Sunday, December 27, 2009

झारखंड का अविश्वास प्रस्ताव है यह जनादेश

आनंद प्रधान

झारखण्ड के मतदाताओं ने अपना फैसला सुना दिया है. जिसे खंडित जनादेश बताया जा रहा है, वह वास्तव में मुख्यधारा की सभी राजनीतिक पार्टियों के खिलाफ झारखंड की जनता का खुला अविश्वास प्रस्ताव है. उन्होंने साफ तौर पर किसी भी पार्टी या गठबंधन को जनादेश नहीं दिया है. इसके उलट उन्होंने त्रिशंकु विधानसभा बनाकर सभी पार्टियों को एक तरह की सजा दी है. याद कीजिये वाल्मीकि रामायण में त्रिशंकु की कहानी जो ईश्वरीय नियमों के विरुद्ध सशरीर स्वर्ग जाने की जिद के कारण सजा के तौर पर बीच में लटका दिए गए. झारखंड के मतदाताओं ने भी बिना सदकर्मों के सत्ता के स्वर्ग की मलाई चाटने को बेताब पार्टियों और उनके नेताओं को बीच में ही लटका दिया है.

असल में, झारखंड के मतदाताओं के पास इसके अलावा कोई वास्तविक विकल्प नहीं था. उनके पास जो विकल्प उपलब्ध थे, उनमें से सभी को वे आजमा चुके हैं और उनकी असलियत से परिचित हैं. यह तो नतीजों से साफ है कि वे इनमें से किसी को झारखंड की सत्ता सौंपने के लिए तैयार नहीं थे. इसमें जनता का कोई दोष नहीं है. आखिर वह और क्या कर सकती थी? वह मौजूदा दलों और गठबन्धनों में किसे और किस आधार पर बहुमत देती? झारखंड में सार्वजनिक सम्पदा और धन की लूट की राजनीति में मुख्यधारा के किस दल और गठबंधन का दामन साफ है? सच तो यह है कि झारखंड के इस हम्माम में सभी नंगे हैं. इसलिए जब नंगों के बीच ही चुनाव का विकल्प हो तो आम मतदाताओं की कठिनाई को आसानी से समझा जा सकता है.

सच यह है कि मुख्यधारा की बड़ी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों ने झारखंड के मतदाताओं को नए नारों और वायदों से छलने की कोशिश की जिसे लोगों ने नकार दिया. आज जो त्रिशंकु विधानसभा बनी है, उसके लिए मतदाता नहीं बल्कि झारखंड के नेता और पार्टियां जिम्मेदार हैं. क्या यह सोचने की बात नहीं है कि झारखंड में सत्ता की दावेदारी कर रही दोनों प्रमुख राष्ट्रीय पार्टियों- कांग्रेस और बी.जे.पी को लोगों ने राज्य की आधी सीटों के लायक भी नहीं समझा है? दोनों ही पार्टियों को राज्य की कुल विधानसभा सीटों में से लगभग एक तिहाई सीटें ही मिल पाई हैं. साफ है कि झारखंड के मतदाताओं ने इन दोनों राष्ट्रीय पार्टियों को नकार दिया है. उन्हें शासन का जनादेश तो कतई नहीं मिला है. यह उनके लिए सबक है.

ऐसे ही क्षेत्रीय दलों जैसे शिबू सोरेन के नेतृत्ववाली झामुमो, बाबूलाल मरांडी की झाविमो, लालू प्रसाद की आर.जे.डी को भी मतदाताओं ने अपने विश्वास के लायक नहीं पाया. यही कारण है कि ये तीनो भी मिलकर एक तिहाई के आसपास ही सीटें जीत पाए हैं. यह क्षेत्रीय पार्टियों के लिए भी सबक है. यही नहीं, जहां तक संभव हो सका मतदाताओं ने अपने मौजूदा विधायकों को भी सबक सिखाने कि कोशिश की है. पिछली विधानसभा के 81 में से सिर्फ 20 "माननीय" विधायक ही दोबारा चुनाव जीत कर वापस लौट पाए हैं. साफ है कि मौजूदा स्थितियों में झारखंड के मतदाता जो कर सकते थे, उन्होंने वह किया है. उन्होंने सबको सबक सिखाने की कोशिश की है.

असल में, यह सबक से ज्यादा पूरे राजनीतिक वर्ग को एक गंभीर चेतावनी है. उन्हें इस जनादेश में छिपे उस अविश्वास को जरूर पढ़ना चाहिए जो झारखंड की जनता ने उनके प्रति व्यक्त किया है. यह जनादेश बताता है कि झारखंड में मुख्यधारा के राजनीतिक दल और नेता जनता की उम्मीदों की कसौटी पर विफल हो गए हैं. उनके कारण ही वह राज्य जो जनता के लम्बे संघर्षों और कुर्बानियों के बाद बना, अब एक "विफल राज्य" बनता जा रहा है. विकास और गवर्नेंस के किसी भी सूचकांक पर देख लीजिये, अलग राज्य बनने के बाद झारखंड आगे बढ़ना तो दूर पीछे ही गया है. आज झारखंड को छोटे राज्यों के खिलाफ एक तर्क और उदाहरण की तरह पेश किया जा रहा है. अब तो लोगों की उम्मीदें भी टूटने लगी हैं. वे निराश हो रहे हैं. इन्हीं टूटती हुई उम्मीदों की किरचें आप इस जनादेश में देख सकते हैं.

लेकिन लगता नहीं है कि झारखंड के इस सबक और चेतावनी को राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों ने गंभीरता से लिया है. वे अपने अन्दर झांकने और गंभीर आत्मालोचना के बजाय झारखंड की जनता को ही दोषी ठहराने पर तुल गई हैं. कहा जा रहा है कि झारखंड की जनता ने खुद त्रिशंकु विधानसभा बनाकर राजनीतिक अस्थिरता और जोड़तोड़ और खरीदफरोख्त की राजनीति को प्रोत्साहित किया है. यह कहने के पीछे एक छिपी हुई धमकी भी है कि अब जनता को ही इस त्रिशंकु विधानसभा के कारण पैदा होनेवाली राजनीतिक अस्थिरता और जोड़तोड़ - खरीदफरोख्त की राजनीति की कीमत चुकानी पड़ेगी. भाजपा के चतुर-सुजान और महापंडित तो अंगूर खट्टे होने के अंदाज़ में यहां तक कह रहे हैं कि पार्टी ने बहुत कोशिश की लेकिन झारखंड की जनता ने भ्रष्टाचार, कुशासन और महंगाई को मुद्दा नहीं माना, इसीलिए पार्टी को बहुमत नहीं दिया. गोया भाजपा ईमानदारी और सुशासन की प्रतीक हो और उसे सत्ता मिल जाने पर महंगाई तुरंत छू-मंतर हो जाती.

साफ है कि झारखंड के नतीजों से इन पार्टियों ने कोई सबक नहीं सीखा है. यही कारण है कि एक बार फिर से राज्य में सत्ता की बंदरबांट शुरू हो गई है. सत्ता की मलाई के लिए नीलामी लगनी शुरू हो गई है. मोलतोल हो रहा है. लेनदेन के आधार पर सौदे पटाए जा रहे हैं. इसमें कोई पीछे नहीं है. सब कह रहे हैं कि उनके सभी "विकल्प" खुले हैं. किसी में इतना नैतिक साहस नहीं है कि वह कहे कि उसे जनादेश नहीं है और वह विपक्ष में बैठने के लिए तैयार है. साफ है कि झारखंड में सत्ता पर दांव बहुत ऊंचे हैं. कोई भी सत्ता की उस मलाई को छोड़ने के लिए तैयार नहीं है जिसकी "संभावनाएं" पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा और उनके साथियों के कार्यकाल में जगजाहिर हो चुकी हैं. सभी इन "संभावनाओं" का दोहन करने के लिए बेकरार हैं.

इसलिए आश्चर्य नहीं होगा, अगर झारखंड में " साफ सुथरी, ईमानदार और आम आदमी के हित में काम करनेवाली सरकार" के नारे के साथ एक निहायत ही अवसरवादी गठबंधन सरकार बना ले जिसमें एक बार फिर से वही पार्टियां और चेहरे हों जिनपर झारखण्ड की जनता के साथ दगा करने के आरोप हैं. एक बार फिर बाई डिफाल्ट वे सरकार में होंगें, जिन्हें झारखण्ड की जनता ने शासन चलाने लायक नहीं समझा. कहने की जरूरत नहीं है कि केवल सत्ता की गोंद से चिपका ऐसा कोई भी अवसरवादी गठबंधन और उसकी सरकार उन पिछली सरकारों से किसी भी तरह से अलग नहीं होगी जिनपर झारखंड को लूटने और कुशासन के गंभीर आरोप रहे हैं. वास्तव में, जोड़तोड़ और खरीदफरोख्त के आधार पर बननेवाली कोई भी सरकार जनता की नहीं बल्कि झारखण्ड की कीमती खनिज संसाधनों के दोहन में लगी देशी-विदेशी कंपनियों, पट्टेदारों, ठेकेदारों, माफियाओं और नेताओं-नौकरशाहों की सेवा ही करेगी.

यही सच है और यही झारखण्ड जैसे खनिज संसाधन संपन्न राज्यों की त्रासदी की सबसे बड़ी वजह भी है. झारखंड की राजनीतिक अस्थिरता की जड़ें वास्तव में राज्य में सार्वजनिक धन और खनिज और प्राकृतिक सम्पदा की खुली लूट में धंसी हुई हैं और उसे वहीँ से खाद-पानी मिल रहा है. राजनीतिक प्रक्रिया को भ्रष्ट देशी-विदेशी कंपनियों, खदान मालिकों, ठेकेदारों, राजनेताओं, माफियाओं और नौकरशाहों के मजबूत गठजोड़ ने बंधक बना लिया है. इस हद तक कि सरकार चाहे जिस रंग और झंडे की हो, राज इसी गठजोड़ का चलता है. सच यह है कि राज्य की सभी पार्टियां, उनके नेता और तथाकथित निर्दलीय इस गठजोड़ के मोहरे भर हैं. मोहरे और चेहरे बदलने से राज नहीं बदलता. यही कारण है कि झारखंड में राजनीतिक प्रक्रिया बेमानी होकर रह गई है. इस बेमानी प्रक्रिया से किसी मानी जनादेश की उम्मीद कैसे की जा सकती है?

दोहराने की जरूरत नहीं है कि इस गठजोड़ की ताकत राज्य के कीमती खनिज और प्राकृतिक संसाधनों और सार्वजनिक धन के लूट पर टिकी हुई है. इस लूट का कुछ अनुमान मधु कोड़ा और उनके साथियों के खिलाफ लगे आरोपों से लगाया जा सकता है. हालांकि झारखंड बनाने की लड़ाई के केंद्र में सबसे बड़ा मुद्दा इसी लूट को रोकना था लेकिन अफसोस की बात यह है कि राज्य बनने के बाद से यह लूट और तेज हुई है. इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि 2000 - 01 में राज्य से दोहन किये गए खनिजों का कुल मूल्य 459 करोड़ रूपये था जो सिर्फ छह वर्षों में 22 गुना उछलकर 10201 करोड़ हो गया. यह कानूनी खनन के आंकड़े हैं जबकि नेताओं-नौकरशाहों की शह पर फलफूल रहे गैरकानूनी खनन के बारे में ठीक-ठीक अनुमान लगाना थोडा मुश्किल है लेकिन मोटे अनुमानों के अनुसार राज्य में कुल कानूनी खनन का लगभग 25 से 30 प्रतिशत गैरकानूनी खनन हो रहा है. कुछ लोगों का तो मानना है कि गैरकानूनी खनन, कानूनी खनन के बराबर पहुंच चुका है.

आश्चर्य नहीं कि इस बीच राज्य के माननीय विधायकों की संपत्ति में भी इसी अनुपात में वृद्धि दर्ज की गई है. इलेक्शन वाच के मुताबिक झारखंड में दोबारा चुनाव लड़ रहे 37 विधायकों की संपत्ति में पिछले 5 साल में 3454 प्रतिशत की रिकार्ड बढ़ोत्तरी हुई है. पांच साल में कानूनी संपत्ति में साढ़े चौंतीस गुना की बढ़ोत्तरी कोई मामूली "उपलब्धि" नहीं है. इसने खनिज संसाधनों के दोहन में 22 गुना वृद्धि के रिकार्ड को भी पीछे छोड़ दिया है. लेकिन इसी बीच झारखंड के गांवों में गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर करनेवालों की तादाद बढ़कर लगभग 52 तक पहुंच गई है. यही नहीं, मानवीय, सामाजिक और आर्थिक विकास के हर सूचकांक पर झारखंड के गरीब आदिवासी सबसे निचले पायदान पर पहुंच गए हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि खनिज संसाधनों के दोहन और माननीय विधायकों की संपत्ति में रिकार्डतोड़ वृद्धि और राज्य में 50 फीसदी से अधिक गरीबों की तादाद के बीच सीधा सम्बन्ध है.

शायद यही कारण है कि झारखंड "धनी राज्य के गरीब निवासी" का एक त्रासद और दुखद उदाहरण बन गया है. जाहिर है कि राज्य को इस दुष्चक्र से निकालने की उम्मीद उस राजनीतिक वर्ग से नहीं की जा सकती है जिसके निहित स्वार्थ इस दुष्चक्र के साथ बहुत गहरे जुड़े हुए हैं. क्या इसका अर्थ यह है कि झारखंड में इस दुष्चक्र से बाहर निकालने के सारे रास्ते बंद हो चुके हैं?

ऐसा बिलकुल नहीं है लेकिन मुख्यधारा के मौजूदा राजनीतिक दलों से बहुत उम्मीद नहीं की जा सकती है. झारखंड की मुक्ति राज्य के प्राकृतिक और खनिज संसाधनों और सार्वजनिक धन की लूट के खिलाफ और गरीबों और आदिवासियों को रोजगार, सम्मान और "जल, जंगल और जमीन" पर अधिकार देने के अजेंडे के साथ शुरू होनेवाले एक बड़े जनांदोलन के गर्भ से ही हो सकती है. पिछले दो चुनावों के नतीजों से यह साफ हो चुका है कि मौजूदा बाँझ चुनावी राजनीति से कुछ नहीं निकलनेवाला है. जनांदोलन की आग ही झारखंड की राजनीति के कूड़े-करकट को खत्म कर सकती है. सवाल है कि इस चुनौती को कौन स्वीकार करेगा?

(जनसत्ता, २६ दिसम्बर'०९ )

Wednesday, December 23, 2009

एक गांव जहां बसती हैं विधवाएं

ये एक ऐसे गांव की कहानी है जिसकी हर चौखट पर एक जवान विधवा है। कई घरों में चार- चार जवान विधवाएं हैं। साठ घरों में सत्तर विधवाएं हैं। मरघट सी शांति वाले इस गांव में चालीस पार के पुरुष दस से भी कम हैं। राजस्थान के भीलवाड़ा के पास के इस गांव की डरावनी तस्वीर के नीचे छुपी है एक काली हकीकत।

इस गांव की महज पच्चीस साल विधवा प्रेम तीन बच्चों की मां है। बच्चों को खाना खिला वो निकल पड़ती है नरेगा के तहत मिट्टी की खुदाई करने। दिनभर की हाड़तोड़ मेहनत करने के बाद भी बच्चों का पेट भरना नामुमकिन है सो शाम ढलते ही आराम की जगह उसके नसीब में आती है संघर्ष की एक और दास्तान। दिनभर मिट्टी खोदने के बाद रात की पाली में ईंट-भट्टे की फैक्ट्री में मजदूरी। प्रेम के पति लादू की पांच साल पहले एक बीमारी से मौत हो गई । वो अपने गांव श्रीजीके खेड़ा से सौ किलोमीटर दूर पत्थर की खदानों में काम करता थाए दस साल तक काम किया फिर बीमार हुआ तो कभी ठीक न हो पाया। प्रेम के पड़ोस में रहने वाली 27 साल की मीरा की कहानी भी ऐसी ही है।

इसी प्रकार इन्द्रा दो छोटी बहनों और एक छोटे भाई के साथ इस दुनिया में बिल्कुल अकेली है। मां- बाप दोनों छह साल पहले गुजर चुके हैं। लावारिस होने पर समाज कल्याण विभाग ने इनके ताऊ को पालनहार योजना के तहत गोद दे दियाए इसके बदले सरकार महीने के सात सौ रुपए देती थीए लेकिन शुरुआत के कुछ चेक के बाद ये सहायता भी बंद हो गई। यही वजह है कि गांव के बाहर चल रहे नरेगा के काम में दूर दूर तक कोई मर्द नजर ही नहीं आता। गांव में ऐसा कोई घर नहीं बचाए जहां खानों की मिट्टी ने सुहाग न छीना होए कोई जवान विधवा न हुई हो।

दरअसल इस गांव को दीमक की तरह चाट रहा है पत्थर का पाउडर। मदन पिछले पांच साल से खाट पर हैए बीमार है, उसे खांसी हैए श्वांस लेने में तकलीफ है, अब केवल इंजेक्शन की खुराक मिलने पर ही वे कुछ पल बैठ सकता है, खाना खा सकता है। पांच साल में भीलवाड़ा से जयपुर सूबे के हर बड़े अस्पताल में इलाज करायाए लेकिन डाक्टरों ने हाथ खड़े कर दिएए अब वे आखिरी जंग लड़ रहा है। पांच साल पहले पत्थर की खानों पर काम करता थाए दस साल तक काम किया और घर लौटा तो साथ में बीमारी लेकर। मदन कहता है कि पत्थर की खानों पर ड्रिल मशीन चलाता थाए अंदर मिट्टी जाती थीए उस समय तो कोई दिक्कत नहीं थी, ले्किन धीरे- धीरे बीमार हो गया। अब छाती दुखती है, फेफड़ों में दर्द होता हैए ये दर्द अब बढ़ता जा रहा है। पति खाट पर है तो फिर पत्नी उगमी का हाल तो और भी बेहाल है।

पांच साल से पति की तीमारदारी कर रही है। पांच बेटे-बेटियों और सास का पालन-पोषण कर रही हैए उनमें भी एक लड़की मानसिक विकलांग है। मदन को ये बीमारी गांव से करीब सौ किलोमीटर दूर बिजौलिया की पत्थर की खानों से मिली। इन खानों से निकलने वाला लाल और काला पत्थर दुनिया भर में मशहूर है। भीलवाड़ा-कोटा हाईवे पर इन खानों से निकलने वाला पत्थर निर्यात भी किया जाता हैए लेकिन पत्थर तोड़ने पर उसकी बारीक मिट्टी जमकर हवा में उड़ती हैए इसे सिलिका कहते हैं। ये सिलिका पत्थर तोड़ने वाले मजदूर की श्वांस के साथ फेफड़ों में जाती है, धीरे-धीरे ये फेफड़ों में जम जाती है। आठ से दस साल लगातर इन खानों में काम करने के बाद मजदूर की तबीयत धीरे- धीरे बिगड़ने लगती है। फिर वह इन खानों में काम के लायक नहीं रहताए ऐसे मजदूरों की खान मालिक छुट्टी कर देते हैं।

ये अकेले इस गांव की तस्वीर नहीं है। इस गांव के पास आधा दर्जन गांवों में सिलिकोसिस का ये तांडव है। पत्थर की ये खानें बेशक ग्रामीणों के लिए रोजगार का बड़ा जरिया होंए लेकिन खानों से निकलने वाली सिलिका मजदूरों की जिंदगी और परिवार के लिए दुश्मन साबित हो रही है। दवाइयों के सहारे इस बीमारी को थोड़े समय के लिए दबाया जा सकता है लेकिन इससे छुटकारा नहीं पाया जा सकता। इस बीमारी से बचने के लिए सिलिका की धूल उड़ने वाली जगहों पर पानी का बराबर छिड़काव होना चाहिए और वहां ड्राइ एयर फिल्टरिंग सिस्टम भी होना चाहिए। गुड़ खाने से भी इस बीमारी पर लगाम लगाई जा सकती है लेकिन ये इंतजाम करने की सुध न तो खान मालिकों को है और न प्रशासन-सरकार को। नतीजा विधवाओं के गांव बढ़ते जा रहे हैं।
डेटलाइन इंडिया से साभार

Monday, December 21, 2009

पत्थर में खिलता है कमल

वर्ष में ज्यादातर समय बर्फ से ढके हिमालय की छटा वर्षा ऋतु के दौरान निराली हो जाती है। जून तक के महीने में सूर्य की तीखी किरणें हिमालय पर जमी बर्फ को शायद ही विचलित कर पाती हो लेकिन मानसून आने के साथ ही प्रकृति अपना रंग दिखाने लगती है और चारों ओर होती है जड़ी-बूटियों, फूलों की बहार। इस मनमोहक हरियाली के बीच होती है प्रकृति रूपी चित्रकार की अनूठी रचना ‘ब्रह्मकमलज् जिसका जीवन सिर्फ तीन महीने का होता है।

अगस्त सितंबर में यहां चट्टानों पत्थरों पर आसानी से खिलनेवाला ब्रह्मकमल एक दुर्लभ, काफी बड़े आकार का और अत्यन्त सुगंध युक्त होता है। संपूर्ण उत्तराखंड में इसे सुख-सौभाग्य और समृद्धि का प्रतीक भी माना जाता है, इसलिए इसे एक अनमोल विरासत के तौर पर लोग अपने घरों में संभाल कर रखते हैं। यह फूल मुरझाने पर भी खुशबू को फैलाए रखता है। क्रीम रंग की पंखुड़ियों से लिपटे रहने से फूल का नाम कमल है लेकिन इसका कमल की जाति से कोई संबंध नहीं है।

इससे एक पौराणिक कथा जुड़ी है। कहा जाता है कि पांडों के अज्ञातास के दौरान गढ़वाल स्थित पाण्डुकेसर के निकट अलकनंदा और पुष्पाती के संगम पर जब द्रोपदी स्नान कर रही थी तो उनकी नजर एक ऐसे मनमोहक पुष्प पर पड़ी जो तेज धारा में बहता हुआ उनकी आंखों से ओझल हो गया। द्रोपदी ने भीम से उस पुष्प को ढूंढ लाने का आग्रह किया। भीम उसे ढूंढते-ढूंढते फूलों की घाटी तक जा पहुंचे। इन्हीं फूलों में सबसे आकर्षक और दिव्य पुष्प था-ब्रह्मकमल। भीम इन ब्रह्मकमलों को तोड़ लाए और द्रोपदी ने इसी से भगान की पूजा की।

Sunday, December 20, 2009

हिमालय में एटमी आफत

चीन के परमाणु संयत्रों पर नजर रखने के लिए नंदादेवी पर लगाया गया न्यूक्लियर डिवाइस अब तक लापता, बोस्टन कैमिकल डेटा कॉरपोरेशन की रिपोर्ट में परमाणु रेडिएशन की पुष्टि
लक्ष्मी प्रसाद पंत

कोपेनहेगन में धरती को बचाने के लिए जहां 192 देशों के प्रतिनिधि चिंतन-मनन में जुटे हैं वहीं हिमालय में 44 साल से गुम न्यूक्लियर डिवाइस को लेकर कहीं कोई चिंता नहीं है। हकीकत यह है कि चार पौंड प्लूटोनियम से भरी यह डिवाइस ग्लोबल वार्मिग से कई गुना खतरनाक है। बोस्टन कैमिकल डेटा कॉरपोरेशन की हालिया रिपोर्ट तो यहां तक कह रही है कि जिस नंदादेवी पर्वत पर यह न्यूकिलर डिवाइस गुम हुआ था उस क्षेत्र में रेडिएशन शुरू भी हो गया है।
इस लापता न्यूक्लियर डिवाइस का सच आखिर क्या है? इसी साल का जाब खोजने के लिए जब मैं नंदादेवी सेंचुरी के आखिरी गांव मलारी और लाता पहुंचा तो यह जानकर हैरान रह गया कि इन दोनों गांवॊं में 44 साल बाद भी न्यूक्लियर डिवाइस का खौफ जस का तस है। नंदादेवी बचाओ अभियान से जुड़े सक्रिय कार्यकर्ता सुनील कैंथोला तो यहां तक कहते हैं कि गुजरे 44 सालों से इस मसले पर चिंता जताई रही है लेकिन सरकारी स्तर पर अभी तक कोई प्रभावी कार्रवाई नहीं हुई है।

बकौल कैंथॊला पानी में परमाणु रेडिएशन को लेकर बोस्टन कैमिकल डेटा कॉरपोरेशन की रिपोर्ट ने हमारी शंकाओं को सच कर दिया है। काबिलेगौर है कि 1965 को नंदादेवी के जिस कैप चार से न्यूक्लियर डिवाइस गायब हुआ था उसके ठीक नीचे श्रृषि गंगा निकलती है जो गंगा का प्रमुख जल स्रोत है। असल खतरा अब यह कि अगर डिवाइस से रेडिएशन होता है, या जैसा कि बोस्टन कैमिकल डेटा कॉरपोरेशन की रिपोर्ट बताती है कि रेडिएशन हो रहा है तो हालात विस्फॊटक हैं। रिपोर्ट यह भी कह रही है कि जहां न्यूक्लियर डिवाइस गुम हुआ था उस पूरे क्षेत्र की फिर से गहन साइंटिफिक पड़ताल होनी चाहिए। चिंताजनक यह भी है कि इस रिपोर्ट के बाद भी भारत सरकार हरकत में नहीं आई है। अभी तक ऋषि गंगा और गंगा के पानी के सैंपल का टेस्ट न कराया जाना भी सवाल खड़े कर रहा है।

खतरनाक है रिसाव
1965 में चीन के परमाणु संयत्रों और हरकतों पर नजर रखने के लिए अमरीका और भारत ने मिलकर उत्तराखंड की नंदादेवी पर्वत के कैंप चार पर न्यूक्लियर डिवाइस रखा था। लेकिन बर्फीला तूफान आने के कारण डिवाइस बर्फ में कहीं गुम हो गया और आज तक नहीं मिल पाया है। इसमें प्लूटोनियम 238 और प्लूटोनियम 239 का इस्तेमाल किया गया जिसका रिसाव बहुत खतरनाक है।

खोजने के लिए चले अभियान
16 मई 1966 को न्यूकिलर डिवाइस को ढूंढ़ने के लिए पहला अभियान चला। डिवाइस को खोजने के लिए 2009 तक क्लीन नंदादेवी के नाम से करीब 18 अभियान चलाए जा चुके हैं। भारत सरकार डिवाइस को ढूंढ़ने के लिए अमेरिका के छह हस्की हैलिकाप्टर तक की मदद भी ले चुकी है लेकिन कामयाबी अभी दूर है।

और अब खतरा
वैसे तो न्यूक्लियर डिवाइस से खतरा १९६५ से बना हुआ है लेकिन 2005-०६ में अमेरिकी पर्वतारॊही पेट टाकेडा नंदादेवी सेंचुरी से मिट्टी और पानी की रेत के कुछ सैंपल लेकर गए। उन्होंने इनकी जांच जब अमरीका की बोस्टन कैमिकल डाटा कॉरपोरेशन की थी तो इस सैंपल के परमाणु विकिरण से प्रदूषित होने का खुलासा हुआ। सैंपल की जांच में प्लूटोनियम 238 और प्लूटोनियम 239 के अंश मिले हैं। काबिलेगौर है कि अकेले प्लूटोनियम 238 की आधी उम्र ही 90 साल है और यह पूरी तरह खत्म होने में एक हजार साल लेगा।

शिखर पर राज कर अकेले नाथ

मृगेंद्र पांडेय
अचानक कुछ बदलाव अच्छे से लगने लगते हैं। उस समय और भी अच्छे हॊ जाते हैं जब सबकुछ गडबड चल रहा हॊ। ये बदलाव उम्मीद बंधाते हैं कि आने वाले समय में कुछ बेहतर हॊगा। भाजपा के साथ भी कुछ ऐसा ही है। राजनाथ जब आए थे तब भी ऐसा लगा था कि कुछ बेहतर हॊगा। हुआ भी। मध्यप्रदेश छत्तीसगढ हिमाचल प्रदेश उत्तराखंड झारखंड कर्नाटक में भगवा परचम लहराया। इसका स्रेय भी उनकॊ मिला। लेकिन बहुत कुछ ऐसा था जॊ राजनाथ करने में चूक गए।

आडवाणी खेमे से नाराज नेता हॊं या फिर राजनीतिक पटल से अटल जी की अनुपस्थिति के कारण बेसहारा हुए उनके समर्थक। सबकॊ लगा कि राजनाथ उनके लिए कुछ करेंगे उनका सहारा बनेंगे। उपराष्ट्रपति भैरॊसिंह शेखावत के कमजॊर हॊते राजनीतिक कद ने भी उन ठाकुर नेताओं के लिए भी एक उम्मीद पैदा की थी जिनकी राजनीति का आधार उनका ठाकुर हॊना था। यही नहीं पार्टी में बहुत से ऐसे नेता जॊ न तॊ अटल दरबार के थे न जिनकी पहुंच आडवाणी के रथ तक थी उनके लिए भी राजनाथ एक नैया के समान नजर आने लगे थे।

यह समय भारत की बदलती राजनीति का भी था। इस दौर में गांधी परिवार एक बार फिर अपने राजनीतिक वजूद की तलाश में निकल पडा था। भगवा लहर पूरे देश से गायब हॊ चुकी थी। साधु संत धर्म के प्रति आस्था रखने वाला हर सख्श एक घॊर निराशा के दौर से गुजर रहा था। इसी दौर में एक साथ दॊ दॊ बदलाव उनके दरवाजे पर दस्तक देने कॊ तैयार थे। ये राजनीति की दॊ धाराएं थी। जाति और विकास की। बदलाव और स्वाभिमान की। राहुल गांधी और मायावती। ये बदलाव सीधे तौर पर न सही लेकिन अंदरखाने में राजनाथ के लिए मुश्किलें खडी करने की तैयारी में थे।

हर समाज के केंद्र में राजनीति हॊती है। जहां राजनीति घटिया दर्जे की हॊ जाती है उस समाज से बेहतर हॊने की उम्मीद बेमानी है। देश का अभिजात्य वर्ग राजनीति से लगातार पल्ले झाड रहा है। पीढियॊं की पीढियां इसे गंदी चीज मानती है। खास यह है कि देश का यही अभिजात्य वर्ग समाज के विकास की दशा और दिशा तय करता है। इससे बडी विडबना और क्या हॊगी कि इस वर्ग कॊ आम आदमी के बारे में सॊचने तक की फूर्सत तक नहीं है। ये दॊनॊ बदलावा मायावती और राहुल गांधी इसी कॊ चुनौती देने की तैयारी में थी।

राजनाथ की दिक्कत भी यही थी। वे लगातार अभिजात्य वर्ग की ओर बढते जा रहे थे। वहीं उनकॊ चुनौती देने वाली दॊनॊ ताकतें आम आदमी के पास पहुंचने की फिराक में थे। निराशा के इस दौर में जहां पार्टी का एक बडा वर्ग अपने आप राजनाथ का विरॊधी हॊ गया वहीं आम जनता भी उनसे दूर हुई। जसवंत सिंह यशवंत सिन्हा तॊ एक बानगी थे। एक बडा वर्ग अपनी नाराजगी कॊ चुप्पी में बदल चुका था। उसे सही समय का इंतजार था। उनका यह इंतजार लॊकसभा चुनाव के परिणाम आने के बाद समाप्त हॊ गया।

नतीजा यह रहा कि राजनाथ पार्टी कॊ अपने घर में भी नहीं जीत दिला सके। लॊकसभा चुनाव में भाजपा कॊ करारी हार का सामना करना पडा। राजनाथ के घर पूर्वांचल में कांग्रेस कॊ सफलता मिली। इसके साथ ही उनके बूरे दिन शुरू हॊ गए। अब राजनाथ उस किनारे पर हैं जहां वे सबकुछ पाने के बाद भी अकेले हैं न उनका कॊई साथ है न कॊई हमसफर।

Wednesday, December 16, 2009

अब ईरान भी अस्थिर होने की कगार पर

सुभाष धूलिया

ईरान भी अब दुनिया का एक सबसे अस्थिर क्षेत्र बनने की राह पर अग्रसर है। नाभिकीय कार्यक्रम को लेकर ईरान के रुख में कोई परिवर्तन नहीं आया है और अमेरिका, उसके सहयोगी और इजराइल किसी भी कीमत पर ईरान के मौजूदा नाभिकीय कार्यक्रम को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। ईरान पर बार-बार आरोप लगते रहे हैं कि वह अपने अनेक नाभिकीय प्रतिष्टानों को अंतर्राष्ट्रीय आणविक ऊर्जा एजेंसी की निगरानी से अलग रखे हुए है और इनके इस्तेमाल से नाभिकीय हथियार विकसित करने का इरादा रखता है। इस मसले पर ईरान हमेशा ही यही कहता आया है कि उसका नाभिकीय कार्यक्रम ऊर्जा उत्पादन तक ही सीमित है और नाभिकीय हथियार बनाने का उसका कोई इरादा नहीं है। दरअसल ईरान यूरेनियम संवर्धन की जिस क्षमता को हासिल कर रहा है उसका इस्तेमाल नाभिकीय हथियार विकसित करने के लिए भी किया जा सकता है।

हाल ही में जब ये पता चला की ईरान गुप्त रूप से एक अन्य नाभिकीय संयंत्र कायम कर रहा है आणविक ऊर्जा एजेंसी के सब्र का बाँध टूट गया। एजेंसी के प्रबन्धक बोर्ड ने एक प्रस्ताव पास कर ईरान की भर्त्सना की है। 35 सदस्यीय बोर्ड ने 25-3 के बहुमत से ये प्रस्ताव पारित किया जिसमें वेनेजुएला, क्यूबा और मलेशिया का प्रस्ताव के विरोध में वोट देना तय था। भारत पहले ही ईरान के खिलाफ वोट डाल चुका है और भारत एक जिम्मेदार नाभिकीय शक्ति का दर्जा हासिल करने के लिए ऐसे किसी भी प्रयास का समर्थन नहीं करेगा जिससे किसी भी रूप में नाभिकीय हथियारों का प्रसार होता है। इसके अलावा भारत और अमेरिका के बीच हुए नाभिकीय समझौते से भी भारत की नीति में बदलाव आया है।

लेकिन इस बार ईरान को समर्थन देने वाले रूस और चीन ने भी ईरान के भर्त्सना प्रस्ताव का समर्थन किया। अमेरिका और उसके सहयोगी तो काफी समय से ईरान पर कड़े प्रतिबंध लगाने की वकालत करते रहे हैं लेकिन रूस और चीन इसके पक्ष में नहीं थे । इन दोनों देशों के ईरान में सामरिक और आर्थिक हित भी दांव पर लगे हैं। इसी वजह से सुरक्षा परिषद के माध्यम से कड़े प्रतिबंध लगाने का रास्ता नहीं निकल पा रहा था।

आणविक ऊर्जा एजेंसी के भर्त्सना प्रस्ताव के बाद भी ईरान के रुख में कोई नरमी नहीं आई और अपने नाभिकीय कार्यक्रम विकसित करने के अधिकार से कोई भी समझौता करने से इंकार कर दिया है। इन हालातों में एक नया परिदृश्य पैदा हो गया है और यह संभावना प्रबल हो गयी है कि सुरक्षा परिषद ईरान पर कड़े प्रतिबंध लगाने का प्रस्ताव पारित कर देगी। इस तरह के प्रतिबंध लगाने से ईरान के अर्थतंत्र को विनाशकारी परिणाम झेलने होंगे। ईरान दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा तेल उत्पादक देश है लेकिन तेल और गैस संसाधनों को परिष्कृत करने की क्षमता न होने के कारण उसे 40 प्रतिशत गैसोलीन का आयात करना पड़ता है। इसलिए अगर ईरान पर कड़े प्रतिबंध लगाए जाते हैं तो इसके परिणाम ईरान समेत पूरी दुनिया को झलने पड़ेंगे।

मौजूदा नेतृत्व के चलते ईरान के कट्टर रुख में किसी परिवर्तन के उम्मीद नहीं की जा सकती और ऐसे में सामरिक और आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण देश एक गहरे संकट में पड़ने जा रहा है । ईरान भले ही खुले तौर पर यही कहता है कि वह नाभिकीय हथियार विकसित करने का कोई इरादा नहीं रखता पर परोक्ष रूप से इसमें यह संदेश भी निहित है कि अगर उसे नाभिकीय हथियार विकसित करने से रोका जा रहा है तो फिर इजराइल के नाभिकीय हथियारों को लेकर भी यही दृष्टिकोण क्यों नहीं अपनाया जाता ? ईरान का यह भी कहना है 1991 में खाड़ी युद्द समाप्त करने के संयुक्त राष्ट के उस प्रस्ताव का क्या होगा जिसमें मध्यपूर्व को नाभिकीय हथियारों और इन्हें दागने में समर्थ मिसाइलों से मुक्त रखने का आह्वान किया गया था जिसमें अमेरिका भी शामिल था। लेकिन लेकिन ईरान के ये तर्क कितने ही वाजिब क्यों न हों अमेरिका, उसके सहयोगी और इजराइल नाभिकीय ईरान को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं।

रूस के रुख में परिवर्तन का सबसे बड़ा कारण यही है कि वह ईरान में ऐसा युद्द नहीं चाहता जिससे इस भूभाग के सामरिक और आर्थिक समीकरण तहस-नहस हो जाएं। ईरान के इरादों पर अंकुश लगाए रखने के लिए रूस ने उसे विमानभेदी मिसाइलें देने से इंकार कर दिया था और एक नाभिकीय संयंत्र लगाने के समझौते का भी पालन नहीं किया है। रूस का मानना है कि ईरान को इस तरह की मदद देने से वह नरम पड़ने की बजाय आक्रमण का सामना करने की और ही उन्मुख होगा। इसके अलावा रूस यूरोप में अमेरिका की मिसाइल शील्ड को अपने लिए बड़ा खतरा मानता था लेकिन अमेरिका ने यूरोप से इसे हटाकर रूस को अपने साथ लाने की महत्वपूर्ण पहल की थी। रूस के रुख में परिवर्तन के बाद चीन के लिए भी ईरान का समर्थन जारी रखना मुश्किल होता गया। हालांकि चीन के ईरान में ऊर्जा संसाधनों को लेकर काफी बड़े आर्थिक हित दांव पर लगे हैं और वह ईरान में बड़े पैमाने पर विनिवेश करने जा रहा है।

राष्ट्रपति ओबामा ने भले ही 1979 से चल रहे ईरान के बहिष्कार को समाप्त कर बातचीत का रास्ता अपनाया लेकिन सैनिक विकल्प का रास्ता भी खुला रखा है। इस बीच अमेरिका और इजराइल ने ईरान की नाभिकीय क्षमता को ध्वस्त करने के लिए संयुक्त युद्ध अभ्यास भी किए हैं। इस दृष्टि देखें तो ईरान के प्रति अमेरिका की बुनियादी नीति में कोई परिवर्तन नहीं आया है।

रूस और चीन के रुख में परिवर्तन से सुरक्षा परिषद के माध्यम से ईरान पर कड़े लगाने का मार्ग प्रशस्त होता नजर आ रहा है। कड़े प्रतिबंध लगने के बाद संकटग्रस्त ईरान और कौन सा रास्ता अपनाने को मजबूर होगा ? पहले ही इसकी सरहदों से लगे इराक और अफगानिस्तान में अमेरिका की सेनाएं युद्ध लड़ रही हैं। इस तरह संकटग्रस्त और असुरक्षित होने के बाद ईरान अपनी बची-खुची क्षमता से नाभिकीय हथियार विकसित करने का रास्ता अपना सकता है। ऐसे में ये टकराव यहीं खत्म नहीं होने जा रहा है बल्कि इसमें एक बड़े संकट और अलग तरह के टकराव की संभावनाएं इसमें निहित हैं।

Tuesday, December 15, 2009

मैत्री और प्रतिद्वंदता के बीच भारत-चीन

सुभाष धूलिया

भारत और चीन पिछले एक दशक के दौरान एक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से पैदा हुए संदेह और अविश्वास से उबरने की कोशिश कर रहे थे और दोनों देशों के बीच अनेक स्तरों पर वार्ताओं का सिलसिला चला और आर्थिक संबंधों, खास तौर पर व्यापार में बेमिसाल वृद्दि हुई। लेकिन अभी पिछले दिनों ही एक ऐसा माहौल पैदा हुआ मानों दोनों देशों के बीच कटुता ही नहीं आ गयी है बल्कि कहीं दूर युद्द के बादल भी दिखाई दे रहे हैं। हालांकि भारत और चीन दोनों के ही राजनैतिक नेतृत्व ने युद्ध की किसी भी संभावना से इंकार किया और साफ तौर पर कहा कि दोनों देशों के संबंधों में ऐसी कोई कटुता नहीं आई है और यह युद्ध का सारा उन्माद मीडिया की उपज भर है। निश्चय ही मीडिया और खासतौर पर टेलीविजन के विस्तार के बाद अनेक ऐसे अवसर आये हैं जब राष्ट्रीय सुरक्षा और विदेश नीति से संबंद्धित मुद्दों पर सरकार को अनावश्यक दवाब झेलना पड़ा है। ब्रह्मपुत्र नदी पर बांध बनाने के सवाल पर भी बवाल मचा लेकिन आधिकारिक स्तर पर चीन ने इस तरह के किसी भी बांध के निर्माण से इंकार किया है। लेकिन फिर भी इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि चन्द वर्षों पहले दोनों देशों के संबंधो में सुधार की जो प्रक्रिया शुरु हुई थी और जिसकी अभिव्यक्ति 2006 को भारत-चीन मैत्री वर्ष के रुप में मनाए जाने को हुई थी, वह आज कहीं न कहीं पारस्परिक संदेह और अविश्वास के घेरे में आ गयी है। 1962 के युद्द से ही भारतीय सोच में चीन के इरादों को लेकर हमेशा संदेह और अविश्वास रहा है और भले ही मीडिया ने उन्माद पैदा किया हो लेकिन लोगों के दिलोदिमाग ये कटु यादें फिर से ताजी हो गईं।

शीतयुद्द के दौरान भारत के सोवियत संघ से बहुत करीबी रिश्ते थे और इसके जवाब में चीन-पाकिस्तान-अमेरिका ने अपना गठजोड़ कायम कर लिया था। शीतयुद्ध खत्म होने पर नए सैनिक गठजोड़ों का महत्व कम हुआ और नए आर्थिक समीकरण पैदा हुए। इस नई विश्व व्यवस्था में भारत और चीन के संबंधों में भी गरमाहट आयी। लेकिन अमेरिका पर आतंकवादी हमलों के उपरांत दुनिया का राजनीतिक और सामरिक मानचित्र बदल गया और अमेरिका ने दुनिया पर सैनिक प्रभुत्व कायम करने का अभियान छेड़ दिया। अफगानिस्तान और इसके साथ-साथ पाकिस्तान में अमेरिका की सैनिक उपस्थिति से चीन आशंकित हुआ और इसी के समांतर भारत और अमेरिका के संबंधों का एक नया अध्याय शुरु हुआ- जिसके साथ ही भारत -चीन संबंधों के सुधारों की प्रक्रिया भी मंद पड़ने लगी।

अब इराक और अफगानिस्तान में अमेरिका के फंसने के बाद यह कहना मुश्किल हो गया है कि दुनिया किस ओर जायेगी । यह धारणा भी बलवती हो रही है कि इन देशों से अमेरिका के हटने से इसकी ताकत में भारी ह्रास होगा और दुनिया में एक नेतृत्वकारी और प्रभुत्वकारी ताकत के इस तरह ढलने के बाद जो शून्य उभरेगा उसकी भरपाई कहां से होगी और कौन करेगा? इस संदर्भ में बार-बार चीन की ओर ही देखा जाता है। चीन के इस तरह की शक्ति के रूप में उभरने के उपरांत एक नई विश्व व्यवस्था अस्तित्व में आएगी और इसमें भारत के स्थान को लेकर दोनों देशों के सामरिक हितों में अंतर्विरोध पैदा होगें।

हाल ही के वर्षों में चीन की आर्थिक ताकत में भारी वृद्दि हुई है और दुनिया भर में मंदी के बावजूद चीन में आर्थिक तरक्की की यह प्रक्रिया बदस्तूर जारी रही है। चीन पहले ही अमेरिका के बाद विश्व की दूसरे नंबर की आर्थिक ताकत बन चुका है। इस दौरान भारत की आर्थिक वृद्धि भी बेमिसाल रही। हालांकि चीन की तरह भारत रोजगार और कृषि से जुड़े अनेक मसलों का हल नहीं खोज पाया है और देश के भीतर अनेक टकराव भी बरकरार हैं तो कुछ नए तरह के टकराव भी पैदा हो रहे हैं। लेकिन फिर भी यह माना जाता है कि भारतीय अर्थतंत्र की वृद्धि की यह रफ्तार बनी रहेगी और कुछ वर्षों में भारत अमेरिका और चीन के बाद दुनिया की तीसरी आर्थिक शक्ति के रूप में उभरेगा। भारत के 30 करोड़ मध्यमवर्ग की क्रयशक्ति में लगातार विस्तार हो रहा है और जल्द ही यह यूरोपीय यूनियन से भी बड़े बाजार का रुप धारण कर लेगा।

चीन की तरह भारतीय अर्थतंत्र भी मंदी की मार को बखूबी झेलने में सफल रहा है। एक धारणा यह भी है कि मंदी अभी शांत भर हुई है और कभी भी उफन सकती है और भारत और चीन ही ऐसे देश हैं जिनकी अर्थव्यवस्था मंदी की मार झेलने में सक्षम है। ऐसे में जब दुनिया की अनेक आर्थिक ताकतें कमजोर पड़ेंगी तब भारत और चीन की आर्थिक ताकत उभार पर होगी। इसलिए यह दोनों देशों के लिए ही अच्छा होगा है कि ऐसा कुछ ना हो जिससे आर्थिक तरक्की की प्रक्रिया में बाधा पड़े। दुनिया पर जब संकट के नए बादल मंडरा रहे हैं और अमेरिकी ताकत के भविष्य को लेकर सवाल उठ रहे हैं तो दोनों देशों के हित में यही है कि वे अतीत के संदेह और अविश्वास से मुक्त होकर 2006 के मैत्री वर्ष की भावना पर ही आगे बढ़ें।

लेकिन चीन कहीं ना कहीं भारत की उभरती ताकत को स्वीकारने से कतराता ही नहीं रहा है बल्कि इसमें बाधाएं भी पैदा करता रहा है। इस कारण मैत्री की भावना पर समय समय पर चोट लगती रही है जिससे अतीत का संदेह और अविश्वास सतह पर आता रहा है। अमेरिका के साथ भारत के बढ़ते संबंधों को जहां चीन अपने आप को घेरने के रूप में देखता है वहीं पाकिस्तान के अलावा नेपाल,बांग्लादेश और म्यांमार में चीन की बढ़ती घुसपैठ एक तरह से भारत को घेरने का प्रयास ही है। विश्व के सामरिक मानचित्र पर दोनों देशों का टकराव साफ तौर पर देखा जा सकता है। भारत और अमेरिका के बीच नाभिकीय करार के बाद विश्व के नाभिकीय समुदाय में भारत के प्रवेश का चीन ने विरोध किया और सुरक्षा परिषद में विस्तार और भारत और जापान को इसमें शामिल किए जाने का भी चीन ने विरोध किया। कई मौकों पर चीन के दोहरे मानदंड रहे हैं- कथनी और करनी में अंतर रहा है जिससे संदेह और अविश्वास पैदा होना स्वाभाविक ही है।

चीन एक ऐसी विश्व व्यवस्था का सपना देखता है जिसमें अमेरिका ,यूरोपीय यूनियन, रूस और चीन ही शक्ति के स्तंभ हों। भारत की उभरती ताकत को इस शक्ति स्तंभ में शामिल होने का चीन किसी ना किसी रूप में विरोध और प्रतिरोध करता है। इसके अलावा एशिया में प्रभाव क्षेत्र को लेकर भी दोनों देशों के हितों का सामरिक टकराव है। इन तमाम कारणों से दोनों देशों के संबंधों के आर्थिक परिपेक्ष्य और सामरिक तानेबाने के बीच लागातर टकराव रहा है और मौजूदा विश्व व्यवस्था में यह टकराव और तेज हो रहा है।

इस पृष्ठभूमि में चीन की बढ़ती आर्थिक और सैनिक ताकत का भारत को सामना करना ही होगा। हालांकि अमेरिका के साथ नए सामरिक संबंधों को लेकर भारत का इरादा चीन को घेरने का नहीं है । लेकिन अमेरिका निश्चय ही भारत के साथ सामरिक सहयोग को चीन पर नकेल लगाने के रुप में ही देखता है। भारत और अमेरिका के बीच हाल ही के वर्षों में सैनिक सहयोग का विस्तार हुआ है। अफगानिस्तान-पाकिस्तान में अमेरिकी सैनिकों की उपस्थिति और भारत के साथ अमेरिका के सामरिक गठजोड़ को चीन संदेह की निगाह से देखता है। इस दृष्टि से भले ही हाल ही में दोनों देशों के बीच सैनिक तनाव मीडिया का बवंडर भर हो लेकिन वास्तविकता के धरातल पर निश्चय ही ऐसे समीरकरण उभर रहे हैं जो 2006 की मैत्री की भावना से मेल नहीं खाते हैं और टकराव के नए कारण पैदा हो रहे हैं और नए केन्द्र उभर रहे हैं। अनेक विकासशील क्षेत्रों में ऊर्जा संसाधनों को लेकर भी दोनों देशों के हित टकरा रहे हैं। दोनों देशों की उभरती अर्थव्यवस्था को ऊर्जा संसाधनों की भारी जरूरत है और इस कारण ऊर्जा टकराव तेज होना भी स्वाभाविक है।

इसके अलावा पाकिस्तान की स्थिति नाजुक बनी हुई है। आज पाकिस्तान अमेरिका के इतने जबर्दस्त सैनिक दवाब में है कि चीन की ओर उन्मुख होने की संभावनाएं सीमित हो गयी हैं। लेकिन अफगान युद्ध के भविष्य को लेकर इतने संदेह बने हुए हैं कि पाकिस्तान क्या करवट लेगा यह कहना भी मुश्किल है। अफगानिस्तान-पाकिस्तान क्षेत्र से अगर अमेरिका को हटना पड़ा तो ऐसी सत्ताएं अस्तित्व में आ सकती हैं जो भारतीय हितों के लिए गंभीर चुनौती पेश करें और इनका इस्लामी उग्रवाद अमेरिका पर केन्द्रित न हो क्योंकि सिर्फ इस स्थिति में अमेरिका के अफगानिस्तान से लौटने की संभावनाएं पैदा होती हैं।अफगानिस्तान में उदार तालिबान के उदय की बातें की जा रही हैं और यह कहना मुश्किल है कि उदार तालिबान भारत के लिए भी उदार होगा और पाकिस्तान के साथ मिलकर भारत-विरोधी गठजोड़ कायम नहीं करेगा। और, आज चीन ने भारत के प्रति जो रुख अपनाया हुआ है उसे देखते हुए चीन इस तरह की सत्ताओं से गठजोड़ कायम करने से नहीं कतराएगा चाहे इनका चरित्र कैसा भी क्यों न हो। चीन की विदेश और सामिरक नीतियों में हमेशा से एक तरह का अवसरवाद हावी रहा है और चीन ने ऐसी सत्ताओं के साथ गठजोड़ कायम किए हैं जो इसके घोषित समाजवादी आदर्शों से कहीं से भी मेल नहीं खाते हैं।

इस तरह की स्थिति में अगर चीन फिर से इसी तरह के अवसरवाद का सहारा लेता है और एशिया के इस भूभाग में भारत-विरोधी गठजोड़ कायम करता है या इनमें साझेदार बनता है, तो निश्चय ही दोनों देशों के संबंधों पर आर्थिक सहयोग की जगह सैनिक परिपेक्ष्य हावी हो जायेगा। इस तरह की चुनौतियों का सामना करने के लिए भारत को भी नए सामरिक समीकरणों की जरूरत होगी जिसमें अमेरिका की केन्द्रीय भूमिका होने के ही सबसे प्रबल संकेत हैं।

Tuesday, December 8, 2009

इतिहास की वापसी !

सुभाष धूलिया

बर्लिन की दीवार को ढहे बीस वर्ष हो गए हैं। इस ऐतिहासिक घटना के साथ ही शीत युद्ध समाप्त हुआ था और जिसके परिणामस्वरूप 1981 में सोवियत संघ के अवसान के साथ ही एक वैकल्पिक विचारधारा और एक व्यवस्था का आदर्श भी ढह गया। बौद्धिक हलकों में समाजवाद और पूंजीवाद के भविष्य को लेकर अनेक बहसें छिड़ीं। समाजवादी विचारकों ने इसे समाजवाद की पराजय मानने के बजाय स्टालिनवादी नौकरशाही सत्ता का पतन करार दिया तो पूंजीवाद में यकीन रखने वालों ने इसके अधिनायकवाद के खिलाफ लोकतंत्र और स्वतंत्रता की विजय के रूप में देखा। अमेरिकी विचारक फ्रांसिस फुकुयामा ने इस विजय को "इतिहास का अंत" करार दिया। फुकुयामा का तर्क था कि मानव सभ्यता अपने ऐतिहासिक विकास के अंतिम पड़ाव पर पहुंच गयी है और अब पश्चिमी शैली के उदार लोकतंत्र और पूंजावादी अर्थव्यवस्था का कोई विकल्प नहीं है ।

नब्बे के पूरे दशक में पश्चिमी देशों में ऐतिहासिक विजय का नशा सा छा गया। समाजवाद के सोवियत मॉडल के पतन को पूंजीवाद के विजय के रूप में इस हद तक देखा गया कि इस व्यवस्था की खामियों और निहित कमजोरियों की ओर से ध्यान हट गया। पूंजीवाद और मुक्त अर्थव्यवस्था की विजय का झंडा दुनिया भर में फहरने लगा। सर्वत्र यह स्वीकार किया गया है कि मुक्त अर्थव्यवस्था ही गतिशील साबित हुई है और इसमें ही पूंजी और श्रम दोनों को कुशलता और उत्पादकता को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाने की क्षमता निहित है। निश्चित ही सोवियत मॉडल की नियंत्रित अर्थव्यवस्था जड़ता का शिकार होती चली गयी। इसी के समांतर इसने राजनीतिक असहमति और विमर्श का हर दरवाजा ही नहीं बल्कि हर खिड़की तक बंद कर दी और अधिनायकवादी केन्द्रवाद हावी होता चला गया। आर्थिक और राजनीतिक दोनों ही स्वतंत्रताओं के छिनने से इस व्यवस्था पर से लोगों का विश्वास उठ गया और अवसर मिलते ही कहीं गहरा धंसा आक्रोश फूट पड़ा और बर्लिन की दीवार ढह गयी ।

इसके साथ ही पूरी दुनिया में मुक्त अर्थव्यवस्था उन्मुख सुधारों का दौर चला। भूमंडलीकरण की प्रक्रिया ने नया आवेग ग्रहण किया और राष्ट्रीय अर्थतंत्रों के वैश्विक अर्थतंत्र में एकीकरण के लिए उदारीकरण की गूंज हर तरफ उठने लगी। लेकिन केवल एक दशक के भीतर ही उदारीकरण और भूमंडलीकरण की इस प्रक्रिया ने ऐसा रूप धारण कर लिया कि अनेक हलकों में यह कहा जाने लगा कि यह समृद्धि का नहीं बल्कि गरीबी का भूमंडलीकरण हो रहा है और इस पर बहुराष्ट्रीय निगमों के दबदबे से इसे कॉर्पोरेट भूमंडलीकरण का नाम दिया गया।

नोबेल पुरुस्कार विजेता जोजेफ स्टिग्लिट्ज जैसे अर्थशास्त्री जो भूमंडलीकरण की प्रक्रिया के प्रबल हिमायती हुआ करते थे उनसे ही विरोध के स्वर उठने लगे। इस सदी के प्रारंभ होने के साथ ही पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में विकास के तत्वों को समावेश करने की जोरदार मांग उठने लगी। इसी के समांतर वैश्विक अर्थव्यवस्था को एक के बाद एक संकट ने झकझोर दिया। 1997 में एशियाई टाइगरों के वित्तीय संकट ने पूरी वैश्विक अर्थव्यवस्था को इतना झकझोर दिया कि मलेशिया के तत्कालीन प्रधानमंत्री महातीर ने कहा कि जिस अर्थव्यवस्था के निर्माण में हमें चालीस वर्ष लगे, एक सट्टेबाज आया और उसने चालीस घंटों में ही सब बर्बाद कर दिया। भूमंडलीकरण की प्रक्रिया पर वित्तीय पूंजी हावी होने लगी थी। संकटों इस इस श्रंखला में 1997 के तत्काल बाद 1998 में पूंजी के प्रबंधन का संकट पैदा हुआ और 2001 में डॉटकॉम का गुब्बारा भी फूट गया। तब से लेकर 2008 की बड़ी मंदी तक अनेक तरह के संकट आते रहे। इन घटनाओं से बर्लिन की दीवर के ढहने से उपजा विजयवाद ठंडा पड़ने लगा और सवाल उठाए गए कि सरकार और बाजार के संबंधों को नए सिरे से देखने की जरूरत है। सब कुछ बाजार की शक्तियों पर नहीं छोड़ा जा सकता ।

1930 की महामंदी के बाद जिस तरह मुक्त अर्थव्यवस्था को पूरी तरह मुक्त करने के बजाय सरकार के हस्तक्षेप की पैरवी की गई और प्रख्यात अर्थशास्त्री कीन्स ने कहा कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की भलाई इसी में है कि रोजगार पैदा करने में सरकार का हस्तक्षेप करे। आज मौजूदा नव-उदारवादी व्यवस्था पर संकट के उपरांत भी दुनिया के अनेक जाने-माने अर्थशास्त्री कह रहे हैं कि सरकार को किसी ना किसी रूप में बाजार को रेग्यूलेट करना होगा। 15 सितंबर 2008 में अमेरिका की एक 158 वर्ष पुरानी प्रमुख विनियोग बैंक लेहमान ब्रदर्स दिवालिया होने पर जोसेफ स्टिग्लिट्ज ने कहा कि जिस तरह 1989 में बर्लिन की दीवार का ढहना समाजवाद के पतन का प्रतीक था उसी तरह लेहमान ब्रदर्स का दिवालिया होना पूंजीवाद के मौजूदा स्वरुप के पतन का प्रतीक है। लेहमान ब्रदर्स के दिवालिया होने के बाद अमेरिका की अनेक बड़ी-बड़ी वित्तीय संस्थाएं दिवालिया होने के कगार पर खड़ी थी और अमेरिकी सरकार को "मुक्त" अर्थव्यवस्था में हस्तक्षेप कर अरबों डॉलर के पैकेज के बल पर इन संस्थाओं को डूबने के बचाने पर विवश होना पड़ा।

बर्लिन दीवार के ढहने से जो पूंजीवाद विजयी हुआ था आज उसे लेकर सवाल उठ रहे हैं। कई बहसें हो रही है कि मुक्त अर्थव्यवस्था को कितना मुक्त रखा जाए और इसे रेग्यूलेट करने के लिए किस हद तक सरकार का हस्तक्षेप जरूरी है? लेकिन इसके साथ ही यह बहस भी हो रही है कि पूंजीवादी व्यवस्था में अनेक अन्तर्विरोध निहित हैं और अगर इस पर बार-बार आने वाले संकटों से मुक्ति पानी है तो पूंजीवादी व्यवस्था की जड़ों की ओर देखना होगा और राहत पैकेज तो केवल तात्कालिक सामाधान है।

निश्चय ही बर्लिन की दीवार के ढहने के बाद उपजे उदारीकरण का आवेग तीव्र ढलान पर लुढक रहा है और भूमंडलीकरण की प्रक्रिया दुम दबाकर भागती सी दिखाई दे रही है। दुनिया भर में ऱाष्ट्रीय अर्थतंत्र को संरक्षण देने का दौर शुरु हो चुका है। पर विकल्प को लेकर कोई ठोस अवधारण विकसित नहीं हो रही है इसकी अभिव्यक्ति अमेरिका की एक बहुत बड़ी वित्तीय संस्था मेरिल लिन्च के अध्यक्ष बर्नी सुचर के इस कथन में होती है कि "हमारी दुनिया बिखर गई है और हमें नहीं मालूम कि इसका स्थान कौन लेने जा रहा है"। लेकिन दुनिया के दो सबसे बड़े अमीरों- बिल गेट्स और वारेन बफेट -ने कहा है कि संकट टल गया है और पूंजीवाद पूरी तरह स्वस्थ है। लेकिन स्टिग्लिट्ज और अमृर्त्य सेन जैसे अर्थशास्त्रियों का कहना है कि संकट टला भर है और जब तक मुक्त बाजार की मनमानी पर रोक नहीं लगाई जाएगी तब तक इस तरह के संकट आते ही रहेंगे।

आज पूंजीवाद के मौजूदा चरित्र और स्वरूप पर "समाजवादी" नहीं बल्कि पूंजीवादी दर्शन में आस्था रखने वाले ही सवाल उठा रहे हैं। बर्लिन की दीवार ढहने से जिस पूंजीवाद की विजय हुई थी वह निश्चय ही इतिहास का अंत नहीं है और बर्लिन की दीवार ढहने जैसी एक और ऐतिहासिक घटना की किरणें क्षितिज में कहीं दिखाई दे रही हैं।

Saturday, December 5, 2009

आतंक से कैसे लड़ें?

सुभाष धूलिया

पाकिस्तान आज दुनिया के सबसे खतरनाक क्षेत्र के रुप में उभर चुका है। नाभिकीय हथियारों से लैस यह देश भीतर और बाहर हर तरफ संकट से घिरा है और यहाँ हर घटनाक्रम भारत को गंभीर रुप से प्रभावित करता है। भारत का राजनीतिक नेतृत्व हमेशा से ये कहता रहा है कि एक स्थिर और संपन्न पाकिस्तान ही भारत के हित में है। लेकिन आज पाकिस्तान राष्ट्र का भटकाव गहरे से गहरा होता चला गया है तो इस बदलते घटनाक्रम को संबोधित करने में भारतीय विदेश नीति एक कदम आगे रहने की बजाय एक कदम पीछे रहती ही अधिक प्रतीत हो रही है।

मुंबई पर आतंकवादी हमलों के उपरांत पाकिस्तान किनारे पड़ गया था और इसे अपने आप को पाक-साफ बताने में एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ा था। आज इन आतंकवादी हमलों को महज 11 महीने बीते हैं लेकिन पाकिस्तान ने आक्रमक रुख अपना लिया है। पाकिस्तान उल्टे भारत पर आतंकवाद भड़काने का आरोप लगा रहा है और ये आरोप लगाने में पाकिस्तान के मंत्री तक शामिल हैं। निश्चय ही 2611 के हमलों के उपरांत के दवाब को झेलना पाकिस्तान को भारी पड़ा था और भारत ने इस दौरान दवाब की कूटनीति का सहारा लिया था जिससे दोनों देशों के बीच एक दरार पैदा हुई। 26य11 के बाद से भारत ने पाकिस्तान के साथ कोई वार्ता करने से इंकार कर दिया और पाकिस्तान से आतंकवाद से लड़ने में सच्चाई और इमानदारी का परिचय देने को कहा। इस सवाल पर पाकिस्तान हमेशा ही संदेह के घेरे में रहा है और अमेरिका अफगानिस्तान और ईरान तक ने इस मसले पर पाकिस्तान की ईमानदारी पर सवाल उठाये हैं।

निश्चय ही भारत ने कश्मीर में पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के काऱण बहुत जख्म झेले हैं। लेकिन आज इस बात का मूल्यांकन करना भी जरूरी हो जाता है कि पाकिस्तान के भारत-विरोधी आतंकवाद में तब से लेकर अब तक क्या परिवर्तन आये है। आज पाकिस्तान पर आतंकवादियों ने एक तरह से पूरा आक्रमण कर दिया है। दक्षिणी वजीरिस्तान में अमेरिका के दवाब के चलते पाकिस्तानी सेना को इस्लामी उग्रवाद और आतंकवाद के खिलाफ एक पूरा युद्द छेड़ देना पड़ा है। इस युद्ध में भले ही इसमें पाकिस्तान के सैनिक विजय हासिल कर रहे हों लेकिन इसका एक परिणाम यह भी हुआ है कि आतंकवाद इस क्षेत्र में अपने गढ़ों से निकलकर पूरे पाकिस्तान में फैल गया है।और इसके साथ ही कश्मीर से लेकर काबुल तक तमाम आतंकवादी संगठनों ने एक आतंक का तंत्र कायम कर लिया है। सीमाविहीन इस ताकत की विनाशकारी क्षमता में बेमिसाल वृद्धि हुई है। लेकिन आतंकवाद के शिकार देश, अमेरिका और पाकिस्तान के सैनिक अभियान अभी तक इस आतंकी तंत्र को ध्वस्त करने के कहीं करीब तक नहीं पहुंच पाये हैं।

इसके अलावा पाकिस्तान का आंतरिक संकट भी गहरा ही नहीं जटिल होता जा रहा है। भ्रष्टाचार के पुराने आरोपों के फिर से सतह पर आने के कारण राष्ट्रपति जरदारी राजनीतिक रूप से किनारे पड़ते जा रहे हैं और अपनी सत्ता को बनाये रखने के लिए अधिकाधिक अमेरिका पर निर्भर होते जा रहे हैं। यह निर्भरता यहां तक बढ़ गयी है कि जब अमेरिका ने पाकिस्तान के लिए डेढ़ अरब डॉलर की विशाल सहायता राशि मंजूर की तो यह भी शर्त लगा दी कि इसके लिए पाकिस्तानी सेना और खुफिया ऐजेंसी आईएसआई को यह प्रमाणपत्र देना होगा कि वे आतंकवाद से लड़ने के लिए कठोर कदम उठाएंगे और परमाणु अप्रसार के लिये वचनबद्ध हैं।

सच्चाई जो भी हो लेकिन पाकिस्तान में आम धारणा यह पैदा हुई है कि अमेरिका की इस शर्त के पीछे जरदारी का हाथ है और इस तरह वे पाकिस्तानी सेना प्रतिष्ठान पर अंकुश लगाना चाहते हैं। जरदारी ने खुफिया ऐजेंसी आईएसआई को सेना से अलग करने का भी प्रस्ताव दिया था। अमेरिकी शर्तों को लेकर पाकिस्तानी सैनिक कमांडरों की एक बैठक के बाद इस पर चिंता व्यक्त करते हुए एक सार्वजनिक बयान जारी किया गया। इससे स्पष्ट हो जाता है कि जरदारी के राजनीतिक नेतृत्व और सैनिक प्रतिष्ठान के बीच एक तरह का टकराव पैदा हो रहा है।

आज अफगानिस्तान में अमेरिका की सैनिक उपस्थिति और पाकिस्तान की नकेल अमेरिका के हाथ में होने के कारण पाकिस्तानी सेना के लिए जरदारी का तख्ता पलटना वैसा आसान नहीं रह गया है जैसा कि पाकिस्तान का इतिहास रहा है। लेकिन इन सबके चलते जरदारी सरकार के प्रभाव पर तो गहरा असर पड़ा है। भले ही अफगानिस्तान में करजई सरकार की तरह यह अमेरिका की पिठ्ठू सरकार का रूप धारण नहीं कर पायी हो लेकिन राजनीति में सैनिक प्रतिष्टान के दबदबे को देखते हुए लगता है कि जरदारी सरकार अपने अस्तित्व को बनाये रखने के लिये अधिकाधिक अमेरिका पर निर्भर होती जा रही है।

इस वक्त पाकिस्तान को समझना और इसके प्रति कोई स्पष्ट नीति तय कर पाना आज जितना जठिल है इतिहास में इससे पहले कभी नहीं था। इस अमेरिकापरस्ती के समांतर पाकिस्तान अपने परंपरागत सामरिक सहयोगी चीन से भी नए रिश्ते कायम कर रहा है। अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा अगले सप्ताह चीन की यात्रा पर जा रहे हैं और उनके ऐजेंडे में सबसे महत्वपूर्ण भारत और पाकिस्तान-अफगानिस्तान के प्रति चीन के रुख पर बातचीत करना है। चीन ने इस यात्रा के ठीक पहले पाकिस्तान को अत्याधुनिक विमान बेचने का बड़ा सौदा ही नहीं किया बल्कि एक ऐसी सैनिक प्रोद्योगिकी भी देने जा रहा है जिसे अमेरिका ने पाकिस्तान को देने से साफ इंकार कर दिया था। चीन ने अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी की मांग की है जबकि भारत ने स्थायित्व कायम किए बिना इस तरह वापसी का रास्ता न अपनाने को कहा है।

ओबामा की अगले सप्ताह चीन की यात्रा और 24 नवंबर को भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अमेरिका यात्रा के संदर्भ में इस भूभाग में नए समीकरण उभर रहे हैं। निश्चय ही यह भूभाग दुनिया की दो बड़ी ताकतों के बीच के संघर्ष का केन्द्र बन रहा है और इस भूभाग के स्थायित्व से भारत का गहरा संबंध है। अफगानिस्तान युद्ध को एक ऐसे युद्द का दर्जा दिया जा चुका है जिसे अमेरिका के लिए जीत पाना संभव नहीं है फिर ऐसे में चीन की भूमिका का मूल्यांकन करना भी जरूरी हो जाता है।

भारत के करीब इस भूभाग में जब इस तरह के सामरिक समीकरण उभर रहे हों तो यह भी जरूरी हो जाता है कि भारतीय विदेश नीति कश्मीर के आंतकवाद को लेकर पाकिस्तान की भूमिका से पनपी मानसिकता से अपने आप को मुक्त करे और आतंकवाद के खिलाफ संघर्ष को नए परिपेक्ष्य में देखे और इसके क्षेत्रीय ही नहीं बल्कि वैश्विक चरित्र का भी मूल्यांकन करे। 26य11 हमलों के बाद से भारत ने पाकिस्तान के साथ किसी भी वार्ता से इंकार कर दिया था और यही शर्त थी कि भारत-विरोधी आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई के लिए पाकिस्तान अपनी सच्चाई और ईमानदारी साबित करे। जाहिर है कि इस तरह के रुख को किसी भी पैमाने पर नापा नहीं जा सकता लेकिन जब पाकिस्तान पर भी आतंकवाद ने एक पूरी तरह से हमला बोल दिया है तो एक नई स्थिति पैदा हो गई है और अब पाकिस्तान को कश्मीरी आतंकवाद के कटघरे से बाहर निकालकर एक व्यापक दृष्टि से देखना जरुरी है। तमाम खुफिया ऐजेंसिया आज इसी ओर संकेत कर रही हैं कि 26/11 जैसा हमला फिर हो सकता है और अगर ऐसा होता है तो फिर भारत के पास क्या विकल्प होंगे? मौजूदा परिस्थितियों में पाकिस्तान पर किसी भी तरह के हमले का विकल्प निरर्थक और विनाशकारी होगा जिसकी कुछ हलकों में 26/11 के बाद वकालत की गई थी।
ऐसे में यह सवाल पैदा होता है कि पाकिस्तान पर दवाब की कूटनीति को कब तक जारी रखा जाए और आज इस बात का मूल्यांकन करना जरूरी हो जाता है कि पाकिस्तान के साथ वार्ता के सारे रास्ते बंद करके भारत को क्या मिला है? भारत के इस तरह के रुख से पाकिस्तान में एक असुरक्षा की भावना पैदा होती है और भारत-विरोधी उन्माद का माहौल पैदा होता है जिसका इस्तेमाल हमेशा ही संकटग्रस्त हर पाकिस्तानी सत्ता करती रही है और आज सरदारी सरकार भी यही करती प्रतीत होती है।

हाल ही में भारत के राजनीतिक नेतृत्व ने स्पष्ट संकेत दिए हैं कि पाकिस्तान के साथ वार्ता की प्रक्रिया को शुरु किया जाना चाहिए और कश्मीर जैसे विवादित मसलों पर पहले जो समझदारी पैदा हुई थी उसे आगे बढ़ाने की जरूरत है। यह सकारात्मक संकेत हैं और आज की परिस्थितियों मे भारतीय विदेश नीति को पाकिस्तान से अलग-थलग रखने की बजाय उसे बातचीत के मंच पर लाने पर केन्द्रित करना होगा। ऐसा करने पर भारत की ओर से पैदा होने वाली असुरक्षा से पाकिस्तान के अमेरिका या चीन परस्ती के रास्ते पर जाने से भारत के हितों को ही अधिक पहुंचेगा। और इस भूभाग में संकटग्रस्त और सामरिक समीकरणों के केन्द्र में फंसे पाकिस्तान को प्रभावित करने की भारत की क्षमता और भूमिका सीमित होगी। आज यह भूभाग बड़ी शक्तियों के संघर्ष का केन्द्र बन रहा है और ऐसे में भारत को इस घटनाक्रम को प्रभावित करने की अपनी क्षमता के विस्तार की जरूरत है इसलिए ऐसे रास्तों का निर्माण करना होगा कि इस संघर्ष से संबंधित हर संभावित पक्ष से बातचीत के रास्ते खुले रखे जाएं।

Thursday, December 3, 2009

बस्तर कॊ क्यॊं भूल रहे हैं हम

बस्तर में औद्योगिकीकरण, पर्यावरण सुरक्षा और समस्याएँ

सी.एल.पटेल

बस्तर संभाग देश के सर्वाधिक पिछड़े क्षेत्रो में से एक है। आदिवासी बहुल यह क्षेत्र, देश में नक्सल प्रभावित समस्याग्रस्त क्षेत्र के रूप में भी जाना जाता है। आज़ादी के बाद इस क्षेत्र के सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक, स्वास्थ्य सेवा विकास, यातायात सुविधा कृषि संवर्धन, सिंचाई व औद्यौगीकरण के लिए केन्द्र व राज्य सरकार द्वारा आबंटित राशि भ्रष्टाचार के मुख में न समा गया होता तो आज क्षेत्र की तस्वीर अलग होती। भ्रष्टाचार, आदिवासियों का शोषण और उनका पिछडापन वहां नक्सलवाद पनपने के कारणों में से एक है।

खनिज व वन संपदा से भरपूर कृषि व औद्यौगिक विकास की प्रचुर संभावनायें हैं। सन् 1984 की सातवीं पंचवर्षीय योजना में बस्तर के विकास हेतु ‘‘बस्तर डेव्हलपमेंट प्लान’’ बना था, करोड़ों रूपयों का बजट प्लान था, कितनी ही योजनाएं आई और गई किंतु उसका लाभ बस्तर को नहीं पहुंचा, भ्रष्टाचारियों ने इसे डकार लिया। विकास के नाम पर कागजों में खानापूर्ती हो रही है यह कहें तो अतिषयोक्ति नहीं होगी।

बस्तर में उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों का सुनियोजित नियंत्रित दोहन, वनोपज पर आधारित उद्योग, हस्तषिल्प तथा लघु, मझोले, व बड़े उद्योगों का अधोसंरचना के साथ विकास में आदिवासी जनता की सहभागिता से यहां की जनता के जीवन-यापन व रहन-सहन में आश्चर्य जनक परिवर्तन होगा। यहां की 80 प्रतिशत ग्रामीण आबादी गरीबी रेखा के नीचे जीवनश्यापन करती है।

निःसंदेह औद्यौगिक विकास जनता के विकास से मूल रूप से जुड़ा है किंतु यह बस्तर की जनता के चहुंमुखी विकास के साथ-साथ सांस्कृतिक विरासत की सुरक्षा, जल, जंगल, जमीन की पर्यावर्णीय सुरक्षा से भी इतना ही गंभीर रूप से जुड़ा यक्ष प्रश्न है। पूंजीवादी अर्थतंत्रीय विकास में सिर्फ आर्थिक विकास को महत्व देने से पूंजीपतियों के मुनाफे में कई गुना इज़ाफा होती है, साथ ही उसी अनुपात में अमीरी व ग़रीबी की खाई को भी चैड़ी होती है, पूंजीवादी व्यवस्था का चरित्र है। औद्यौगिक विकास में प्रषासनिक तंत्रो द्वारा सामाजिक न्याय को अनदेखी करना तो आम बात है।

बस्तर के औद्यौगीकरण में विस्थापन को यथासंभव न्यूनतम किया जावे, परियोजनायें शासकीय भूमि, बंजर भूमि में स्थापित की जावे, साथ ही विस्थापन से प्रभावित परिवारों को आर्थिक मुआवजों के साथ अतिरिक्त लाभ दिया जावे। उनके परिवार के सदस्यों को नौकरी दी जावे, प्रस्तावित उद्योगों में उन्हें शेयरधारी बनाया जावे।

प्रभावित परिवार के बच्चों का शिक्षण-प्रशिक्षण व पूरे परिवार के चिकित्सीय सुविधा का इंतजाम किया जाये। स्थानीय बेरोजगारों को नौकरी दी जावे तथा बस्तर से प्राप्त रायल्टी को बस्तर के विकास में ही लगाया जावे। औद्यौगीकरण में कृषि भूमि भी हस्तगत की जावेगी, जिससे कृषि योग्य ज़मीन का रकब़ा घटेगा, जिससे धान के उत्पादन में कमी होगी जो पहले ही कम सिंचाई, निरंतर कम होती जा रही मानसूनी बारिश से प्रभावित है। उद्योगों को अधिक मात्रा में जल आपूर्ति से खेती के लिए पानी की कमी तथा पेय जल संकट भी होगा।

पूंजीवाद में आर्थिक विकास को सामाजिक आर्थिक विकास का आधार माना जाता है। जहां भी औद्यौगीकरण हुआ है वहां के निवासियों को इसकी कीमत चुकानी पड़ी है। औद्यौगीकरण अपनें साथ पर्यावरण प्रदूषण भी लाता है जो नाना प्रकार के असाध्य बिमारियों को जन्म देता है। ग्लोबल वार्मिंग तो होगी ही। बस्तर के औद्यौगीकरण से क्षेत्र की आबोहवा निश्चित रूप में प्रभावित होगी। जल-प्रदूषण, वायु-प्रदूषण, मृदा-प्रदूषण और ध्वनि-प्रदूषण होगा और यहां के मानव-जीवन, वन्य-जीवन और वनस्पति जगत को प्रभावित करेगा, जो उनके वर्तमान जीवन के तौर-तरीके को बदल देगा।


यह बेहतर आर्थिक स्तर के साथ-साथ बदतर स्वास्थ्य संबंधी वातावरण को आमंत्रित करेगा। प्रकृति से संतुलित संबंध होना ही मानव जीवन की प्राथमिक आवश्यकता है। प्रकृति का असंतुलन मानव स्वास्थ्य को प्रभावित करता है। अतः पर्यावरण की सुरक्षा भी बस्तर के विकास से गहन रूप से जुड़ा है। बस्तर के विकास की योजना बनाते समय शासन को पर्यावरण विदों की राय को विशेष महत्व देना होगा। प्राकृतिक संपदाओं का दोहन, ऐसा नहीं होना चाहिये कि वह मानव स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह हो। यदि प्रकृति के साथ छेड़छाड़ किया जायेगा तो प्रकृति हमारे खिलाफ काम करेगी।

बस्तर में टाटा का स्टील प्लांट, एस्सार स्टील प्लांट, और एन.एम.डी.सी. के स्टील प्लांट के लगने से मानव जीवन, प्राणी-जगत, मत्स्यों का जीवन, भू-जल स्तर, जमीन की उर्वरकता व गुणवत्ता तथा जल-उपलब्धता प्रभावित होगी। इंद्रावती व उसकी सहायक नदियों में उद्योगों का पानी छोड़ा जायेगा। जिससे उनका पानी प्रदूषित होगा। शबरी नदी का पानी उद्योगो को पानी देने के लिए अनुबंधित हुआ है, जिससे आम जनता के लिए पेय-जल, सिंचाई व दैनिक उपयोग (निस्तारी) के लिए जल-उपलब्धता कम होगी।

बड़े उद्योगो के साथ-साथ सहायक उद्योगो के आने से ज्यादा तादात में वनों में पेड़ो की कटाई होगी जिससे पर्यावरण संतुलन गंभीर रूप से प्रभावित होगा। इंद्रावती नदी में जोरा नाला के कारण पानी का प्रवाह वैसे ही कम होता है, और जगदलपुर वासियों के लिए पानी के बारे में शासन चिंतित रहता है। उद्योगो के लगने से आबादी बढ़ेगी और इंद्रावती नदी से जल खपत बढ़ जायेगी। इससे अन्य क्षेत्रो में उससे जल की उपलब्धता कम हो जायेगी। उद्योगो के लगने से यातायात व परिवहन बढ़ेगा जिससे वायुमंडल में कार्बन-डाईआक्साईड का उत्सर्जन बढ़ेगा जिससे न सिर्फ वायु प्रदूषित होगी बल्कि स्थानीय तापमान बढ़ेगा, ग्लोबल-वार्मिंग होगी।

पर्यावर्णीय असंतुलन प्राकृतिक संतुलन को असंतुलित करेगा जिसका प्रभाव जन-जीवन पर गंभीर रूप से पड़ेगा। अतः उद्योगो के लगने से प्रभावित होने वाली सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, पर्यावर्णीय, जन-जीवन, वन्य-जीवन, प्राणी-जीवन, मत्स्य-जीवन, जल, मृदा, वायुमंडल, आदि पर विशेषज्ञो, पर्यावरण विदों की रिपोर्ट आने के बाद उद्योग लगाने की इजाज़त दी जानी चाहिए। साथ ही पर्यावरण सुरक्षा हेतु देश में बने वर्तमान कानूनों का संज़ीदग़ी से अमल होना चाहिए। तभी बस्तर वासियों का कल्याण होगा। हर हालत में आदिवासियों का शोषण रोकना सर्वोपरि होना चाहिए यही सामाजिक न्याय का तक़ाज़ा है।

(लेखक भारतीय कम्युनिस्ट के राज्य परिषद के सचिव है।)