Saturday, December 5, 2009

आतंक से कैसे लड़ें?

सुभाष धूलिया

पाकिस्तान आज दुनिया के सबसे खतरनाक क्षेत्र के रुप में उभर चुका है। नाभिकीय हथियारों से लैस यह देश भीतर और बाहर हर तरफ संकट से घिरा है और यहाँ हर घटनाक्रम भारत को गंभीर रुप से प्रभावित करता है। भारत का राजनीतिक नेतृत्व हमेशा से ये कहता रहा है कि एक स्थिर और संपन्न पाकिस्तान ही भारत के हित में है। लेकिन आज पाकिस्तान राष्ट्र का भटकाव गहरे से गहरा होता चला गया है तो इस बदलते घटनाक्रम को संबोधित करने में भारतीय विदेश नीति एक कदम आगे रहने की बजाय एक कदम पीछे रहती ही अधिक प्रतीत हो रही है।

मुंबई पर आतंकवादी हमलों के उपरांत पाकिस्तान किनारे पड़ गया था और इसे अपने आप को पाक-साफ बताने में एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ा था। आज इन आतंकवादी हमलों को महज 11 महीने बीते हैं लेकिन पाकिस्तान ने आक्रमक रुख अपना लिया है। पाकिस्तान उल्टे भारत पर आतंकवाद भड़काने का आरोप लगा रहा है और ये आरोप लगाने में पाकिस्तान के मंत्री तक शामिल हैं। निश्चय ही 2611 के हमलों के उपरांत के दवाब को झेलना पाकिस्तान को भारी पड़ा था और भारत ने इस दौरान दवाब की कूटनीति का सहारा लिया था जिससे दोनों देशों के बीच एक दरार पैदा हुई। 26य11 के बाद से भारत ने पाकिस्तान के साथ कोई वार्ता करने से इंकार कर दिया और पाकिस्तान से आतंकवाद से लड़ने में सच्चाई और इमानदारी का परिचय देने को कहा। इस सवाल पर पाकिस्तान हमेशा ही संदेह के घेरे में रहा है और अमेरिका अफगानिस्तान और ईरान तक ने इस मसले पर पाकिस्तान की ईमानदारी पर सवाल उठाये हैं।

निश्चय ही भारत ने कश्मीर में पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के काऱण बहुत जख्म झेले हैं। लेकिन आज इस बात का मूल्यांकन करना भी जरूरी हो जाता है कि पाकिस्तान के भारत-विरोधी आतंकवाद में तब से लेकर अब तक क्या परिवर्तन आये है। आज पाकिस्तान पर आतंकवादियों ने एक तरह से पूरा आक्रमण कर दिया है। दक्षिणी वजीरिस्तान में अमेरिका के दवाब के चलते पाकिस्तानी सेना को इस्लामी उग्रवाद और आतंकवाद के खिलाफ एक पूरा युद्द छेड़ देना पड़ा है। इस युद्ध में भले ही इसमें पाकिस्तान के सैनिक विजय हासिल कर रहे हों लेकिन इसका एक परिणाम यह भी हुआ है कि आतंकवाद इस क्षेत्र में अपने गढ़ों से निकलकर पूरे पाकिस्तान में फैल गया है।और इसके साथ ही कश्मीर से लेकर काबुल तक तमाम आतंकवादी संगठनों ने एक आतंक का तंत्र कायम कर लिया है। सीमाविहीन इस ताकत की विनाशकारी क्षमता में बेमिसाल वृद्धि हुई है। लेकिन आतंकवाद के शिकार देश, अमेरिका और पाकिस्तान के सैनिक अभियान अभी तक इस आतंकी तंत्र को ध्वस्त करने के कहीं करीब तक नहीं पहुंच पाये हैं।

इसके अलावा पाकिस्तान का आंतरिक संकट भी गहरा ही नहीं जटिल होता जा रहा है। भ्रष्टाचार के पुराने आरोपों के फिर से सतह पर आने के कारण राष्ट्रपति जरदारी राजनीतिक रूप से किनारे पड़ते जा रहे हैं और अपनी सत्ता को बनाये रखने के लिए अधिकाधिक अमेरिका पर निर्भर होते जा रहे हैं। यह निर्भरता यहां तक बढ़ गयी है कि जब अमेरिका ने पाकिस्तान के लिए डेढ़ अरब डॉलर की विशाल सहायता राशि मंजूर की तो यह भी शर्त लगा दी कि इसके लिए पाकिस्तानी सेना और खुफिया ऐजेंसी आईएसआई को यह प्रमाणपत्र देना होगा कि वे आतंकवाद से लड़ने के लिए कठोर कदम उठाएंगे और परमाणु अप्रसार के लिये वचनबद्ध हैं।

सच्चाई जो भी हो लेकिन पाकिस्तान में आम धारणा यह पैदा हुई है कि अमेरिका की इस शर्त के पीछे जरदारी का हाथ है और इस तरह वे पाकिस्तानी सेना प्रतिष्ठान पर अंकुश लगाना चाहते हैं। जरदारी ने खुफिया ऐजेंसी आईएसआई को सेना से अलग करने का भी प्रस्ताव दिया था। अमेरिकी शर्तों को लेकर पाकिस्तानी सैनिक कमांडरों की एक बैठक के बाद इस पर चिंता व्यक्त करते हुए एक सार्वजनिक बयान जारी किया गया। इससे स्पष्ट हो जाता है कि जरदारी के राजनीतिक नेतृत्व और सैनिक प्रतिष्ठान के बीच एक तरह का टकराव पैदा हो रहा है।

आज अफगानिस्तान में अमेरिका की सैनिक उपस्थिति और पाकिस्तान की नकेल अमेरिका के हाथ में होने के कारण पाकिस्तानी सेना के लिए जरदारी का तख्ता पलटना वैसा आसान नहीं रह गया है जैसा कि पाकिस्तान का इतिहास रहा है। लेकिन इन सबके चलते जरदारी सरकार के प्रभाव पर तो गहरा असर पड़ा है। भले ही अफगानिस्तान में करजई सरकार की तरह यह अमेरिका की पिठ्ठू सरकार का रूप धारण नहीं कर पायी हो लेकिन राजनीति में सैनिक प्रतिष्टान के दबदबे को देखते हुए लगता है कि जरदारी सरकार अपने अस्तित्व को बनाये रखने के लिये अधिकाधिक अमेरिका पर निर्भर होती जा रही है।

इस वक्त पाकिस्तान को समझना और इसके प्रति कोई स्पष्ट नीति तय कर पाना आज जितना जठिल है इतिहास में इससे पहले कभी नहीं था। इस अमेरिकापरस्ती के समांतर पाकिस्तान अपने परंपरागत सामरिक सहयोगी चीन से भी नए रिश्ते कायम कर रहा है। अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा अगले सप्ताह चीन की यात्रा पर जा रहे हैं और उनके ऐजेंडे में सबसे महत्वपूर्ण भारत और पाकिस्तान-अफगानिस्तान के प्रति चीन के रुख पर बातचीत करना है। चीन ने इस यात्रा के ठीक पहले पाकिस्तान को अत्याधुनिक विमान बेचने का बड़ा सौदा ही नहीं किया बल्कि एक ऐसी सैनिक प्रोद्योगिकी भी देने जा रहा है जिसे अमेरिका ने पाकिस्तान को देने से साफ इंकार कर दिया था। चीन ने अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी की मांग की है जबकि भारत ने स्थायित्व कायम किए बिना इस तरह वापसी का रास्ता न अपनाने को कहा है।

ओबामा की अगले सप्ताह चीन की यात्रा और 24 नवंबर को भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अमेरिका यात्रा के संदर्भ में इस भूभाग में नए समीकरण उभर रहे हैं। निश्चय ही यह भूभाग दुनिया की दो बड़ी ताकतों के बीच के संघर्ष का केन्द्र बन रहा है और इस भूभाग के स्थायित्व से भारत का गहरा संबंध है। अफगानिस्तान युद्ध को एक ऐसे युद्द का दर्जा दिया जा चुका है जिसे अमेरिका के लिए जीत पाना संभव नहीं है फिर ऐसे में चीन की भूमिका का मूल्यांकन करना भी जरूरी हो जाता है।

भारत के करीब इस भूभाग में जब इस तरह के सामरिक समीकरण उभर रहे हों तो यह भी जरूरी हो जाता है कि भारतीय विदेश नीति कश्मीर के आंतकवाद को लेकर पाकिस्तान की भूमिका से पनपी मानसिकता से अपने आप को मुक्त करे और आतंकवाद के खिलाफ संघर्ष को नए परिपेक्ष्य में देखे और इसके क्षेत्रीय ही नहीं बल्कि वैश्विक चरित्र का भी मूल्यांकन करे। 26य11 हमलों के बाद से भारत ने पाकिस्तान के साथ किसी भी वार्ता से इंकार कर दिया था और यही शर्त थी कि भारत-विरोधी आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई के लिए पाकिस्तान अपनी सच्चाई और ईमानदारी साबित करे। जाहिर है कि इस तरह के रुख को किसी भी पैमाने पर नापा नहीं जा सकता लेकिन जब पाकिस्तान पर भी आतंकवाद ने एक पूरी तरह से हमला बोल दिया है तो एक नई स्थिति पैदा हो गई है और अब पाकिस्तान को कश्मीरी आतंकवाद के कटघरे से बाहर निकालकर एक व्यापक दृष्टि से देखना जरुरी है। तमाम खुफिया ऐजेंसिया आज इसी ओर संकेत कर रही हैं कि 26/11 जैसा हमला फिर हो सकता है और अगर ऐसा होता है तो फिर भारत के पास क्या विकल्प होंगे? मौजूदा परिस्थितियों में पाकिस्तान पर किसी भी तरह के हमले का विकल्प निरर्थक और विनाशकारी होगा जिसकी कुछ हलकों में 26/11 के बाद वकालत की गई थी।
ऐसे में यह सवाल पैदा होता है कि पाकिस्तान पर दवाब की कूटनीति को कब तक जारी रखा जाए और आज इस बात का मूल्यांकन करना जरूरी हो जाता है कि पाकिस्तान के साथ वार्ता के सारे रास्ते बंद करके भारत को क्या मिला है? भारत के इस तरह के रुख से पाकिस्तान में एक असुरक्षा की भावना पैदा होती है और भारत-विरोधी उन्माद का माहौल पैदा होता है जिसका इस्तेमाल हमेशा ही संकटग्रस्त हर पाकिस्तानी सत्ता करती रही है और आज सरदारी सरकार भी यही करती प्रतीत होती है।

हाल ही में भारत के राजनीतिक नेतृत्व ने स्पष्ट संकेत दिए हैं कि पाकिस्तान के साथ वार्ता की प्रक्रिया को शुरु किया जाना चाहिए और कश्मीर जैसे विवादित मसलों पर पहले जो समझदारी पैदा हुई थी उसे आगे बढ़ाने की जरूरत है। यह सकारात्मक संकेत हैं और आज की परिस्थितियों मे भारतीय विदेश नीति को पाकिस्तान से अलग-थलग रखने की बजाय उसे बातचीत के मंच पर लाने पर केन्द्रित करना होगा। ऐसा करने पर भारत की ओर से पैदा होने वाली असुरक्षा से पाकिस्तान के अमेरिका या चीन परस्ती के रास्ते पर जाने से भारत के हितों को ही अधिक पहुंचेगा। और इस भूभाग में संकटग्रस्त और सामरिक समीकरणों के केन्द्र में फंसे पाकिस्तान को प्रभावित करने की भारत की क्षमता और भूमिका सीमित होगी। आज यह भूभाग बड़ी शक्तियों के संघर्ष का केन्द्र बन रहा है और ऐसे में भारत को इस घटनाक्रम को प्रभावित करने की अपनी क्षमता के विस्तार की जरूरत है इसलिए ऐसे रास्तों का निर्माण करना होगा कि इस संघर्ष से संबंधित हर संभावित पक्ष से बातचीत के रास्ते खुले रखे जाएं।

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