मतदान का प्रतिशत कम देखकर भाजपा नेताओं को भीतर ही भीतर यह बात परेशान कर रही है कि कहीं इस बार फिर पार्टी सत्ता की दौड़ में पिछड़ तो नहीं जाएगी।
राजीव पांडे
पंद्रहवीं लोकसभा के लिए 372 सीट पर मतदान हो चुका है लेकिन अभी तक स्थिति साफ नहीं हो पाई है कि इस बार सदन का सदन का स्वरूप कैसा होगा। हालांकि दोनों बड़े दल कांग्रेस तथा भारतीय जनता पार्टी अपनी-अपनी जीत का दावा कर रहे हैं लेकिन सच्चाई तो यह है कि दल तो क्या किसी भी गठबंधन या मोर्चे को अपने बल पर सरकार बनाने के लिए 272 के अंक को छूना मुश्किल नजर आता है।
इन तीन चरणों में औसत मतदान का प्रतिशत बहुत ज्यादा नहीं रहा है, जिससे सत्तारूढ़ गठबंधन में थेड़ी खुशी है क्योंकि उनके विचार में इसका एक अर्थ यह हो सकता है कि सरकार के खिलाफ जनता में कोई नाराजगी नहीं है। अगर जनता में सरकार के खिलाफ गुस्सा होता तो वह बढ़-चढ़कर वोट देती। हालांकि विपक्षी दल इससे सहमत नहीं हैं। उनका मानना है कि इस बार भीषण गर्मी के कारण वोटर बाहर निकलनें से बचा। लेकिन अंदर ही अंदर भारतीय जनता पार्टी को भी यह बात परेशान कर रही है कि कहीं इस बार फिर वह सत्ता की दौड़ में पिछड़ तो नहीं जाएगी।
पहले चरण में जहां यह प्रतिशत साठ के आसपास था, वह दूसरे में कम होकर पचपन और पिछले सप्ताह हुए तीसरे चरण में पचास से नीचे चला गया। तीसरे चरण में जिन 107 सीट पर मतदान हुआ, उसमें से भाजपा के पास चौवालीस, कांग्रेस के पास उनतीस तथा अन्य के पास चौंतीस सीट थी। ये सीटें जिन राज्यों में हैं उनमें मध्य प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक और बिहार भी शामिल हैं, जहां भाजपा को और अच्छा करने की उम्मीद थी। अगर यह मान भी लें कि कम मतदान का मतलब लोगों का सरकार के कामकाज से विरोध नहीं है, फिर भी कर्नाटक में श्रीराम सेना जसे कुछ मुद्दे निश्चित ही मतदाताओं को प्रभावित करेंगे। कांग्रेस इन राज्यों में अपनी स्थिति सुधारने के लिए भाजपा को कड़ी टक्कर दे रही है और स्थिति में कोई बहुत ज्यादा फर्क आएगा, ऐसा मुश्किल प्रतीत होता है।
अब जिन 171 सीट पर मतदान होना है, उनमें तमिलनाडु की 39, राजस्थान की 25, पंजाब की 13, हरियाणा की दस तथा उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल की बाकी बची 32 और 28 सीट शामिल हैं। इनमें से 46 सीट कांग्रेस के पास, 33 भारतीय जनता पार्टी तथा 89 अन्य के पास थीं। इन राज्यों में भी कमोबेश यथास्थिति ही बने रहने की उम्मीद है। इसके कारण राजग के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणी के देश की कमान संभालने के सपने पर एक बड़ा सवालिया निशान लगता नजर आता है।
उत्तर प्रदेश, जहां से सर्वाधिक सांसद चुन कर आते हैं, इस आशय की खबरें आ रही हैं कि यहां कांग्रेस ही नहीं, भाजपा भी अपनी स्थिति में सुधार कर सकती है। इस प्रदेश में दो भाई राहुल तथा वरुण गांधी की कोशिशों को इसका श्रेय दिया जा रहा है। हालांकि दोनों के प्रचार का तरीका एकदम अलग-अलग रहा। कांग्रेस इन खबरों से काफी प्रसन्न है कि उसका पुराना वोट बैंक वापस लौट सकता है। इसके लिए उसे वरुण गांधाी को श्रेय देना चाहिए क्योंकि उनके एक समुदाय विरोधी कड़े बयानों से ध्रुवीकरण की नई प्रक्रिया शुरू हुई है।
इस घटनाक्रम से प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रही प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती को धक्का लग सकता है, क्योंकि वहां से रिपोर्ट आ रही है कि इस नए ध्रुवीकरण से मायावती की सोशल इंजीनियरिंग की योजना को नुकसान हो रहा है। इस कार्ड की बदौलत उन्होंने गत विधानसभा में जिस तरह से विरोधियों को मात दी थी वह इस बार उनके लिए बहुत अधिक मददगार साबित नही हो पा रहा है। हालांकि उनकी पार्टी के सांसदों की संख्या में बढ़ोतरी तो होगी लेकिन उतनी नहीं जिसके बल पर वह प्रधानमंत्री बनने की दावेदारी रख पाएं।
इन चुनावों में एक बार फिर छोटे तथा क्षेत्रीय दल अच्छा प्रदर्शन कर सकते हैं इसलिए चुनाव परिणामों के बाद इनकी पूछ एक बार फिर बढ़ जाएगी। इन दलों को लेकर तोड़फोड़ तथा सेंधमारी अभी से शुरू भी हो गई है। तेलंगाना राष्ट्र समिति, जो अभी तक तीसरे मोर्चे के साथ थी, अब यह कह रही है वह उसके साथ जाएगी जो पृथक तेलंगाना राज्य का समर्थन करेगा। इसी तरह तेलगु सुपरस्टार चिरंजीवी की पार्टी प्रजा राज्यम को तेलगु देशम के चंद्रबाबू नायडू अपने साथ लाने का प्रयास कर रहे हैं। हालांकि चिरंजीवी इस बात को सार्वजनिक रूप से कह चुके हैं कि वह राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के शरद पवार का प्रधानमंत्री पद के लिए समर्थन करते हैं।
भारतीय जनता पार्टी को अभी भी यह उम्मीद है कि ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में वापस आ सकती है। तृणमूल कांग्रेस इस बार कांग्रेस के साथ मिलकर पश्चिम बंगाल में चुनाव लड़ रही है। भाजपा के प्रधानमत्री पद के उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणी ने हाल ही में कोलकाता हवाई अड्डे पर संवाददाताओं से कहा कि अब यह तो ममता को ही फैसला करना है कि वह राजग में वापस आना चाहती हैं या कांग्रेस के साथ रहना चाहती हैं। यह बयान वैसा ही है, जसे कोई कुएं में गिरे लोटा तलाशने की कोशिश कर रहा हो। आडवाणी तरह-तरह से क्षेत्रीय दलों को लुभाने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन उनका सपना पूरा होता नहीं लगता।
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