यह सवाल तमाम लोगों के दिमाग को मथ रहा है कि जिस तरह के तंत्र की परिकल्पना की जा रही है वह वह जनता को मान्य होगा या नहीं?
राजीव पांडे
नेपाल के प्रधानमंत्री के रूप में पहली आधिकारिक यात्रा पर आए पुष्प कमल दहल उर्फ प्रचंड के लिए भारत की धरती कोई नई नहीं है। वे पहले भी आते थे पर छिप-छिप कर। सुरक्षाकर्मियों से नजरें बचाकर। लेकिन इस बार आए शान से। अपने भारत विरोधी और भड़काऊ किस्म के बयानों के लिए प्रसिद्ध रहे प्रचंड का स्वभाव सत्ता में आने के बाद कुछ बदला है, लेकिन कभी-कभी उनका क्रांतिकारी मन जाग ही उठता है। प्रचंड ने अपनी भारत यात्रा के दैारान भारत-नेपाल मैत्री संघ के प्रतिनिधियों के साथ बैठक में यह बयान देकर सबको चौंका दिया कि उनके देश में संसदीय लोकतंत्र या विश्व के कई अन्य देशों में प्रचलित लोकतांत्रिक व्यवस्था नहीं वरन एक नई शासन व्यवस्था लाई जाएगी।
लेकिन यह साम्यवादी गणतंत्र नहीं वरन एक प्रभावशाली लोकतांत्रिक प्रणाली होगी, जिसे नेपाल की परिस्थितियों को ध्यान में रखकर विशेष रूप से बनाया जा रहा है। उन्होंने इसका और अधिक ब्योरा तो नहीं दिया लेकिन कहा कि यह न तो साम्यवादी लोकतांत्रिक प्रणाली होगी और न ही यह बुर्जुआवादी लोकतांत्रिक प्रणाली से प्रभावित होगी। अब सब सेाच रहे हैं कि प्रचंड का यह लोकतंत्र कैसा होगा। ऐसा लगता है कि उन्होंने इस बारे में नेपाल में भी अधिक लोगों को विश्वास में नहीं लिया है क्योंकि यह बयान आते ही नेपाली कांग्रेस की तरफ से उनकी तीखी आलोचना की गई। पूर्व प्रधानमंत्री और नेपाली कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गिरिजा प्रसाद कोइराला ने आगाह किया कि प्रधानमंत्री द्वारा देश में संसदीय लोकतंत्र और समाजवाद की खिलाफत माओवादियों को मंहगी पड़ेगी। कोइराला के अनुसार प्रचंड देश में पिछले दरवाजे से कम्युनिस्ट शासन की बहाली के लिए जो जाल बुन रहे हैं वह उसी में फंसेंगे। उनका कहना था कि नेपाल में इस समय जो व्यवस्था है वह समाजवाद, साम्यवाद और संसदीय लोकतंत्र का मिला-जुला रूप है जिसे नेपाली कांग्रेस ने भी स्वीकार किया है। इसकी अवहेलना माओवादियों के लिए खुद ही परेशानी का सबब बनेगी।
प्रचंड के इस बयान से शंका इसलिए पैदा होती है कि प्रधानमंत्री पद संभालने से कुछ समय पहले प्रचंड ने माओवादियों की एक सभा में चेतावनी दी थी कि वह न केवल सत्ता पर जबरन कब्जा कर सकते हैं वरन देश में गणतंत्र की बजाय साम्यवादी गणतंत्र भी स्थापित कर सकते हैं। प्रचंड वैसे भी इस बात से नाराज चल रहे हैं कि माओवादी अपने उम्मीदवार को राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति नहीं बना पाए। प्रचंड नेपाल के मीडिया से भी खुश नही हैं। वह देश के सबसे बड़े मीडिया समूह ‘कांतिपुरज् को तो स्पष्ट चेतावनी दे चुके हैं कि अगर उसने माओवादियों की आलोचना बंद नही की तो उसे गंभीर परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं। प्रचंड का तर्क है कि हमें जनता ने चुना है इसलिए हम अब और आलोचना नहीं सहेंगे। लेकिन लोकतंत्र में तो अभिव्यक्ति की पूरी स्वतंत्रता होती है और लगता है कि प्रचंड इसे समझ नहीं पा रहे हैं इसीलिए वह एसी व्यवस्था चाहते हैं जहां वह निरंकुश शासन कर सकें। हालांकि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में प्रचंड का ऐसा करना संभव नजर नहीं आता क्योंकि वह एक मिलीजुली सरकार चला रहे हैं। बिना फिर विद्रोह के उनका लक्ष्य असंभव है।
राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि संसदीय लोकतंत्र पर प्रचंड को अपने दल में भी खासी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। संगठन प्रमुख मोहन वैद्य का मानना है कि बहुदलीय शासन प्रणाली नेपाल में सफल नहीं रही है इसलिए देश में साम्यवादी शासन प्रणाली होनी चाहिए। इसी प्रणाली में राजनीतिक दलों को एक-दूसरे के खिलाफ प्रतिस्पर्धा करने की इजाजत दी जा सकती है। लेकिन पार्टी के दूसरे प्रभावशाली नेता बाबूराम भट्टाराई जसे कुछ अन्य नेता अपने सामाजिक-आर्थिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए वर्तमान शासन प्रणाली को ही इस्तेमाल किए जाने के पक्ष में हैं। प्रचंड को इससे निपटने में काफी मशक्कत करनी पड़ सकती है।
प्रचंड की भारत यात्रा को उनकी पहली राजकीय यात्रा करार दिया गया है। हालांकि प्रधानमंत्री बनने के तुरंत बाद वह बीजिंग यात्रा पर गए थे। लेकिन चीन यात्रा को बीजिंग ओलंपिक खेलों के समापन समारोह से जोड़ दिया गया। इससे लगता तो यही है कि प्रचंड नेपाल नरेशों की तर्ज पर चीन कार्ड खेलने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन इसका नफा-नुकसान तो कुछ समय के बाद ही सामने आएगा ।
उनकी भारत यात्रा काफी हद तक सफल रही कि दोनों देश 1950 की भारत- नेपाल मैत्री संधि की समीक्षा पर राजी हो गए। संधियों की समीक्षा होना एक आम बात है। दूसरे पड़ोसी भूटान के साथ संधि की समीक्षा हो ही चुकी है । दो देशों के बीच ऐसा होता रहता है और फिर यह तो आधी सदी से अधिक पुरानी हो चुकी है। नेपाल में तो पूरा निजाम ही बदल गया है। यह संधि तब की है जब नेपाल में कुछ समय के लिए राणाओं का शासन था। अब तो राजतंत्र खत्म होने के साथ ही माओवादी शासन में हैं। अंतर इतना है कि भारत के खिलाफ बयानबाजी करने वाले माओवादी अब ऐसी मांग कर रहे हैं क्योंकि उन्होंने इसे एक अहम राजनीतिक मुद्दा बना दिया था।
No comments:
Post a Comment