क्या दिल्ली जाने का रास्ता इस बार लखनऊ से होकर गुजरेगा?
आनंद प्रधान
कहते हैं कि दिल्ली जाने का रास्ता लखनऊ होकर गुजरता है। देश में आजादी के बाद हुए पहले नौ आम चुनावों तक यह राजनीतिक मुहावरा बिल्कुल सटीक था। जिस भी पार्टी ने उत्तरप्रदेश की अधिकांश सीटें जीतीं, केन्द्र में सरकार बनाने का मौका उसे ही मिला। पहले 40 वर्षों में केंद्र में कांग्रेस के एकछत्र राज और यहां तक कि जब 1977 और फिर 1989 में केंद्र में गैर कांग्रेसी सरकारें बनीं तो उसमें भी सबसे महत्वपूर्ण भूमिका उत्तरप्रदेश की ही थी। सिर्फ इसलिए नहीं कि उत्तरप्रदेश में तब किसी अन्य राज्य की तुलना में काफी अधिक 85 सीटें थीं बल्कि इसलिए भी कि पहले राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस के एकछत्र वर्चस्व के लिए जरूरी आधार मुहैया करानेवाले इंद्रधनुषी सामाजिक गठबंधन - ब्राह्मण, मुसलमान और दलित की प्रयोगभूमि उत्तरप्रदेश ही था और राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस के वर्चस्व को चुनौती देनेवाले सामाजिक गठबंधन-पिछड़ी और मध्यवर्ती जातियों का उभार भी यहीं हुआ।
लेकिन 1989 के बाद मंडल, मंदिर और दलित दावेदारी की तीन अलग-अलग धाराओं की राजनीति का अखाड़ा बन गए उत्तरप्रदेश की राष्ट्रीय राजनीति में हैसियत लगातार कमजोर होती चली गयी है। 90 के दशक मंे ऐसा लगने लगा कि उत्तरप्रदेश की राष्ट्रीय राजनीति खासकर केंद्र की सत्ता से विदाई हो गयी है। उत्तरप्रदेश ने ऐसी राह पकड़ ली जो दिल्ली नहीं जाती थी। 1991 में भारतीय जनता पार्टी मंदिर और राम लहर पर चढ़कर राज्य 85 में 51 सीटें जीत ले गयी लेकिन केंद्र में नरसिम्हा राव के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार ने पांच साल तक राज किया। इसी तरह 1996 में उत्तरप्रदेश में 52 सीटें जीतने के बावजूद भाजपा केंद्र में सरकार नहीं बना पायी और वाजपेयी के नेतृत्ववाली सरकार सिर्फ 13 दिन में गिर गयी।
हालांकि 1998 में केंद्र में वाजपेयी के नेतृत्ववाली एनडीए सरकार के सत्ता में आने के बाद कुछ समय के लिए ऐसा लगा कि उत्तरप्रदेश की राष्ट्रीय राजनीति में वापसी हो गयी है लेकिन सच्चाई यह थी कि उत्तरप्रदेश में 57 सीटें जीतने के बावजूद वाजपेयी सरकार की चाभी भाजपा के पास नहीं बल्कि तमिलनाडु की नेता जयललिता के पास थी। जयललिता ने 1999 में वाजपेयी सरकार गिराकर यह साबित भी कर दिया। 1999 में हुए चुनावों के बाद एक बार फिर केंद्र में वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनी लेकिन उसमें उत्तरप्रदेश की भूमिका बहुत सीमित रह गयी थी क्योंकि प्रदेश मे भाजपा की सीटें घटकर लगभग आधी यानी 29 रह गयीं। दूसरी ओर, सपा, बसपा और कांग्रेस ने लगभग 50 सीटें जीतीं लेकिन राष्ट्रीय राजनीति में अप्रासंगिक बनी रहीं।
पिछले लोकसभा चुनावों में उत्तरप्रदेश में सपा को 35 सीटें मिलीं लेकिन राष्ट्रीय राजनीति में वह हाशिए पर ही पड़ी रही। कांग्रेस के नेतृत्व में बनी यूपीए सरकार को समर्थन देने के बावजूद सपा और उसके साथ-साथ उत्तरप्रदेश केन्द्रीय सत्ता से अलग-थलग ही पड़े रहे। यहां तक कि वे दोनों राष्ट्रीय राजनीति में एक मजबूत विपक्ष की धुरी भी नहीं बन पाए। अपनी ही राजनीतिक मजबूरियों के कारण सपा न तो पूरी तरह से केंद्रीय सत्ता और उसकी धुरी बनी कांग्रेस के साथ रह पायी और न ही गैर कांग्रेस-गैर भाजपा विपक्ष का नेतृत्व कर पायी।
आज स्थिति यह है कि सपा न कांगे्रस के साथ है और न उससे दूर है, न वह तीसरे मोर्चे में है और न उससे दूर है। वह त्रिशंकु की तरह कथित चैथे में है जो चुनावों के बाद किस घाट लगेगा, किसी को पता नहीं है। लेकिन उत्तरप्रदेश की राजनीति में सपा अब भी एक मजबूत ताकत बनी हुई है। वह 2004 के चुनावों की तरह सीटें तो नहीं जीत पाएगी लेकिन सवाल यह है कि अपनी मौजूदा रणनीति के कारण क्या वह चुनावों के बाद भी राष्ट्रीय राजनीति में अलग-थलग ही पड़ी रहेगी या केंद्रीय सत्ता में भागीदार बनेगी?
दूसरी ओर, 2007 के विधानसभा चुनावों में शानदार जीत के साथ राज्य में अकेले दम पर सत्ता में पहुँचने वाली बसपा पर सभी की निगाहें हैं। बसपा की नेता और राज्य की मुख्यमंत्री मायावती ने अपनी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाएं कभी नहीं छुपाई हैं। वे उत्तरप्रदेश में दलित की बेटी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए वोट मांग रही हैं। लेकिन उनके सामने राज्य में 2007 के प्रदर्शन को दोहराने और राष्ट्रीय राजनीति में खुद को सर्व स्वीकार्य बनाने की कठिन चुनौती है। उत्तरप्रदेश में यह लगभग आम राय है कि मायावती 2007 के विधानसभा चुनावों के प्रदर्शन को दोहरा नहीं पाएंगी। इसकी वजह यह है कि न सिर्फ उनके चुनाव जीताऊ सामाजिक गठबंधन में छीजन आई है बल्कि वे कुछ हद तक शुरुआती सत्ता विरोधी (एंटी इन्कम्बेंसी) भावना का भी सामना कर रही हैं। इस कारण उन्हें 50-55 सीटें तो आती नहीं दिख रही हैं और इस बात के आसार बढ़ रहे हैं कि वे 30-35 सीटें जीतकर भी पिछली बार के मुलायम सिंह की तरह राष्ट्रीय राजनीति में अलग-थलग ही पड़ी रहें।
तो क्या इसका यह अर्थ है कि राष्ट्रीय राजनीति में खासकर केंद्र की सत्ता से उत्तरप्रदेश का अलगाव बना रहेगा? इसका ठीक-ठीक उत्तर 16 मई के बाद ही मिलेगा लेकिन इतना तय है कि पिछले दो दशक से राष्ट्रीय राजनीति में हाशिए पर पड़े उत्तरप्रदेश को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी है। विकास की दौड़ में बहुत पीछे छूट गया है। इसलिए भी हुआ है कि इन वर्षों में केन्द्रीय सत्ता ने उत्तरप्रदेश की उपेक्षा की है और एक गरीब और पिछड़ा राज्य होने के कारण उसे जितने संसाधन मुहैया कराए जाने चाहिए थे, उनसे महरूम रखा गया है।
लेकिन उत्तरप्रदेश की यह उपेक्षा सिर्फ इसलिए नहीं हुई है कि उसकी राजनीति,राष्ट्रीय राजनीति की विपरीत दिशा पकड़कर चलने की आदती हो गयी है बल्कि इस उपेक्षा के लिए राज्य का वह राजनीतिक नेतृत्व अधिक जिम्मेदार रहा है जिसकी राजनीतिक दृष्टि सत्ता से बाहर कुछ नहीं देख पाती है। उसने ईमानदारी से न तो राज्य और न ही केंद्र में एक सक्रिय, प्रभावी और सशक्त विपक्ष की भूमिका निभाया है। सपा और बसपा केंद्र की राजनीति में और कांग्रेस और भाजपा राज्य की राजनीति में एक मजबूत विपक्ष की भूमिका भी निभाते तो उत्तरप्रदेश की ऐसी अनदेखी नहीं होती जैसी पिछले डेढ़-दो दशकों में हुई है।
असल में, इससे पता चलता है कि इन चारों राजनीतिक दलों का संघर्ष की राजनीति से कोई रिश्ता नहीं रह गया है। उनका सारा जोर जोड़तोड़ करके सत्ता हासिल करने पर रहता है। लेकिन अगर किसी कारण सत्ता से दूर रह गए तो वे विपक्ष की भूमिका ईमानदारी से निभाने के बजाय निष्क्रियता और सत्तापरस्ती के शिकार हो जाते हैं। राज्य की राजनीति में कांग्रेस और भाजपा की मौजूदा स्थिति उनकी इसी निष्क्रियता और सत्तापरस्ती का नतीजा है। दूसरी ओर, सपा और बसपा के लिए अपने-अपने नेता के व्यक्तिगत हित और सत्ता स्वार्थ इतने बलवान हैं कि वे राष्ट्रीय राजनीति में किसी स्थायी,नीतिगत और व्यापक मोर्चे के हिस्सा बनने की पात्रता ही नहीं रखते हैं।
लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि राष्ट्रीय राजनीति में उत्तरप्रदेश का कोई महत्व नहीं है। उत्तरप्रदेश के महत्व को सभी अच्छी तरह समझ रहे हैं। उसके बढ़ते महत्व का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि कंेद्र की सत्ता के सभी दावेदारों ने राज्य में पूरी ताकत झोंक रखी है। कोई भी बिना लड़े, राज्य की एक ईंच राजनीतिक जमीन छोड़ने के लिए तैयार नहीं है। इस मायने में उत्तरप्रदेश का राष्ट्रीय राजनीति में पुर्नप्रवेश हो रहा है क्योंकि केंद्र की सत्ता के सभी दावेदारों पता चल गया है कि दिल्ली का पक्का रास्ता लखनऊ होकर ही जाता है। प्रदेश की राजनीति में मायावती के उभार के बाद किसी के लिए उत्तरप्रदेश की अनदेखी करना संभव नहीं रह गया है। नतीजा चाहे जा आए लेकिन इसबार दिल्ली में लखनऊ की तूती बोलेगी।
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