Saturday, May 30, 2009

संघ की गुलामी का भविष्य

भाजपा के पास भी एक गांधी है लेकिन उसने राजनीति की पारी जिस अंदाज से शुरू की है उससे उसकी उछाल सीमित हो गई है।


राजीव पांडे

भारतीय जनता पार्टी इन आम चुनावों में सबसे बड़े विपक्षी दल के रूप में उभरी है। हालांकि उसने सत्ता वापस पाने के लिए भरपूर प्रयास किए लेकिन वह इसमें कामयाब नहीं हो पाई। इसके कई कारण बताए जा रहे हैं लेकिन एक कारण जो सभी मान रहे हैं वह है कि जनता अब एक स्थिर और काम करने वाली सरकार चाहती थी। तो क्या यह समझा जाए कि मतदाता भाजपा को इस लायक नहीं समझते हैं कि वह देश को एक स्थिर सरकार दे सकती है)

भाजपा ने ही देश भर में कांग्रेस के प्रभुत्व को खत्म करने में सफलता पाई थी और आज भी वही एक दल है जो कांग्रेस के वर्चस्व को चुनौती देने में सक्षम है। लेकिन अब जब चुनावों की खुमारी उतरने लगी है तो इस बात पर संदेह होने लगा है कि क्या इस पार्टी का वही दमखम बना रहेगा। यह शक होने के कई कारण हैं। इस पार्टी के जो दो सबसे दिग्गज नेता थे- अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी-उनमें से वाजपेयी इस चुनाव से पहले ही सक्रिय राजनीति से अलग हो गए और अब आडवाणी भी सक्रिय राजनीति से अलग होना चाहते हैं। वैसे भी जब पांच साल बाद चुनाव होंगे तो आडवाणी की उम्र को देखते हुए उनसे इसी सक्रियता से काम करने की अपेक्षा करना सही नहीं होगा।

अभी तक आडवाणी ही थे जो पार्टी के आधार को व्यापक बनाने, संगठन को मजबूत करने और पार्टी में एकता बनाए रखने में मुख्य भूमिका निभाते रहे। अब पार्टी एक तरह से दोराहे पर खड़ी है। उसे अपना रास्ता एकबारगी तय करना है कि वह क्या चाहती है। क्या वह फिर से राम मंदिर जसे भावनात्मक मुद्दों को उठाने वाली पुरानी पार्टी बन जाए या फिर मुख्यधारा में शामिल हो विकास की बात करने वाली पार्टी बने। इस मामले में ध्यान देने वाली बात यह है कि अब वाजपेयी भारतीय जनता पार्टी के काम में कोई दिलचस्पी नहीं लेते। एक वही नेता थे जिन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी बात मनवाने के लिए बाध्य नहीं कर सकता था।

संघ ने जिन्ना के मुद्दे को लेकर किस तरह आडवाणी को पार्टी अध्यक्ष का पद छोड़ने के लिए बाध्य किया, वह किसी से छिपा नहीं है। इससे इन अंदेशों को बल मिलता है कि अब पार्टी के मामले में संघ का हस्तक्षेप बढ़ता ही जाएगा। संघ के साथ ही विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल जसे संगठन भी अब अपना खेल दूसरी तरह से खेलना शुरू करेंगे। अभी तक भाजपा उनकी हर बात का समर्थन नहीं करती थी जिससे परिषद और भाजपा के बीच कई बार तनातनी की स्थिति भी बन गई। आडवाणी की पार्टी मामलों में जब सक्रियता कम होने लगेगी तो क्या होगा, इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है।

अब कोई ऐसा नेता नजर नहीं आता जो संघ को अपनी जगह पर रखने के लिए उससे बात कर सके। इस परिदृश्य में मुरली मनोहर जोशी ही बचते हैं जो संघ से बात कर सकते हैं लेकिन उनकी स्वीकार्यता पार्टी में नजर नहीं आती। पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह, अरुण जेटली तथा सुषमा स्वराज सरीखे दूसरी पीढ़ी के नेताओं के पास संघ की बात सुनने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी प्रदेश में संघ से टकराव ले चुके हैं लेकिन अल्पसंख्यक विरोधी उनकी छवि राष्ट्रीय नेता बनने के उनके सपने में आड़े आएगी। दूसरी बात उनके राष्ट्रीय परिदृश्य में सक्रिय होने से राजग का बिखराव निश्चित हो जाएगा। जनता दल-यू ने तो मोदी को चुनावों में बिहार नहीं आने दिया और चुनाव परिणामों के बाद तो और तल्ख अंदाज में यह भी कहा कि मोदी और वरुण गांधी के कारण ही राजग को हार का सामना करना पड़ा।
यदि भाजपा ने विकास के रास्ते को नहीं चुना तो राजग को बांधे रहना मुश्किल हो जाएगा। उड़ीसा में बीजू जनता दल ने जिस तरह से भाजपा से संबंध तोड़ने के बाद उसका राज्य से सफाया कर दिया, वह बिहार में नीतीश कुमार भी कर सकते हैं। राजग का एक अन्य घटक अकाली दल भी साफ-साफ कह चुका है कि भाजपा सांप्रदायिक हो चुकी है इसलिए हमें हार का सामना करना पड़ा।

इसी राजग के दम पर भाजपा ने कांग्रेस को किनारे कर दिया था और अब यही राजग भाजपा को किनारे लगा सकता है। भाजपा को यह समझ लेना चाहिए कि अब घृणा की राजनीति के दिन लद गए हैं। किसी एक वर्ग, धर्म या जाति के लोगों को लेकर अब राजनीति नहीं की जा सकती। दूसरे उसे साफ छवि के युवा नेताओं को आगे कर पार्टी को एक नई छवि देनी चाहिए। उसके पास इस समय एक भी ऐसा नेता नहीं है जो कांग्रेस के राहुल गांधी की तोड़ रखता हो। हालांकि भाजपा के पास भी एक गांधी है लेकिन उसने राजनीति की पारी जिस अंदाज से शुरू की है उससे उसकी उछाल सीमित हो गई है।

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