन्हीं दोनों पार्टियों के बीच सीमित कर दिया जाए। लेकिन जमीनी हालात इसके ठीक विपरीत हैं। मौजूदा आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक नीतियों के कारण लगातार हाशिए पर ढकेले जा रहे गरीबों, कमजोर वर्गों, दलितों-आदिवासियों, अल्पसंख्यकांे और निम्न मध्यवर्गीय तबकों में गहरी बेचैनी है। पिछले पांच वर्षो में सेज से लेकर बड़े उद्योगों के लिए जमीन अधिग्रहण और खनन के पट्टों के खिलाफ देश भर में जनसंघर्षों की एक बाढ़ सी आ गयी है। निश्चय ही, इस बेचैनी का विकल्प देने में कांग्रेस और भाजपा अपनी राजनीति के कारण अक्षम है।
लेकिन इस बेचैनी और सड़को की लड़ाई को एक मुकम्मल राजनीतिक विकल्प देने में तथाकथित तीसरे मोर्चे की पार्टियां खासकर माकपा और वाम मोर्चा पूरी तरह से नाकाम रहे है। उनकी सबसे बड़ी राजनीतिक विफलता यह है कि आर्थिक नीतियों के मामले में वे भी उन्हीं नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के पैरोकार बन गये हैं जिसके खिलाफ लड़ने का नाटक करते रहते हैं। तथ्य यह है कि पश्चिम बंगाल में माकपा को नवउदारवादी आर्थिक नीतियों को हिंसक तरीके से लागू करने की राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ी है। इसी तरह, लोगों ने चंद्रबाबूु नायडु को इन आर्थिक नीतियों को जोर-शोर से लागू करने के लिए अब तक माफ नहीं किया है। मुलायम सिंह को भी अमर सिंह-अनिल अंबानी के निर्देशन में कारपोरेट समाजवाद की कीमत अबतक चुकानी पड़ रही हैं।

इसलिए जो विश्लेषक कांग्रेस की जीत और वामपंथी पार्टियों की करारी हार को इस रूप में पारिभाषित कर रहे है कि यह नवउदारवादी आर्थिक को बेरोकटोक आगे बढ़ाने का जनादेश है, वह इस जनादेश की न सिर्फ गलत व्याख्या कर रहे है बल्कि उसे अपनी संकीर्ण हितों में इस्तेमाल करने की कोशिश कर रहे हैं। कांग्रेस की नई सरकार ने अगर इस जनादेश को आम आदमी के हितों की कीमत पर आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने का जनादेश समझकर आगे बढ़ने की कोशिश की तो उसे भी इसकी कीमत चुकानी पड़ सकती है। उसे यह याद रखना चाहिए कि पार्टी को आर्थिक सुधारों के पैरोकारों के विरोध के बावजूद नरेगा जैसी योजनाओं और किसानों की कर्जमाफी का राजनीतिक लाभ मिला है। यहीं नहीं, उसने अपने चुनाव घोषणापत्र में तीन रूपए किलो चावल और गेहूं देने का वायदा किया है।
इसके बावजूद यह कांग्रेस को पूरा जनादेश नही है. उसे लोकसभा की एक तिहाई से कुछ ही अधिक सीटें और तीस फीसदी से कम वोट मिले हैं। एक तरह से मतदाताओं ने कांग्रेस को एक नियंत्रित जनादेश दिया है कि वह मौजूदा वैश्विक मंदी, पड़ोसी देशों की राजनीतिक अस्थिरता और घरेलू राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक चुनौतियों से निपटने के लिए एक समावेशी राजनीतिक आर्थिक एजेंडे पर संभल संभल कर चले। कांग्रेस ने अगर इस नियंत्रित जनादेश को मनमानी करने का लाइसेंस समझ लिया तो वह ना सिर्फ अपने साथ धोखा करेगी बल्कि जनादेश का भी अपमान होगा। कांग्रेस में ऐसी मनमानी करने की प्रवृत्ति रही है लेकिन कांग्रेस नेतृत्व को इस लोभ से बचना चाहिए। हालांकि उसे ऐसा करने के लिए उकसाने वाले देसी विदेशी ताकतें सक्रिय हो गई हैं। लेकिन उसे संयम बरतना होगा। यह इसलिए भी जरूरी है कि यूपीए सरकार पर अंकुश रखने के लिए 2004 की तरह इस बार वाम मोर्चा नहीं होगा।

कुछ राजनीतिक विश्लेषक और खुद कांग्रेस पार्टी के अंदर बहुत लोग वाम मोर्चे के शिंकजे से मुक्ति पाने पर खुशियां मना रहे हैं। निश्चय ही, वाम मोर्चा को पहले यूपीए सरकार का समर्थन करने और उसके बाद हताशा में एक सिद्धांतहीन, अवसरवादी और साख खोए नेताओं का तीसरा मोर्चा बनाने की राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ी है। लेकिन इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि कांग्रेस को गरीबों और कमज़ोर वर्गों को राहत देने के एजेंडे और जबावदेही से मुक्ति मिल गई हो। अच्छी बात यह हुई है कि मतदाताओं ने वामपंथी दलों को विपक्ष में बैठक में बैठने का जनादेश दिया है। उन्हें ना सिर्फ इसका सम्मान करना चाहिए बल्कि इसके सबक को भी ईमानदारी से समझना चाहिए। इसका सबक यह है कि शासक वर्गों की साख खो चुकी पार्टियों के साथ खड़े होने से उन पार्टियों की तो साख और चमक लौट आती है लेकिन वाम राजनीति अपनी धार, साख और चमक खो देती है।

उम्मीद करनी चाहिए कि माकपा वाम मोर्चे की दुर्गति से सबक लेकर चंद्रबाबू नायडू से लेकर नवीन पटनायक और नीतिश कुमार तक को धर्मनिरपेक्ष होने का सर्टिफिकेट बांटने और मायावती से लेकर जयललिता को कांग्रेस और भाजपा का विकल्प बताने की अवसरवादी राजनीति करने की बजाय देशभर में सभी वाम-लोकतांत्रिक शक्तियों को साथ लेकर एक वास्तविक विपक्ष खड़ा करने की पहल करेगी। यह विपक्ष सिर्प संसद तक नहीं बल्कि संसद से बाहर जनता के बीच और सड़कों पर दिखना चाहिए। यह इसलिए भी ज़रूरी है कि भाजपा भी विपक्ष में चैन से नहीं बैठने वाली है। आशंका है कि वह विपक्ष की जगह का इस्तेमाल करके अपनी नफरत और विभाजन की राजनीति को परवान चढ़ाने की कोशिस करे। वामपंथी-लोकतांत्रिक शक्तियों को विपक्ष से भी भाजप को बेदखल करने के लिए रोज़ी रोटी के सवालों को जनसंघर्षों का मुद्दा बनाना पड़ेगा।

लेकिन इसके लिए माकपा और वाम मोर्चे को ईमानदारी से पहल करनी होगी। खासकर माकपा को ना सिर्फ निर्मम आत्मविश्लेषण करना होगा बल्कि देश भर की वाम –लोकतांत्रिक शक्तियों का विश्वास हासिल करने के लिए अपनी गलतियों को स्वीकार करने से नहीं हिचकिचाना चाहिए। इसकी शुरुआत नंदीग्राम , सिंगूर और लालगढ़ के लिए सार्वजनिक माफी मांग करके हो सकती है। क्या माकपा इस ईमानदार पहल के लिए तैयार है ?

Monday, May 11, 2009

अब जोड़-तोड़ का इंतजार

मतदान का चौथा दौर दर असल कांग्रेस की बढ़त बनाने वाला दौर था, तो पंजाब और बंगाल में सत्तारूढ़ गठजोड़ों के लिये अपनी सीटें बचाने वाला।


मनोहर नायक


पंद्रहवीं लोकसभा के चुनाव में अब तीन ही चीज बाकी हैं। पांचवां दौर, सोलह मई और जोड़-तोड़, विश्वासघात व दुरभिसंधियों वाला छठा दौर। चौथे और पांचवें दौर के बीच के इस समय भी राजनीतिक तस्वीर उतनी ही धुंधली है जितनी इस अभूतपूर्व चुनाव के शुरू होते समय थी। सभी दल और सभी मोर्चे अपने-अपने रुख पर डटे हुये हैं। वैसे यह स्थिति भी एक कच्ची-पक्की सी तस्वीर बनाने के लिए काफी हो सकती थी, अगर भरोसेमंद होती। दिलचस्प यह है कि सभी पार्टियों और नेताओं के बयानों की रंगते बदलतीं हुई और अगर-मगर से भरी हुईं हैं।

काबिलेगौर यह है कि जिस मुद्दे पर यानी अमेरिका से एटमी करार पर कांग्रेस और वामदल अलग हुए उसका इस चुनाव में कोई नामलेवा नहीं है। न तो उसके समर्थन में, न उसके विरोध में कहीं कोई आवाज सुनाई दे रही है। दरअसल साम्प्रदायिकता आज भी एक बड़ा मुद्दा है। कांग्रेस-भाजपा दो दलीय लोकतंत्र का सपना भले देखें लेकिन क्षेत्रीय पार्टियों का बढ़ता वर्चस्व और गठबंधन की राजनीति आज का सच है। हो सकता है उसमें अभी दबाव की, ब्लैकमेलिंग की बुराइयां हों पर राजनीति का यह स्वरूप देश में रहने वाला है। कांग्रेस और वामदल इन दोनों मामलों में, धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील सरकार देने तथा गठबंधन की राजनीति को कालांतर में अधिक रचनात्मक, उपयोगी और कारगर बनाने में सहयोगी हो सकते थे। इस लिहाज से उन्हें स्वाभाविक मित्र होना और दिखना चाहिये था। दुर्भाग्य से इस पूरे चुनाव में कांग्रेस और भाजपा में तो कटु बयानबाजी हुई ही उसके बाद वह सबसे ज्यादा कांग्रेस और वामदलों के बीच हुई। इस चुनाव से उभरने वाली तस्वीर इस कदर धुंधली भी मुख्यत: इसी कारण से है। फिर उसमें भारतीय राजनीति की स्वार्थपरता और अवसरवादिता का हाथ है। साथ ही उस अहमन्यता का भी जिसके बारे में एक बार पत्रकार एमजे अकबर ने लिखा था कि भारतीय राजनेताओं में यह इस कदर व्याप्त है कि ऐसप की कहानी के उस मेंढक की याद आती है जिसने मिथ्याभिमान में इतना पेट फुलाया कि वह फूट ही गया। इस चुनाव में वाम ही नहीं कई क्षेत्रीय दलों की यह गत होने की बात कही जा रही है।

यह चुनाव अपने इसी राजनीतिक धुंधलके और कुहासे के कारण विचित्र और अपूर्व है। इसी कारण हर घर में कलह है। हर कुनबे में फूट है। यूपीए-एनडीए में बिखराव और आगामी को लेकर संदेह हैं। अमर-आजम की अजब कथा है। दावों की गर्वोक्तियों के पीछे अपने यथार्थ की करुण विकलाताएं हैं। ऐन चौथे चरण के पहले एक और खास बात हो गयी। कांग्रेस के महासचिव राहुल गांधी की बहुचर्चित प्रेस कांफ्रेंस, जिसमें उन्होंने वाम को पुचकारा और नीतीश-नायडू को फुसलाया। इसके अनिवार्य परिणाम जो होने थे सो हुये और अब तक जारी हैं। ममता रूठीं, लालू-पासवान भनभनाये, करुणनिधि कसमसाकर रह गये। अब सिर्फ सात राज्यों और दो केंद्र शासित प्रदेशों की कुल 86 सीटों के लिये अंतिम दौर में वोट पड़ने हैं।

चौथे चरण में पंजाब की चार सीटें थीं। पंजाब वह राज्य है जहां कांग्रेस कुछ पा सकती है। सत्तारूढ़ गठजोड़ को हानि कम से कम हो इसकी ही कोशिश करनी है। चौथा चरण वैसे भी इस चुनाव का वह दौर था जिसमें कांग्रेस को ज्यादा से ज्यादा बढ़त बनानी थी और हरियाणा-दिल्ली में अपनी क्रमश: नौ और छह सीट बचानी थी। दो-दो सीट का घाटा भी वे दोनों जगह सहने की स्थिति में हैं लेकिन ज्यादा नुकसान मंहगा पड़ेगा। राजस्थान में चार सीटों वाली कांग्रेस ज्यादा से ज्यादा सीटें पाकर ही फायदे में रहेगी। उसकी सीटें 13-14 हो सकती हैं लेकिन सवाल उससे ज्यादा कितनी का है। उत्तर प्रदेश में भाजपा को चौथे चरण से काफी उम्मीद है। रालोद से उसका गठबंधन यहां कसौटी पर था। लगभग संपूर्ण पश्चिमी और कुछ मध्य क्षेत्र के हिस्सों वाली 18 सीटों में 2004 में नौ सपा, तीन-तीन कांग्रेस-भाजपा, दो रालौद और एक बसपा ने जीती थी। मुलायम सिंह के यादवी वोट 17 फीसद यहां थे तो उनकी भी यह परीक्षा का दौर था। सवाल यह है कि कल्याण कितना कबाड़ा करेंगे! भाजपा जरूर कुछ फायदे में रहेगी।

नंद्रीग्राम और सिंगूर वाले दक्षिण बंगाल की जिन 17 सीटों पर इस दौर में वोट पड़े वह माकपा का गढ़ रहा है, जहां उसके पास 14 सीटें थीं। इस दौर में सबसे अधिक मतदान (75%) पश्चिम बंगाल में हुआ। यह देखना दिलचस्प होगा कि ये वोटर तृणमूल-कांग्रेस गठजोड़ के असर से वाममोचरे के खिलाफ निकले या कैडर के निडर प्रोत्साहन से। चौथा चरण मतदान के प्रतिशत (57) के हिसाब से ठीकठाक था। इसमें दांव पर की 85 सीटों में ज्यादा से ज्यादा कांग्रेस को जीतनी थी और बाकियों को बचानी थीं।

पांचवा दौर तेरह को है। फिर सोलह और फिर छठा दौर। इसमें सबको नानी याद आयेगी। इसकी तैयारी शुरू हैं। अड़चनें दूर की जा रही हैं। मसलन कांग्रेस के मीडिया प्रभारी वीरप्पा मोइली और अश्विनी कुमार हटा दिये गये। लालू और नीतीश के खिलाफ उनका बड़बोलापन पार्टी को रास नहीं आया। आखिर सभी दलों की तरह कांग्रेस को भी अभी सभी को खुश रखना है।

Thursday, May 7, 2009

मुलायम ने खॊली कीमत

लॊकसभा चुनाव का चौथा चरण आते आते राजनीतिक दलॊं की पॊल खुलने लगी है। कौन किस सियासी गणित में लगा है इसका भी खुलासा हॊने लगा है। आज का अहम और खास खुलास समाजवादी पार्टी के प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने किया है। उन्हॊंने अपनी और अपने साथ आने वाले लगभग २० समाजवादियॊं की कीमत लगा दी है।

उत्तर प्रदेश में जॊ हवा बह रही है उसमें मुलायम के लिए २० सीट निकालपाना कॊई आसान काम नहीं है लेकिन मैं उन्हें इतना मिलने की उम्मीद कर रहा हूं। अगर केंद्र में कॊई भी सरकार इन २० सीट से बन सकेगी तॊ मुलायम ने उनके लिए अपना दाम बता दिया है। उन्हॊंने दाम भी ज्यादा नहीं लगाया है। परमाणु करार के समय सरकार बचाने के लिए तॊ सरकार के लॊग करॊडॊं देने कॊ तैयार थे। एक ने मुंह खॊला करॊड का खॊ‌खा मुंह में डाल दिया।

इस बार मामला पैसे का नहीं है। पहले भी करार के समय सरकार बचाने के लिए सपा ने कांग्रेस से कॊई न कॊई समझौता जरूर किया हॊगा। लेकिन उस बार बडे ही गॊपनीय तरीके से हुआ था। इस बार खुले तौर पर हॊ रहा है। मुलायम ने केंद्र की सरकार बनाने की कीमत मायावती की सरकार गिराने की रखी है। मतलब साफ है। उन्हें केंद्र में मंत्री बनने से अच्छा उत्तर प्रदेश का मुख्मंत्री बनना ज्यादा भा रहा है।

ठीक है मुलायम जी आप ने तॊ दाम लगा दिया है अब देखिए आप की कीमत कौन चुकाता है क्यॊंकि कांग्रेस अगर ऐसा करती है तॊ वह आरॊपॊं के घेरे में आ जाएगी और राहुल बाबा जॊ यह लगातार यह कह रहे हैं कि उत्तर प्रदेश में अगले तीन साल में पार्टी अपनी जमीन तैयार कर लेगी उसकी उस मुहिम कॊ करारा झटका लगेगा। क्यॊंकि मायावती की सरकार गिराकर वह दलितॊं कॊ एक बार फिर तॊ एकजुट करने से रहे। क्यॊंकि उन्ही के दम पर तॊ पार्टी खडी करने के दावे किए जा रहे हैं।

रही बात भाजपा की तॊ वह आप के साथ आने से रही। उसकी सरकार बनती भी है तॊ वह आप के बजाए मायावती कॊ साथ लाने में ज्यादा दिलचस्पी दिखाएगी। बचे वाम दल तॊ उनसे इसकी उम्मीद अगर आप पाल रहे हैं तॊ आप की राजनीतिक सॊच पर रॊना आएगा। अंत में आप के पास पिछली बार की तरह ही न तॊ सरकार में न तॊ विप‌च्छ में वाली स्थिति में रहना पडेगा। उत्तर प्रदेश में एक चरण का मतदान बाकी है। कहीं जनता समझ गई कि आप की स्थिति डवाडॊल है। आप कॊ कुछ मिलने वाला नहीं है। अगर आप की पार्टी का सांसद बना भी देते हैं तॊ पिछली बार की करत कुछ फायदा हॊने वाला नहीं है तॊ कहीं बाकी सीट पर आप कॊ नुकसान न उठाना पड जाए।

माया बन जाएंगी कांग्रेस

हमारे उम्मीदवार नहीं देंगी तॊ माया भी हारेंगी। मायावती का हस्र भी कांग्रेस की तरह हॊ जाएगा। कभी दलित वॊट के दम पर देश में राज करने वाली कांग्रेस आज उत्तर प्रदेश में एक एक सीट के लिए मॊहताज है। यही हाल आने वाले समय में मायावती का भी हॊ सकता है। अगर वह अपने कॊ संभालने में सफल नहीं हॊतीं हैं तॊ।

मायावती के साथ दलित वॊटर इसलिए नहीं गया क्यॊंकि वह बहुत महान है। या फिर वह उनके लिए कुछ ऐसा कर देंगी जॊ कॊई और सरकार नहीं कर सकती। दलितॊं का माया के साथ आने का सबसे बडा कराणा उनकॊ अपना उम्मीदवार मिलना है। दलित तब तक कांग्रेस के साथ थे जब तक उनका अपना कॊई उम्मीदवार नहीं था। उनकी कॊई अपनी पार्टी नहीं थी। माया के आने के बाद उन्हें लगने लगा कि उनका अपना भी कॊई है। मायावती कॊ वॊट देने वाले या उनके साथ खडे रहने का दावा करने वालॊं में से अधिकांश ने न तॊ मायावती कॊ देखा है न तॊ सुना है। लेकिन वह जानते हैं कि कॊई बहनजी हैं जॊ उनकी अपनी है।

वह मानते हैं कि बहनजी के सपने हमारे हैं। उन्हें लगता है कि वह भी हम जैसी ही हैं। इसलिए वह उनके साथ खडे हैं। इसलिए वह उहे सुनने और देखने के लिए न तॊ धूप की परवाह करते हैं न तॊ उन्हें बारिश में भींगने का डर रहता है।
मतदान के दिन भी उनके जेहन में सिर्फ और सिर्फ एक ही ख्याल रहता है वह हाथी पर बटन दबाने का। दलित समाज इसे एक बदलाव एक क्रांति के रूप में देख रहा था। उसे लग रहा था कि अब हम भी सरकार में अपनी हिस्सेदारी पा रहे हैं। मायावती भी यही कहती थीं। लेकिन सत्ता और सरकार के लिए मायावती ने कई समझौते किए। जिन मनुवादियॊं का विरॊध कर दलितॊं के बीच पैठ माया और उनकी बसपा ने बनाई थी आज वह उनके साथ खडी हैं। खडी ही नहीं यह कहा जा सकता है कि उनके पीछे खडी हैं। इसका प्रमाण पहले विधानसभा और अब लॊकसभा चुनाव में उतारे गए उम्मीदवारॊं की फेहरिस्त से लगाया जा सकता है। बसपा ने बडी संख्या में सवर्ण उम्मीदवारॊं कॊ मैदान मे उतारा। इससे दलित खासा आहत है। उसे लगने लगा है कि परिस्थितियां फिर पहले जैसी हॊने जा रहीं हैं।

दलित समाज कॊ आज यह लगने लगा है कि मायावती भी उनके साथ कांग्रेस जैसा ही बर्ताव कर रही है। वॊट तॊ उनका हॊगा लेकिन नेता उनका नहीं हॊगा। उत्तर प्रदेश के भदॊही विधानसभा के उपचुनाव में मायावती की हार के पीछे इसे ही कारण माना जा रहा है। चुनाव आयॊग की रिपॊर्ट कॊ आधार माने तॊ दलितॊं के कुछ वॊट समाजवादी पार्टी में गए। यह मायावती के लिए संकेत है। उन्हें आगे की रणनीति काफी सॊचकर बनाना हॊगा। कहीं ऐसा न हॊ कि वह अगली कांग्रेस बना जाएं। क्यॊंकि प्रदेश में राहुल भी बडी तेजी से पैर पसारने की फिराक में हैं।

अगर दलित वॊटर खुद कॊ ठगा महसूस करेगा तॊ उसके पास मुलायम या भाजपा के साथ जाने से अच्छा विकल्प कांग्रेस हॊगा। ऐसे में माया का तिलिस्म इस कदर ढहेगा कि उसे संभाल पाने शायद उनके बस में न हॊ। कांग्रेस ने तॊ खुद कॊ संभाल लिया क्यॊंकि उनका देश भर में जनधार और संगठन था लेकिन मायावती क्या करेंगी।

Wednesday, May 6, 2009

दॊराहे पर कांग्रेस

कांग्रेस दॊराहे पर खडी है। अगर उसे सरकार बनाने के लिए बहुमत नहीं मिलेगा तॊ उसे एक ऐसी सरकार बनाने के लिए पहल करनी हॊगी जिसका वह लगातार विरॊध कर रही है। वहीं वाम दलॊं कॊ बाहर से समर्थन देने के लिए अगर कांग्रेस तैयार नहीं हॊती है तॊ उस पर सांप्रदयिक कही जाने वाली भाजपा कॊ रॊकने में विफल रहने का आरॊप चढ जाएगा। वाम दल पहले से ही कह रहे हैं कि वह कांग्रेस कॊ समर्थान नहीं देंगे ऐसे में राहुल ने एक सॊची समझी रणनीति के तहत वाम दलॊं के सहयॊग की बात कही है।

दरअसल मामला एकदम उलट है। कांग्रेस पश्चिम बंगाल में जिन सीट पर लड रही है उसमें से अधिकांश पर चौथे चरण में मतदान हॊ जाएगा। पश्चिम बंगाल में वाम दलॊं का विरॊध कांग्रेस ने उस समय तक नहीं किया जब तक पार्टी वाम दलॊं के मुकाबले थी। अब अगले चरण की अधिकांश सीट पर ममता कॊ लडना है ऐसे में वह वाम दल कॊ साथ लाने की अपील करने में भी नहीं हिचक रहे हैं। यह पार्टी की एक सॊची समझी रणनीति है। लेकिन इसका फायदा कांग्रेस कॊ हॊता नजर नहीं आ रहा है। ममता ने बगावत की बात कह दी है। अब देखना यह हॊगा कि वाम या ममता में कांग्रेस किसे अपने साथ रखती है। अगर वह सरकार बनाने के लिए बेकरार है तॊ जवाब स्वाभाविक रूप से वाम हॊंगे। ऐसे में कांग्रेस की वफादारी से सभी वाकिफ हॊ जाएंगे। और यह इस लॊकसभा चुनाव की एक बडी उपलब्धि हॊगी।

परमाणु करार पर सरकार बचाने में साथ देने वाली सपा कॊ कांग्रेस ने पहले ही दरकिनार कर दिया था। अब लालू से पल्ला झटकना चाहती है। लेकिन उसे इस बात का एहसास नहीं है कि जिस नीतीश कुमार की तारीफ कर रही है उसकी बिहार में सरकार बचाने की कांग्रेस की औकात नहीं है। कम से कम उसे इस बात का अंदाजा तॊ हॊना ही चाहिए कि नीतीश की पार्टी में शरद यादव भी हैं जॊ कांग्रेस के साथ आएंगे यह खुद कांग्रेसी भी दावे से नहीं कर पाते हैं।

रही बात जयललिता की। कांग्रेस यह अंदाजा लगा रही है कि तमिलनाडु में करुणानिधी का सफाया हॊ जाएगा। रामदास उनका साथ पहले ही छॊडकर किनारा कर ही चुके हैं। कांग्रेस वहां अपनी सीट बढा नहीं पा रही है। ऐसे में सरकार कैसे बनेगी। राहुल बाबा के बगल में विरप्पा मॊईली बैठे थे उसका कुछ तॊ असर हॊगा।

Tuesday, May 5, 2009

राहुल बाबा कब मिलेगा गरीब कॊ जवाब

राहुल गांधी कॊ देश भर में घूमकर चुनाव प्रचार का इतना फायदा जरूर हुआ कि अब वह बातॊं कॊ घुमा फिरा कर कहने लगे हैं। इसका नजारा उनके संवाददाता सम्मेलन में भी देखने कॊ मिला। राहुल कॊ भले ही यह जानकारी न हॊ कि आंध्र प्रदेश में चंद्राबाबू की राजनीति कांग्रेस के विरॊध पर टिकी हॊ या फिर बिहार में नीतीश की सरकार बचाने की उनकी पार्टी की औकात न हॊ लेकिन उन्हें इस बात के संकेत देने में जरा भी हिचक नहीं हुई कि उनकी पार्टी इन लॊगॊं कॊ साथ ले आएगी। कल तक पश्चिम बंगाल में वाम दलॊं के खिलाफ जहर उगल रहे थे लेकिन अचानक उनके साथ सरकार बनाने की बात कही। हालांकि वाम दलॊं ने इसे सिरे से नकार दिया और कहा कि कांग्रेस कॊ इस बात का अंदाजा लग गया है कि वह हार रही है‍‍‍‍‍ इसलिए वाम के सहयॊग की बात कह रही है।

गरीबॊं तक पैसा नहीं पहुंचने के बारे में जब राहुल से सवाल किया गया कि उनके प्रधानमंत्री मनमॊहन सिंह पांच साल रहे और इससे पहले पांच साल वित्त मंत्री रहे तॊ इसका जवाब देने में वह असहज महसूस कर रहे थे। कह रहे थे कि कुछ हुआ है बहुत कुछ करना है। उसके लिए जनता से वक्त मांग रहे थे लेकिन राहुल जी जनता कब तक आप कॊ वक्त देती रहेगी। ४५ साल तॊ लगातार शासन किया। और आप के पिता के कहने के बाद से दॊ बार यानी दस साल तॊ कांग्रेस की सरकार रही फिर यह रॊना कब तक और रॊएंगे।

मिलीबैंड कॊ तॊ गरीबॊं की ताकत दिखा दिया लेकिन आप कब समझ पाएंगे गरीबॊं की ताकत। उनकी भूख। उनकी लाचारी। उनकी मजबूरी। और कितना वक्त दें हम लॊग आप कॊ समझने के लिए। क्यॊंकि इन साठ साल में आप की दॊ पीढी तॊ हम गरीबॊं पर राज कर ही चुकी है। उम्मीद है आप अपनी मां की तरह इतने दयावान तॊ है नहीं कि राजपाठ छॊडकर किसी कठपुतली कॊ सत्ता दे देंगे। ऐसे में गरीब क्या सिर्फ आस लगाए ही बैठा रहेगा या उनका हक उसकॊ मिलेगा। आज देश की जनता अपने युवा ह़्दय सम्राट से जवाब मांग रही है।

Monday, May 4, 2009

प्रचार का छत्तीसगढ़िया अंदाज

मृगेंद्र पांडेय

छत्तीसगढ़ जसे छोटे और आदिवासी बहुल राज्य में भले ही चुनाव विकास के मुद्दों पर लड़े जाते हों, लेकिन उत्तर प्रदेश के मतदाता चुनाव को जाति के चश्मे से बाहर आकर देखने को तैयार नहीं है। इस कड़वी सच्चाई से छत्तीसगढ़ के नेताओं को उस समय रू-ब-रू होना पड़ा, जब वे भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह के पक्ष में प्रचार करने के लिए गाजियाबाद आए। यहां इन नेताओं को जातिगत समीकरणों से अवगत होना पड़ा, जो इनके लिए नया था। छत्तीगसढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह और उनके सिपहसलार चाहे पर्यटन मंत्री बृजमोहन अग्रवाल हों या फिर नगरी निकाय और परिवहन मंत्री राजेश मूढ़त, गाजियाबाद में डेरा डाले हुए हैं और लगातार इन समीकरणों को समझते हुए प्रचार में जुटे हैं।

छत्तीसगढ़ से आए ये भाजपा नेता पूरे छत्तीसगढ़िया अंदाज में प्रचार कर रहे हैं। रोजाना छोटी-छोटी सभाएं करके राजनाथ के पक्ष में प्रचार कर रहे हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश की राजनीति के जातीय समीकरण उनको खासे परेशान किए हुए हैं। उन्हें लगता है कि छत्तीसगढ़ में विकास और स्थानीय मुद्दों के आधार पर वोट मांगे जाते हैं। वोट के लिए राजनीतिक दल जाति के हथकंडे का इस्तेमाल कम ही करते हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश की सच्चाई इससे परे है।

भाजपा नेता राजेश मूढ़त की माने तो छोटी सभाओं में भी लोग जाति के आधार पर एकत्र होते हैं और वह वोट देने से पहले अपनी जाति के उम्मीदवार को नजरअंदाज नहीं कर सकते। उनका मानना है कि गाजियाबाद में एक बात जो छत्तीसगढ़ से अलग है वह यह कि यहां मुकाबला केवल दो दलों के बीच नहीं होता। उम्मीदवारों की जातियां भी काफी मायने रखती हैं। मतदाता पार्टी को वोट देने से पहले जाति विशेष के उम्मीदवार को प्राथमिकता के रूप में देखते हैं। अलग-अलग जातियों के कई ऐसे नेता भी मैदान में हैं, जो हैं तो निर्दलीय लेकिन उनका मतदाताओं में खासा असर है। बड़ी संख्या में मतदाता उनके साथ खड़े नजर आते हैं।

हालांकि गाजियाबाद में राजनाथ कड़े मुकाबले में फंसे हुए हैं, लेकिन उनके सिपहसलारों का मानना है कि वोटरों की पहली पसंद वही है। इसके पीछे राजनाथ के राष्ट्रीय छवि की बात कही जा रही है। प्रचार के लिए आए छत्तीसगढ़ी नेताओं का असर मतदाताओं पर कितना होता है यह तो सात मई को पता चलेगा, लेकिन इतना तय है कि इन नेताओं ने राजनाथ के पक्ष में हवा बनाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है।

भविष्य पर टिकी उम्मीदें

मतदान का प्रतिशत कम देखकर भाजपा नेताओं को भीतर ही भीतर यह बात परेशान कर रही है कि कहीं इस बार फिर पार्टी सत्ता की दौड़ में पिछड़ तो नहीं जाएगी।

राजीव पांडे

पंद्रहवीं लोकसभा के लिए 372 सीट पर मतदान हो चुका है लेकिन अभी तक स्थिति साफ नहीं हो पाई है कि इस बार सदन का सदन का स्वरूप कैसा होगा। हालांकि दोनों बड़े दल कांग्रेस तथा भारतीय जनता पार्टी अपनी-अपनी जीत का दावा कर रहे हैं लेकिन सच्चाई तो यह है कि दल तो क्या किसी भी गठबंधन या मोर्चे को अपने बल पर सरकार बनाने के लिए 272 के अंक को छूना मुश्किल नजर आता है।

इन तीन चरणों में औसत मतदान का प्रतिशत बहुत ज्यादा नहीं रहा है, जिससे सत्तारूढ़ गठबंधन में थेड़ी खुशी है क्योंकि उनके विचार में इसका एक अर्थ यह हो सकता है कि सरकार के खिलाफ जनता में कोई नाराजगी नहीं है। अगर जनता में सरकार के खिलाफ गुस्सा होता तो वह बढ़-चढ़कर वोट देती। हालांकि विपक्षी दल इससे सहमत नहीं हैं। उनका मानना है कि इस बार भीषण गर्मी के कारण वोटर बाहर निकलनें से बचा। लेकिन अंदर ही अंदर भारतीय जनता पार्टी को भी यह बात परेशान कर रही है कि कहीं इस बार फिर वह सत्ता की दौड़ में पिछड़ तो नहीं जाएगी।

पहले चरण में जहां यह प्रतिशत साठ के आसपास था, वह दूसरे में कम होकर पचपन और पिछले सप्ताह हुए तीसरे चरण में पचास से नीचे चला गया। तीसरे चरण में जिन 107 सीट पर मतदान हुआ, उसमें से भाजपा के पास चौवालीस, कांग्रेस के पास उनतीस तथा अन्य के पास चौंतीस सीट थी। ये सीटें जिन राज्यों में हैं उनमें मध्य प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक और बिहार भी शामिल हैं, जहां भाजपा को और अच्छा करने की उम्मीद थी। अगर यह मान भी लें कि कम मतदान का मतलब लोगों का सरकार के कामकाज से विरोध नहीं है, फिर भी कर्नाटक में श्रीराम सेना जसे कुछ मुद्दे निश्चित ही मतदाताओं को प्रभावित करेंगे। कांग्रेस इन राज्यों में अपनी स्थिति सुधारने के लिए भाजपा को कड़ी टक्कर दे रही है और स्थिति में कोई बहुत ज्यादा फर्क आएगा, ऐसा मुश्किल प्रतीत होता है।

अब जिन 171 सीट पर मतदान होना है, उनमें तमिलनाडु की 39, राजस्थान की 25, पंजाब की 13, हरियाणा की दस तथा उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल की बाकी बची 32 और 28 सीट शामिल हैं। इनमें से 46 सीट कांग्रेस के पास, 33 भारतीय जनता पार्टी तथा 89 अन्य के पास थीं। इन राज्यों में भी कमोबेश यथास्थिति ही बने रहने की उम्मीद है। इसके कारण राजग के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणी के देश की कमान संभालने के सपने पर एक बड़ा सवालिया निशान लगता नजर आता है।
उत्तर प्रदेश, जहां से सर्वाधिक सांसद चुन कर आते हैं, इस आशय की खबरें आ रही हैं कि यहां कांग्रेस ही नहीं, भाजपा भी अपनी स्थिति में सुधार कर सकती है। इस प्रदेश में दो भाई राहुल तथा वरुण गांधी की कोशिशों को इसका श्रेय दिया जा रहा है। हालांकि दोनों के प्रचार का तरीका एकदम अलग-अलग रहा। कांग्रेस इन खबरों से काफी प्रसन्न है कि उसका पुराना वोट बैंक वापस लौट सकता है। इसके लिए उसे वरुण गांधाी को श्रेय देना चाहिए क्योंकि उनके एक समुदाय विरोधी कड़े बयानों से ध्रुवीकरण की नई प्रक्रिया शुरू हुई है।

इस घटनाक्रम से प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रही प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती को धक्का लग सकता है, क्योंकि वहां से रिपोर्ट आ रही है कि इस नए ध्रुवीकरण से मायावती की सोशल इंजीनियरिंग की योजना को नुकसान हो रहा है। इस कार्ड की बदौलत उन्होंने गत विधानसभा में जिस तरह से विरोधियों को मात दी थी वह इस बार उनके लिए बहुत अधिक मददगार साबित नही हो पा रहा है। हालांकि उनकी पार्टी के सांसदों की संख्या में बढ़ोतरी तो होगी लेकिन उतनी नहीं जिसके बल पर वह प्रधानमंत्री बनने की दावेदारी रख पाएं।

इन चुनावों में एक बार फिर छोटे तथा क्षेत्रीय दल अच्छा प्रदर्शन कर सकते हैं इसलिए चुनाव परिणामों के बाद इनकी पूछ एक बार फिर बढ़ जाएगी। इन दलों को लेकर तोड़फोड़ तथा सेंधमारी अभी से शुरू भी हो गई है। तेलंगाना राष्ट्र समिति, जो अभी तक तीसरे मोर्चे के साथ थी, अब यह कह रही है वह उसके साथ जाएगी जो पृथक तेलंगाना राज्य का समर्थन करेगा। इसी तरह तेलगु सुपरस्टार चिरंजीवी की पार्टी प्रजा राज्यम को तेलगु देशम के चंद्रबाबू नायडू अपने साथ लाने का प्रयास कर रहे हैं। हालांकि चिरंजीवी इस बात को सार्वजनिक रूप से कह चुके हैं कि वह राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के शरद पवार का प्रधानमंत्री पद के लिए समर्थन करते हैं।

भारतीय जनता पार्टी को अभी भी यह उम्मीद है कि ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में वापस आ सकती है। तृणमूल कांग्रेस इस बार कांग्रेस के साथ मिलकर पश्चिम बंगाल में चुनाव लड़ रही है। भाजपा के प्रधानमत्री पद के उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणी ने हाल ही में कोलकाता हवाई अड्डे पर संवाददाताओं से कहा कि अब यह तो ममता को ही फैसला करना है कि वह राजग में वापस आना चाहती हैं या कांग्रेस के साथ रहना चाहती हैं। यह बयान वैसा ही है, जसे कोई कुएं में गिरे लोटा तलाशने की कोशिश कर रहा हो। आडवाणी तरह-तरह से क्षेत्रीय दलों को लुभाने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन उनका सपना पूरा होता नहीं लगता।

Saturday, May 2, 2009

राष्ट्रीय राजनीति में उत्तरप्रदेश की पुनर्वापसी

क्या दिल्ली जाने का रास्ता इस बार लखनऊ से होकर गुजरेगा?

आनंद प्रधान

कहते हैं कि दिल्ली जाने का रास्ता लखनऊ होकर गुजरता है। देश में आजादी के बाद हुए पहले नौ आम चुनावों तक यह राजनीतिक मुहावरा बिल्कुल सटीक था। जिस भी पार्टी ने उत्तरप्रदेश की अधिकांश सीटें जीतीं, केन्द्र में सरकार बनाने का मौका उसे ही मिला। पहले 40 वर्षों में केंद्र में कांग्रेस के एकछत्र राज और यहां तक कि जब 1977 और फिर 1989 में केंद्र में गैर कांग्रेसी सरकारें बनीं तो उसमें भी सबसे महत्वपूर्ण भूमिका उत्तरप्रदेश की ही थी। सिर्फ इसलिए नहीं कि उत्तरप्रदेश में तब किसी अन्य राज्य की तुलना में काफी अधिक 85 सीटें थीं बल्कि इसलिए भी कि पहले राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस के एकछत्र वर्चस्व के लिए जरूरी आधार मुहैया करानेवाले इंद्रधनुषी सामाजिक गठबंधन - ब्राह्मण, मुसलमान और दलित की प्रयोगभूमि उत्तरप्रदेश ही था और राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस के वर्चस्व को चुनौती देनेवाले सामाजिक गठबंधन-पिछड़ी और मध्यवर्ती जातियों का उभार भी यहीं हुआ।

लेकिन 1989 के बाद मंडल, मंदिर और दलित दावेदारी की तीन अलग-अलग धाराओं की राजनीति का अखाड़ा बन गए उत्तरप्रदेश की राष्ट्रीय राजनीति में हैसियत लगातार कमजोर होती चली गयी है। 90 के दशक मंे ऐसा लगने लगा कि उत्तरप्रदेश की राष्ट्रीय राजनीति खासकर केंद्र की सत्ता से विदाई हो गयी है। उत्तरप्रदेश ने ऐसी राह पकड़ ली जो दिल्ली नहीं जाती थी। 1991 में भारतीय जनता पार्टी मंदिर और राम लहर पर चढ़कर राज्य 85 में 51 सीटें जीत ले गयी लेकिन केंद्र में नरसिम्हा राव के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार ने पांच साल तक राज किया। इसी तरह 1996 में उत्तरप्रदेश में 52 सीटें जीतने के बावजूद भाजपा केंद्र में सरकार नहीं बना पायी और वाजपेयी के नेतृत्ववाली सरकार सिर्फ 13 दिन में गिर गयी।

हालांकि 1998 में केंद्र में वाजपेयी के नेतृत्ववाली एनडीए सरकार के सत्ता में आने के बाद कुछ समय के लिए ऐसा लगा कि उत्तरप्रदेश की राष्ट्रीय राजनीति में वापसी हो गयी है लेकिन सच्चाई यह थी कि उत्तरप्रदेश में 57 सीटें जीतने के बावजूद वाजपेयी सरकार की चाभी भाजपा के पास नहीं बल्कि तमिलनाडु की नेता जयललिता के पास थी। जयललिता ने 1999 में वाजपेयी सरकार गिराकर यह साबित भी कर दिया। 1999 में हुए चुनावों के बाद एक बार फिर केंद्र में वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनी लेकिन उसमें उत्तरप्रदेश की भूमिका बहुत सीमित रह गयी थी क्योंकि प्रदेश मे भाजपा की सीटें घटकर लगभग आधी यानी 29 रह गयीं। दूसरी ओर, सपा, बसपा और कांग्रेस ने लगभग 50 सीटें जीतीं लेकिन राष्ट्रीय राजनीति में अप्रासंगिक बनी रहीं।

पिछले लोकसभा चुनावों में उत्तरप्रदेश में सपा को 35 सीटें मिलीं लेकिन राष्ट्रीय राजनीति में वह हाशिए पर ही पड़ी रही। कांग्रेस के नेतृत्व में बनी यूपीए सरकार को समर्थन देने के बावजूद सपा और उसके साथ-साथ उत्तरप्रदेश केन्द्रीय सत्ता से अलग-थलग ही पड़े रहे। यहां तक कि वे दोनों राष्ट्रीय राजनीति में एक मजबूत विपक्ष की धुरी भी नहीं बन पाए। अपनी ही राजनीतिक मजबूरियों के कारण सपा न तो पूरी तरह से केंद्रीय सत्ता और उसकी धुरी बनी कांग्रेस के साथ रह पायी और न ही गैर कांग्रेस-गैर भाजपा विपक्ष का नेतृत्व कर पायी।

आज स्थिति यह है कि सपा न कांगे्रस के साथ है और न उससे दूर है, न वह तीसरे मोर्चे में है और न उससे दूर है। वह त्रिशंकु की तरह कथित चैथे में है जो चुनावों के बाद किस घाट लगेगा, किसी को पता नहीं है। लेकिन उत्तरप्रदेश की राजनीति में सपा अब भी एक मजबूत ताकत बनी हुई है। वह 2004 के चुनावों की तरह सीटें तो नहीं जीत पाएगी लेकिन सवाल यह है कि अपनी मौजूदा रणनीति के कारण क्या वह चुनावों के बाद भी राष्ट्रीय राजनीति में अलग-थलग ही पड़ी रहेगी या केंद्रीय सत्ता में भागीदार बनेगी?

दूसरी ओर, 2007 के विधानसभा चुनावों में शानदार जीत के साथ राज्य में अकेले दम पर सत्ता में पहुँचने वाली बसपा पर सभी की निगाहें हैं। बसपा की नेता और राज्य की मुख्यमंत्री मायावती ने अपनी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाएं कभी नहीं छुपाई हैं। वे उत्तरप्रदेश में दलित की बेटी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए वोट मांग रही हैं। लेकिन उनके सामने राज्य में 2007 के प्रदर्शन को दोहराने और राष्ट्रीय राजनीति में खुद को सर्व स्वीकार्य बनाने की कठिन चुनौती है। उत्तरप्रदेश में यह लगभग आम राय है कि मायावती 2007 के विधानसभा चुनावों के प्रदर्शन को दोहरा नहीं पाएंगी। इसकी वजह यह है कि न सिर्फ उनके चुनाव जीताऊ सामाजिक गठबंधन में छीजन आई है बल्कि वे कुछ हद तक शुरुआती सत्ता विरोधी (एंटी इन्कम्बेंसी) भावना का भी सामना कर रही हैं। इस कारण उन्हें 50-55 सीटें तो आती नहीं दिख रही हैं और इस बात के आसार बढ़ रहे हैं कि वे 30-35 सीटें जीतकर भी पिछली बार के मुलायम सिंह की तरह राष्ट्रीय राजनीति में अलग-थलग ही पड़ी रहें।

तो क्या इसका यह अर्थ है कि राष्ट्रीय राजनीति में खासकर केंद्र की सत्ता से उत्तरप्रदेश का अलगाव बना रहेगा? इसका ठीक-ठीक उत्तर 16 मई के बाद ही मिलेगा लेकिन इतना तय है कि पिछले दो दशक से राष्ट्रीय राजनीति में हाशिए पर पड़े उत्तरप्रदेश को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी है। विकास की दौड़ में बहुत पीछे छूट गया है। इसलिए भी हुआ है कि इन वर्षों में केन्द्रीय सत्ता ने उत्तरप्रदेश की उपेक्षा की है और एक गरीब और पिछड़ा राज्य होने के कारण उसे जितने संसाधन मुहैया कराए जाने चाहिए थे, उनसे महरूम रखा गया है।

लेकिन उत्तरप्रदेश की यह उपेक्षा सिर्फ इसलिए नहीं हुई है कि उसकी राजनीति,राष्ट्रीय राजनीति की विपरीत दिशा पकड़कर चलने की आदती हो गयी है बल्कि इस उपेक्षा के लिए राज्य का वह राजनीतिक नेतृत्व अधिक जिम्मेदार रहा है जिसकी राजनीतिक दृष्टि सत्ता से बाहर कुछ नहीं देख पाती है। उसने ईमानदारी से न तो राज्य और न ही केंद्र में एक सक्रिय, प्रभावी और सशक्त विपक्ष की भूमिका निभाया है। सपा और बसपा केंद्र की राजनीति में और कांग्रेस और भाजपा राज्य की राजनीति में एक मजबूत विपक्ष की भूमिका भी निभाते तो उत्तरप्रदेश की ऐसी अनदेखी नहीं होती जैसी पिछले डेढ़-दो दशकों में हुई है।

असल में, इससे पता चलता है कि इन चारों राजनीतिक दलों का संघर्ष की राजनीति से कोई रिश्ता नहीं रह गया है। उनका सारा जोर जोड़तोड़ करके सत्ता हासिल करने पर रहता है। लेकिन अगर किसी कारण सत्ता से दूर रह गए तो वे विपक्ष की भूमिका ईमानदारी से निभाने के बजाय निष्क्रियता और सत्तापरस्ती के शिकार हो जाते हैं। राज्य की राजनीति में कांग्रेस और भाजपा की मौजूदा स्थिति उनकी इसी निष्क्रियता और सत्तापरस्ती का नतीजा है। दूसरी ओर, सपा और बसपा के लिए अपने-अपने नेता के व्यक्तिगत हित और सत्ता स्वार्थ इतने बलवान हैं कि वे राष्ट्रीय राजनीति में किसी स्थायी,नीतिगत और व्यापक मोर्चे के हिस्सा बनने की पात्रता ही नहीं रखते हैं।

लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि राष्ट्रीय राजनीति में उत्तरप्रदेश का कोई महत्व नहीं है। उत्तरप्रदेश के महत्व को सभी अच्छी तरह समझ रहे हैं। उसके बढ़ते महत्व का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि कंेद्र की सत्ता के सभी दावेदारों ने राज्य में पूरी ताकत झोंक रखी है। कोई भी बिना लड़े, राज्य की एक ईंच राजनीतिक जमीन छोड़ने के लिए तैयार नहीं है। इस मायने में उत्तरप्रदेश का राष्ट्रीय राजनीति में पुर्नप्रवेश हो रहा है क्योंकि केंद्र की सत्ता के सभी दावेदारों पता चल गया है कि दिल्ली का पक्का रास्ता लखनऊ होकर ही जाता है। प्रदेश की राजनीति में मायावती के उभार के बाद किसी के लिए उत्तरप्रदेश की अनदेखी करना संभव नहीं रह गया है। नतीजा चाहे जा आए लेकिन इसबार दिल्ली में लखनऊ की तूती बोलेगी।