Tuesday, December 15, 2009

मैत्री और प्रतिद्वंदता के बीच भारत-चीन

सुभाष धूलिया

भारत और चीन पिछले एक दशक के दौरान एक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से पैदा हुए संदेह और अविश्वास से उबरने की कोशिश कर रहे थे और दोनों देशों के बीच अनेक स्तरों पर वार्ताओं का सिलसिला चला और आर्थिक संबंधों, खास तौर पर व्यापार में बेमिसाल वृद्दि हुई। लेकिन अभी पिछले दिनों ही एक ऐसा माहौल पैदा हुआ मानों दोनों देशों के बीच कटुता ही नहीं आ गयी है बल्कि कहीं दूर युद्द के बादल भी दिखाई दे रहे हैं। हालांकि भारत और चीन दोनों के ही राजनैतिक नेतृत्व ने युद्ध की किसी भी संभावना से इंकार किया और साफ तौर पर कहा कि दोनों देशों के संबंधों में ऐसी कोई कटुता नहीं आई है और यह युद्ध का सारा उन्माद मीडिया की उपज भर है। निश्चय ही मीडिया और खासतौर पर टेलीविजन के विस्तार के बाद अनेक ऐसे अवसर आये हैं जब राष्ट्रीय सुरक्षा और विदेश नीति से संबंद्धित मुद्दों पर सरकार को अनावश्यक दवाब झेलना पड़ा है। ब्रह्मपुत्र नदी पर बांध बनाने के सवाल पर भी बवाल मचा लेकिन आधिकारिक स्तर पर चीन ने इस तरह के किसी भी बांध के निर्माण से इंकार किया है। लेकिन फिर भी इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि चन्द वर्षों पहले दोनों देशों के संबंधो में सुधार की जो प्रक्रिया शुरु हुई थी और जिसकी अभिव्यक्ति 2006 को भारत-चीन मैत्री वर्ष के रुप में मनाए जाने को हुई थी, वह आज कहीं न कहीं पारस्परिक संदेह और अविश्वास के घेरे में आ गयी है। 1962 के युद्द से ही भारतीय सोच में चीन के इरादों को लेकर हमेशा संदेह और अविश्वास रहा है और भले ही मीडिया ने उन्माद पैदा किया हो लेकिन लोगों के दिलोदिमाग ये कटु यादें फिर से ताजी हो गईं।

शीतयुद्द के दौरान भारत के सोवियत संघ से बहुत करीबी रिश्ते थे और इसके जवाब में चीन-पाकिस्तान-अमेरिका ने अपना गठजोड़ कायम कर लिया था। शीतयुद्ध खत्म होने पर नए सैनिक गठजोड़ों का महत्व कम हुआ और नए आर्थिक समीकरण पैदा हुए। इस नई विश्व व्यवस्था में भारत और चीन के संबंधों में भी गरमाहट आयी। लेकिन अमेरिका पर आतंकवादी हमलों के उपरांत दुनिया का राजनीतिक और सामरिक मानचित्र बदल गया और अमेरिका ने दुनिया पर सैनिक प्रभुत्व कायम करने का अभियान छेड़ दिया। अफगानिस्तान और इसके साथ-साथ पाकिस्तान में अमेरिका की सैनिक उपस्थिति से चीन आशंकित हुआ और इसी के समांतर भारत और अमेरिका के संबंधों का एक नया अध्याय शुरु हुआ- जिसके साथ ही भारत -चीन संबंधों के सुधारों की प्रक्रिया भी मंद पड़ने लगी।

अब इराक और अफगानिस्तान में अमेरिका के फंसने के बाद यह कहना मुश्किल हो गया है कि दुनिया किस ओर जायेगी । यह धारणा भी बलवती हो रही है कि इन देशों से अमेरिका के हटने से इसकी ताकत में भारी ह्रास होगा और दुनिया में एक नेतृत्वकारी और प्रभुत्वकारी ताकत के इस तरह ढलने के बाद जो शून्य उभरेगा उसकी भरपाई कहां से होगी और कौन करेगा? इस संदर्भ में बार-बार चीन की ओर ही देखा जाता है। चीन के इस तरह की शक्ति के रूप में उभरने के उपरांत एक नई विश्व व्यवस्था अस्तित्व में आएगी और इसमें भारत के स्थान को लेकर दोनों देशों के सामरिक हितों में अंतर्विरोध पैदा होगें।

हाल ही के वर्षों में चीन की आर्थिक ताकत में भारी वृद्दि हुई है और दुनिया भर में मंदी के बावजूद चीन में आर्थिक तरक्की की यह प्रक्रिया बदस्तूर जारी रही है। चीन पहले ही अमेरिका के बाद विश्व की दूसरे नंबर की आर्थिक ताकत बन चुका है। इस दौरान भारत की आर्थिक वृद्धि भी बेमिसाल रही। हालांकि चीन की तरह भारत रोजगार और कृषि से जुड़े अनेक मसलों का हल नहीं खोज पाया है और देश के भीतर अनेक टकराव भी बरकरार हैं तो कुछ नए तरह के टकराव भी पैदा हो रहे हैं। लेकिन फिर भी यह माना जाता है कि भारतीय अर्थतंत्र की वृद्धि की यह रफ्तार बनी रहेगी और कुछ वर्षों में भारत अमेरिका और चीन के बाद दुनिया की तीसरी आर्थिक शक्ति के रूप में उभरेगा। भारत के 30 करोड़ मध्यमवर्ग की क्रयशक्ति में लगातार विस्तार हो रहा है और जल्द ही यह यूरोपीय यूनियन से भी बड़े बाजार का रुप धारण कर लेगा।

चीन की तरह भारतीय अर्थतंत्र भी मंदी की मार को बखूबी झेलने में सफल रहा है। एक धारणा यह भी है कि मंदी अभी शांत भर हुई है और कभी भी उफन सकती है और भारत और चीन ही ऐसे देश हैं जिनकी अर्थव्यवस्था मंदी की मार झेलने में सक्षम है। ऐसे में जब दुनिया की अनेक आर्थिक ताकतें कमजोर पड़ेंगी तब भारत और चीन की आर्थिक ताकत उभार पर होगी। इसलिए यह दोनों देशों के लिए ही अच्छा होगा है कि ऐसा कुछ ना हो जिससे आर्थिक तरक्की की प्रक्रिया में बाधा पड़े। दुनिया पर जब संकट के नए बादल मंडरा रहे हैं और अमेरिकी ताकत के भविष्य को लेकर सवाल उठ रहे हैं तो दोनों देशों के हित में यही है कि वे अतीत के संदेह और अविश्वास से मुक्त होकर 2006 के मैत्री वर्ष की भावना पर ही आगे बढ़ें।

लेकिन चीन कहीं ना कहीं भारत की उभरती ताकत को स्वीकारने से कतराता ही नहीं रहा है बल्कि इसमें बाधाएं भी पैदा करता रहा है। इस कारण मैत्री की भावना पर समय समय पर चोट लगती रही है जिससे अतीत का संदेह और अविश्वास सतह पर आता रहा है। अमेरिका के साथ भारत के बढ़ते संबंधों को जहां चीन अपने आप को घेरने के रूप में देखता है वहीं पाकिस्तान के अलावा नेपाल,बांग्लादेश और म्यांमार में चीन की बढ़ती घुसपैठ एक तरह से भारत को घेरने का प्रयास ही है। विश्व के सामरिक मानचित्र पर दोनों देशों का टकराव साफ तौर पर देखा जा सकता है। भारत और अमेरिका के बीच नाभिकीय करार के बाद विश्व के नाभिकीय समुदाय में भारत के प्रवेश का चीन ने विरोध किया और सुरक्षा परिषद में विस्तार और भारत और जापान को इसमें शामिल किए जाने का भी चीन ने विरोध किया। कई मौकों पर चीन के दोहरे मानदंड रहे हैं- कथनी और करनी में अंतर रहा है जिससे संदेह और अविश्वास पैदा होना स्वाभाविक ही है।

चीन एक ऐसी विश्व व्यवस्था का सपना देखता है जिसमें अमेरिका ,यूरोपीय यूनियन, रूस और चीन ही शक्ति के स्तंभ हों। भारत की उभरती ताकत को इस शक्ति स्तंभ में शामिल होने का चीन किसी ना किसी रूप में विरोध और प्रतिरोध करता है। इसके अलावा एशिया में प्रभाव क्षेत्र को लेकर भी दोनों देशों के हितों का सामरिक टकराव है। इन तमाम कारणों से दोनों देशों के संबंधों के आर्थिक परिपेक्ष्य और सामरिक तानेबाने के बीच लागातर टकराव रहा है और मौजूदा विश्व व्यवस्था में यह टकराव और तेज हो रहा है।

इस पृष्ठभूमि में चीन की बढ़ती आर्थिक और सैनिक ताकत का भारत को सामना करना ही होगा। हालांकि अमेरिका के साथ नए सामरिक संबंधों को लेकर भारत का इरादा चीन को घेरने का नहीं है । लेकिन अमेरिका निश्चय ही भारत के साथ सामरिक सहयोग को चीन पर नकेल लगाने के रुप में ही देखता है। भारत और अमेरिका के बीच हाल ही के वर्षों में सैनिक सहयोग का विस्तार हुआ है। अफगानिस्तान-पाकिस्तान में अमेरिकी सैनिकों की उपस्थिति और भारत के साथ अमेरिका के सामरिक गठजोड़ को चीन संदेह की निगाह से देखता है। इस दृष्टि से भले ही हाल ही में दोनों देशों के बीच सैनिक तनाव मीडिया का बवंडर भर हो लेकिन वास्तविकता के धरातल पर निश्चय ही ऐसे समीरकरण उभर रहे हैं जो 2006 की मैत्री की भावना से मेल नहीं खाते हैं और टकराव के नए कारण पैदा हो रहे हैं और नए केन्द्र उभर रहे हैं। अनेक विकासशील क्षेत्रों में ऊर्जा संसाधनों को लेकर भी दोनों देशों के हित टकरा रहे हैं। दोनों देशों की उभरती अर्थव्यवस्था को ऊर्जा संसाधनों की भारी जरूरत है और इस कारण ऊर्जा टकराव तेज होना भी स्वाभाविक है।

इसके अलावा पाकिस्तान की स्थिति नाजुक बनी हुई है। आज पाकिस्तान अमेरिका के इतने जबर्दस्त सैनिक दवाब में है कि चीन की ओर उन्मुख होने की संभावनाएं सीमित हो गयी हैं। लेकिन अफगान युद्ध के भविष्य को लेकर इतने संदेह बने हुए हैं कि पाकिस्तान क्या करवट लेगा यह कहना भी मुश्किल है। अफगानिस्तान-पाकिस्तान क्षेत्र से अगर अमेरिका को हटना पड़ा तो ऐसी सत्ताएं अस्तित्व में आ सकती हैं जो भारतीय हितों के लिए गंभीर चुनौती पेश करें और इनका इस्लामी उग्रवाद अमेरिका पर केन्द्रित न हो क्योंकि सिर्फ इस स्थिति में अमेरिका के अफगानिस्तान से लौटने की संभावनाएं पैदा होती हैं।अफगानिस्तान में उदार तालिबान के उदय की बातें की जा रही हैं और यह कहना मुश्किल है कि उदार तालिबान भारत के लिए भी उदार होगा और पाकिस्तान के साथ मिलकर भारत-विरोधी गठजोड़ कायम नहीं करेगा। और, आज चीन ने भारत के प्रति जो रुख अपनाया हुआ है उसे देखते हुए चीन इस तरह की सत्ताओं से गठजोड़ कायम करने से नहीं कतराएगा चाहे इनका चरित्र कैसा भी क्यों न हो। चीन की विदेश और सामिरक नीतियों में हमेशा से एक तरह का अवसरवाद हावी रहा है और चीन ने ऐसी सत्ताओं के साथ गठजोड़ कायम किए हैं जो इसके घोषित समाजवादी आदर्शों से कहीं से भी मेल नहीं खाते हैं।

इस तरह की स्थिति में अगर चीन फिर से इसी तरह के अवसरवाद का सहारा लेता है और एशिया के इस भूभाग में भारत-विरोधी गठजोड़ कायम करता है या इनमें साझेदार बनता है, तो निश्चय ही दोनों देशों के संबंधों पर आर्थिक सहयोग की जगह सैनिक परिपेक्ष्य हावी हो जायेगा। इस तरह की चुनौतियों का सामना करने के लिए भारत को भी नए सामरिक समीकरणों की जरूरत होगी जिसमें अमेरिका की केन्द्रीय भूमिका होने के ही सबसे प्रबल संकेत हैं।

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