बस्तर में औद्योगिकीकरण, पर्यावरण सुरक्षा और समस्याएँ
सी.एल.पटेल
बस्तर संभाग देश के सर्वाधिक पिछड़े क्षेत्रो में से एक है। आदिवासी बहुल यह क्षेत्र, देश में नक्सल प्रभावित समस्याग्रस्त क्षेत्र के रूप में भी जाना जाता है। आज़ादी के बाद इस क्षेत्र के सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक, स्वास्थ्य सेवा विकास, यातायात सुविधा कृषि संवर्धन, सिंचाई व औद्यौगीकरण के लिए केन्द्र व राज्य सरकार द्वारा आबंटित राशि भ्रष्टाचार के मुख में न समा गया होता तो आज क्षेत्र की तस्वीर अलग होती। भ्रष्टाचार, आदिवासियों का शोषण और उनका पिछडापन वहां नक्सलवाद पनपने के कारणों में से एक है।
खनिज व वन संपदा से भरपूर कृषि व औद्यौगिक विकास की प्रचुर संभावनायें हैं। सन् 1984 की सातवीं पंचवर्षीय योजना में बस्तर के विकास हेतु ‘‘बस्तर डेव्हलपमेंट प्लान’’ बना था, करोड़ों रूपयों का बजट प्लान था, कितनी ही योजनाएं आई और गई किंतु उसका लाभ बस्तर को नहीं पहुंचा, भ्रष्टाचारियों ने इसे डकार लिया। विकास के नाम पर कागजों में खानापूर्ती हो रही है यह कहें तो अतिषयोक्ति नहीं होगी।
बस्तर में उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों का सुनियोजित नियंत्रित दोहन, वनोपज पर आधारित उद्योग, हस्तषिल्प तथा लघु, मझोले, व बड़े उद्योगों का अधोसंरचना के साथ विकास में आदिवासी जनता की सहभागिता से यहां की जनता के जीवन-यापन व रहन-सहन में आश्चर्य जनक परिवर्तन होगा। यहां की 80 प्रतिशत ग्रामीण आबादी गरीबी रेखा के नीचे जीवनश्यापन करती है।
निःसंदेह औद्यौगिक विकास जनता के विकास से मूल रूप से जुड़ा है किंतु यह बस्तर की जनता के चहुंमुखी विकास के साथ-साथ सांस्कृतिक विरासत की सुरक्षा, जल, जंगल, जमीन की पर्यावर्णीय सुरक्षा से भी इतना ही गंभीर रूप से जुड़ा यक्ष प्रश्न है। पूंजीवादी अर्थतंत्रीय विकास में सिर्फ आर्थिक विकास को महत्व देने से पूंजीपतियों के मुनाफे में कई गुना इज़ाफा होती है, साथ ही उसी अनुपात में अमीरी व ग़रीबी की खाई को भी चैड़ी होती है, पूंजीवादी व्यवस्था का चरित्र है। औद्यौगिक विकास में प्रषासनिक तंत्रो द्वारा सामाजिक न्याय को अनदेखी करना तो आम बात है।
बस्तर के औद्यौगीकरण में विस्थापन को यथासंभव न्यूनतम किया जावे, परियोजनायें शासकीय भूमि, बंजर भूमि में स्थापित की जावे, साथ ही विस्थापन से प्रभावित परिवारों को आर्थिक मुआवजों के साथ अतिरिक्त लाभ दिया जावे। उनके परिवार के सदस्यों को नौकरी दी जावे, प्रस्तावित उद्योगों में उन्हें शेयरधारी बनाया जावे।
प्रभावित परिवार के बच्चों का शिक्षण-प्रशिक्षण व पूरे परिवार के चिकित्सीय सुविधा का इंतजाम किया जाये। स्थानीय बेरोजगारों को नौकरी दी जावे तथा बस्तर से प्राप्त रायल्टी को बस्तर के विकास में ही लगाया जावे। औद्यौगीकरण में कृषि भूमि भी हस्तगत की जावेगी, जिससे कृषि योग्य ज़मीन का रकब़ा घटेगा, जिससे धान के उत्पादन में कमी होगी जो पहले ही कम सिंचाई, निरंतर कम होती जा रही मानसूनी बारिश से प्रभावित है। उद्योगों को अधिक मात्रा में जल आपूर्ति से खेती के लिए पानी की कमी तथा पेय जल संकट भी होगा।
पूंजीवाद में आर्थिक विकास को सामाजिक आर्थिक विकास का आधार माना जाता है। जहां भी औद्यौगीकरण हुआ है वहां के निवासियों को इसकी कीमत चुकानी पड़ी है। औद्यौगीकरण अपनें साथ पर्यावरण प्रदूषण भी लाता है जो नाना प्रकार के असाध्य बिमारियों को जन्म देता है। ग्लोबल वार्मिंग तो होगी ही। बस्तर के औद्यौगीकरण से क्षेत्र की आबोहवा निश्चित रूप में प्रभावित होगी। जल-प्रदूषण, वायु-प्रदूषण, मृदा-प्रदूषण और ध्वनि-प्रदूषण होगा और यहां के मानव-जीवन, वन्य-जीवन और वनस्पति जगत को प्रभावित करेगा, जो उनके वर्तमान जीवन के तौर-तरीके को बदल देगा।
यह बेहतर आर्थिक स्तर के साथ-साथ बदतर स्वास्थ्य संबंधी वातावरण को आमंत्रित करेगा। प्रकृति से संतुलित संबंध होना ही मानव जीवन की प्राथमिक आवश्यकता है। प्रकृति का असंतुलन मानव स्वास्थ्य को प्रभावित करता है। अतः पर्यावरण की सुरक्षा भी बस्तर के विकास से गहन रूप से जुड़ा है। बस्तर के विकास की योजना बनाते समय शासन को पर्यावरण विदों की राय को विशेष महत्व देना होगा। प्राकृतिक संपदाओं का दोहन, ऐसा नहीं होना चाहिये कि वह मानव स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह हो। यदि प्रकृति के साथ छेड़छाड़ किया जायेगा तो प्रकृति हमारे खिलाफ काम करेगी।
बस्तर में टाटा का स्टील प्लांट, एस्सार स्टील प्लांट, और एन.एम.डी.सी. के स्टील प्लांट के लगने से मानव जीवन, प्राणी-जगत, मत्स्यों का जीवन, भू-जल स्तर, जमीन की उर्वरकता व गुणवत्ता तथा जल-उपलब्धता प्रभावित होगी। इंद्रावती व उसकी सहायक नदियों में उद्योगों का पानी छोड़ा जायेगा। जिससे उनका पानी प्रदूषित होगा। शबरी नदी का पानी उद्योगो को पानी देने के लिए अनुबंधित हुआ है, जिससे आम जनता के लिए पेय-जल, सिंचाई व दैनिक उपयोग (निस्तारी) के लिए जल-उपलब्धता कम होगी।
बड़े उद्योगो के साथ-साथ सहायक उद्योगो के आने से ज्यादा तादात में वनों में पेड़ो की कटाई होगी जिससे पर्यावरण संतुलन गंभीर रूप से प्रभावित होगा। इंद्रावती नदी में जोरा नाला के कारण पानी का प्रवाह वैसे ही कम होता है, और जगदलपुर वासियों के लिए पानी के बारे में शासन चिंतित रहता है। उद्योगो के लगने से आबादी बढ़ेगी और इंद्रावती नदी से जल खपत बढ़ जायेगी। इससे अन्य क्षेत्रो में उससे जल की उपलब्धता कम हो जायेगी। उद्योगो के लगने से यातायात व परिवहन बढ़ेगा जिससे वायुमंडल में कार्बन-डाईआक्साईड का उत्सर्जन बढ़ेगा जिससे न सिर्फ वायु प्रदूषित होगी बल्कि स्थानीय तापमान बढ़ेगा, ग्लोबल-वार्मिंग होगी।
पर्यावर्णीय असंतुलन प्राकृतिक संतुलन को असंतुलित करेगा जिसका प्रभाव जन-जीवन पर गंभीर रूप से पड़ेगा। अतः उद्योगो के लगने से प्रभावित होने वाली सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, पर्यावर्णीय, जन-जीवन, वन्य-जीवन, प्राणी-जीवन, मत्स्य-जीवन, जल, मृदा, वायुमंडल, आदि पर विशेषज्ञो, पर्यावरण विदों की रिपोर्ट आने के बाद उद्योग लगाने की इजाज़त दी जानी चाहिए। साथ ही पर्यावरण सुरक्षा हेतु देश में बने वर्तमान कानूनों का संज़ीदग़ी से अमल होना चाहिए। तभी बस्तर वासियों का कल्याण होगा। हर हालत में आदिवासियों का शोषण रोकना सर्वोपरि होना चाहिए यही सामाजिक न्याय का तक़ाज़ा है।
(लेखक भारतीय कम्युनिस्ट के राज्य परिषद के सचिव है।)
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