राजेंद्र श्रीवास्तव
राजधानी में बम धमाकों के बाद वही हुआ, जो अन्य शहरों में धमाकों के बाद हुआ था। लोग पकड़े गए, पूछताछ हुई, स्केच जारी किए गए और उनकी तलाश जारी है। मीडियावालों को क्या चाहिए-मौका। उन्हें सुरक्षा एजेंसियों की धज्जियां उड़ाने का नायाब मौका मिल गया। मीडियावाले बहुत ‘लकीज् हैं। उन्हें कुछ न कुछ मिलता रहता है। वह नहीं मिलता है तब भी तलाश लेते हैं। आजकल के पत्रकार खोजी जो हो गए हैं।
नेताओं ने इस बार भी हमेशा की तरह बम विस्फोटों की निंदा की। मृतकों के परिजनों के प्रति संवेदनाएं व्यक्त की। सरकार की ओर से मुआवजे की घोषणा हुई और सुरक्षा एजेंसियां अपराधियों को पकड़ने में लग गईं। यह एक रस्म अदायगी है जो पूरी हो गई। इन सारी चीजों को मीडिया वाले अपने-अपने नजरिए से पाठकों और श्रोताओं को परोस रहे हैं।
मैं उस पत्रकार के नयूज सेंस का कायल हो गया, जिसने एक नई चीज अफरा-तफरी के माहौल में लोगों को दी है। उसकी पारखी नजर ने यह ताड़ लिया कि गृहमंत्री जी तीन जगह तीन ड्रेस में गए। यानी थोड़ी देर में ही तीन बार कपड़े बदले। उनमें ड्रेस ‘सेंसज्, कलर ‘सेंसज् है, माहौल ‘सेंसज् है तभी तो वे गृहमंत्री हैं। और गृहमंत्री भी है तो भारत के, किसी मामूली देश के नहीं। किसी जमाने में लालबहादुर शास्त्री गृहमंत्री हुआ करते थे। लोग बताते हैं कि उन्हें नए कपड़े सिलवाने की सलाह साथ के लोग देते थे कि आदमी क्या पहनता है, क्या खाता है और कैसे रहता है-यह तो उसकी अपनी निजी जिंदगी है। उसमें ताक-झांक का अधिकार किसी को नहीं है।
आपको कैसा लगेगा, अगर कोई कहे कि ‘इस आदमी के पास कपड़े नहीं।ज् अच्छा नहीं लगेगा न! कपड़े बदलने पर आपत्ति नहीं उठानी चाहिए। अगर कहीं शोक का माहौल तो वहां रंगीला, भड़कदार कपड़े पहनकर तो आप नहीं जा सकते। जाएंगे तब भी लोग आलोचना करेंगे। अस्पताल में भी जाएंगे तो वहां से आकर कपड़े बदलना भी जायज है क्योंकि तमाम तरह के वायरस माहौल में होते हैं, किसी का हमला हो गया तो बीमार होने की खतरा है। अगर मंत्री एक ही कपड़े में दिन भर रहे तब भी तो लोगों को लगता है कि इनके पास और कपड़े
नहीं हैं।
हम पाटिल साहब का पचाव नहीं कर रहे हैं। लेकिन सीधी सी बात है। उनके पास हैं, तभी तो बदल रहे हैं। आपके पास हैं तो आप भी हर घंटे कपड़े बदलिए। कपड़े बदलने से आदमी नहीं बदलता। वह तो जो है, वहीं रहेगा।
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