Wednesday, September 24, 2008

कैसा होगा नेपाल का लोकतंत्र?

यह सवाल तमाम लोगों के दिमाग को मथ रहा है कि जिस तरह के तंत्र की परिकल्पना की जा रही है वह वह जनता को मान्य होगा या नहीं?

राजीव पांडे


नेपाल के प्रधानमंत्री के रूप में पहली आधिकारिक यात्रा पर आए पुष्प कमल दहल उर्फ प्रचंड के लिए भारत की धरती कोई नई नहीं है। वे पहले भी आते थे पर छिप-छिप कर। सुरक्षाकर्मियों से नजरें बचाकर। लेकिन इस बार आए शान से। अपने भारत विरोधी और भड़काऊ किस्म के बयानों के लिए प्रसिद्ध रहे प्रचंड का स्वभाव सत्ता में आने के बाद कुछ बदला है, लेकिन कभी-कभी उनका क्रांतिकारी मन जाग ही उठता है। प्रचंड ने अपनी भारत यात्रा के दैारान भारत-नेपाल मैत्री संघ के प्रतिनिधियों के साथ बैठक में यह बयान देकर सबको चौंका दिया कि उनके देश में संसदीय लोकतंत्र या विश्व के कई अन्य देशों में प्रचलित लोकतांत्रिक व्यवस्था नहीं वरन एक नई शासन व्यवस्था लाई जाएगी।


लेकिन यह साम्यवादी गणतंत्र नहीं वरन एक प्रभावशाली लोकतांत्रिक प्रणाली होगी, जिसे नेपाल की परिस्थितियों को ध्यान में रखकर विशेष रूप से बनाया जा रहा है। उन्होंने इसका और अधिक ब्योरा तो नहीं दिया लेकिन कहा कि यह न तो साम्यवादी लोकतांत्रिक प्रणाली होगी और न ही यह बुर्जुआवादी लोकतांत्रिक प्रणाली से प्रभावित होगी। अब सब सेाच रहे हैं कि प्रचंड का यह लोकतंत्र कैसा होगा। ऐसा लगता है कि उन्होंने इस बारे में नेपाल में भी अधिक लोगों को विश्वास में नहीं लिया है क्योंकि यह बयान आते ही नेपाली कांग्रेस की तरफ से उनकी तीखी आलोचना की गई। पूर्व प्रधानमंत्री और नेपाली कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गिरिजा प्रसाद कोइराला ने आगाह किया कि प्रधानमंत्री द्वारा देश में संसदीय लोकतंत्र और समाजवाद की खिलाफत माओवादियों को मंहगी पड़ेगी। कोइराला के अनुसार प्रचंड देश में पिछले दरवाजे से कम्युनिस्ट शासन की बहाली के लिए जो जाल बुन रहे हैं वह उसी में फंसेंगे। उनका कहना था कि नेपाल में इस समय जो व्यवस्था है वह समाजवाद, साम्यवाद और संसदीय लोकतंत्र का मिला-जुला रूप है जिसे नेपाली कांग्रेस ने भी स्वीकार किया है। इसकी अवहेलना माओवादियों के लिए खुद ही परेशानी का सबब बनेगी।


प्रचंड के इस बयान से शंका इसलिए पैदा होती है कि प्रधानमंत्री पद संभालने से कुछ समय पहले प्रचंड ने माओवादियों की एक सभा में चेतावनी दी थी कि वह न केवल सत्ता पर जबरन कब्जा कर सकते हैं वरन देश में गणतंत्र की बजाय साम्यवादी गणतंत्र भी स्थापित कर सकते हैं। प्रचंड वैसे भी इस बात से नाराज चल रहे हैं कि माओवादी अपने उम्मीदवार को राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति नहीं बना पाए। प्रचंड नेपाल के मीडिया से भी खुश नही हैं। वह देश के सबसे बड़े मीडिया समूह ‘कांतिपुरज् को तो स्पष्ट चेतावनी दे चुके हैं कि अगर उसने माओवादियों की आलोचना बंद नही की तो उसे गंभीर परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं। प्रचंड का तर्क है कि हमें जनता ने चुना है इसलिए हम अब और आलोचना नहीं सहेंगे। लेकिन लोकतंत्र में तो अभिव्यक्ति की पूरी स्वतंत्रता होती है और लगता है कि प्रचंड इसे समझ नहीं पा रहे हैं इसीलिए वह एसी व्यवस्था चाहते हैं जहां वह निरंकुश शासन कर सकें। हालांकि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में प्रचंड का ऐसा करना संभव नजर नहीं आता क्योंकि वह एक मिलीजुली सरकार चला रहे हैं। बिना फिर विद्रोह के उनका लक्ष्य असंभव है।


राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि संसदीय लोकतंत्र पर प्रचंड को अपने दल में भी खासी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। संगठन प्रमुख मोहन वैद्य का मानना है कि बहुदलीय शासन प्रणाली नेपाल में सफल नहीं रही है इसलिए देश में साम्यवादी शासन प्रणाली होनी चाहिए। इसी प्रणाली में राजनीतिक दलों को एक-दूसरे के खिलाफ प्रतिस्पर्धा करने की इजाजत दी जा सकती है। लेकिन पार्टी के दूसरे प्रभावशाली नेता बाबूराम भट्टाराई जसे कुछ अन्य नेता अपने सामाजिक-आर्थिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए वर्तमान शासन प्रणाली को ही इस्तेमाल किए जाने के पक्ष में हैं। प्रचंड को इससे निपटने में काफी मशक्कत करनी पड़ सकती है।


प्रचंड की भारत यात्रा को उनकी पहली राजकीय यात्रा करार दिया गया है। हालांकि प्रधानमंत्री बनने के तुरंत बाद वह बीजिंग यात्रा पर गए थे। लेकिन चीन यात्रा को बीजिंग ओलंपिक खेलों के समापन समारोह से जोड़ दिया गया। इससे लगता तो यही है कि प्रचंड नेपाल नरेशों की तर्ज पर चीन कार्ड खेलने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन इसका नफा-नुकसान तो कुछ समय के बाद ही सामने आएगा ।


उनकी भारत यात्रा काफी हद तक सफल रही कि दोनों देश 1950 की भारत- नेपाल मैत्री संधि की समीक्षा पर राजी हो गए। संधियों की समीक्षा होना एक आम बात है। दूसरे पड़ोसी भूटान के साथ संधि की समीक्षा हो ही चुकी है । दो देशों के बीच ऐसा होता रहता है और फिर यह तो आधी सदी से अधिक पुरानी हो चुकी है। नेपाल में तो पूरा निजाम ही बदल गया है। यह संधि तब की है जब नेपाल में कुछ समय के लिए राणाओं का शासन था। अब तो राजतंत्र खत्म होने के साथ ही माओवादी शासन में हैं। अंतर इतना है कि भारत के खिलाफ बयानबाजी करने वाले माओवादी अब ऐसी मांग कर रहे हैं क्योंकि उन्होंने इसे एक अहम राजनीतिक मुद्दा बना दिया था।

Friday, September 19, 2008

लचर और लाचार होती पुलिस

नियोजित अपराध की पूर्व सूचना पुलिस को मिल नहीं पाती, अपराध होने पर वह दोषी को पकड़ नहीं पाती और दोषी पकड़ा जाए तो अदालत से सजा नहीं दिला पाती।

प्रदीप सिंह

डंकन फोर्ब्स का एक शब्दकोश है इग्लिश से हिंदुस्तानी। इसमें पुलिस शब्द का अर्थ दिया है- बंदोबस्त, इंतजाम, रब्त और जब्त। हिंदी के एक शब्द का इस्तेमाल करें तो कह सकते हैं व्यवस्था। अब सवाल है कि क्या अपने देश में पुलिस का इन शब्दों से कोई नाता रह गया है? पुलिस आज अव्यवस्था और बदइंतजामी का पर्याय क्यों बनती जा रही है। भारतीय पुलिस अधिनियम 1861 में बना था। उसका मकसद अंग्रेज शासकों की सेवा करना था। आजादी के छह दशक बाद भी हम इसे बदल नहीं पाए हैं। शायद यह मानकर कि अंग्रेज हों या हिंदुस्तानी शासक तो शासक ही होता है और पुलिस को उसकी सेवा करना ही चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट ने एक बार किसी मामले की सुनवाई के दौरान पुलिस को वर्दी में गुंडो़ं की गिरोह कहा था। किसी सरकार या पुलिस प्रष्ठिान को यह बुरा नहीं लगा । लगा होता इस छवि को बदलने की कोशिश होती। पर सवाल तो यही है कि कोशिश करे कौन?
पुलिस से परेशानी जनता को है नेता को नहीं। जनता सरकार तो बदल सकती है पुलिस को नहीं बदल सकती। यह काम तो सरकार ही कर सकती है। पर सरकार क्यों करे उसे कोई दिक्कत नहीं है। क्योंकि पुलिस के बदलते ही जनता सुखचैन से रहने लगेगी और नेता, सरकार परेशान हो जाएंगे। मामला आतंकवाद से लड़ने का हो, नक्सल ¨हसा से निपटने का या सामान्य कानून व्यवस्था का पुलिस कहीं अक्षम साबित होती है तो कहीं डरपोक और कहीं रिश्वतखोर व बर्बर।

शिक्षकों पर गोली चलाना हो या मजदूरों और प्रदर्शनकारियों पर लाठी बरसाना, पुलिस का हौसला देखने लायक होता है। पुलिस का मुख्य काम तनाव और टकराव को कम करना है। पर आजकल पुलिस के आने से तनाव और टकराव दोनों ही बढ़ जाते हैं। नियोजित अपराध की पूर्व सूचना पुलिस को मिल नहीं पाती, अपराध होने पर वह दोषी को पकड़ नहीं पाती और दोषी पकड़ा जाए तो अदालत से उसे सजा नहीं दिला पाती।


सीबीआई देश की सबसे बड़ी ही नहीं सबसे भरोसेमंद जांच एजेंसी है। हर पीड़ित चाहता है कि उसके मामले की जांच सीबीआई करे। सीबीआई कैसे काम करती है इसका सबसे ताजा उदाहरण नोएडा में हुए अरुषी हेमराज हत्याकांड का मामला है। एक अभियुक्त राज कुमार ने जमानत पर छूटने के बाद बताया कि सीबीआई उसे यातना देती रही कि वह सरकारी गवाह बन जाए। इसके लिए उसे लालच भी दिया गया। सीबीआई का यह हाल है तो राज्य पुलिस के बारे में आप अंदाजा लगा सकते हैं।
कंधमाल, बंगलुरू या मंगलुरू कहीं के दृश्य देखिए पुलिस हमलावरों के बाद पहुंचती है। पुलिस कब किस मुद्दे पर किस संगठन के खिलाफ कार्रवाई करेगी यह अब अपराध की गंभीरता से तय नहीं होता। यह इस बात से तय होता है कि उस राज्य में सत्ता की बागडोर किस पार्टी के हाथ में है।

आखिर एेसा क्यों है कि कर्नाटक में भाजपा की सरकार बनने के बाद से चर्च पर हमले की घटनाएं बढ़ गई हैं। हमला करने वाले संगठनों का कहना है कि वे ईसाइयों या ईसाइयत के खिलाफ नहीं है। उनका विरोध धर्म परिवर्तन कराने वालों से है। उनसे यह पूछने वाला कोई नहीं है कि इससे पहले उनका विरोध क्यों नजर नहीं आया। बिना पूछे भी आप जानते हैं कि उनके अंदर यह हौसला अपनी सरकार होने के कारण है। उन्हें पता है कि उनकी पीठ पर सरकार का हाथ है। पुलिस को भी पता है कि इनके खिलाफ क्या और कितनी कार्रवाई करनी है।


राष्ट्र राज्य की या सामान्य भाषा में कहें तो सत्ता की ताकत असीम होती है। किसी चौराहे पर खड़ा ट्रैफिक पुलिस का सिपाही जब हाथ दिखाता है तो एक हजार रुपए की साईकिल और एक करोड़ की कार पर सवार दोनों रुक जाते हैं। क्यों? इसलिए कि दोनों को पता है कि इसके पीछे राज्य के कानून की ताकत है। उस सिपाही को भी पता होता है कि वह कानून के मुताबिक काम कर रहा है, इसलिए निर्भय है। हमारे नेताओं, अफसरशाहों ने सत्ता के गलियारों तक पहुंच रखने वालों के मन से कानून के भय को और कानून लागू करने वाले के मन की निर्भयता को खत्म कर दिया है। कानून लागू करने के लिए लाठी और गोली नहीं चलानी पड़ती। वह सत्ता में बैठे व्यक्ति की कार्रवाई के प्रति ईमानदारी और इच्छाशक्ति से संचालित होती है। एक छोट सा उदाहरण है। 1990 में बनी चं्रशेखर की सरकार की गिनती सबसे कमजोर सरकारों में की जाएगी। उस समय पंजाब में आतंकवाद अपने चरम पर था। पं्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी को जिला मुख्यालय पर झंडारोहण नहीं होता था।

चं्रेशेखर ने राज्य के राज्यपाल, गृह सचिव और पुलिस महानिदेशक को बुलाया। कहा जितने सुरक्षा बल चाहिए मिलेंगे, लोगों को मारना पड़े तो भी छब्बीस जनवरी को हर जिला मुख्यालय पर झंडारोहण होना चाहिए। पंजाब पुलिस को डंडा भी नहीं चलाना पड़ा।

Wednesday, September 17, 2008

पकड़ा भी तो कपड़ा!

राजेंद्र श्रीवास्तव

राजधानी में बम धमाकों के बाद वही हुआ, जो अन्य शहरों में धमाकों के बाद हुआ था। लोग पकड़े गए, पूछताछ हुई, स्केच जारी किए गए और उनकी तलाश जारी है। मीडियावालों को क्या चाहिए-मौका। उन्हें सुरक्षा एजेंसियों की धज्जियां उड़ाने का नायाब मौका मिल गया। मीडियावाले बहुत ‘लकीज् हैं। उन्हें कुछ न कुछ मिलता रहता है। वह नहीं मिलता है तब भी तलाश लेते हैं। आजकल के पत्रकार खोजी जो हो गए हैं।

नेताओं ने इस बार भी हमेशा की तरह बम विस्फोटों की निंदा की। मृतकों के परिजनों के प्रति संवेदनाएं व्यक्त की। सरकार की ओर से मुआवजे की घोषणा हुई और सुरक्षा एजेंसियां अपराधियों को पकड़ने में लग गईं। यह एक रस्म अदायगी है जो पूरी हो गई। इन सारी चीजों को मीडिया वाले अपने-अपने नजरिए से पाठकों और श्रोताओं को परोस रहे हैं।


मैं उस पत्रकार के नयूज सेंस का कायल हो गया, जिसने एक नई चीज अफरा-तफरी के माहौल में लोगों को दी है। उसकी पारखी नजर ने यह ताड़ लिया कि गृहमंत्री जी तीन जगह तीन ड्रेस में गए। यानी थोड़ी देर में ही तीन बार कपड़े बदले। उनमें ड्रेस ‘सेंसज्, कलर ‘सेंसज् है, माहौल ‘सेंसज् है तभी तो वे गृहमंत्री हैं। और गृहमंत्री भी है तो भारत के, किसी मामूली देश के नहीं। किसी जमाने में लालबहादुर शास्त्री गृहमंत्री हुआ करते थे। लोग बताते हैं कि उन्हें नए कपड़े सिलवाने की सलाह साथ के लोग देते थे कि आदमी क्या पहनता है, क्या खाता है और कैसे रहता है-यह तो उसकी अपनी निजी जिंदगी है। उसमें ताक-झांक का अधिकार किसी को नहीं है।

आपको कैसा लगेगा, अगर कोई कहे कि ‘इस आदमी के पास कपड़े नहीं।ज् अच्छा नहीं लगेगा न! कपड़े बदलने पर आपत्ति नहीं उठानी चाहिए। अगर कहीं शोक का माहौल तो वहां रंगीला, भड़कदार कपड़े पहनकर तो आप नहीं जा सकते। जाएंगे तब भी लोग आलोचना करेंगे। अस्पताल में भी जाएंगे तो वहां से आकर कपड़े बदलना भी जायज है क्योंकि तमाम तरह के वायरस माहौल में होते हैं, किसी का हमला हो गया तो बीमार होने की खतरा है। अगर मंत्री एक ही कपड़े में दिन भर रहे तब भी तो लोगों को लगता है कि इनके पास और कपड़े
नहीं हैं।


हम पाटिल साहब का पचाव नहीं कर रहे हैं। लेकिन सीधी सी बात है। उनके पास हैं, तभी तो बदल रहे हैं। आपके पास हैं तो आप भी हर घंटे कपड़े बदलिए। कपड़े बदलने से आदमी नहीं बदलता। वह तो जो है, वहीं रहेगा।

Sunday, September 14, 2008

धमाके की शाम दिल्ली में मौजूद था तौकीर?

रंग : गोरा
कद : पांच फीट छह इंच
हुलिया : लम्बा पतला चेहरा
बीच से निकाली गई मांग
घनी मुछों के साथ चेहरे पर फ्रेंच कट दाढी

यही हुलिया सिमी और इंडियन मुजाहिद्दीन के साइबर गुरु तौकरी का भी है
और इसी हुलिए के ही शख्स ने दिल्ली के पालिका बाजार के पास के कूड़ेदान में १३ सितम्बर की शाम बम रखा था। ये महज एक संयोग भी हो सकता है लेकिन आतंकवादी गुट एेसे संयोग पर कभी विश्वास नहीं करते। एेसे में एक सवाल उठता है कि क्या दिल्ली में हुये सिलसिलेवार बम धमाकों के मास्टर माइंड अबू बशर का साथी तौकीर धमाकों की शाम क्या खुद भी दिल्ली में था?

केन्द्रीय जांच एजेंसियां और बम धमाकों से हड़बड़ाई दिल्ली पुलिस इस बात की पड़ताल करने में जुटी है कि आखिर वह कौन शख्श है जिसने १३ सितम्बर की शाम दिल्ली में रहकर दिल्ली को दहलाने की साजिश को अंतिम मुकाम तक पहुंचाने में अपनी अहम भूमिका अदा की। हालांकि अब तक केन्द्रीय जांच एजेंसियों का कोई भी अधिकारी खुलकर इस बात को स्वीकार करने की हालत में नहीं है कि धमाकों की शाम
तौकीर दिल्ली में था। लेकिन दबी जुबान में सभी अधिकारी यह कह रहे हैं कि १३ सितम्बर को तौकीर खुद दिल्ली में रहकर इस आपरेशन की कमान खुद संभाल सकता है।

तौकीर के खुद कमान संभालने के पीछे पुख्ता कारण भी मौजूद हैं। सिमी के आका सफदर नागौरी और उसके सिपहसालार अबू बशर की गिरफ्तारी के बाद एक तौकीर ही वह शख्स है जिसपर पाकिस्तान में बैठे आईएसआई के आका विश्वास करते हैं।
तौकीर नाम के जिस शातिर दिमाग को दिल्ली पुलिस बेहद बेचैनी से तलाश रही है वह बहुत मुमकिन है धमाकों की शाम दिल्ली में ही मौजूद हो और उसी ने पालिका बाजार के पास के कूड़ेदान में बम रखा हो। सूत्रों का कहना है कि तौकीर सा दिखने वाले
जिस शख्स ने पालिका बाजार के कूड़ेदान में बम रखा वह अपने एक साथी के साथ मोटरसाइकिल से वहां पहुंचा था और उसने उस वक्त जींस और टीशर्ट पहन रखी थी। खुफिया विभाग के पास तौकीर से जुड़े जो आंकड़े हैं उसमें भी इस बात का जिक्र है कि वह अमूमन जींस और टी शर्ट ही पहनता है और उसने फ्रेंच कट दाढ़ी रखी हुई है।

दिल्ली बम धमाकों की जांच कर रही केन्द्रीय जांच एजेंसियों के पास इस बात के भी सबूत मौजूद हैं कि अहमदाबाद और बेंगलोर में धमाके करने के पूर्व दोनों धमाकों
का मास्टर माइंड आजमगढ़ के सराय मीर निवासी अबू बशर दिल्ली आया था और यहां उसने तीन दिनों का प्रवास किया था। इस दौरान उसने एक दर्जन से अधिक लोगों से मुलाकात भी की थी। सूत्र बताते हैं कि बशर ने ही तौकीर को सिमी के लिये काम करने को राजी किया था। बशर से पूछताछ में अहमदाबाद पुलिस को उसके दिल्ली में तीन दिनों तक ठहरने की जानकारी मिली थी। एेसे में तौकरी का धमाके की शाम दिल्ली में होना कोई अचरज की बात नहीं है। बहुत मुमकिन है कि बशर के गिरफ्तार होने के बाद तौकीर ने खुद दिल्ली में रहकर विस्फोट की कमान संभाल ली हो और दिल्ली पुलिस मुम्बई में उसके ठिकानों पर उसकी तलाश कर रही हो।

अंशुमान शुक्ल