सुभाष धूलिया
दुनिया का आर्थिक मानचित्र बदल रहा है. विश्व अर्थव्यवस्था पर लम्बे समय तक के उन्नत आद्योगिक देशों के प्रभुत्व का लगभग अंत आ गया है और एक नए प्रभुत्वकारी गुट का उदय हुआ है जिनमें भारत, चीन, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका जैसी उभरती आर्थिक ताकतें शामिल हैं. एशिया के 1999 के वित्तीय भूचाल ने मलेशिया जैसे एशियायी टाइगर्स को हिला कर रख दिया था और अगर और गहरा होता तो पूरे विश्व को ही संकट के दलदल में फँस सकता था. इस संकट के उपरांत सात औदौगिक देशों का गुट बना था जिसमें अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस , जर्मनी, इटली, कनाडा और जापान शामिल थे और बाद मैं इसमें रूस को भी शामिल कर इसे आठ का गुट बना दिया गया था. इस बार जब 2008 में और भी बड़ा वित्तीय संकट आया तो आठ के गुट को लगा की दुनिया की अर्थव्यस्था को संभाले रखना इस गुट के बस में नहीं रह गया है इसलिए भारत और चीन जैसी उभरती आर्थिक ताकतों को भी शामिल कर अब बीस देशों का गुट बना दिया गया है और इस गुट के देशों मैं दुनिया के दो तिहाई लोग बसतें हैं, 80 प्रतिशित विश्व व्यापर पर इनका नियंत्रण है और लगभग 85 प्रतशित सकल घरलू उत्पादन इन्ही देशों का है - इसका मतलब ये भी है की नयी व्यवस्था मैं भले ही उभरती ताकतों को शामिल कर दिया गया है पर मानव सभ्यता के एक बड़े हिस्से को बहार भी रख दिया गया है.
जाहिर है की इस मंदी के महामंदी में बदलने से रोकने के लिए ही इन उभरती आर्थिक ताकतों को साथ लिया गया है. बूढे शेर ने जवान चीत्ते को साथ लेकर आर्थिक जंगल मैं अपना राज कायम रखने का रास्ता अपनाया है. पर इस रूप में यह एक बड़ा परिवर्तन है की अब दुनिया का आर्थिक शक्ति संतुलन बदल गया है और विश्व आर्थिक व्यवस्था के प्रबंध और संचालन का जिम्मा बीस के गुट के हाथ मैं आ गया है और आठ का गुट अब गैर-आर्थिक मुद्दों तक ही सिमित रहेगा यानि गपशप का काफीहाउस बन कर रह जायेगा . इसी के अनुरूप अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष मैं भी अब नयी आर्थिक ताकतों को अधिक हिस्सा दे दिया गया है जो एक नहीं विश्व आर्थिक व्यवस्था के उदय को प्रतिबिंबित करता है.
लेकिन बुनियादी सवाल यह उठता है की क्या आठ को बीस कर देने से बार बार आने वाले वित्तीय संकटों पर काबू पाया जा सकता है. दुनिया के अनेक प्रमुख अर्थशास्त्रियों ने कहा है की मंदी पर अभी एक नियंत्रण भर किया गया है और अभी वे कारण ज्यों के त्यों बने हुए हैं जिनसे मंदी आई थी. यहं तक कहा गया है की आज भी हालत वैसे ही हैं जैसे मंदी से पहले 2007 में थे . बार बार यह सवाल उठ रहा ही की मौजदा आर्थिक व्यवस्था मैं मौलिक परिवर्तन किये बिना किसी तरह का स्थायित्व हासिल नहीं किया जा सकता है. दरअसल मुक्त अर्थ व्यवस्था की पूरी तरह बाज़ार की शक्तिओं के हवाले के देने से वित्तीय अर्थव्यवस्था का उदय हुआ है और ये एक एस व्यवस्था है कोई उत्पादन नहीं करती बस यहाँ का पैसा वहां डालकर अरबों-खरबों का मुनाफा बटोरती है. यह पूँजी एक तूफ़ान की तरह दुनिए मैं दौड़ पड़ती है औए अपने पीछे आर्थिक विनाश के अवशेष छोड़ती चली जाती है. एशियायी टाइगर्स के आर्थिक संकट के बाद मलेशिया के तत्कालिन प्रधानमंत्री महातिर ने कहा था की जिस अर्थ व्यवस्था की बनाने मैं हमें 40 वर्ष लगे , एक सट्टेबाज आया और 40 घंटों मैं इसे तबाह कर चला गया. उनका एब कथन वित्तीय अर्थ व्यवस्था में निहित कमजोरिओं का साफ तौर से व्यक्त करता है . 2008 के संकट पर काबू पाने के लिए खुद मुक्त व्यवस्था के सबमे बड़े झंडाबरदार अमेरिका में सरकार को हस्तक्षेप करना पड़ा था और अरबों डॉलर का पैकेज देकर संकट को काबू मैं किया था. ये एक ऐसी स्थति थी की वित्तीय संस्थाओं ने सट्टेबाजी की और तुरत मुनाफा कामने के लिए खुल कर कर्जे दिया और जब संकट आया तो जनता के पैसे से इन्हें संकट से उभरा गया. अमेरिका की एक बड़ी और पुरानी विनिवेश कंपनी लहमान्न ब्रदर्स के दिवालिया होने पर नोबल पुरस्कार से समान्नित अर्थिशास्त्री जोसेफ स्तिग्लित्ज़ ने कहा था की यह उसी तरह पूंजीवाद का अंत है जिस तरह 1989 में बर्लिन की दीवार के ढहने से सोवियत समाजवाद का अंत हुआ था. इस संदर्भ में सवाल पैदा होता है की कहीं ऐसा तो नहीं की बीस का गुट बनाकर इस बात की अनदेखी की जा रही है की मौजूदा विश्व आर्थिक वस्थ्वा में कहीं कोई बुनियादी खोट है और इसे सम्बोधित किये बिना बार बार आने वाले आर्थिक संकटों से मुक्ति पाने का कोई वास्तविक प्रयास से बचा जा रहा है . ये भी सच है की हल की मंदी का जितना असर विकसित मुक्त अर्थव्यवस्था वाले देशों पर पड़ा था उसकी तुलना मैं भारत और चीन जैसे मिश्रित अर्थव्यवस्था वाले देश इस पर जल्द काबू पाने में सफल रहे और अगर ये मंदी एक महामंदी मैं तब्दील होती तो भी ये कहा जा सकता है की ये देश उस तरह के आर्थिक विनाश के शिकार नहीं होते जिस तरह इसका असर पशिमी देशों पर होता.
8 के 20 होने से निश्चय ही दुनिया मैं एक नयी आर्थिक व्यवस्था कायम हो गयी है और एक नया आर्थिक संतुलन पैदा हो गया है और विश्व अर्थतंत्र पर पश्चिमी देशों का एकाधिकार खत्म हो गया है लेकिन अभी यह देखा जाना बाकि है की 20 का गुट कैसे 8 के गुट से अलग विश्व की आर्थिक व्यवस्था का प्रबंध और संचालन करता है और आने वाले समय किस तरह के परिवर्तनों का रास्ता तैयार करता है . एक नए रास्ते के निर्माण के अभी कोई संकेत नहीं हैं और अभी तो एक नयी साझदारी भर पैदा हुयी है. 8 के गुट ने 12 के साथ हाथ तो मिला लिया है लेकिन अभी यह देखा जाना बाकि है की इन्हें आर्थिक मंदी के नकारात्मक परिणामों को झेलने के लिए साथ लिया गया है या फिर ऐसा कुछ होने जा रहा ही की विश्व अर्थव्यवस्था में निर्णय लेने में भी इन्हें प्राप्त रूप से साझीदार बनाया जाता है ताकि ये बीस का गुट कुछ बुनियादी परिवर्तनों का मार्ग प्रसस्थ कर सके.
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