Wednesday, April 22, 2009

बिहारीपन को बेचा अब खरीद रहे हैं

बिहार के बिहारीपन को बेचने के बाद प्रकाश झा अब उसे खरीदने पहुंच गए हैं। पश्चिमी चंपारण से लोजपा उम्मीदवार झा को भले ही पार्टी ने लालू के साले के विरोध के बावजूद टिकट दिया हो, लेकिन अपहरण, गंगाजल बनाने वाले प्रकाश भी चुनाव जितने के लिए उन्हीं नेताओं की तरह व्यवहार कर रहे हैं। जब से झा ‘सामाजिक न्याय रथज् पर सवार हुए हैं उन्हें बिहार की संवेदना, उसका पिछड़ापन, गरीबी, अत्याचार नजर नहीं आ रहे हैं। यहां मकसद साफ है। वह सब करने में कोई गुरेज नहीं, जिसका लगातार विरोध करते रहे हैं। सत्ता होती ही ऐसी है। लोगों को अंधा बना देती है। जिनके पास है उसे भी और जो उसकी तलाश में हैं उसे भी।

प्रकाश के कार्यालय पर पुलिस छापे से बरामद दस लाख रुपए उनकी उस साफ स्वच्छ फिल्मी छवि को झूठलाने के लिए काफी है, जिसे पर्दे पर फिल्माकर वह काफी वाहवाही लूट चुके हैं। दरअसल पर्दे का सच, वास्तविक जिंदगी में सच हो यह जरूरी नहीं है। यही कारण है कि देश की गरीबी, मध्यम वर्ग का शोषण और बदहाल जिंदगी को सिनेमा के पर्दे पर बखुबी उतारने वाले कलाकार जब देश की सर्वोच्च संसद में पहुंचते हैं तो उन्हें शायद यह सब दिखाई देना बंद हो जाता है। वह न तो संसद में सवाल पूछते हैं, न ही बैठक में उपस्थित होते हैं। उन्हें गरीबी केवल फिल्मों में ही नजर आता है। अपनी अदाकरी को दमदार बनाने के लिए ये कलाकार भले ही गरीबों के घरों में जाते हों, उनके साथ समय बिताते हों, लेकिन जब उनका भला करने की बात आती है तो उन्हें वह सब नजर नहीं आता है, जिन दिक्कतों से गरीबों को रोजाना रू-ब-रू होना पड़ता है। यह ठीक वैसा ही है जसा राहुल गांधी करते हैं। गरीबों के घर जाते हैं। उन्हें लंबे चौड़े आश्वासन देते हैं और बाद में भूल जाते हैं। उनका उद्धार कोई एनजीओ करता है। चाहे वह कलावती हो या फिर छत्तीसगढ़ और बुंदेलखंड के गांव में बिताई गई रात।

आखिर यह कैसी संवेदना है, जिसे पर्दे पर तो उतारने के लिए पूरी मेहनत की जाती है। यह कहें कि अपने अभिनय से जितनी भी इमानदारी कर सकते हैं, कलाकार करते हैं। क्या इसे कलाकारों की संवेदनहीनता नहीं कहेंगे, जो पर्दे पर तो सब अच्छा करने के दंभ भरते हैं। क्या यह देश के उन हजारों लोगों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ नहीं है। उन कलाकारों का जिनका कोई सामाजिक सरोकार नहीं होता है, वह अगर देश की सर्वोच्च संसद में पहुंचते हैं तो उनका वह खोखलापन सामने आ जाता है, जिसे पर पर्दे पर बखुबी निभाते हैं। इस तरह के नेताओं के राजनीति में प्रवेश का लगातार विरोध होता रहा है। लेकिन राजनीतिक दलों की जिताऊ उम्मीदवारों की खोज फिल्मी कलाकारों पर ही जाकर रुकती है। क्योंकि जनता को वास्तविक मुद्दों से दूर रखने के लिए इनके लटके-झटके ज्यादा कारगर होते हैं। हमें सोचना होगा कि आखिर हम उन नेताओं को क्यों चुने, जिन्हे चुनावी मौसम में ही हमारी याद आती है। मौसम खत्म यह भी मेंढक की तरह नदारद हो जाते हैं। चाहे वह अमिताभ हों, गोविंदा हों या फिर कोई और। अब इस कड़ी में कोई प्रकाश झा न जुड़ जाए।

Sunday, April 12, 2009

कांग्रेस ‘पाने को सबकुछज्

केंद्र में बनते-बिगड़ते गठबंधनों से बेखबर छत्तीसगढ़ की राजनीति में दो महारथी कांग्रेस और भाजपा आमने-सामने हैं। हार-जीत के गणित में कांग्रेस का पलड़ा भले ही कमजोर हो, लेकिन उसके पास प्रदेश में खोने के लिए कुछ ज्यादा नहीं है। यही कारण है कि कांग्रेस ने उम्मीदवारों के चयन में भी उन नए चेहरों को मौका दिया, जिनके सहारे पार्टी प्रदेश में वापसी के सपने संजो रही है। हालांकि भाजपा, जिसका प्रदेश की 11 में से 9 सीटों पर कब्जा है, उसने भी कई मौजूद सांसदों की दावेदारी को दरकिनार करते हुए उन नए और युवा चेहरों को मौका दिया है, जो प्रदेश की राजनीति में तेजी से उभर रहे हैं।

छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को हर सीट पर दो तरफा मुकाबला करना पड़ रहा है। एक तरफ भाजपा से तो दूसरी ओर कांग्रेस के उन कद्दावर नेताओं से जिन्हें पार्टी ने टिकट से नहीं नवाजा है। रायपुर, बस्तर और कांकेर की सीट ऐसी ही है, जहां कांग्रेस को अपनों से भी लड़ना पड़ रहा है। कांग्रेस के उम्मीदवारों और संगठन के बीच तालमेल की कमी भी देखने को मिल रही है। कांग्रेस जहां इन दिक्कतों से पार पाने के लिए जद्दोजहर कर रही है, वहीं भाजपा ने छत्तीसगढ़ में रमन सिंह सरकार को मॉडल मानकार पूरे देश में उनकी योजनाओं को लागू करने का दावा किया। यह रमन सिंह के लिए किसी उपलब्धि से कम नहीं है।

पार्टी ने नरेंद्र मोदी के उग्र हिंदुत्व से भले ही किनारा न किया हो, लेकिन विकास के लिए छत्तीसगढ़ के मॉडल को अपनाकर इस बात के संकेत जरूर दे दिए हैं कि चुनाव विकास के मुद्दों पर ही जीता जा सकता है। भाजपा चाहे दो रुपए किलो चावल हो या फिर नक्सलियों के खिलाफ चलाए जा रहे सलवा जुडूम की तारीफ, इसे वोट में बदलने की भरपूर कोशिश में है। अब ऐसे में कांग्रेस के सामने इन मुद्दों से पार पाने का संकट भी है।

प्रदेश की तीन सीटों पर कांग्रेस और भाजपा को बसपा, बागी और वाम दल के उम्मीदवार कड़ी टक्कर दे रहे हैं। दुर्ग, बस्तर और जांजगीर की सीट पर मचे त्रिकोणीय घमासान में दो सीट पर नुकसान कांग्रेस को होता नजर आ रहा है, वहीं दुर्ग सीट भाजपा के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकती है। दुर्ग सीट पर भाजपा उम्मीदवार सरोज पाड़ेय को भाजपा के वर्तमान सांसद ताराचंद्र साहू कड़ी टक्कर दे रहे हैं। इस सीट पर कांग्रेस के कमजोर प्रत्याशी प्रदीप चौबे दोनों की लड़ाई का कितना फायदा उठा पाते हैं, यह तो 16 अप्रैल को ही देखने को मिलेगा, लेकिन पिछले विधानसभा चुनाव के नतीजों के आधार पर आकलन किया जाए तो यहां सरोज पांडेय के वोट को ताराचंद्र साहू काटते नजर आ रहे हैं, ऐसे में प्रदीप चौबे अगर बाजी मार ले जाएं तो उसमें कोई संदेह नहीं होगा।

बस्तर सीट पहले से ही भाजपा के कब्जे में है। इस बार यहां कांग्रेस को भाजपा के साथ वाम दल और पार्टी के कद्दावर नेता महेंद्र कर्मा से भी निपटना पड़ रहा है। हालांकि महेंद्र कर्मा ने खुलकर विरोध नहीं किया है, लेकिन ऐसा माना जा रहा है कि उन्हें टिकट न मिलने से बढ़ी उनकी नाराजगी पार्टी के लिए भारी पड़ सकती है। जांजगीर में भी कांग्रेस के शिव डहरिया को भाजपा के कमला देवी पाटले और बसपा के दाउराम रत्नाकर से कड़ी टक्कर मिल रही है।
छत्तीसगढ़ में कांग्रेस और भाजपा के लिए बिलासपुर, राजनांदगांव और कोरबा की सीट प्रतिष्ठा का सवाल बनी हुई है। बिलासपुर सीट पर कट्टर प्रतिद्वंद्वी पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी की पत्नी रेणू जोगी और दिलीप सिंह जूदेव आमने सामने है। जूदेव इससे पहले अजीत जोगी के स्टिंग आपरेशन में फंसकर राजनीतिक वनवास गुजार कर एक बार फिर मैदान में हैं। इस बार जोगी को पटखनी देकर जूदेव अपना पुराना हिसाब चुकता करने की फिराक में हैं।

राजनांदगांव की सीट पर मुख्यमंत्री रमन सिंह का सबकुछ दांव पर है। भाजपा ने यहां से युवा नेता मधुसूदन यादव को कांग्रेस सांसद देवव्रत सिंह के मुकाबले मैदान में उतारा है। ऐसा माना जा रहा है कि यहां मधुसूदन नहीं रमन सिंह चुनाव लड़ रहे हैं। हालांकि देवव्रत सिंह खरागढ़ से विधायक रहे और लंबे समय से प्रदेश की राजनीति में सक्रिय रहे हैं, लेकिन सांसद बनने के बाद लोगों के बीच कम होती उपस्थिति उनके खिलाफ जा रही है। कोरबा में कांग्रेस के कद्दावर नेता चरण दास महंत का मुकाबला सांसद करुणा शुक्ला से है। हालांकि परिसीमन के बाद ऐसा माना जा रहा है कि करुणा शुक्ला की स्थिति कमजोर हुई है, लेकिन कांग्रेस का कमजोर संगठन उसका कितना फायदा उठा पाता है यह तो देखना ही होगा। महंत पर जोगी के विरोधी खेमे के होने के कारण अतिरिक्त दबाव भी है। ऐसे में कोरबा की सीट भले ही कांग्रेस के लिए प्रतिष्ठा की सीट न हो, लेकिन महंत की नाक का सवाल बनी हुई ही है।

Tuesday, April 7, 2009

जदी के बाद जरनैल

जरनैल का जूता सरकार को कितना हिला सकता है, इसका अंदाजा तो लोकसभा चुनाव के परिणाम में सामने आएगा, लेकिन एक बात तो स्पष्ट हो गई है कि राजनीतिक आकाओं ने वोट की राजनीति के लिए जरनैल के जूता की कीमत लगा दी है। जरनैल की भावनाएं भले ही पाक साफ हो। उनके मन में 84 के दंगों में मारे गए सिख भाइयों के प्रति आस्था हो, लेकिन सिखों की राजनीति करने वाले दल शिरोमणी अकाली दल ने जरनैल को दो लाख रुपए देने की बात कहकर एक बात तो सिद्ध ही कर दी कि देश में राजनीति का स्तर गिरता जा रहा है। अगर ऐसा ही रहा तो आने वाले समय में जनता इसी प्रकार राजनेताओं को जूता मारेगी।

जरनैल ने जूता फेंककर एक ऐसे मुद्दे को फिर से जगाने की कोशिश की है, जिसे कांग्रेस सरकार पूरी तरह से दबाने की फिराक में है। इसे सीबीआई का दुरुपयोग ही कहेंगे कि ऐन चुनाव से पहले जगदीश टाइटलर को क्लीन चिट दे दी गई। इसके बाद सिख समुदाय के लोगों के पास अपनी बात कहने, इंसाफ मांगने या फिर विरोध करने के और कौन से तरीके हो सकते हैं, यह उनकी समझ से परे है। ऐसे में एक पत्रकार ने अगर देश के गृह मंत्री के ऊपर जूता फेंककर विरोध दर्ज कराया तो उसने कोई गलत काम नहीं है। मेरा मानना है कि यह ठीक वैसा ही है, जसा भगत सिंह ने देश की सोई सरकार को जगाने के लिए संसद में धमाका किया था।

देश के कुछ पत्रकारों ने जरनैल का यह कहकर विरोध किया कि उन्होंने देश के गृह मंत्री पर जूता चलाकर गलत किया। यह पत्रकारिता के नियमों और सिद्धांतों के खिलाफ है। लेकिन वह यह भूल गए कि अगर पत्रकारिता समाज के लिए होती है तो जरनैल ने कम से कम इतना तो किया कि अपने समाज के लोगों की आवाज को देश की आवाज तो बनाया। देश के सभी समाचार चैनल और अखबर कम से कम इस बात की चर्चा तो कर रहे हैं कि जरनैल ने सिख दंगों में न्याय न मिलने के कारण गृह मंत्री पर जूता फेंका। अगर इसे आप पत्रकारिता के खिलाफ मानते हैं तो मानते रहिए। पत्रकारों में जिस दिन इतना करने का नैतिक बल आ जाएगा तो उनके सामने मानने और नहीं मानने का सवाल नहीं बचेगा। अगर पत्रकार इतने ही जागरूक हो जाएं तो सरकार की खबर नहीं, सरकार खबर बनेगी और तक किसी जदी या जरनैल को जूता नहीं फेंकना पड़ेगा।

Wednesday, April 1, 2009

विकास का नया मॉडल जरूरी

विकास के लिए चुनावों को बाहुबल और धनबल से मुक्त करने की व्यवस्था भी करनी पड़ेगी। इसके लिए राजनीतिक दलों को उत्तरदायी बनाने की शुरुआत होनी चाहिए।

केएन गोविंदाचार्य

पर्यावरण की जिस समस्या से हम दो-चार हो रहे हैं वह और विकराल स्वरूप ग्रहण कर लेगी। जरूरत इस बात की है कि विकास परिस्थितिकी को ध्यान में रखकर किया जाए, न कि अकेले मानव मात्रा को ध्यान में रखकर। पारिस्थितिकी में हर किसी की अपनी एक अलग और विशेष भूमिका है। अगर इस चक्र के किसी भी अंग को नुकसान हुआ तो पूरे चक्र का गड़बड़ाना तय है। विकास जब केवल मानव मात्रा को ध्यान में रखकर करने की कोशिश की जाएगी तो यह सहज और स्वाभाविक है कि प्रकृति में जबर्दस्त असंतुलन कायम होगा और उसके दुष्परिणामों से मनुष्य बच नहीं पाएगा। यदि विकास के पहिए को सही पटरी पर लाना है तो भूख और बेरोजगारी को मिटाना हमारी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। आज भी देश की एक बड़ी आबादी को दो वक्त की रोटी नहीं मिल पाती।


ऐसे लोग भी अपने देश में हैं जो रात में भूखे पेट सोने को मजबूर हैं। उनकी इस स्थिति के लिए यदि हम विकास के मौजूदा माडल को दोषी ठहराएं तो गलत नहीं होगा। बेरोजगारी की मार से नौजवान बेहाल हैं। साफ तौर पर दिख रहा है कि सरकार के पास हर हाथ को रोजगार देने के लिए कारगर नीति का अभाव है। यह अभाव नया नहीं है। हमें विकास की ऐसी अवधारणा पर काम करना होगा जिसमें हर हाथ को काम मिल सके। इसके लिए हमें स्वरोजगार को बढ़ाने की दिशा में भी काम करना होगा। आत्मनिर्भरता की राह पर आगे बढ़ते हुए नौजवानों में ऐसा आत्मविश्वास पैदा करना होगा कि वे किसी का मुंह देखे बिना खुद अपने लिए रोजगार पैदा करने की दिशा में काम करें और प्रगति की राह पर आगे बढ़ सकें।


अभी विकास के जिस माडल को लेकर हम चल रहे हैं, उसमें गरीबी रेखा तय की जाती है। इसका परिणाम सबके सामने है। मेरा मानना है कि सही मायने में अगर हम विकास चाहते हैं तो गरीबी रेखा की बजाय समृद्धि की रेखा तय की जाए और उसी के मुताबिक समय पर कार्यक्रम लागू किए जाएं। भारत के संदर्भ में अगर हम विकास की बात करते हैं तो हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि राजनीतिक सत्ता का विकेंद्रीकरण हो। ग्राम सभा को सभी स्तरों के निर्णय में सहभागी बनाया जाए। राजनीतिक सत्ता में आम सहमति की अवधारणा को हकीकत में बदलने की जरूरत है।
राजनीतिक दलों का रवैया प्रतिस्पर्धात्मक न होकर सकारात्मक होना चाहिए। इसके अलावा भारत के विकास के लिए चुनावों को बाहुबल और धनबल से मुक्त करने की व्यवस्था भी करनी पड़ेगी। इसके लिए राजनीतिक दलों को उत्तरदायी बनाने की शुरुआत होनी चाहिए। देश के समग्र विकास के लिए कर ढांचे को भी सुधारे जाने की जरूरत है। सरकार को चाहिए कि वह आमदनी की बजाए खर्च पर कर लगाने की शुरुआत करे। आर्थिक क्षेत्र में अपने देश में बहुत अव्यवस्था है। इसे सुधारने के लिए अन्य उपायों के साथ-साथ अनार्जित आय को परिभाषित एवं नियंत्रित करना जरूरी है।


न्यायपालिका सहित पूरे प्रशासनिक ढांचे को विकेंद्रीकरण के जरिए जनता के प्रति जवाबदेह बनाना होगा। समग्र विकास के लिए यह भी जरूरी है कि सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक क्षेत्रों को स्वायत्तता दी जाए और उन्हें शक्ति संपन्न बनाकर सरकारी नियंत्रण से मुक्त किया जाए। ऐसा होने पर ही ये विकास की गति को बनाए रखने में अपना महत्वपूर्ण योगदान कर पाएंगे। हमें उनकी सकारात्मक सहभागिता सुनिश्चित करनी होगी। शिक्षा को व्यक्तित्व विकास केन्द्रित एंव जीवनोपयोगी बनाया जाना चाहिए। शिक्षा ऐसी होनी चाहिए कि उससे एक स्वतंत्र और सकारात्मक सोच विकसित हो।
देशी चिकित्सा पद्धतियों को प्रोत्साहित किया जाए और उन्हें सक्षम बनाया जाए। अगर ऐसा किया जाएगा तो विकास को गति मिलनी तय है। हम सब जानते हैं कि बदलती जीवन शैली ने छोटे-बड़े रोगों का प्रकोप बढ़ा दिया है। आनन-फानन में हमें उपचार के लिए अंग्रेजी पद्धतियों का आश्रय लेना पड़ रहा है। इलाज कराते-कराते लोग कंगाल हो जाते हैं, लेकिन प्राय: उन्हें स्वास्थ्य लाभ नहीं मिल पाता। देशी चिकित्सा अपेक्षाकृत सस्ती और कई रोगों में ऐलोपैथी से अधिक कारगर है। हमें इस पर अधिक ध्यान देने की जरूरत है। निष्कर्ष यह है कि भारत में सकल उत्पाद एवं आर्थिक वृद्धि दर के स्थान पर विकास का एक नया ‘सुखमानकज् तैयार करने की जरूरत है। तभी समग्र विकास होगा और इसका फायदा समाज के प्रत्येक वर्ग को
मिल पाएगा।


आज समाज से सभार