जरनैल का जूता सरकार को कितना हिला सकता है, इसका अंदाजा तो लोकसभा चुनाव के परिणाम में सामने आएगा, लेकिन एक बात तो स्पष्ट हो गई है कि राजनीतिक आकाओं ने वोट की राजनीति के लिए जरनैल के जूता की कीमत लगा दी है। जरनैल की भावनाएं भले ही पाक साफ हो। उनके मन में 84 के दंगों में मारे गए सिख भाइयों के प्रति आस्था हो, लेकिन सिखों की राजनीति करने वाले दल शिरोमणी अकाली दल ने जरनैल को दो लाख रुपए देने की बात कहकर एक बात तो सिद्ध ही कर दी कि देश में राजनीति का स्तर गिरता जा रहा है। अगर ऐसा ही रहा तो आने वाले समय में जनता इसी प्रकार राजनेताओं को जूता मारेगी।
जरनैल ने जूता फेंककर एक ऐसे मुद्दे को फिर से जगाने की कोशिश की है, जिसे कांग्रेस सरकार पूरी तरह से दबाने की फिराक में है। इसे सीबीआई का दुरुपयोग ही कहेंगे कि ऐन चुनाव से पहले जगदीश टाइटलर को क्लीन चिट दे दी गई। इसके बाद सिख समुदाय के लोगों के पास अपनी बात कहने, इंसाफ मांगने या फिर विरोध करने के और कौन से तरीके हो सकते हैं, यह उनकी समझ से परे है। ऐसे में एक पत्रकार ने अगर देश के गृह मंत्री के ऊपर जूता फेंककर विरोध दर्ज कराया तो उसने कोई गलत काम नहीं है। मेरा मानना है कि यह ठीक वैसा ही है, जसा भगत सिंह ने देश की सोई सरकार को जगाने के लिए संसद में धमाका किया था।
देश के कुछ पत्रकारों ने जरनैल का यह कहकर विरोध किया कि उन्होंने देश के गृह मंत्री पर जूता चलाकर गलत किया। यह पत्रकारिता के नियमों और सिद्धांतों के खिलाफ है। लेकिन वह यह भूल गए कि अगर पत्रकारिता समाज के लिए होती है तो जरनैल ने कम से कम इतना तो किया कि अपने समाज के लोगों की आवाज को देश की आवाज तो बनाया। देश के सभी समाचार चैनल और अखबर कम से कम इस बात की चर्चा तो कर रहे हैं कि जरनैल ने सिख दंगों में न्याय न मिलने के कारण गृह मंत्री पर जूता फेंका। अगर इसे आप पत्रकारिता के खिलाफ मानते हैं तो मानते रहिए। पत्रकारों में जिस दिन इतना करने का नैतिक बल आ जाएगा तो उनके सामने मानने और नहीं मानने का सवाल नहीं बचेगा। अगर पत्रकार इतने ही जागरूक हो जाएं तो सरकार की खबर नहीं, सरकार खबर बनेगी और तक किसी जदी या जरनैल को जूता नहीं फेंकना पड़ेगा।
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