नियोजित अपराध की पूर्व सूचना पुलिस को मिल नहीं पाती, अपराध होने पर वह दोषी को पकड़ नहीं पाती और दोषी पकड़ा जाए तो अदालत से सजा नहीं दिला पाती।
प्रदीप सिंह
डंकन फोर्ब्स का एक शब्दकोश है इग्लिश से हिंदुस्तानी। इसमें पुलिस शब्द का अर्थ दिया है- बंदोबस्त, इंतजाम, रब्त और जब्त। हिंदी के एक शब्द का इस्तेमाल करें तो कह सकते हैं व्यवस्था। अब सवाल है कि क्या अपने देश में पुलिस का इन शब्दों से कोई नाता रह गया है? पुलिस आज अव्यवस्था और बदइंतजामी का पर्याय क्यों बनती जा रही है। भारतीय पुलिस अधिनियम 1861 में बना था। उसका मकसद अंग्रेज शासकों की सेवा करना था। आजादी के छह दशक बाद भी हम इसे बदल नहीं पाए हैं। शायद यह मानकर कि अंग्रेज हों या हिंदुस्तानी शासक तो शासक ही होता है और पुलिस को उसकी सेवा करना ही चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने एक बार किसी मामले की सुनवाई के दौरान पुलिस को वर्दी में गुंडो़ं की गिरोह कहा था। किसी सरकार या पुलिस प्रष्ठिान को यह बुरा नहीं लगा । लगा होता इस छवि को बदलने की कोशिश होती। पर सवाल तो यही है कि कोशिश करे कौन?
पुलिस से परेशानी जनता को है नेता को नहीं। जनता सरकार तो बदल सकती है पुलिस को नहीं बदल सकती। यह काम तो सरकार ही कर सकती है। पर सरकार क्यों करे उसे कोई दिक्कत नहीं है। क्योंकि पुलिस के बदलते ही जनता सुखचैन से रहने लगेगी और नेता, सरकार परेशान हो जाएंगे। मामला आतंकवाद से लड़ने का हो, नक्सल ¨हसा से निपटने का या सामान्य कानून व्यवस्था का पुलिस कहीं अक्षम साबित होती है तो कहीं डरपोक और कहीं रिश्वतखोर व बर्बर।
शिक्षकों पर गोली चलाना हो या मजदूरों और प्रदर्शनकारियों पर लाठी बरसाना, पुलिस का हौसला देखने लायक होता है। पुलिस का मुख्य काम तनाव और टकराव को कम करना है। पर आजकल पुलिस के आने से तनाव और टकराव दोनों ही बढ़ जाते हैं। नियोजित अपराध की पूर्व सूचना पुलिस को मिल नहीं पाती, अपराध होने पर वह दोषी को पकड़ नहीं पाती और दोषी पकड़ा जाए तो अदालत से उसे सजा नहीं दिला पाती।
सीबीआई देश की सबसे बड़ी ही नहीं सबसे भरोसेमंद जांच एजेंसी है। हर पीड़ित चाहता है कि उसके मामले की जांच सीबीआई करे। सीबीआई कैसे काम करती है इसका सबसे ताजा उदाहरण नोएडा में हुए अरुषी हेमराज हत्याकांड का मामला है। एक अभियुक्त राज कुमार ने जमानत पर छूटने के बाद बताया कि सीबीआई उसे यातना देती रही कि वह सरकारी गवाह बन जाए। इसके लिए उसे लालच भी दिया गया। सीबीआई का यह हाल है तो राज्य पुलिस के बारे में आप अंदाजा लगा सकते हैं।
कंधमाल, बंगलुरू या मंगलुरू कहीं के दृश्य देखिए पुलिस हमलावरों के बाद पहुंचती है। पुलिस कब किस मुद्दे पर किस संगठन के खिलाफ कार्रवाई करेगी यह अब अपराध की गंभीरता से तय नहीं होता। यह इस बात से तय होता है कि उस राज्य में सत्ता की बागडोर किस पार्टी के हाथ में है।
आखिर एेसा क्यों है कि कर्नाटक में भाजपा की सरकार बनने के बाद से चर्च पर हमले की घटनाएं बढ़ गई हैं। हमला करने वाले संगठनों का कहना है कि वे ईसाइयों या ईसाइयत के खिलाफ नहीं है। उनका विरोध धर्म परिवर्तन कराने वालों से है। उनसे यह पूछने वाला कोई नहीं है कि इससे पहले उनका विरोध क्यों नजर नहीं आया। बिना पूछे भी आप जानते हैं कि उनके अंदर यह हौसला अपनी सरकार होने के कारण है। उन्हें पता है कि उनकी पीठ पर सरकार का हाथ है। पुलिस को भी पता है कि इनके खिलाफ क्या और कितनी कार्रवाई करनी है।
राष्ट्र राज्य की या सामान्य भाषा में कहें तो सत्ता की ताकत असीम होती है। किसी चौराहे पर खड़ा ट्रैफिक पुलिस का सिपाही जब हाथ दिखाता है तो एक हजार रुपए की साईकिल और एक करोड़ की कार पर सवार दोनों रुक जाते हैं। क्यों? इसलिए कि दोनों को पता है कि इसके पीछे राज्य के कानून की ताकत है। उस सिपाही को भी पता होता है कि वह कानून के मुताबिक काम कर रहा है, इसलिए निर्भय है। हमारे नेताओं, अफसरशाहों ने सत्ता के गलियारों तक पहुंच रखने वालों के मन से कानून के भय को और कानून लागू करने वाले के मन की निर्भयता को खत्म कर दिया है। कानून लागू करने के लिए लाठी और गोली नहीं चलानी पड़ती। वह सत्ता में बैठे व्यक्ति की कार्रवाई के प्रति ईमानदारी और इच्छाशक्ति से संचालित होती है। एक छोट सा उदाहरण है। 1990 में बनी चं्रशेखर की सरकार की गिनती सबसे कमजोर सरकारों में की जाएगी। उस समय पंजाब में आतंकवाद अपने चरम पर था। पं्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी को जिला मुख्यालय पर झंडारोहण नहीं होता था।
चं्रेशेखर ने राज्य के राज्यपाल, गृह सचिव और पुलिस महानिदेशक को बुलाया। कहा जितने सुरक्षा बल चाहिए मिलेंगे, लोगों को मारना पड़े तो भी छब्बीस जनवरी को हर जिला मुख्यालय पर झंडारोहण होना चाहिए। पंजाब पुलिस को डंडा भी नहीं चलाना पड़ा।
No comments:
Post a Comment